Sunday, December 12, 2010

क्या राष्ट्रपति के रुप में राजेंद्र बाबू ने तोड़ी थी पद की मर्यादा?

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क्या वाकई भूत इतना विवादास्पद हो सकता है?
क्या राष्ट्रपति के रुप में राजेंद्र बाबू ने तोड़ी थी पद की मर्यादा?
भूत यानि बीता हुआ कल हमेशा ही अच्छा नहीं होता है। इसकी पुष्टि भारतीय इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। मसलन यदि हम सम्राट अशोक की ही बात करें तो यह एक सर्वविदित सत्य है कि अशोक ने गद्दी पाने के लिये अपने ही भाईयों की हत्या कर दी थी। इसी अशोक ने अपने जीवन में लाखों लोगों के रक्त बहाये। कलिंग के युद्ध के बाद की दास्तान तो आप सभी ने पढा होगा कि रणभूमि कें पड़े लाशों से निकले रक्त की धार देख अशोक का हृदय परिवर्तित हुआ और वे बुद्ध की शरण में आये। इसके बाद का इतिहास सम्राट अशोक के सकारात्मक दास्तानों से भरी पड़ी हैं।

भारत के इतिहास में ही जयचंद और मानसिंह जैसे लोगों के किस्से भी मौजूद हैं। इसी भारत के इतिहास में अंग्रेजों का काला अध्याय भी है जिसके बारे में कहा जाता है कि इन गोरे लोगों ने सोने की चिड़िया कहे जाने वाले इस देश को इस कदर लूटा कि आज यह विश्व के तमाम सभी गरीब देशों में अग्रणी स्थान रखता है। इसलिये इतिहास हमेशा ही अच्छा हो, यह जरूरी नहीं है। इसके अलावा एक और तथ्य जो हम भारत के लोगों में पायी जाती है वह है इतिहास को इतिहास नहीं मानना, बल्कि उसे आज की सामाजिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि के साथ जोड़कर देखना। इसका एक उदाहरण यह है कि आज के दौर में भी पुष्णमित्र शुंग और वृहतरथ का इतिहास कोई भी जानना नहीं चाहता है कि किस प्रकार पुष्णमित्र शुंग (ब्राह्मण) ने मौर्य साम्राज्य के वारिस वृहतरथ (शुद्र) की हत्या कर भारत की तत्कालीन राजनीति से शुद्रों को पदच्युत कर दिया था। आज भी राजपूतों को जयचंद और मानसिंह वाली बात मन में टीस पैदा कर जाती है। असल में हम भारतीय इतिहास को इतिहास मानते ही नहीं है जैसा यूरोप के देशों में होता है। अब हिटलर की तानाशाही यदि जर्मनी का एक इतिहास है तो जर्मनी के लोग इसे आज भी एक इतिहास मानते हैं और उसी स्वरुप में इसका अध्ययन भी करते हैं।

राजेंद्र बाबू के 126वीं जयंती के एक दिन बाद आज जब मैं उनके बारे में लिख रहा हूं तो इसके पीछे मेरे पास जो आधार है, वह है खुद राजेंद्र बाबू के हाथों से लिखी गई चिट्ठियां। इनकी कुछ चिट्ठियां मेरे पास प्रमाण के रुप में मौजूद हैं। इनमें से एक पत्र की छायाप्रति मैं आप सभी पाठकों के लिये बतौर सबूत रख रहा हूं। यकीन मानिये कल मेरे मन में स्थापित एक प्रतिमा दरकने लगी है या युं कहें कि दरक चुकी है। मन द्रवित है और लेखनी मजबूर है। मजबूर इसलिये क्योंकि अपना बिहार सच को सच लिखने के लिये प्रतिबद्ध है। मैं कोई दावा नहीं करना चाहता हूं उस व्यक्ति के बारे में जिसे देश ने देशरत्न की उपाधि दी है। मैं उस व्यकित को न तो रिश्वतखोर साबित करने का कोई कुत्सित प्रयास कर रहा हूं जिसे देश ने अपने प्रथम राष्ट्रपति के रुप में चुना। मैं उस मनीषी की सादगी की आलोचना नहीं करना चाहता हूं जिसकी सादगी की आज भी कसमें खायी जाती हैं। मेरा हृदय बैठा जाता है, मन में दुख है लेकिन एक विश्वास भी है। इस विश्वास की वजह यह है कि हमारे भारतीय संस्कृति में ही अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की नसीहत दी गई है।

