Tuesday, January 31, 2012

भारतीय डाक : सदियों का सफरनामा



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पुस्तक लेखक-अरविंद कुमार सिंह प्रकाशक-नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया मूल्य-125 रूपए पृष्ठï-416 दुनिया में सबसे उन्नत मानी जानेवाली भारतीय डाक व्यवस्था का संगठित स्वरूप भी 500 साल पुराना है। एकीकृत व्यवस्था के तहत ही भारतीय डाक डेढ़ सदी से ज्यादा लंबा सफर तय कर चुकी है। कड़ी प्रतिस्पर्धा के बावजूद आज भी डाकघर ही ग्रामीण भारत की धडक़न बने हैं। आजादी के समय भारत में महज 23334 डाकघर थे,पर उनकी संख्या 1.55 लाख पार कर चुकी है। डाकघरों की भूमिकाएं भी समय के साथ बदल रही हैं। इसी नाते भारतीय डाक प्रणाली दुनिया के तमाम विकसित देशों से कहींं अधिक विश्वसनीय और बेहतर बन चुकी है। आजादी मिलने के बाद स्व.रफी अहमद किदवई के संचार मंत्री काल में भारतीय डाक तंत्र के मजबूत विकास की रूपरेखा बनी और लगातार समर्थन ने इसे बहुत मजबूत बनाया। इसी नाते भारत के दूर देहात में डाकघरोंं की सुगम पहुंच बन सकी। हमारे 89 फीसदी डाकघर देहातों में ही स्थित हैं। इसी तरह सेना डाकघरों का भी अपना विशेष महत्व है क्योंकि इनकी गति दुनिया में सबसे तेज है। पुस्तक में डाक प्रणाली के साथ परिवहन प्रणाली का भी रोचक व्यौरा है।जानेमाने लेखक एवं पत्रकार अरविंद कुमार सिंह ने भारतीय डाक प्रणाली का आकलन मौर्य काल से आधुनिक इंटरनेट युग तक किया है। नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया द्वारा प्रकाशित उनकी पुस्तक भारतीय डाक: सदियों का सफरनामा तमाम रोचक और अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डालती है। करीब डेढ़ दशक तक अनुसंधान के बाद श्री सिंह ने यह पुस्तक लिखी और इसे उन हजारों डाकियो को समर्पित किया है जिनके नन्हे पांव सदियों से संचार का सबसे बड़ा साधन रहे हैं।
किसी भी देश के आर्थिक सामाजिक और संास्कृतिक विकास में डाक विभाग की भी अपनी अहम भूमिका होती है। यही कारण है कि इसे भी सडक़,रेल और फोन की तरह आधारभूत ढांचे का महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। भारत में 1995 के आसपास मोबाइल के चलते संचार क्रांति का जो नया दौर शुरू हुआ,उसका विस्तार बहुत तेजी से हुआ। उसके बाद खास तौर पर शहरी इलाकों मेें यह आम मान्यता हो गयी कि अब डाक सेवाओं और विशेष कर चि_िïयों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। पर वास्तविकता यह है कि संचार क्रांति मुख्य रूप से शहरी इलाकों तक ही सीमित है। देश के 70 फीसदी लोग आज भी ग्रामीण इलाकों में रहते हैं और यहां आज भी लोगों के लिए आपसी संपर्क का साधन चि_िïयां हैं। तमाम नयी प्रौद्योगिकी के आने के बावजूद डाक ही देहात का सबसे प्रभावी और विश्वसनीय संचार माध्यम बना हुआ है। जब भारत को आजादी मिली थी तो यहां कुल टेलीफोनों की संंख्या 80 हजार थी और 34 सालों में 20.5 लाख टेलीफोन लग पाए थे। पर अब दूरसंचार नेटवर्क के तहत हर माह लाखों नए फोन लग रहे है। फिर भी संचार के नए साधनो के तेजी से विस्तार के बावजूद चि_िïयां अपनी जगह महत्व की बनी हुई हैं। आज भी हर साल करीब 900 करोड़ चि_िïयां भारतीय डाक विभाग दरवाजे-दरवाजे तक पहुंचा रहा है। कूरियर और ईमेल से जानेमानी चि_िïयां अलग हैं। 1985 में जब डाक और तार विभाग अलग किया गया था तब सालाना 1198 करोड़ पत्रों की आवाजाही थी। आज भी वैकल्पिक साधनों के विकास के बावजूद इतनी बड़ी संख्या में पत्रों का आना -जाना भारतीय डाक प्रणाली के महत्व और उसकी सामाजिक उपादेयता को दर्शाने के लिए काफी है। पर चुनौतियों से जुड़ा दूसरा पहलू भी गौर करनेवाला है। दुनिया भर में डाकघरों की भूमिका में बदलाव आ रहे हैं। इलेक्ट्रानिक मेल और नयी प्रौद्योगिकी परंपरागत डाक कार्यकलापों का पूरक बन रही है। मोबाइल और स्थिर फोन,यातायात के तेज साधन,इंटरनेट और तमाम माध्यमों से चि_ïी प्रभावित हुई है। पर दुनिया में चि_िïयों पर सर्वाधिक प्रभाव टेलीफोनो ने डाला। लेकिन भारत में यह प्रभाव खास तौर पर महानगरों में ही देखने को मिल रहा है। पर यह गौर करने की बात है कि शहरी इलाकों में व्यावसायिक डाक लगातार बढ़ रही है। इसका खास वजह यह है कि टेलीमार्केटिंग की तुलना में चि_िïयां व्यवसाय बढ़ाने में अधिक विश्वसनीय तथा मददगार साबित हो रही हैंं।
भारतीय डाक प्रणाली पर अगर बारीकी से गौर किया जाये तो पता चलता है कि आजादी के बाद ही डाक नेटवर्र्क का असली विस्तार हुआ। हमारी डाक प्रणाली का विस्तार सात गुना से ज्यादा हुआ है। डाक विभाग की ओर से  कुल 38 सेवाऐं प्रदान की जा रही हैं,जिनमें से ज्यादातर घाटे में हैं। फिर भी यह  विभाग एक विराट सामाजिक भूमिका निभा रहा है। यही नहीं भारतीय डाक प्रणाली आज दुनिया की सबसे विश्वसनीय और अमेरिका,चीन,बेल्जियम और ब्रिटेन से भी बेहतर प्रणाली साबित हो चुकी है। 
अरविंद कुमार सिंह ने अपनी पुस्तक में मौर्य काल की पुरानी डाक व्यवस्था से लेकर रजवाड़ों की डाक प्रणाली, पैदल, घोड़ा -गाड़ी, नाव और पालकी से लेकर ऊंटों तक का उपयोग करके डाक ढ़ोने की व्यवस्था जैसे तमाम रोचक और प्रामाणिक तथ्य हमें अतीत में ले जाते हैं। 1 अक्तूबर 1854 को डाक महानिदेशक के नियंत्रण में डाक विभाग के गठन की ऐतिहासिक पृष्ठïभूमि ,डाक अधिनियम ,ब्रिटिश डाक प्रणाली के विकास और विस्तार के पीछे के कारण और अन्य तथ्यों को शामिल करके इसे काफी रोचक पुस्तक बना दिया गया है। 1857 की क्रांति और उसके बाद के आजादी के आंदोलनो में डाक कर्मचारियों की ऐतिहासिक भूमिका को भी इस पुस्तक के एक खंड में विशेष तौर पर दर्शाया गया है। डाक कर्मचारी भी आजादी के आंदोलन में अग्रणी भूमिका में थे और स्वतंत्रता सेनानियों के संदेशोंं के आदान प्रदान में भी कई ने बहुत जोखिम लिया। मगर दुर्भाग्य से इस तथ्य का अनदेखी की सभी ने की। डाक विभाग ने केवल चि_िïयां ही नहीं पहुंचायी। मलेरिया नियंत्रण तथा प्लेग की महामारीे रोकने मेें भी डाक विभाग की ऐतिहासिक भूमिका रही है। ऐतिहासिक नमक सत्याग्रह के दौरान देहात तक नमक पहुंचाने में डाक विभाग की भूमिका काफी दिलचस्प तरीके से दर्शायी गयी है। शुरू से ही भारतीय डाक बहुआयामी भूमिका में रहा है तथा बहुत कम लोग जानते हैं कि डाक बंगलों, सरायों तथा सडक़ों पर के रख रखाव का काम लंबे समय तक डाक विभाग ही करता था। इन पर लंबे समय तक डाक विभाग का ही नियंत्रण था। डाकघरों से पहले कोई भी मुसाफिर डाक ले जानेवाली गाड़ी,पालकी या घोड़ा गाड़ी आदि में अग्रिम सूचना देकर अपनी जगह बुक करा सकता था । इसी तरह रास्ते में पडऩेवाली डाक चौकियों में (जो बाद में डाक बंगला कहलायीं) वह रात्रि विश्राम भी कर सकता था। यानि यह विभाग यात्राओं में भी सहायक बनता था। पुस्तक में भारतीय डाक प्रणाली के प्राण पोस्टमैन यानि डाकिये पर बहुत ही रोचक अध्याय है। डाकिया की भूमिका भले ही समय के साथ बदलती रही हो पर उसकी प्रतिष्ठïा तथा समाज में अलग हैसियत बरकरार है। इसी नाते वे भारतीय जनमानस में रच- बस गए हैं। डाकियों पर तमाम गीत-लोकगीत और फिल्में बनी हैं। भारतीय डाक प्रणाली की जो गुडविल है,उसमें डाकियों का ही सबसे बड़ा योगदान है। आज भी वे साइकिलों पर या पैदल सफर करते हैं। एक जमाने मेें तो वे खतरनाक जंगली रास्तों से गुजरते थे और अपने जीवन की आहूति भी देते थे। कई बार डाकियों या हरकारों को कर्तव्यपालन के दौरान शेर या अन्य जंगली जानवरों ने खा लिया, तमाम खतरनाक जहरीले सांपों की चपेट में आकर मर गए। तमाम डाकिए प्राकृतिक आपदाओं और दुर्गम भौगोलिक क्षेत्रों में शिकार बने तो तमाम चोरों और डकैतों का मुकाबला करते हुए लोककथाओं का हिस्सा बन गए। पुस्तक में पोस्टकार्र्ड,मनीआर्र्डर, स्पीड पोस्ट सेवा ,डाक जीवन बीमा जैसी लोकप्रिय सेवाओं पर विशेष अध्याय हैं। इसके साथ ही डाकघर बचत बैक की बेहद अहम भूमिका पर भी एक खास खंड है। डाकघर बचत बैंक भारत का सबसे पुराना,भरोसेमंद और सबसे बड़ा बैंक है। इसी तरह पुस्तक में डाक टिकटो की प्रेरक,शिक्षाप्रद और मनोहारी दुनिया पर भी विस्तार से रोशनी डाली गयी है। विदेशी डाक तथा दुनिया के साथ भारतीय डाक तंत्र के रिश्तो पर भी अलग से रोशनी डाली गयी है। इसी तरह भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए डाक विभाग द्वारा शुरू की गयी नयी सेवाओं,आधुनिकीकरण के प्रयास,डाक विभाग को नयी दिशा देने की कोशिश समेत सभी प्रमुख पहलुओं को इस पुस्तक में शामिल कर काफी उपयोगी बना दिया गया है। भारतीय डाक विभाग ने खास तौर पर देहाती और दुर्गम इलाकों में साक्षरता अभियान तथा समाचारपत्रों को ऐतिहासिक मदद की पहुंचायी है। रेडियो लाइसेंस प्रणाली डाक विभाग की मदद से ही लागू हुई थी और लंबे समय तक रेडियो को राजस्व दिलाने का यही प्रमुख स्त्रोत रहा । इसी तरह रेडियो के विकास में भी डाक विभाग का अहम योगदान रहा है। एक अरसे से मुद्रित पुस्तकों,पंजीकृत समाचार पत्रों को दुर्गम देहाती इलाकों तक पहुंचा कर भारतीय डाक ने ग्रामीण विकास में बहुत योगदान दिया । वीपीपी (वैल्यू पेयेबल सिस्टम) से लोगों में किताबे मंगाने और पढऩे की आदत विकसित हुई गांव के लाखों अनपढ़ लोगों को चिट्टिïयों और पोस्टमैन ने साक्षर बनने की प्रेरणी दी.तमाम आपदाओं के मौके पर प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष और मुख्यमंत्री राहत कोषों को भेजे जानेवाले मनीआर्डर और पत्रों को बिना भुगतान के भेजने से लेकर तमाम ऐतिहासिक सेवाऐ डाकघरों ने प्रदान की हैं। इस पुस्तक में डाक प्रणाली के विस्तृत इतिहास के साथ जिला डाक और राजाओं महाराजाओं की डाक व्यवस्था, आधुनिक डाकघरों, देहाती डाकखानो, पोस्टमैन, पोस्टकार्ड ,लेटरबाक्स आदि पर अलग से खंड हैं। डाक प्रणाली के विकास में परिवहन के साधनों के विकास का भी अपना महत्व रहा है। इस नाते भारतीय हरकारों, कबूतरों, हाथी -घोड़ा तथा पालकी, डाकबंगलों,रेलवे डाक सेवा, हवाई डाक सेवा पर भी अलग से खंड हैं। इसी के साथ भारतीय डाक टिकटों की मनोहारी दुनिया, पाकिस्तान पोस्ट, विदेशी डाक प्रबंधन, डाक जीवन बीमा, करोड़ो चि_िïयो का प्रबंधन,चि_ïी पत्री की अनूठी दुनिया, रेडियो लाइसेंंस, मीडिया के विकास में डाक का योगदान,डेड लेटर आफिस के कार्यकरण पर भी पुस्तक में काफी रोशनी डाली गयी है। पुस्तक में एक रोचक अध्याय उन डाक कर्मचारियों पर है जिन्होने समाज में लेखन ,कला या अन्य कार्यों से अपनी खास जगह बनायी। कम ही लोग जानते हैं कि नोबुल पुरस्कार विजेता सीवी रमण,मुंशी प्रेमचंद, अक्कीलन,राजिंदर सिंह बेदी, देवानंद, नीरद सी चौधरी, महाश्वेता देवी ,दीनबंधु मित्र, मशहूर डोगरी लेखक शिवनाथ से लेकर कृष्णविहारी नूर जैसी सैकड़ो हस्तियां डाक विभाग के आंगन में ही पुष्पित पल्लवित हुईं। ये सभी डाक विभाग में कर्मचारी या अधिकारी रहे हैं। संचार क्रांति की चुनौतियों से मुकाबले के लिए डाक विभाग की तैयारी भी अलग से चल रही है। इसी के तहत व्यवसाय विकास निदेशालय के कार्यकरण , स्पीड पोस्ट तथा अन्य अत्याधुनिक उत्पादों का विवरण, निजी कुरियर सेवाओं आदि पर भी पुस्तक विशेष गौर करती है। पुस्तक में भारतीय सेना डाक सेवा पर भी काफी रोचक और महत्वपूर्ण जानकारियां हैं। टेलीफोन, मोबाइल या ईमेल सैनिकों को अपने प्रियजनो के हाथ से लिखी पाती जैसा सुख- संतोष दे ही नहीं सकते । घर-परिवार से आया पत्र जवान को जो संबल देता है, वह काम कोई और नहीं कर सकता। माहौल कैसा भी हो,सैनिक को तो मोरचे पर ही तैनात रहना पड़ता है,ऐसे में पत्र उसका मनोबल बनाए रखने में सबसे ज्यादा मददगार होते हैं। इसी नाते सेना के डाकघरों का बहुत महत्व है। करीब सारे महत्वपूर्ण पक्षों और तथ्यों को समेट कर भारतीय डाक प्रणाली पर यह पुस्तक वास्तव में एक संदर्भ ग्रंथ बन गयी है।
डाकिया बीमार है…कबूतर जा… अजित वडनेरकर लेखक- अरविंदकुमार सिंह/
प्रकाशक-नेशनल बुक ट्रस्ट/ पृष्ठ-406/ मूल्य-125 रु./ 
सेलफोन, सेटेलाईट फोन और इंटरनेट जैसे संवाद के सुपरफास्ट साधनों के     इस युग में भी चिट्ठी का महत्व बरक़रार है। आज डाकिये की राह चाहे कोई नहीं देखता, पर दरवाज़े पर डाकिये की आमद एक रोमांच पैदा करती है। कुछ अनजाना सा सुसंवाद जानने की उत्कंठा ने इस सरकारी कारिंदे के प्रति जनमानस में हमेशा से लगाव का भाव बनाए रखा है, जो आज भी उतना की पक्का है। सूचना और संवाद क्रांति के इस दौर में वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह ने भारतीय डाक सेवा पर एक समग्र और शोधपूर्ण पुस्तक लिखी हैः भारतीय डाक-सदियों का सफ़रनामा, जिसमें सैकड़ों साल से देश के अलग-अलग भागों में प्रचलित संवाद प्रेषण प्रणाली के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन किया गया है। 
करीब साढ़े तीन सौ साल पहले अंग्रेजों 1688 में अंग्रेजों ने मुंबई में पहला डाकघर खोला। ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी को अपने राजनीतिक एजेंडा को पूरा करना था। डाक विभाग के जरिये सैन्य और खुफिया सेवाओं की मदद का मक़सद भी खास था। आज जब इस किताब की चर्चा हो रही है, तब आदिमकाल से चली आ रही और अब एक संगठन, संस्कृति का रूप ले चुकी संवाद प्रेषण की इस परिपाटी के सामने सूचना क्रांति की चुनौती है। इसके बावजूद दुनियाभर में डाक सेवाएं अपना रूप बदल चुकी हैं और कभी न कभी पश्चिमी देशों के उपनिवेश रहे, दक्षिण एशियाई देशों में भी यह चुनौती देर-सबेर आनी ही थी। किसी ज़माने सर्वाधिक सरकारी कर्मचारियों वाला महक़मा डाकतार विभाग होता था। उसके बाद यह रुतबा भारतीय रेलवे को मिला। डाकतार विभाग का शुमार आज भी संभवतः शुरुआती पांच स्थानों में किसी क्रम पर होगा, ऐसा अनुमान है। पूरी किताब दिलचस्प, रोमांचक तथ्यों से भरी है। गौरतलब है कि पुराने ज़माने में ऊंटों, घोड़ों और धावकों के जरिये चिट्ठियां पहुंचाई जाती थीं। राह में आराम और बदली के लिए सराय या पड़ाव बनाए जाते थे। बाद में उस राह से गुज़रनेवाले अन्य मुसाफिरों के लिए भी वे विश्राम-स्थल बनते रहे और फिर धीरे-धीरे वे आबाद होते चले गए। चीन में घोड़ों के जरिये चौबीस घंटों में पांच सौ किलोमीटर फासला तय करने के संदर्भ मिलते हैं, इसका उल्लेख शब्दों का सफर में डाकिया डाक लाया श्रंखला में किया जा चुका है। अरविंदकुमार सिंह की किताब बताती है कि मुहम्मद बिन तुगलक ने भी संवाद प्रेषण के लिए चीन जैसी ही व्यवस्था बनाई थी। गंगाजल के भारी भरकम कलशों से भरा कारवां हरिद्वार से दौलताबाद तक आज से करीब सात सदी पहले अगर चालीस दिनों में पहुंच जाता था, तो यह अचरज से भरा कुशल प्रबंधन था। ये कारवां लगातार चलते थे जिससे पानी की कमी नहीं रहती थी। महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि तुगलक पीने के लिए गंगाजल का प्रयोग करता था। मेघों को हरकारा बनाने की सूझ ने तो कालिदास से मेघदूत जैसी कालजयी काव्यकृति लिखवा ली। मगर कबूतरों को हरकारा बनाने की परम्परा तो कालिदास से भी बहुत प्राचीन है। चंद्रगुप्त मौर्य के वक्त यानी ईसा पूर्व तीसरी – चौथी सदी में कबूतर खास हरकारे थे। कबूतर एकबार देखा हुआ रास्ता कभी नहीं भूलता। इसी गुण के चलते उन्हें संदेशवाहक बनाया गया। लोकगीतों में जितना गुणगान हरकारों, डाकियों का हुआ है उनमें कबूतरों का जिक्र भी काबिले-गौर है। इंटरनेट पर खुलनेवाली नई नई ईमेल सेवाओं और आईटी कंपनियों के ज़माने में यह जानकर ताज्जुब हो सकता है कि करीब ढाई सदी पहले जब वाटरलू की लड़ाई लड़ी जा रही थी, तब ब्रिटिश सरकार लगातार मित्र राष्टों को परवाने लिखती थी और गाती थी-कबूतर, जा...जा ..जा. ब्रिटेन में एक ग्रेट बैरियर पिजनग्राम कंपनी थी जिसने पैसठ मील की कबूतर संदेश सेवा स्थापित की थी। बाद में इसे आयरलैंड तक विस्तारित कर दिया गया था। बिना किसी वैज्ञानिक खोज हुए, यह निकट भूतकाल का एक आश्चर्य है। भारत में कई राज्यों में कबूतर डाक सेवा थी। उड़ीसा पुलिस ने सन् 1946 में कटक मुख्यालय में कबूतर-सेवा शुरू की थी। इसमें चालीस कबूतर थे। भारतीय डाकसेवा में कब कब विस्तार हुआ, कैसे प्रगति हुई, कब इसकी जिम्मेदारियां बढ़ाई गई और कब यह बीमा और बचत जैसे अभियानों से जुड़ा, यह सब लेखक ने बेहद दिलचस्प ब्यौरों के साथ विस्तार से पुस्तक में बताया है। डाक वितरण की प्रणालियां और उनमें नयापन लाने की तरकीबें, नवाचार के दौर से गुजरती डाक-प्रेषण और संवाद-प्रेषण से जुडी मशीनों का उल्लेख भी दिलचस्प है। डेडलेटर आफिस यानी बैरंग चिट्ठियों की दुनिया पर भी किताब में एक समूचा अध्याय है। एक आदर्श संदर्भ ग्रंथ में जो कुछ होना चाहिए, यह पुस्तक उस पैमाने पर खरी उतरती है। इस पुस्तक से यह जानकारी भी मिलती है कि भारत की कितनी नामी हस्तियां जो अन्यान्य क्षेत्रों में कामयाब रही, डाक विभाग से जुड़ी रहीं। ऐसे कुछ नाम हैं नोबल सम्मान प्राप्त प्रो. सीवी रमन, प्रख्यात उर्दू लेखक-फिल्मकार राजेन्द्रसिंह बेदी, शायर कृष्णबिहारी नूर, महाश्वेता देवी, अब्राहम लिंकन आदि। पत्रकारिता से जुडे़ लोगों के लिए यह पुस्तक बहुत महत्वपूर्ण है। वैसे यह पुस्तक संदर्भ में होनी चाहिए। मेरी सलाह है कि अवसर मिलने पर आप इसे ज़रूर खरीदें, आपके संग्रह के लिए यह किताब उपयोगी होगी। रचनाकार अरविंद कुमार सिंह
प्रकाशक नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया नेहरू भवन, ५ इंस्टीटयूशनल एरिया नई दिल्ली. ११००१६
पृष्ठ - ४१२
मूल्य: १०.९५ डॉलर*
'भारतीय डाक: सदियों का सफरनामा' (डाक व्यवस्था पर शोध) पत्रकारिता के क्षेत्र में हिन्दी अकादमी दिल्ली द्वारा सम्मानित प्रसिध्द पत्रकार, अन्वेषक एवं लेखक अरविन्द कुमार सिंह द्वारा रचित एवं नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया द्वारा प्रकाशित 'भारतीय डाक: सदियों का सफरनामा' विश्व डाक साहित्य को एक कीमती तोहफा है। यह भारतीय डाक व्यवस्था पर एक अत्यन्त महत्वपूर्ण शोध ग्रन्थ है। यह अंग्रेजी, उर्दू सहित अन्य भारतीय भाषाओं में भी प्रकाशित की जा रही है। इस पुस्तक में जहां हमें संसार की सब से विशाल, विकसित एवं अनूठी भारतीय डाक व्यवस्था के उद्भव, उतार-चढ़ाव एवं विकास के दिग्दर्शन होते हैं वहीं इसे दरपेश परेशानियों, चुनौतियों एवं सरोकारों से भी रू-ब-रू होने का सुअवसर मिलता है। आज भी आम आदमी का डाक विभाग से गहरा नाता है और उस पर अगाध विश्वास है।
इसी अनूठे विश्वास और जनसेवा के प्रति समर्पित भावना को रेखांकित करते अरविन्द कदम-कदम पर हरकारों के अदम्य साहस, वीरता और बलिदान की गाथा बयान करते हैं। उनके उत्पीड़न, दु:ख-दर्द, शोषण एवं मजबूरियों का मार्मिक चित्रण करते हुए, उन्हीं की आवाज की प्रतिगूंज बन जाते हैं। अरविन्द का सरोकार न केवल भारतीय हरकारों (मेहनतकशों) की नियति से है बल्कि संसार के समस्त हरकारों की नियति से है। इसी अहसास से ओत-प्रोत उनकी कलम बड़े ही सरल, सुन्दर, सहज एवं सबल ढंग से जहां-तहां व्याप्त कुत्सित व्यवस्थाओं, विकृतियों एवं विसंगतियों की ओर ध्यान आकर्षित करती है और उन्हें दूर करने के लिए हमें लगातार संघर्षशील होने का आह्वान भी देती है।
इंटरनेट के दौर में आज विश्व डाक व्यवस्था एक बहुत ही संकटमय स्थिति से गुजर रही है और भारतीय डाक व्यवस्था भी उससे अछूती नहीं रह पाई। डॉक्टर मुल्कराज आनन्द की लिखी पुस्तक भारतीय डाकघर की गाथा के बाद 'भारतीय डाक: सदियों का सफरनामा' एक ऐसी पुस्तक है जो समग्र भारतीय डाक व्यवस्था पर बिना किसी पूर्वाग्रह व दुराग्रह के तटस्थ भाव से सच्चाई का विवेकपूर्ण वर्णन करती है। इसीलिए इसकी सार्थकता एवं उपयोगिता वर्तमान संदर्भ में और भी बढ़ जाती है। डाक जीवन के कटु और स्थूल यथार्थों से दृढ़ता से जूझना और ईमानदारी से उनका मुकाबला करना सभी डाक कर्मियों का परम कर्तव्य है और यह सफर वेदना, त्रासदी व अवसाद से भरा है। अरविन्द की पुस्तक उन्हें इसी त्रासदी से जूझने और अवसाद से उबरने का संदेश देती है ताकि डाक जीवन हरा-भरा रह सके। यह रचना प्रेरणा और सृजन का अनूठा संगम है जो पाठक को प्रबल चुम्बकीय शक्ति से अपनी ओर खींचती है और अपने आप में समाहित कर लेती है। लेखन ने विभिन्न स्रोतों से प्राप्त सामग्री व सहयोग का संतुलित प्रयोग कर के इस पुस्तक को यथा-संभव कमियों से मुक्त रखने का प्रयास किया गया है।
यह पुस्तक डाक नीति निर्धारकों, अधिकारियों एवं डाक कर्मियों के लिए एक प्रकाश स्तंभ का कार्य करेगी। सूचना क्रान्ति के युग में इस किताब का सभी दफ्तरों, स्कूलों, कालेजों, पुस्तकालयों एवं विश्वविद्यालयों में होना बहुत जरूरी है। कहते हैं कि जो लोग अपना इतिहास नहीं जानते वे कभी अपनी आजादी और स्वाभिमान को कायम नहीं रख सकते।
इस पुस्तक में डाक प्रणाली के विस्तृत इतिहास के साथ जिला डाक और राजाओं महाराजाओं की डाक व्यवस्था, आधुनिक डाकघरों, देहाती डाकखानों, पोस्टमैन, पोस्टकार्ड, लेटरबॉक्स आदि पर अलग से खंड है। डाक प्रण्ााली के विकास में परिवहन के साधनों के विकास का भी अपना महत्व रहा है। इस नाते भारतीय हरकारों, कबूतरों, हाथी-घोड़ा तथा पालकी, डाकबंगलों, रेलवे डाक सेवा, हवाई डाक सेवा पर भी अलग से खंड हैं।
इसी के साथ भारतीय डाक टिकटों की मनोहारी दुनिया, पाकिस्तान पोस्ट, विदेशी डाक प्रबंधन, डाक जीवन बीमा, करोड़ों चिट्ठियों का प्रबंधन, चिट्ठी पत्री की अनूठी दुनिया, रेडियो लाइसेंस, मीडिया के विकास में डाक का योगदान, डेड लेटर आफिस के कार्यकरण पर भी पुस्तक में काफी रोशनी डाली गई है। इस पुस्तक में एक रोचक अध्याय उन भारतीय डाक कर्मचारियों पर है जिन्होंने समाज में लेखन, कला या अन्य कार्यों से अपनी खासी जगह बनाई। कम ही लोग जानते हैं कि नोबल पुरस्कार विजेता सीवी रमण, मुंशी प्रेमचंद, अक्कलीन, राजिंदर सिंह बेदी, देवानंद, नीरद सी चौधरी, महाश्वेता देवी, दीनबंधु मित्र, मशहूर डोगरी लेखक शिवनाथ से लेकर कृष्णबिहारी नूर जैसी सैकड़ों हस्तियां डाक विभाग में कर्मचारी या अधिकारी रही हैं।
संचार क्रान्ति की चुनौतियों से मुकाबले के लिए व्यवसाय विकास निदेशालय के कार्यकरण, स्पीड पोस्ट तथा अन्य अत्याधुनिक उत्पादों का विवरण, निजी कूरियर सेवाओं आदि पर भी पुस्तक विशेष गौर करती है। पुस्तक में भारतीय सेना डाक सेवा पर भी काफी रोचक और महत्वपूर्ण जानकारियां हैं। यह बात कम ही लोग जानते हैं कि टेलीफोन, मोबाइल या ईमेल सैनिकों को अपने प्रियजनों के हाथ से लिखी पाती जैसा सुख-संतोष दे ही नहीं सकते।
घर-परिवार से आया पत्र जवान को जो संबल देता है वह काम कोई और नहीं कर सकता। इसी नाते सेना के डाकघरों का बहुत महत्व है। करीब सारे महत्वपूर्ण पक्षों और तथ्यों को समेट कर भारतीय डाक प्रणाली पर यह पुस्तक वास्तव में एक संदर्भ ग्रन्थ बन गई है। पुस्तक के लेखक अरविंद कुमार सिंह संचार तथा परिवहन मामलों के जानकार हैं। अमर उजाला, जनसत्ता जैसे अखबारों में काम कर चुके श्री सिंह इस भारतीय रेल के परामर्शदाता हैं।
कर्नल तिलकराज पूर्व चीफ पोस्टमास्टर जनरल, पंजाब १८ जनवरी २००९
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राष्ट्रपिता मोहन दास करमचंद गाँधी