दोस्तों कल मुझे मेरे एक मित्र ने राजेंद्र बाबू द्वारा लिखी गई कुछ पत्रों की प्रतियां भेजी। पहले तो मुझे उन पत्रों में ऐसा कुछ भी नहीं दिखा कि उनके संबंध में इतनी बड़ी भूमिका बनाकर लिखने की आवश्यकता है। लेकिन 5 नवंबर 1954 को राजेंद्र बाबू द्वारा राष्ट्रपति के पैड पर लिखा गया पत्र मुझे मजबूर कर रहा है कि मैं उसे आपके सामने रखूं। आप इस पत्र को देखने के लिये यहां क्लिक कर सकते हैं।

इस पत्र में राजेंद्र बाबू ने अपने अराध्य अध्यात्मिक गुरू को संबोधित किया है और अपने पारिवारिक एवं निजी परेशानियों के अलावा जो बातें देश के प्रथम नागरिक को अपने पास गुप्त रखना चाहिये था, उसे भी किसी बाहरी के साथ साझा किया है। मसलन राजेंद्र बाबू ने यह लिखा है कि पाकिस्तान में जो हालात पैदा हो गये हैं, उसके लिये क्या किया जाना चाहिये। इसके अलावा हम जैसे कम उम्र और कम बुद्धि वाले युवा पत्रकारों को तो कभी भी इसकी जानकारी ही नहीं थी कि कांग्रेसी होने के बावजूद राजेंद्र बाबू और जवाहरलाल नेहरू में 36 का आंकड़ा था। सारी हदें तो उस वक्त टूट जाती हैं, जब राजेंद्र बाबू खुद पंडित नेहरू के संबंध में अपने अध्यात्मिक गुरु से सलाह लेते हैं। क्या यह आचरण एक राष्ट्रपति को शोभा देता है?
कल जैसे ही पत्र की प्रतियां मुझे मिलीं और मैंने उन्हें देखा, मैं अपनी ही आंखों पर विश्वास नहीं कर पा रहा था। मैं पूरे दिन शहर के अनेक जाने-माने लोगों से मिला और मैंने यह जानने की कोशिश की कि आखिर राजेंद्र बाबू का इतिहास कैसा था? पहले तो लोगों ने मुझे इस संबंध में सकारात्मक बातें बताईं, लेकिन जैसे ही मैंने पत्रों की प्रतियों को सामने रखा, लोगों ने जो बताया, उसने मेरे होश उड़ा दिये। मैं इन लोगों का नाम जाहिर कर इन्हें विवादास्पद नहीं बनाना चाहता और न ही मैं कोई विवाद पैदा करना चाहता हूं। बल्कि मैं आपको वह बताना चाहता हूं वह जो मुझे जानने को मिलीं।