 महात्मा गाँधी (2 अक्तूबर, 1869 – 30 जनवरी, 1948) को ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का नेता और राष्ट्रपिता माना जाता है। इनका पूरा नाम मोहनदास करमचंद गाँधी था। राजनीतिक और सामाजिक प्रगति की प्राप्ति हेतु अपने अहिंसक विरोध के सिद्धांत के लिए उन्हें अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई। मोहनदास करमचंद गांधी भारत एवं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख राजनीतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे।
 जीवन परिचय महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्तूबर 1869 ई. को गुजरात के पोरबंदर नामक स्थान पर हुआ था। उनके माता-पिता कट्टर हिन्दू थे। इनके पिता का नाम करमचंद गाँधी था। मोहनदास की माता का नाम पुतलीबाई था जो करमचंद गांधी जी की चौथी पत्नी थीं। मोहनदास अपने पिता की चौथी पत्नी की अन्तिम संतान थे। उनके पिता करमचंद (कबा गांधी) पहले ब्रिटिश शासन के तहत पश्चिमी भारत के गुजरात राज्य में एक छोटी-सी रियासत की राजधानी पोरबंदर के दीवान थे और बाद में क्रमशः राजकोट (कठियावाड़) और वांकानेर में दीवान रहे। करमचंद गांधी ने बहुत अधिक औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं की थी, लेकिन वह एक कुशल प्रशासक थे और उन्हें सनकी राजकुमारों, उनकी दुःखी प्रजा तथा सत्तासीन कट्टर ब्रिटिश राजनीतिक अधिकारियों के बीच अपना रास्ता निकालना आता था।
 बाल्यावस्था
महात्मा गाँधीगांधी की माँ पुतलीबाई अत्यधिक धार्मिक थीं और भोग-विलास में उनकी ज़्यादा रुचि नहीं थी। उनकी दिनचर्या घर और मन्दिर में बंटी हुई थी। वह नियमित रूप से उपवास रखती थीं और परिवार में किसी के बीमार पड़ने पर उसकी सेवा सुश्रुषा में दिन-रात एक कर देती थीं। मोहनदास का लालन-पालन वैष्णव मत में रमे परिवार में हुआ और उन पर कठिन नीतियों वाले भारतीय धर्म जैन धर्म का गहरा प्रभाव पड़ा। जिसके मुख्य सिद्धांत, अहिंसा एवं विश्व की सभी वस्तुओं को शाश्वत मानना है। इस प्रकार, उन्होंने स्वाभाविक रूप से अहिंसा, शाकाहार, आत्मशुद्धि के लिए उपवास और विभिन्न पंथों को मानने वालों के बीच परस्पर सहिष्णुता को अपनाया।
युवावस्था
 मोहनदास एक औसत विद्यार्थी थे, हालाँकि उन्होंने यदा-कदा पुरस्कार और छात्रवृत्तियाँ भी जीतीं। एक सत्रांत-परीक्षा में उनके परिणाम में – अंग्रेज़ी में अच्छा, अंकगणित में ठीक-ठाक भूगोल में ख़राब, चाल-चलन बहुत अच्छा, लिखावट ख़राब की टिप्पणी की गई थी। वह पढ़ाई व खेल, दोनों में ही प्रखर नहीं थे। बीमार पिता की सेवा करना और घरेलू कामों में माँ का हाथ बंटाना और समय मिलने पर दूर तक अकेले सैर पर निकलना उन्हें पसंद था। उन्हीं के शब्दों में उन्होंने ‘बड़ों की आज्ञा का पालन करना सीखा, उनमें मीनमेख निकालना नहीं।’ वह किशोरावस्था के विद्रोही दौर से भी गुज़रे, जिसमें गुप्त नास्तिकवाद, छोटी-मोटी चोरियाँ, छिपकर धूम्रपान और वैष्णव परिवार में जन्मे किसी लड़के के लिए सबसे ज़्यादा चौंकाने वाली बात – माँस खाना शामिल था। उनकी किशोरावस्था उनकी आयु और वर्ग के अधिकांश बच्चों से अधिक हलचल भरी नहीं थी। उनकी युवावस्था की नादानियों का अन्तिम बिन्दु असाधारण था। हर ऐसी नादानी के बाद वह स्वयं वादा करते ‘फिर कभी ऐसा नहीं करूँगा’ और अपने वादे पर अटल रहते। उनमें आत्मसुधार की लौ जलती रहती थी, जिसके कारण उन्होंने सच्चाई और बलिदान के प्रतीक प्रह्लाद और हरिश्चंद्र जैसे पौराणिक हिन्दू नायकों को सजीव आदर्श के रूप में ग्रहण किया।
 शिक्षा
महात्मा गाँधी1887 में मोहनदास ने जैसे-तैसे बंबई यूनिवर्सिटी की मैट्रिक की परीक्षा पास की और भावनगर स्थित सामलदास कॉलेज में दाख़िला लिया। अचानक गुजराती से अंग्रेज़ी भाषा में जाने से उन्हें व्याख्यानों को समझने में कुछ दिक्कत होने लगी। इस बीच उनके परिवार में उनके भविष्य को लेकर चर्चा चल रही थी। अगर निर्णय उन पर छोड़ा जाता, तो वह डॉक्टर बनना चाहते थे। लेकिन वैष्णव परिवार में चीरफ़ाड़ के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह के अलावा यह भी स्पष्ट था कि यदि उन्हें गुजरात के किसी राजघराने में उच्च पद प्राप्त करने की पारिवारिक परम्परा निभानी है, तो उन्हें बैरिस्टर बनना पड़ेगा। इसका अर्थ था इंग्लैंड यात्रा और गांधी ने, जिनका सामलदास कॉलेज में ख़ास मन नहीं लग रहा था, इस प्रस्ताव को सहर्ष ही स्वीकार कर लिया। उनके युवा मन में इंग्लैंड की छवि ‘दार्शनिकों और कवियों की भूमि, सम्पूर्ण सभ्यता के केन्द्र’ के रूप में थी। सितंबर 1888 में वह पानी के जहाज़ पर सवार हुए। वहाँ पहुँचने के 10 दिन बाद वह लंदन के चार क़ानून महाविद्यालय में से एक ‘इनर टेंपल’ में दाख़िल हो गए।
परिवार
 मोहनदास करमचंद जब केवल तेरह वर्ष के थे और स्कूल में पढ़ते थे, पोरबंदर के एक व्यापारी की पुत्री कस्तूरबाई (कस्तूरबा) से उनका विवाह कर दिया गया। वर-वधु की अवस्था लगभग समान थी। दोनों ने 62 वर्ष तक वैवाहिक जीवन बिताया। 1944 ई. में पूना की ब्रिटिश जेल में कस्तूरबा का स्वर्गवास हुआ। गांधीजी अठारह वर्ष की आयु में ही एक पुत्र के पिता हो गये थे। गाँधी जी के चार पुत्र हुए जिनके नाम थे:-हरिलाल, मनिलाल, रामदास, देवदास।
 इंग्लैंड
 गांधी ने अपनी पढ़ाई को गम्भीरता से लिया और लंदन यूनिवर्सिटी मैट्रिकुलेशन परीक्षा में बैठकर अंग्रेज़ी तथा लैटिन को सुधारने का प्रयास किया। राजकोट के अर्द्ध ग्रामीण माहौल से लंदन के महानगरीय जीवन में परिवर्तन उनके लिए आसान नहीं था। जब वह पश्चिमी खान-पान, तहज़ीब और पहनावे को अपनाने के लिए जूझते, उन्हें अटपटा लगता। उनका शाकाहारी होना उनके लिए लगातार शर्मिंदगी का कारण बन जाता। उनके मित्रों ने उन्हें चेतावनी दी कि इसका दुष्प्रभाव उनके अध्ययन और स्वास्थ्य, दोनों पर पड़ेगा। सौभाग्यवश उन्हें एक शाकाहारी रेस्तरां के साथ-साथ एक पुस्तक मिल गई, जिसमें शाकाहार के पक्ष में तर्क दिए गए थे। वह लंदन वेजीटेरियन सोसाइटी के कार्यकारी सदस्य भी बन गए और उसके सम्मेलनों में भाग लेने लगे तथा उसकी पत्रिका में भी लिखने लगे। यहाँ तीन वर्षों (1888-91) तक रहकर उन्होंने बैरिस्टरी पास की। जैसे छोटा-सा तिनका हवा का रुख बताता है वैसे ही मामूली घटनाएँ मनुष्य के हृदय की वृत्ति को बताती हैं। महात्मा गांधी इंग्लैंड के शाकाहारी रेस्तरां और आवास – गृहों में गांधी की मुलाक़ात न सिर्फ़ भोजन के मामले में कट्टर लोगों से हुई, बल्कि उन्हें कुछ गम्भीर स्त्री-पुरुष भी मिले। जिन्हें बाइबिल और भगवदगीता से परिचय कराने का श्रेय दिया। भगवदगीता को उन्होंने सबसे पहले सर एडविन आर्नोल्ड के अंग्रेज़ी अनुवाद में पढ़ा। परिचित शाकाहारी अंग्रेज़ों में एडवर्ड कारपेंटर जैसे समाजवादी और मानवतावादी थे, जो कि ब्रिटिश थोरो कहलाते थे। जॉर्ज बर्नाड शॉ जैसे फ़ेबियन, और एनी बेसेंट सरीखे धर्मशास्त्री शामिल थे। उनमें से अधिकांश आदर्शवादी थे। कुछ विद्रोही तेवर के भी थे। जो उत्तरवर्ती विक्टोरियाई व्यवस्था के तत्कालीन मूल्यों को नहीं जानते थे। वे सादा जीवन के मुक़ाबले सहयोग को अधिक महत्त्व देते थे। इन विचारों ने गांधी के व्यक्तित्व और बाद में उनकी राजनीति को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। आपका कोई भी काम महत्त्वहीन हो सकता है पर महत्त्वपूर्ण यह है कि आप कुछ करें।
 महात्मा गांधी जुलाई 1891 में जब गांधी भारत लौटे, तो अनुपस्थिति में उनकी माता का देहान्त हो चुका था और उन्हें यह जानकर बहुत निराशा हुई कि बैरिस्टर की डिग्री से अच्छे पेशेवर जीवन की गारंटी नहीं मिल सकती। वकालत के पेशे में पहले ही काफ़ी भीड़ हो चुकी थी और गांधी उनमें अपनी जगह बनाने के मामले में बहुत संकोची थे। बंबई (वर्तमान मुंबई) न्यायालय में पहली ही बहस में वह नाकाम रहे। यहाँ तक की बंबई उच्च न्यायालय में अल्पकालिक शिक्षक के पद के लिए भी उन्हें अस्वीकार कर दिया गया। इसलिए वह राजकोट लौटकर मुक़दमा करने वालों के लिए अर्ज़ी लिखने जैसे छोटे कामों के ज़रिये रोज़ी-रोटी कमाने लगे। एक स्थानीय ब्रिटिश अधिकारी को नाराज़ कर देने के कारण उनका यह काम भी बन्द हो गया। इसलिए उन्होंने दक्षिण अफ़्रीका में नटाल स्थित एक भारतीय कम्पनी से एक साल के अनुबंध को स्वीकार करके राहत की साँस ली।
 दक्षिण अफ़्रीका
मुख्य लेख : अफ़्रीका में गाँधी डरबन न्यायालय में यूरोपीय मजिस्ट्रेट ने उन्हें पगड़ी उतारने के लिए कहा, उन्होंने इन्कार कर दिया और न्यायालय से बाहर चले गए। कुछ दिनों के बाद प्रिटोरिया जाते समय उन्हें रेलवे के प्रथम श्रेणी के डिब्बे से बाहर फेंक दिया गया और उन्होंने स्टेशन पर ठिठुरते हुए रात बिताई। यात्रा के अगले चरण में उन्हें एक घोड़ागाड़ी के चालक से पिटना पड़ा, क्योंकि यूरोपीय यात्री को जगह देकर पायदान पर यात्रा करने से उन्होंने इन्कार कर दिया था, और अन्ततः ‘सिर्फ़ यूरोपीय लोगों के लिए’ सुरक्षित होटलों में उनके जाने पर रोक लगा दी गई।
 सत्याग्रह आन्दोलन, महात्मा गाँधीनटाल में भारतीय व्यापारियों और श्रमिकों के लिए ये अपमान दैनिक जीवन का हिस्सा था। जो नया था, वह गांधी का अनुभव न होकर उनकी प्रतिक्रिया थी। अब तक वह हठधर्मिता और उग्रता के पक्ष में नहीं थे, लेकिन जब उन्हें अनपेक्षित अपमानों से गुज़रना पड़ा, तो उनमें कुछ बदलाव आया। बाद में देखने पर उन्हें लगा कि डरबन से प्रिटोरिया तक की यात्रा उनके जीवन के महानतम रचनात्मक अनुभवों में से एक थी। यह उनके सत्य का क्षण था।
 प्रतिरोध और परिणाम
 गांधी मनमुटाव पालने वाले व्यक्ति नहीं थे। 1899 में दक्षिण अफ़्रीका (बोअर) युद्ध छिड़ने पर उन्होंने नटाल के ब्रिटिश उपनिवेश में नागरिकता के सम्पूर्ण अधिकारों का दावा करने वाले भारतीयों से कहा कि उपनिवेश की रक्षा करना उनका कर्तव्य है। उन्होंने 1100 स्वयं सेवकों की एंबुलेन्स कोर की स्थापना की, जिसमें 300 स्वतंत्र भारतीय और बाक़ी बंधुआ मज़दूर थे। यह एक पंचमेल समूह था– बैरिस्टर और लेखाकार, कारीगर और मज़दूर। युद्ध की समाप्ति से दक्षिण अफ़्रीका के भारतीयों को शायद ही कोई राहत मिली। गांधी ने देखा कि कुछ ईसाई मिशनरियों और युवा आदर्शवादियों के अलावा दक्षिण अफ़्रीका में रहने वाले यूरोपियों पर आशानुरूप छाप छोड़ने में वह असफल रहे हैं। 1906 में टांसवाल सरकार ने वहाँ की भारतीय जनता के पंजीकरण के लिए विशेष रूप से अपमानजनक अध्यादेश जारी किया। भारतीयों ने सितंबर 1906 में जोहेन्सबर्ग में गांधी के नेतृत्व में एक विरोध जनसभा का आयोजन किया और इस अध्यादेश के उल्लंघन तथा इसके परिणामस्वरूप दंड भुगतने की शपथ ली। इस प्रकार सत्याग्रह का जन्म हुआ, जो वेदना पहुँचाने के बजाय उन्हें झेलने, विद्वेषहीन प्रतिरोध करने और बिना हिंसा के उससे लड़ने की नई तकनीक थी। हिन्दी लिपी और भाषा जानना हर भारतीय का कर्तव्य है। उस भाषा का स्वरूप जानने के लिए ‘रामायण’ जैसी दूसरी पुस्तक शायद ही मिलेगी। महात्मा गांधी दक्षिण अफ़्रीका में सात वर्ष से अधिक समय तक संघर्ष चला। इसमें उतार-चढ़ाव आते रहे, लेकिन गांधी के नेतृत्व में भारतीय अल्पसंख्यकों के छोटे से समुदाय ने अपने शक्तिशाली प्रतिपक्षियों के ख़िलाफ़ संघर्ष जारी रखा। सैकड़ों भारतीयों ने अपने अंतःकरण और स्वाभिमान को चोट पहुँचाने वाले क़ानून के सामने झुकने के बजाय अपनी आजीविका तथा स्वतंत्रता की बलि चढ़ाना ज़्यादा पसंद किया। 1913 में आंदोलन के अन्तिम चरण में महिलाओं समेत सैकड़ों भारतीयों ने कारावास की सज़ा भुगती तथा खदानों में काम बन्द करके हड़ताल कर रहे हज़ारों भारतीय मज़दूरों ने कोड़ों की मार, जेल की सज़ा और यहाँ तक की गोली मारने के आदेश का भी साहसपूर्ण सामना किया। भारतीयों के लिए यह घोर यंत्रणा थी। लेकिन दक्षिण अफ़्रीकी सरकार के लिय यह सबसे ख़राब प्रचार सिद्ध हुआ और उसने भारत व ब्रिटिश सरकार के दबाव के तहत एक समझौते को स्वीकार किया। जिस पर एक ओर से गांधी तथा दूसरी ओर से दक्षिण अफ़्रीकी सरकार के प्रतिनिधि जनरल जॉन क्रिश्चियन स्मट्स ने बातचीत की थी। भारत की सभ्यता की रक्षा करने में तुलसीदास ने बहुत अधिक भाग लिया है। तुलसीदास के चेतनमय रामचरितमानस के अभाव में किसानों का जीवन जड़वत और शुष्क बन जाता है – पता नहीं कैसे क्या हुआ, परन्तु यह निर्विवाद है कि तुलसीदास जी भाषा में जो प्राणप्रद शक्ति है वह दूसरों की भाषा में नहीं पाई जाती। रामचरितमानस विचार-रत्नों का भण्डार है। महात्मा गांधी जुलाई 1914 में दक्षिण अफ़्रीका से गांधी के भारत प्रस्थान के बाद स्मट्स ने एक मित्र को लिखा था, ‘संत ने हमारी भूमि से विदा ले ली है, आशा है सदा के लिए’ ; 25 वर्ष के बाद उन्होंने लिखा, ‘ऐसे व्यक्ति का विरोधी होना मेरी नियति थी, जिनके लिए तब भी मेरे मन में बहुत सम्मान था’ , अपनी अनेक जेल यात्राओं के दौरान एक बार गांधी ने स्मट्स के लिए एक जोड़ी चप्पल बनाई थी। स्मट्स का संस्मरण है कि उनके बीच कोई घृणा या व्यक्तिगत दुर्भाव नहीं था और जब लड़ाई खत्म हो गई तो ‘माहौल ऐसा था, जिसमें एक सम्मानजनक समझौते को अंजाम दिया जा सकता था।’ धार्मिक खोज गांधी की धार्मिक खोज उनकी माता, पोरबंदर तथा राजकोट स्थित घर के प्रभाव से बचपन में ही शुरू हो गई थी। लेकिन दक्षिण अफ़्रीका पहुँचने पर इसे काफ़ी बल मिला। वह ईसाई धर्म पर टॉल्सटाय के लेखन पर मुग्ध थे। उन्होंने क़ुरान के अनुवाद का अध्ययन किया और हिन्दू अभिलेखों तथा दर्शन में डुबकियाँ लगाईं। सापेक्षिक कर्म के अध्ययन, विद्वानों के साथ बातचीत और धर्मशास्त्रीय कृतियों के निजी अध्ययन से वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सभी धर्म सत्य हैं और फिर भी हर एक धर्म अपूर्ण है। क्योंकि उनकी व्याख्या स्तरहीन बृद्धि, कभी-कभी संकीर्ण हृदय से की गई है और अक्सर दुर्व्याख्या हुई है। भगवदगीता, जिसका गांधी ने पहली बार इंग्लैंड में अध्ययन किया था, उनका ‘आध्यात्मिक शब्दकोश’ बन गया और सम्भवतः उनके जीवन पर इसी का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा। गीता में उल्लिखित संस्कृत के दो शब्दों ने उन्हें सबसे ज़्यादा आकर्षित किया। एक था अपरिग्रह (त्याग), जिसका अर्थ है, मनुष्य को अपने आध्यात्मिक जीवन को बाधित करने वाली भौतिक वस्तुओं का त्याग कर देना चाहिए और उसे धन-सम्पत्ति के बंधनों से मुक्त हो जाना चाहिए। दूसरा शब्द है समभाव (समान भाव), जिसने उन्हें दुःख या सुख, जीत या हार, सबमें अडिग रहना तथा सफलता की आशा या असफलता के भय के बिना काम करना सिखाया। ये सिर्फ़ पूर्णता के समोपदेश नहीं थे। जिस दीवानी मुक़दमें के कारण वह 1893 में दक्षिण अफ़्रीका आए थे, उसमें उन्होंने दोनों विरोधियों को न्यायालय से बाहर ही समझौता करने पर राज़ी कर लिया था। उनके अनुसार, एक सच्चे वकील का काम ‘विरोधी पक्षों को एकजुट करना था। जल्दी ही वह मुवक्किलों को अपनी सेवा के ख़रीदार के बजाय मित्र समझने लगे, जो न सिर्फ़ क़ानूनी मामलों में उनकी सलाह लेते थे, बल्कि बच्चे से माँ का दूध छुड़ाने और परिवार के बजट में संतुलन जैसे मामलों पर भी राय लेते थे। जब एक सहयोगी ने रविवार को भी मुवक्किलों के आने पर विरोध किया, तो गांधी का जवाब था ‘विपत्ति में फँसे आदमी के पास रविवार का आराम नहीं होता’। प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू ने राष्ट्र को महात्मा जी की हत्या की सूचना इन शब्दों में दी, ‘हमारे जीवन से प्रकाश चला गया और आज चारों तरफ़ अंधकार छा गया है। मैं नहीं जानता कि मैं आपको क्या बताऊँ और कैसे बताऊँ। हमारे प्यारे नेता, राष्ट्रपिता बापू अब नहीं रहे।’ महात्मा गांधी वास्तव में भारत के राष्ट्रपिता थे। 27 वर्षों के अल्पकाल में उन्होंने भारत को सदियों की दासता के अंधेरे से निकालकर आज़ादी के उज़ाले में पहुँचा दिया। किन्तु गांधीजी का योगदान सिर्फ़ भारत की सीमाओं तक सीमित नहीं था। उनका प्रभाव सम्पूर्ण मानव जाति पर पड़ा क़ानून के पेशे में गांधी की अधिकतम आय 5,000 रुपये प्रतिवर्ष पहुँच गई थी लेकिन पैसा कमाने में उनकी अधिक रुचि नहीं थी और उनकी बचत अक्सर सार्वजनिक गतिविधियों पर खर्च हो जाती थी। डरबन में और फिर जोहेन्सबर्ग में, उन्होंने सदाव्रत खोल रखा था। उनका घर युवा सहकर्मियों तथा राजनीतिक सहयोगियों का ठिकाना बन गया था। यह सब उनकी पत्नी को परेशान करता था। जिनके असाधारण धैर्य, सहनशीलता और आत्मबलिदान के बिना गांधी सार्वजनिक सरोकार के प्रति शायद ही स्वयं को समर्पित कर पाते। जैसे-जैसे वे दोनों परिवार और सम्पत्ति के पारम्परिक बंधनों से मुक्त होते गए, उनके निजी व सामुदायिक जीवन का अंतर सिमटता गया। गांधी सादा जीवन, शारीरिक श्रम और संयम के प्रति अत्यधिक आकर्षण महसूस करते थे। 1904 में पूँजीवाद के आलोचक जॉन रस्किन के ‘अनटू दिस लास्ट’ पढ़ने के बाद उन्होंने डरबन के पास फ़ीनिक्स में एक फ़ार्म की स्थापना की, जहाँ वह अपने मित्रों के साथ केवल अपने श्रम के बूते पर जी सकते थे। छः वर्ष के बाद गांधी की देखरेख में जोहेन्सबर्ग के पास एक नई बस्ती विकसित हुई। रूसी लेखक और नीतिज्ञ के नाम पर इसे ‘टॉल्सटाय फ़ार्म’ का नाम दिया गया। गांधी टॉल्सटाय के प्रशंसक थे और उनसे पत्र व्यवहार करते थे। ये दो बस्तियाँ, भारत में अहमदाबाद के पास साबरमती और वर्धा के पास सेवाग्राम में बनीं, जो अधिक प्रसिद्ध आश्रमों की पूर्ववर्ती थीं। राम-शब्द के उच्चारण से लाखों—करोड़ों हिन्दुओं पर फ़ौरन असर होगा। और ‘गॉड’ शब्द का अर्थ समझने पर भी उसका उन पर कोई असर न होगा। चिरकाल के प्रयोग से और उनके उपयोग के साथ संयोजित पवित्रता से शब्दों को शक्ति प्राप्त होती है। महात्मा गांधी राष्ट्रवादी भारत के नेता के रूप में उदय सन् 1914 में गांधीजी भारत लौट आये। देशवासियों ने उनका भव्य स्वागत किया और उन्हें महात्मा पुकारना शुरू कर दिया। उन्होंने अगले चार वर्ष भारतीय स्थिति का अध्ययन करने तथा स्वयं को उन लोगों को तैयार करने में बिताये जो सत्याग्रह के द्वारा भारत में प्रचलित सामाजिक व राजनीतिक बुराइयों को हटाने में उनका अनुगमन करना चाहते थे। इस दौरान गांधीजी मूक पर्यवेक्षक नहीं रहे। 1915 से 1918 तक के काल में गांधी भारतीय राजनीति की परिधि पर अनिश्चितता से मंडराते रहे। इस काल में उन्होंने किसी भी राजनीतिक आंदोलन में शामिल होने से इन्कार कर दिया तथा प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन के प्रयासों, यहाँ तक की भारत की ब्रिटिश फ़ौज में सिपाहियों की भर्ती का भी समर्थन किया। साथ ही वह ब्रिटिश अधिकारियों की उद्दंडता भरी हरकतों की आलोचना भी करते थे तथा उन्होंने बिहार व गुजरात के किसानों के उत्पीड़न का मामला भी उठाया। फ़रवरी 1919 में रॉलेक्ट एक्ट पर, जिसके तहत किसी भी व्यक्ति को बिना मुक़दमा चलाए जेल भेजने का प्रावधान था, उन्होंने अंग्रेज़ों का विरोध किया।
 गांधी ने सत्याग्रह आन्दोलन की घोषणा की। इसके परिणामस्वरूप एक ऐसा राजनीतिक भूचाल आया, जिसने 1919 के बसंत में समूचे उपमहाद्वीप को झकझोर दिया। हिंसा भड़क उठी, जिसके बाद ब्रिटिश नेतृत्व में सैनिकों ने अमृतसर में जलियांवाला बाग़ की एक सभा में शामिल लोगों पर गोलियाँ बरसाकर लगभग 400 भारतीयों का मार डाला और मार्शल लॉ लगा दिया गया। इसने गांधी को अपना रुख बदलने के लिए प्रेरित किया, लेकिन एक साल के भीतर ही वह एक बार फिर उग्र तेवर में आ गए। ब्रिटिश अदालतों तथा स्कूल और कॉलेजों का बहिष्कार करें तथा सरकार के साथ असहयोग करके उसे पूरी तरह अपंग बना दें। भारत में सत्याग्रह 30 जनवरी मार्ग, दिल्ली, जहाँ गाँधी जी को गोली मारी गईगांधी जी ने वर्ष 1917-18 के दौरान बिहार के चम्पा़रण नामक स्थामन के खेतों में पहली बार भारत में सत्याजग्रह का प्रयोग किया। यहाँ अकाल के समय ग़रीब किसानों को अपने जीवित रहने के लिए जरुरी खाद्य फ़सलें उगाने के स्थाान पर नील की खेती करने के लिए ज़ोर डाला जा रहा था। उन्हें अपनी पैदावार का कम मूल्य दिया जा रहा था और उन पर भारी करों का दबाव था। गांधी जी ने उस गांव का विस्तृंत अध्य यन किया और जमींदारों के विरुद्ध विरोध का आयोजन किया, जिसके परिणाम स्व रूप उन्हेंभ गिरफ्तार कर लिया गया। उनके कारावास में डाले जाने के बाद और अधिक प्रदर्शन किए गए। जल्दीक ही गांधी जी को छोड़ दिया गया और जमींदारों ने किसानों के पक्ष में एक करारनामे पर हस्तािक्षर किए, जिससे उनकी स्थिति में सुधार आया। मैं तो एक ऐसे राष्ट्रपति की कल्पना करता हूँ जो नाई या मोची का धन्धा करके अपना निर्वाह करता हो और साथ ही राष्ट्र की बागडोर भी अपने हाथों में थामे हुए