राजेंद्र बाबू सत्ता के लोभी थे। जानकार बताते हैं कि जब पहली बार बाबूजी को राष्ट्रपति बनाया गया तो जवाहरलाल नेहरु सबसे अधिक नाराज थे, लेकिन सरदार पटेल के समर्थन के कारण राजेंद्र बाबू देश के प्रथम राष्ट्रपति बन गये जबकि पंडित नेहरु राजगोपालाचारी जी को देश का राष्ट्रपति बनाना चाहते थे। दूसरी बार भी पंडित नेहरू डा एस राधाकृष्णन को राष्ट्रपति बनाना चाहते थे, लेकिन ऐन मौके पर मौलाना अबुल कलाम आजाद ने डा राधाकृष्णन का यह कहकर विरोध किया कि ये केवल एक शिक्षाविद हैं और राष्ट्रपति पद के काबिल नहीं हैं। इनके कारण राजेंद्र बाबू को दूसरी बार देश का राष्ट्रपति बनाया गया। जानकार तो यह भी बताते हैं कि राजेंद्र बाबू तीसरी बार भी देश का राष्ट्रपति बने रहना चाहते थे, लेकिन बिहार के ही एक बड़े कद्दावर कांग्रेसी नेता की मुहिम ने इनके मंसूबों पर पानी फ़ेर दिया और ये राष्ट्रपति भवन से बाहर हो गये।

राष्ट्रपति रहते हुए राजेंद्र बाबू ने पंडितों के पांव पखारे और इसके लिये इनकी बड़ी आलोचना भी हुई थी। लेकिन मैं मानता हूं कि यह किसी भी व्यक्ति का निजी आचरण हो सकता है। लेकिन एक बात जो मुझे परेशान कर रही है, वह है राष्ट्रपति पद का दुरुपयोग। प्राप्त पुख्ता जानकारी अनुसार राजेंद्र बाबू ने राष्ट्रपति को मिलने वाली हर सुविधा का जमकर लाभ उठाया। यही नहीं बड़े अधिकारियों और नेताओं को मिलने वाला आतिथ्य सत्कार भत्ते को भी राजेंद्र बाबू ने अपने पोते के नाम से बैंक अकाऊंट में जमा करवाया। बाद में पंडित नेहरु के द्वारा इस संबंध में एक पत्र लिखे जाने पर राजेंद्र बाबू ने यह पैसा सरकारी खजाने में जमा कराना शुरु किया। राजेंद्र बाबू द्वारा पद का दुरुपयोग किये जाने का एक और प्रमाण यह है कि इनके एक अराध्य अध्यात्मिक गुरु ने दिनांक 28 नवंबर 1954 को 7 बजकर 20 मिनट पर अपने हाथों से एक राजेंद्र बाबू के लिये नोट छोड़ा। किसी भी लिहाज से राष्ट्रपति के पैड का उपयोग इस तरह के प्रयोजन के लिये किया जाना पद के दुरुपयोग को साबित करता प्रतीत होता है।

दोस्तों, मैंने आपके सामने केवल उन तथ्यों को पूरी इमानदारी के साथ रखने का प्रयास किया है, जो राजेंद्र बाबू के व्यक्तित्व पर सवालिया निशान लगाता है। वैसे मैं अभी भी इस बात पर कायम हूं कि केवल कुछेक पत्रों के आधार पर किसी भी व्यक्ति के जीवन के बारे में दावे नहीं किये जा सकते हैं। एक और बात जो मेरे दिल ने मुझसे कहा है वह आपके साथ साझा करना चाहता हूं। पंडित जवाहर लाल नेहरू के पत्रों को संकलित कर उन्हें एक ग्रंथ का शक्ल दे दिया गया है और देश के सभी जानकार उनके व्यक्तित्व के बारे में जानते हैं। लेकिन राजेंद्र बाबू के बारे में अभीतक यह प्रयास क्यों नहीं किया गया, यह सवाल अभी भी एक यक्ष प्रश्न ही है। अंत में मैं आप सभी को विश्वास दिलाता हूं कि अपना बिहार ने हमेशा सच को आपके सामने रखा है, चाहे वह कितना भी विभत्स क्यों न हो। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि विकसित बिहार का निर्माण भी सच के नींव पर ही हो सकता है, झुठ के पिलरों पर बनने वाले आलीशान महल हमेशा ही विषमता के समय ताश के पत्ते की तरह बिखर जाते हैं।

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