हो। महात्मा गांधी इस सफलता से प्रेरणा लेकर महात्माो गांधी ने भारतीय स्वंतंत्रता के लिए किए जाने वाले अन्यी अभियानों में सत्यालग्रह और अहिंसा के विरोध जारी रखे, जैसे कि ‘असहयोग आंदोलन’, ‘नागरिक अवज्ञा आंदोलन’, ‘दांडी यात्रा’ तथा ‘भारत छोड़ो आंदोलन’, गांधी जी के प्रयासों से अंत में भारत को 15 अगस्त, 1947 को स्व तंत्रता मिली। रॉलेक्ट एक्ट क़ानून गांधीजी के इस आह्वान पर रॉलेक्ट एक्ट क़ानून के विरोध में बम्बई तथा देश के सभी प्रमुख नगरों में 30 मार्च 1919 को और 6 अप्रैल 1919 को हड़ताल हुई। हड़ताल के दिन सभी शहरों का जीवन ठप्प हो गया। व्यापार बंद रहा और अंग्रेज़ अफ़सर असहाय से देखते रहे। इस हड़ताल ने असहयोग के हथियार की शक्ति पूरी तरह प्रकट कर दी। सन् 1920 में गांधीजी कांग्रेस के नेता बन गये और उनके निर्दश और उनकी प्रेरणा से हज़ारों भारतीयों ने ब्रिटिश सरकार के साथ पूर्ण सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया। हज़ारों असहयोगियों को ब्रिटिश जेलों में ठूँस दिया गया और लाखों लोगों पर सरकारी अधिकारियों ने बर्बर अत्याचार किये। ब्रिटिश सरकार के इस दमनचक्र के कारण लोग अहिंसक न रह सके और कई स्थानों पर हिंसा भड़क उठी। हिंसा का इस तरह भड़क उठना गांधीजी को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने स्वीकार किया कि अहिंसा के अनुशासन में बाँधे बिना लोगों को असहयोग आंदोलन के लिए प्रेरित कर उन्होंने ‘हिमालय जैसी भूल की है’ और यह सोचकर उन्होंने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। अहिंसक असहयोग आंदोलन के फलस्वरूप जिस स्वराज्य को गांधीजी ने एक वर्ष के अंदर लाने का वादा किया था वह नहीं आ सका। फिर भी लोग आंदोलन की विफलता की ओर ध्यान नहीं देना चाहते थे, क्योंकि असलियत में देखा जाए तो इस अहिंसक असहयोग आंदोलन को जबरदस्त सफलता हासिल हुई। उसने भारतीयों के मन से ब्रिटिश तोपों, संगीनों और जेलों का ख़ौफ़ निकालकर उन्हें निडर बना दिया। जिससे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिल गयी। भारत में ब्रिटिश शासन के दिन अब इने-गिने रह गये। फिर भी अभी संघर्ष कठिन और लम्बा था। सन् 1922 में गांधीजी को राजद्रोह के अभियोग में गिरफ़्तार कर लिया गया। उन पर मुक़दमा चलाया गया और एक मधुरभाषी ब्रिटिश जज ने उन्हें छः वर्ष की क़ैद की सज़ा दी। सन् 1924 में अपेंडिसाइटिस की बीमारी की वजह से उन्हें रिहा कर दिया गया। असहयोग आन्दोलन मुख्य लेख : असहयोग आन्दोलन महात्मा गाँधी 1920 के पतझड़ तक गांधी राजनीतिक मंच पर छा गए थे और भारत या शायद किसी भी देश में, किसी राजनीतिज्ञ का इतना प्रभाव कभी भी नहीं रहा था। उन्होंने 35 वर्ष पुरानी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को भारतीय राष्ट्रवाद के प्रभावशाली राजनीतिक हथियार में बदल दिया। गांधी का संदेश बहुत सरल था। अंग्रेज़ों की बंदूकों ने नहीं, बल्कि भारतवासियों की अपनी कमियों ने भारत को ग़ुलाम बनाया हुआ है। ब्रिटिश सरकार के साथ उनके अहिंसक असहयोग में न सिर्फ़ वस्तुओं, बल्कि भारत में अंग्रेज़ों द्वारा संचालित या उनकी मदद से चल रहे संस्थानों—जैसे विधायिका, न्यायालय, कार्यालय या स्कूल – का बहिष्कार भी शामिल था। इस कार्यक्रम ने देश में जोश फूँक दिया, विदेशी शासन के भय का फंदा काट दिया और इसके फलस्वरूप क़ानून तोड़कर ख़ुशी-ख़ुशी जेल जाने को तैयार हज़ारों सत्याग्रहियों को गिरफ़्तार कर लिया गया। मानस का प्रत्येक पृष्ठ भक्ति से भरपूर है। मानस अनुभवजन्य ज्ञान का भण्डार है। महात्मा गांधी फ़रवरी 1922 में यह आन्दोलन ज़ोर पकड़ता प्रतीत हुआ, लेकिन पूर्वी भारत के दूरदराज़ के एक गाँव चौरी चौरा में हिंसा भड़कने से चिन्तित गांधी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन वापस ले लिया। 10 मार्च 1922 को गांधी को गिरफ़्तार कर लिया गया और उन्हें छः वर्षों के कारावास की सज़ा हुई। अपेंडिसाइटिस के आपरेशन के बाद फ़रवरी 1924 में उन्हें रिहा कर दिया गया। उनकी अनुपस्थिति में राजनीतिक परिदृश्य बदल चुका था। कांग्रेस पार्टी दो भागों में विभक्त हो चुकी थी। एक चित्तरंजन दास और मोतीलाल नेहरू (भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पिता) के नेतृत्व में था। जो विधायिकाओं में पार्टी के प्रवेश के समर्थक थे और दूसरा सी. राजगोपालाचारी और वल्लभभाई झवेरभाई पटेल का था, जो इसके विरोधी थे। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह हुई कि 1920-22 के दौरान असहयोग आन्दोलन में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच मौजूद एकता ख़त्म हो चुकी थी। गांधी ने दोनों समुदायों का समझा-बुझाकर उन्हें शंकाओं तथा कट्टरवाद के घेरे से बाहर निकालने का प्रयास किया। अंततः एक गम्भीर साम्प्रदायिक हिंसा के बाद 1924 के पतझड़ में उन्होंने तीन सप्ताह का उपवास किया, ताकि लोगों को अहिंसा के मार्ग पर चलने को प्रेरित किया जा सके। रचनात्मक कार्यक्रमसन् 1925 में जब अधिकांश कांग्रेस जनों ने 1919 के भारतीय शासन विधान द्वारा स्थापित कौंसिल में प्रवेश करने की इच्दा प्रकट की तो गांधीजी ने कुछ समय के लिए सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया और उन्होंने अपने आगामी तीन वर्ष ग्रामोंत्थान कार्यों में लगाय। उन्होंने गाँवों की भयंकर निर्धनता को दूर करने के लिए चरखे पर सूत कातने का प्रचार किया और हिन्दुओं में व्याप्त छुआछूत को मिटाने की कोशिश की। अपने इस कार्यक्रम को गांधीजी ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ कहते थे। जुलुस की तैयारी टाउन होल – पोरबंदर 1915इस कार्यक्रम के ज़रिये वे अन्य भारतीय नेताओं के मुक़ाबले, गाँवों में निवास करने वाली देश की 90 प्रतिशत जनता के बहुत अधिक निकट आ गये। उन्होंने सारे देश में गाँव-गाँव की यात्रा की, गाँव वालों की पोशाक अपना ली और उनकी भाषा में उनसे बातचीत की। इस प्रकार उन्होंने गाँवों में रहने वाली करोड़ों की आबादी में राजनीतिक जागृति पैदा कर दी और स्वराज्य की माँग को मध्यमवर्गीय आंदोलन के स्तर से उठाकर देशव्यापी अदम्य जन-आंदोलन का रूप दे दिया। गोलमेज सम्मेलन करेंगे या मरेंगे. नोट इस प्रकार है- ‘हर व्यक्ति को इस बात की खुली छूट है कि वह अहिंसा पर आचरण करते हुए अपना पूरा ज़ोर लगाए। हड़तालों और दूसरे अहिंसक तरीकों से पूरा गतिरोध (पैदा कर दीजिए)। सत्याग्रहियों को मरने के लिए न कि जीवित रहने के लिए, घरों से निकलना होगा। उन्हें मौत की तलाश में फिरना चाहिए और मौत का सामना करना चाहिए। जब लोग मरने के लिए घर से निकलेंगे तभी कौम बचेगी, करेंगे या मरेंगे।’ 9 अगस्त 1942 को अपनी गिरफ्तारी से पूर्व सुबह पांच बजे:- महात्मा गाँधी 1920 के दशक के मध्य में सक्रिय राजनीति में गांधी ने अधिक रुचि नहीं दिखाई। लेकिन 1927 में ब्रिटिश सरकार ने सर जॉन साइमन के नेतृत्व में एक संविधान सुधार आयोग का गठन किया, जिसमें किसी भी भारतीय को शामिल नहीं किया गया था। कांग्रेस और अन्य पार्टियों के द्वारा आयोग का बहिष्कार किए जाने से राजनीतिक घटनाक्रम तेज़ हुआ। दिसम्बर 1928 में कोलकाता कांग्रेस की बैठक के बाद, जिसमें गांधी ने पूर्ण स्वराज्य के लिए देशव्यापी अहिंसक आंदोलन की धमकी देकर ब्रिटिश सरकार से एक साल के भीतर भारत को अधिराज्य का दर्जा दिए जाने की महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव रखा। कांग्रेस पार्टी पर फिर से गांधी का नियंत्रण हो गया। समाज के निर्धन वर्ग को प्रभावित करने वाले नमक-कर के ख़िलाफ़ उन्होंने मार्च 1930 में सत्याग्रह शुरू किया। ब्रिटिश राज्य के ख़िलाफ़ गांधी के अहिंसक युद्ध में यह सबसे विशाल और सफल आंदोलन था और इसके फलस्वरूप 60 हज़ार से अधिक लोग गिरफ़्तार किए गए। एक साल बाद भारत के ब्रिटिश वाइसराय लॉर्ड इरविन के साथ बातचीत के बाद गांधी ने एक समझौता स्वीकार कर लिया। सविनय अवज्ञा आन्दोलन वापस ले लिया और लंदन में गोलमेज सम्मेलन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में शामिल होने के लिए सहमत हो गए। गांधीजी वहाँ पर एक सामान्य ग्रामीण भारतीय की तरह धोती पहने और चादर ओढ़े उपस्थित हुए, जिसका विस्टन चर्चिल ने खूब मज़ाक़ उड़ाया और उन्हें ‘भारतीय फ़क़ीर’ की संज्ञा दी। अंग्रेज़ों से सत्ता के हस्तांतरण के बजाय भारतीय अल्पसंख्यकों की समस्या पर केन्द्रित यह सम्मेलन भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए घोर निराशाजनक था। इसके अलावा, जब दिसम्बर 1931 में गांधी स्वदेश लौटे तो उन्होंने पाया कि उनकी पार्टी को लॉर्ड विलिंगडन का चौतरफ़ा आक्रमण झेलना पड़ रहा है। महात्मा गाँधी गांधी को एक बार फिर जेल भेज दिया गया और सरकार ने उन्हें बाहरी दुनिया से अलग-थलग करने तथा उनके प्रभाव को समाप्त करने का प्रयास किया। यह आसान कार्य नहीं था। सितंबर 1932 में बंदी अवस्था में ही गांधी ने ब्रिटिश सरकार के द्वारा नए संविधान में अछूतों (दलित हिन्दू) को अलग मतदाता सूची में शामिल करके उन्हें अलग करने के निर्णय के ख़िलाफ़ अनशन शुरू कर दिया। इसके फलस्वरूप देश भर में भावनात्मक आवेग उमड पड़ा। हिन्दू समुदाय और दलित नेताओं ने मिल-जुलकर तेजी से एक वैकल्पिक मतदाता सूची की व्यवस्था की रूपरेखा बनाई और ब्रिटिश सरकार ने इसे मंजूरी दे दी। यह अनशन अछूतों के ख़िलाफ़ भेदभाव दूर करने के ज़ोरदार आन्दोलन का आरम्भ था। गांधी ने इन्हें ‘हरिजन’ नाम दिया और ‘अखिल भारतीय हरिजन संघ’ की स्थापना की। जिसका अर्थ होता है, ‘ईश्वर की संतान’। विकारी विचार से बचने का एक अमोघ उपाय राम-नाम है। नाम कंठ से नहीं, किन्तु हृदय से निकलना चाहिए। महात्मा गांधी 1934 में गांधी ने न सिर्फ़ कांग्रेस के नेता के पद से, बल्कि पार्टी की सदस्यता से भी इस्तीफ़ा दे दिया। उनका मानना था कि पार्टी के अग्रणी सदस्यों ने सिर्फ़ राजनीतिक कारणों से अहिंसा को अपनाया है। राजनीतिक गतिविधियों के स्थान पर अब उन्होंने ‘रचनात्मक कार्यक्रमों’ के ज़रिये ‘सबसे निचले स्तर से’ राष्ट्र के निर्माण पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। उन्होंने ग्रामीण भारत को, जो देश की आबादी का 85 प्रतिशत था, शिक्षित करने, छुआछूत के ख़िलाफ़ लड़ाई जारी रखने, हाथ से कातने, बुनने और अन्य कुटीर उद्योगों के अर्द्ध बेरोज़गार किसानों की आय में इज़ाफ़ा करने के लिए बढ़ावा देने और लोगों की आवश्यकताओं के अनुकूल शिक्षा प्रणाली बनाने का काम शुरू किया। स्वयं गांधी मध्य भारत के एक गाँव सेवाग्राम में रहने चले गए, जो सामाजिक और आर्थिक विकास के उनके कार्यक्रमों का केन्द्र बना। महात्मा गाँधी और विश्व मुख्य लेख : महात्मा गाँधी और विश्व विश्व पटल पर महात्मा गाँधी सिर्फ़ एक नाम नहीं अपितु शान्ति और अहिंसा का प्रतीक है। महात्मा गाँधी के पूर्व भी शान्ति और अहिंसा की अवधारणा फलित थी, परन्तु उन्होंने जिस प्रकार सत्याग्रह एवं शान्ति व अहिंसा के रास्तों पर चलते हुये अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया, उसका कोई दूसरा उदाहरण विश्व इतिहास में देखने को नहीं मिलता। तभी तो प्रख्यात वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा था कि -‘‘हज़ार साल बाद आने वाली नस्लें इस बात पर मुश्किल से विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना ऐसा कोई इन्सान धरती पर कभी आया था।’’ संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी वर्ष 2007 से गाँधी जयन्ती को ‘विश्व अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाये जाने की घोषणा की। सम्मान में जारी डाक टिकट मुख्य लेख : डाक टिकटों में महात्मा गाँधी एशिया महाद्वीप के रूस (रशिया), तजाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, वियतनाम, बर्मा, ईरान, भूटान, श्रीलंका, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, किरगीजिस्तान, यमन, सीरिया और साइप्रस जैसे देश इनमें प्रमुख हैं। यूरोपीय देशों में बेल्जियम हंगरी, चेकोस्लोवाकिया, जर्मनी, जिब्राल्टर, ब्रिटेन, यूनान, माल्टा, पोलेंड, रोमानिया, आयरलैंड, लक्जमबर्ग, ईजडेल द्वीप समूह, मैकोडोनिया, सैन मरीनो और स्टाफ़ा स्काटलैंड के नाम प्रमुख हैं। अमरीकी देशों में संयुक्त राज्य अमरीका (यूनाइटेड स्टेट), ब्राजील, चिली, कोस्टा रीका, क्यूबा, ग्रेनाडा, गुयाना, मेक्सिको, मोंटेसेरेट, पनामा, सूरीनाम, उरुग्वे, वेनेजुएला, ट्रिनिनाड व टोबैगो, निकारागुआ, नेविस, डोमिनिका, एँटीगुआ एवं बारबूडा के नाम उल्लेखनीय हैं। अफ्रीकी देशों में बुर्कीना फासो कैमरून, चाडक़ामरूज, कांगो, मिश्र, गैबन, गांबिया, घाना, लाइबेरिया, मैडागास्कर, माली, मारिटैनिया, मॉरिशस, मोरक्को, मोजांबिक, नाइजर, सेनेगल, सिएरा लियोन, सोमालिया, दक्षिण अफ्रीका, तंजानिया, टोगो, यूगांडा, और जांबिया के नाम प्रमुख हैं। आस्ट्रेलियाई देशों में ऑस्ट्रेलिया, पलाऊ, माइक्रोनेशिया और मार्शल द्वीप प्रमुख हैं। अतिरिक्त देशो में साईबेरिया, ग्रेनेडा, सन मेरिनो, रोम, कोस्टारिका हैं। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पहल करते हुए चार डाक टिकट पर बापू को डिजाइन का हिस्सा बनाया। लेकिन जनवरी में ही बापू की गोली मारकर हत्या कर दी गई। बापू श्रृंखला के यह चारों डाक टिकट जो 2 अक्टूबर 1948 को जारी किया जाना था, उसे 15 अगस्त 1948 को ही जारी कर दिया गया। ख़ास बात यह है कि इन चारों डाक टिकटों को स्विट्जरलैंड में छपवाया गया था। इनके मूल्य डेढ़ आना, साढ़े तीन आना और 12 आना रखा गया था। गांधीजी के साथ ‘बा’ यानी कस्तूरबा गांधी को भी उन डाक टिकटों में जगह दी गई है। 1979 में जारी किया गया डाक-टिकट में बापू को बच्चे से स्नेह करते हुए दर्शाया गया है। यह चित्र महात्मा गांधी का बच्चों के प्रति प्रेम को दर्शाता है। अन्तिम चरण दूसरा विश्व युद्ध शुरू होने के साथ ही भारत का राष्ट्रवादी संघर्ष अपने अन्तिम महत्त्वपूर्ण चरण में प्रवेश कर गया। भारतीय स्वशासन का आश्वासन दिए जाने की शर्त पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस युद्ध में अंग्रेज़ों का साथ देने को तैयार थी। एक बार फिर गांधी राजनीतिक रूप से सक्रिय हो गए। 1942 के ग्रीष्म में गांधी ने अंग्रेज़ों से तत्काल भारत छोड़ने की माँग की। फ़ासीवादी शक्तियों (एक्सिस), विशेषकर जापान के ख़िलाफ़ युद्ध महत्त्वपूर्ण चरण में था। अंग्रेज़ों ने तुरन्त ही प्रतिक्रिया दिखाई और कांग्रेस के समूचे नेतृत्व को गिरफ़्तार कर लिया और पार्टी को हमेशा के लिए कुचल देने का प्रयास किया। इसके फलस्वरूप हिंसा भड़क उठी, जिसे सख़्ती से दबा दिया गया। भारत और ब्रिटेन के बीच की दूरी पहले से भी कहीं अधिक बढ़ गई। 1945 में लेबर पार्टी की जीत के साथ ही भारत-ब्रिटेन के सम्बन्धों में एक नए अध्याय की शुरुआत हुई। अगले दो वर्ष के दौरान ब्रिटिश सरकार मुस्लिम लीग के नेता एम. ए. जिन्ना और कांग्रेस पार्टी के नेताओं के बीच लम्बी त्रिपक्षीय वार्ताएँ हुईं, जिसके फलस्वरूप 3 जून, 1947 को माउंटबेटन योजना तैयार हुई और 15 अगस्त 1947 को दो नए राष्टों, भारत व पाकिस्तान का निर्माण हुआ। राष्ट्रों की प्रगति क्रमिक विकास और क्रान्ति दोनों तरीक़ों से हुई है। क्रमिक विकास और क्रान्ति दोनों ही समान रूप से ज़रूरी हैं। महात्मा गांधी भारत की अखण्डता के बिना देश का स्वतंत्र होना गांधी के जीवन की सबसे बड़ी निराशाओं में से एक था। जब गांधी तथा उनके सहयोगी जेल में थे, तो मुस्लिम अलगाववाद को काफ़ी बढ़ावा मिला और 1946-47 में, जब संवैधानिक व्यवस्थाओं पर अन्तिम दौर की बातचीत चल रही थी, हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच भड़की साम्प्रदायिक हिंसा ने ऐसा अप्रिय माहौल बना दिया कि जिसमें गांधी की तर्क और न्याय, सहिष्णुता और विश्वास सम्बन्धी अपीलों के लिए कोई स्थान नहीं था। जब उनकी राय के ख़िलाफ़ उपमहाद्वीप के विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया, तो वह साम्प्रदायिक संघर्ष से समाज पर लगे ज़ख़्मों को भरने में तन मन से जुट गए। उन्होंने बंगाल व बिहार के दंगाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा किया। इसके शिकार हुए लोगों को दिलासा दिया और शरणार्थियों के पुनर्वास का प्रयास किया। शंका और घृणा से भरे माहौल में यह एक मुश्किल और हृदय विदारक कार्य था। गांधी पर दोनों समुदायों ने आरोप लगाए। जब उनकी बातों का कोई असर नहीं हुआ तो वह अनशन पर बैठ गए। उन्हें कम से कम दो महत्त्वपूर्ण सफलताएँ मिलीं। सितंबर 1947 में उनके उपवास ने कलकत्ता में दंगे बंद करवा दिए और जनवरी 1948 में उन्होंने दिल्ली में साम्प्रदायिक शान्ति क़ायम कर दी। निधन 30 जनवरी 1948 की शाम को जब वह एक प्रार्थना सभा में भाग लेने जा रहे थे, तब एक युवा हिन्दू कट्टरपंथी नाथूराम गोडसे ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। शोकाकुल सूचना अपने महान नेता की मृत्यु का समाचार सुनकर सारा देश शोकाकुल हो उठा। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू ने राष्ट्र को महात्मा जी की हत्या की सूचना इन शब्दों में दी, ‘हमारे जीवन से प्रकाश चला गया और आज चारों तरफ़ अंधकार छा गया है। मैं नहीं जानता कि मैं आपको क्या बताऊँ और कैसे बताऊँ। हमारे प्यारे नेता, राष्ट्रपिता बापू अब नहीं रहे।’ महात्मा गांधी वास्तव में भारत के राष्ट्रपिता थे। 27 वर्षों के अल्पकाल में उन्होंने भारत को सदियों की दासता के अंधेरे से निकालकर आज़ादी के उज़ाले में पहुँचा दिया। किन्तु गांधीजी का योगदान सिर्फ़ भारत की सीमाओं तक सीमित नहीं था। उनका प्रभाव सम्पूर्ण मानव जाति पर पड़ा, जैसा की अर्नाल्ड टायनबीन ने लिखा है–’हमने जिस पीढ़ी में जन्म लिया है, वह न केवल पश्चिम में हिटलर और रूस में स्टालिन की पीढ़ी है, वरन वह भारत में गांधीजी की पीढ़ी भी है और यह भविष्यवाणी बड़े विश्वास के साथ की जा सकती है कि मानव इतिहास पर गांधीजी का प्रभाव स्टालिन या हिटलर से कहीं ज़्यादा और स्थायी होगा। इतिहास में स्थान गांधी के प्रति अंग्रेज़ो का रुख प्रशंसा, कौतुक, हैरानी, शंका और आक्रोश का मिला-जुला रूप था। गांधी के अपने ही देश में, उनकी अपनी ही पार्टी में, उनके आलोचक थे। नरमपंथी नेता यह कहते हुए विरोध करते थे कि वह बहुत तेज़ी से बढ़ रहे हैं। युवा गरमपंथियों की शिकायत यह थी कि वे तेज़ी से नहीं हैं। वामपंथी नेता आरोप लगाते थे कि वह अंग्रेज़ों को बाहर निकालने या रजवाड़ों और सामंतों का समाप्त करने के प्रति गम्भीर नहीं हैं। दलितों के नेता समाज सुधारक के रूप में उनके सदभाव पर शंका करते थे और मुसलमान नेता उन पर अपने समुदाय के साथ भेदभाव का आरोप लगाते थे। मेरी मान्यता है कि कोई भी राष्ट्र धर्म के बिना वास्तविक प्रगति नहीं कर सकता। महात्मा गांधी हाल में हुए शोध ने गांधी की भूमिका महान मध्यस्थ और संधि कराने वाले के रूप में स्थापित की है। यह तो होना ही था कि जनमानस में उनकी राजनेता-छवि अधिक विशाल हो, किन्तु उनके जीवन का मूल राजनीति नहीं, धर्म में निहित था और उनके लिए धर्म का अर्थ औपचारिकता, रूढ़ि, रस्म-रिवाज़ और साम्प्रदायिकता नहीं था। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है–’मैं इन तीस वर्षों में ईश्वर को आमने-सामने देखने का प्रयत्न और प्रार्थना करता हूँ’, उनके महानतम प्रयास आध्यात्मिक थे। लेकिन अपने अनेक ऐसे ही इच्छुक देशवासियों के समान उन्होंने ध्यान लगाने के लिए हिमालय की गुफ़ाओं में शरण नहीं ली। उनकी राय में वह अपनी गुफ़ा अपने भीतर ही साथ लिए चलते थे। उनके लिए सच्चाई ऐसी वस्तु नहीं थी, जिसे निजी जीवन के एकांत में ढूँढा जा सके। वह सामजिक और राजनीतिक जीवन के चुनौतीपूर्ण क्षणों में क़ायम रखने की चीज़ थी। अपने लाखों देशवासियों की नज़रों में वह ‘महात्मा’ थे। उनके आने-जाने के मार्ग पर उन्हें देखने के लिए एकत्र भीड़ द्वारा अंधश्रद्धा से उनकी यात्राएँ कठिन हो जाती थीं। वह मुश्किल से दिन में काम कर पाते थे या रात को विश्राम। उन्होंने लिखा है कि महात्माओं के कष्ट सिर्फ़ महात्मा ही जानते हैं। गांधी के सबसे बड़े प्रशसकों में अलबर्ट आइंस्टाइन भी थे, जिन्होंने गांधी के अहिंसा के सिद्धांत को अणु के विखण्डन से पैदा होने वाली दानवाकार हिंसा की प्रतिकारी औषधि के रूप में देखा। स्वीडन के अर्थशास्त्री गुन्नार मिर्डल ने अविकसित विश्व खंड की समस्याओं के सामाजिक, आर्थिक सर्वेक्षण के बाद गांधी को लगभग सभी क्षेत्रों में एक ज्ञानवार उदार व्यक्ति की संज्ञा दी।
साभार भारतकोश

आकर्षक देह की चाह में भटकता मन


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परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है, लेकिन पिछले कुछ दशकों में सुंदरता को लेकर जितना बदलाव लोगों के विचारों में आया है, उतना शायद कहीं और देखने को नहीं मिला है। आज सुंदरता को सैक्स अपील के नजरिये से देखा जाने लगा है। इसी मानसिकता के चलते सुंदरता की परिभाषा उच्च विचार न होकर आकर्षक देह तक सिमट कर रह गई है। मौजूदा दौर में युवाओं से लेकर प्रौढ़ वर्ग की महिलाओं व पुरुषों तक में सुंदर दिखने की चाह तेजी से बढ़ रही है। लड़कियां प्रीति जिंटा जैसा गोरा रंग, सुष्मिता सेन जैसी लंबाई और शिल्पा शेट्टी जैसा सांचे में ढला जिस्म पाने की अभिलाषी हैं, तो लड़के भी सलमान खान जैसी बॉडी पाने के लिए कसरत करने में जुटे हैं। अब आकर्षक शरीर व्यक्तित्व का अहम हिस्सा बन चुका है।
वरिष्ठ फिल्म संपादक आजाद सिंह का कहना है कि मीडिया ने भी इस प्रवृति को बढ़ावा दिया है कि सुंदरता सफलता का 'शॉर्टकट' है। इसके जरिये आसानी से पैसा और प्रसिध्दि हासिल की जा सकती है। फिल्म निर्माता भी अभिनय के बल पर नहीं, बल्कि नायक और नायिका के आकर्षक जिस्म को दिखाकर दर्शकों को टिकट खिड़की तक खींच लेना चाहते हैं। उनका यह प्रयास काफी हद तक सफल भी हुआ है, चाहे बिपाशा बसु की फिल्म 'जिस्म' हो या लारा दत्ता और प्रियंका चोपड़ा की 'अंदाज'। हरियाणा की छोरी मल्लिका शेरावत और हिमांशु ने भी 'ख्वाहिश' फिल्म में भी यही ट्रेंड अपनाया गया था। टीवी पर विज्ञापनों में यही सब दिखाया जा रहा है कि फलां लड़की ने फलां क्रीम लगाई या साबुन इस्तेमाल किया तो उसे मनचाही नौकरी या पति मिल गया। लड़के ने फलां शेविंग क्रीम या शैंपू इस्तेमाल किया तो लड़कियां उसकी दीवानी हो गईं।
इंसान की फितरत है कि वह ग्लैमर व तेजी से बदलती चीजों के प्रति आसानी से आकर्षित हो जाता है। इसलिए ग्लैमर की दुनिया का आकर्षण युवाओं को अपनी ओर खींच रहा है। आज महज चेहरे की सुंदरता को ही महत्व न देकर सिर के बालों से लेकर पैरों के नाखूनों तक के सुंदर होने को अहमियत दी जा रही है।
लोग अपनी फिटनेस को लेकर बेहद जागरूक हैं, जिसका अंदाजा समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं के 'व्यक्तिगत समस्याएं' नामक स्तंभों में प्रकाशित होने वाले पत्रों को देखकर सहज ही लगाया जा सकता है। युवाओं की बात तो दूर प्रौढ़ वर्ग के महिला व पुरुष भी विशेषज्ञों को पत्र लिखकर उनसे गोरा होने, कद बढ़ाने और जिस्म को आकर्षक बनाने के तरीके पूछते हैं। वे दो टूक शब्दों में कहते हैं कि किसी भी व्यक्ति का पहला प्रभाव उसे (शरीर) देखकर ही लगता है। एक निजी कंपनी के संचालक कहते हैं कि ''मैं चाहता हूं कि मेरे पास काम करने वाले लड़के व लड़कियां सुंदर और स्मार्ट हों, क्योंकि मेरा काम पब्लिक डीलिंग से जुड़ा है। एक सुंदर सैल्समैन या सैल्स गर्ल की बात सुनना भला कौन पसंद नहीं करेगा।''
ग्राफिक्स डिजाइनर हिमांशु का कहना है कि ''मैं चाहता हूं कि मेरी गर्लफ्रैंड देखने में आकर्षक हो। पत्नी के रूप में भी मैं एक सुंदर लड़की के ही सपने देखता हूं।'' यही चाह लड़कियों की भी है। अनुराधा का कहना है कि एक हैंडसम लड़के से दोस्ती करना या उसे जीवनसाथी बनाना हर लड़की का सपना होता है। सिर्फ गुणों की बात करना कोरा आदर्शवाद ही होगा। आज अच्छी सीरत के साथ अच्छी फिगर होना भी जरूरी हो गया है। वह तर्क देती हैं कि शादी के समय भी लड़की देखने के प्रति लोगों की यही चाहत होती है, उनके घर चांद सी बहू आए। अब तो लड़के भी डिमांड करने लगे हैं कि उनकी होने वाली पत्नी सुंदर और आकर्षक हो।
आकर्षक फिगर पाने के लिए लड़के और लड़कियां डायटिंग करते हैं, तरह-तरह की दवाओं का सेवन करते हैं, इंजेक्शन लेते हैं। नीम-हकीमों के चंगुल में फंसकर पैसा और सेहत बर्बाद करते हैं। नतीजतन उन्हें भूख न लगना, अनिंद्रा, तनाव, चिड़चिड़ापन, शरीर पर बाल उगना व सूजन आ जाना जैसी कई तरह की बीमारियां घेर लेती हैं। फिटनेस विशेषज्ञ डॉ. फिरोज कहते हैं कि सुंदर दिखने की चाह होना स्वाभाविक है। आज विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि इंसान साधारण रंग-रूप को आकर्षक बना सकता है, लेकिन इसके लिए यह बेहद जरूरी है कि दवाओं का सेवन विशेषज्ञों की सलाह पर ही किया जाए। अमूमन देखने में आता है कि मार्गदर्शन के अभाव में युवा अपनी मर्जी से कद लंबा करने, गोरा होने, स्लिम होने, वनज बढ़ाने या मोटापा घटाने की दवाओं का सेवन शुरू कर देते हैं। इसकी वजह से उन्हें कई बीमरियों के रूप में इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। रंग साफ करने की तरह-तरह की क्रीम इस्तेमाल करने से चेहरे पर झुर्रियां पड़ जाती हैं। कई बार तो त्वचा तक जल जाती है। लंबाई बढ़ाने की दवाओं से शरीर पर सूजन आ जाती है। इसी तरह स्लिम होने की दवाओं से सिरोसिस ऑफ लीवर नामक बीमारी हो जाती है। इससे भूख बिल्कुल बंद हो जाती है और व्यक्ति कुपोषण से संबंधित बीमारियों का शिकार हो जाता है। वजन बढ़ाने की दवाएं भी पाचन तंत्र को प्रभावित करती हैं। इससे भूख ज्यादा लगने लगती है और व्यक्ति ज्यादा खाना खाने लगता है। इसके कारण एक बारगी तो वजन बढ़ जाता है, लेकिन दवाओं का सेवन बंद करते ही वजन तेजी से घटने लगता है। कई दवाओं में नशीले पदार्थों का इस्तेमाल किया जाता है, जिससे व्यक्ति नशे का आदी हो जाता है। मनोविशेषज्ञों का कहना है कि आकर्षक व्यक्तित्व से आत्मविश्वास बढ़ता है। इसलिए लोग सुंदर दिखना चाहते हैं। तेजी से बदलते परिवेश के कारण भी आकर्षक देह वक्त की जरूरत बन गई है।

Monday, January 30, 2012

दाउदनगर/ लापरवाही से खंडहर में तब्दील हो रहा ऐतिहासिक स्थल


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दाउदनगर (अनुमंडल) : दाउदनगर के पुराना शहर स्थित दाऊद खां का ऐतिहासिक किला सरकारी उदासीनता की उपेक्षा का शिकार है. समुचित देखरेख के अभाव में यह ऐतिहासिक एवं प्राचीन पुरातात्विक स्थल खंडहर में तब्दील होता जा रहा है.
किले की जमीन अतिक्रमित कर ली गयी है. दीवारें क्षतिग्रस्त हो रही हैं. परिसर में गंदगी व्याप्त है. हालांकि कुछ वर्ष पूर्व प्रशासन द्वारा सफाई करायी गयी थी, परंतु बाद में स्थिति पूर्ववत हो गयी. यदि इसके ऐतिहासिक संदर्भ की चर्चा की जाये तो यह किले भी सूबे के महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थलों में से एक है.
मुगल शासक औरंगजेब के शासन काल में दाऊद खां कुरैशी बिहार के प्रथम सूबेदार थे. उनके पलामू विजय अभियान के बाद औरंगजेब ने 1074 हिजरी में उन्हें अंछा परगना इनाम स्वप दिया.
ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार 23 अप्रैल 1660 ई. को दाऊद खां ने पलामू विजय अभियान चलाया था. पलामू फतह के बाद जब उन्हें ठहरने की नौबत आयी तो घने जंगलों को कटवा कर सैनिक छावनी (किला) का निर्माण करवाया गया जो 1663 ई. से शुरू हुआ और 1673 ई. में बन कर तैयार हुआ.
शहर के चारों ओर चार बड़े-बड़े फाटक बनवाये गये. जिसमें छत्तर दरवाजा का वजूद आज भी है. हर प्रकार के हुनर एवं तालिम रखने वालों को लाकर बसाया गया. कहा जाता है कि दाऊद खां के नाम पर इस शहर का नाम सिलौटा बखौरा से दाउदनगर पड़ा.
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण इस किले के जीर्णोद्धार की जरूरत है. यदि इसका समुचित संरक्षण नहीं किया गया तो यह एक दिन अतीत की बात बन कर रह जायेगा.

Saturday, January 28, 2012

बॉडी लैंग्‍वेज से जानिये सेक्‍स सिग्‍नल



Body Lamguage and Sex Signals
यूं तो प्‍यार अनुभव करने की चीज होती है, पर इसकी भी एक भाषा होती है। पशु-पक्षी व अन्‍य जीव प्रणय निवेदन की भाषा को अच्‍छी तरह अनुभव कर लेते हैं, पर इंसानों के भीतर प्रेम को परखने की यह क्षमता ज्‍यादा तीक्ष्‍ण नहीं होती। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि मनुष्‍य सभ्‍य समाज में रहने वाला सामाजिक प्राणी है। इस वजह से उसे कई तरह के मर्यादाओं और बंधनों को स्‍वीकार करना पड़ता है। इस क्रम में वह स्‍वाभाविक व स्‍वच्‍छंद प्रेम और कामेच्‍छाओं को मनचाहे तरीके से तृप्‍त नहीं कर सकता। कई बार तो पुरुष और स्‍त्री एक-दूसरे के निवेदन के 'सिग्‍नल' को ही नहीं पकड़ पाते।


यही वजह है कि इस विषय पर और शोध करने की जरूरत आज भी महसूस की जाती है। शोधकर्ताओं ने स्‍त्री-पुरुष की भाव-भंगिमाओं को लेकर कुछ ठोस निष्‍कर्ष निकाले हैं। एक-दूसरे से प्‍यार और 'संबंध' बनाने को इच्‍छुक लोगों की बॉडी लैंग्‍वेज के बारे में कुछ तथ्‍य इस प्रकार हैं-


प्‍यार के आगोश में पड़ने वाले व्‍यक्ति के चेहरे के उस हिस्‍से में कसावट आ जाती है, जो आमतौर पर थोड़ा फूला होता है। ऐसी स्थिति में आंखों में थोड़ी सिकुड़न भी आ जाती है। प्‍यार की चाह वाली अवस्‍था में शरीर का ढीलापन गायब हो जाता है। सीना थोड़ा बाहर की ओर निकल जाता है, साथ ही पेट थोड़ा अंदर की ओर धंस जाता है।
अगर कामातुर महिला की बॉडी लैंग्‍वेज की बात की जाए, तो कुछ बातें एकदम स्‍पष्‍ट नजर आती हैं। स्‍त्री पुरुष को पाने के लिए अनायास ही कुछ प्रयास करती है। महिला अपने बालों को छूती है और अपने कपड़ों पर भी हाथ फेरती है। महिला के एक या दोनों हाथ अचानक पीछे की ओर चले जाते हैं। स्‍त्री अपने शरीर का कुछ भाग पुरुष की ओर झुका देती है। संभोग की इच्‍छुक महिला के गालों की लाली अचानक की बढ़ जाती है।


अगर पुरुष के पूरे शरीर पर एक निगाह डाली जाए, तो वह थोड़ा और तन जाता है। प्रेम पाने को आतुर स्‍त्री या पुरुष उस अवस्‍था में कुछ युवा नजर आने लगते हैं। ऐसी स्थिति में महिलाएं अपने हाथ की उंगलियों को पूरी तरह खोल लेती हैं। शोध में यह बात सामने आई है कि कलाई भी कामुक क्षेत्रों में से एक है। प्‍यार पाने को आतुर महिला माथे को झटककर अपने बाल पीछे की ओर कर लेती है। स्त्रियां झुकी हुई पलकों से पुरुष को निहारती हैं और कुछ देरे पर निगाहें टिकाए रहती हैं।


पिछले हिस्‍से में पहले की तुलना में थोड़ा और उभार आ जाता है। साथ ही वह उस स्‍त्री से कुछ ज्‍यादा ही देर तक निगाहें मिलाता है। आंखों की पुतलियां भी फैल जाती हैं। किसी महिला से प्‍यार चाहने की अवस्‍था में पुरुष अपने बालों को संवारने की कोशिश करता है। स्त्रियों के होठ खुल जाते हैं और दोनों होठों पर थोड़ी तरलता आ जाती है। होठ और गाल समेत पूरे चेहरे की लालिमा बढ़ जाती है, क्‍योंकि उन भागों में रक्‍त का प्रवाह तेज हो जाता है।कामातुर स्‍त्री प्‍यार पाने के लिए अपने पैरों को एक-दूसरे से रगड़ती है। ऐसा करके वह अपनी कोमल और प्रेमासक्‍त भावना का इजहार करती है। ध्‍यान रखने वाली बात यह है कि हर परिस्थिति और हर व्‍यक्ति पर बॉडी लैंग्‍वेज के ये सूत्र लागू हों, यह कोई आवश्‍यक नहीं है। सामान्‍य अवस्‍था में स्त्रियां अपने दोनों पैरों को सटाकर रखना पसंद करती हैं, जबकि काम के आवेश में आने के बाद उसके दोनों पैरों के बीच की दूरी अचानक ही बढ़ जाती है।

लाल किले पर पहला तिरंगा जनरल शाहनवाज खान ने ही लगाया था

Written by डा. आशीष वशिष्‍ठ Category: विश्लेषण-आलेख-ब्लाग-टिप्पणी-चर्चा-चौपाल Published on 24 January 2012
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: 24 फरवरी जन्‍मदिन पर विशेष : देश को गुलामी की बेड़ियों से आजाद करवाने के लिए हजारों देशभक्तों और सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी। इन महान देभक्तों में जनरल शाहनवाज खान का नाम बड़े आदर और मान से लिया जाता है। आजाद हिंद फौज के मेजर जनरल शाहनवाज खान महान देशभक्त, सच्चे सैनिक और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बेहद करीबियों में शुमार थे। एक सच्चे और बहादुर सैनिक के साथ जनरल खान एक सच्चे समाजसेवी और दूरदर्शी राजनीतिज्ञ भी थे। आजाद हिंद फौज के मेजर जनरल शाहनवाज खान का जन्म ब्रिटिश इंडिया में 24 जनवरी 1914 को गावं मटौर, जिला रावलपिंडी (अब पाकिस्तान) में झंझुआ राजपूत कैप्टन सरदार टीका खान के घर हुआ था। सैनिक परिवार में जन्में शाहनवाज ने अपने बुजुर्गों की राह पर चलने की ठानी। शाहनवाज की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा पाकिस्तान में हुई, आगे की शिक्षा उन्होंने प्रिंस ऑफ वेल्स रायल इंडियन मिलट्री कॉलेज देहरादून में पूरी की और 1940 में ब्रिटिश इंडियन आर्मी में एक अधिकारी के तौर पर ज्वाइन कर लिया।


जब जनरल शाहनवाज ब्रिटिश आर्मी में शामिल हुए थे, तब विश्‍व युद्व चल रहा था और उनकी तैनाती सिंगापुर में थी। जापानी फौज ने ब्रिटिश इंडियन आर्मी के सैंकड़ों सैनिकों को बंदी बनाकर जेलों में ठूंस दिया था। सन 1943 में जब नेता जी सुभाष चंद्र बोस सिंगापुर आए और उन्होंने आजाद हिंद फौज की मदद से इन बंदी सैनिकों को रिहा करवाया। नेताजी के ओजस्वी वाणी और जोशीले नारे ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ से प्रभावित होकर शाहनवाज के साथ सैंकड़ों सैनिक आजाद हिन्द फौज में शामिल हो गए और भारत माता की मुक्ति के लिए अंग्रेजों से लोहा लेने लगे। शाहनवाज खान के देशभक्ति और नेतृत्व क्षमता से प्रभावित होकर नेताजी ने उन्होंने आरजी हुकूमत-ए-आजाद हिंद की कैबिनेट में शामिल किया था। दिसंबर 1944 में जनरल शाहनवाज को नेता जी ने मांडले में तैनात सेना की टुकड़ी का नम्बर 1 कमांडर नियुक्त किया था। सितंबर 1945 में नेता जी आजाद हिंद फौज के चुनिंदा सैनिकों को छांटकर सुभाष ब्रिगेड बनायी थी, जिसका कमांड नेताजी ने जनरल शाहनवाज के हाथ सौंपी थी। इस ब्रिगेड ने कोहिमा में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ मोर्चा संभाला था। संयुक्त सेना सेकेंड डिविजन का कंमाडर बनाकर बर्मा के मोर्च पर भेजा।


ब्रिटिश आर्मी से लड़ाई के दौरान बर्मा में जनरल शाहनवाज खान और उनके दल को ब्रिटिश आर्मी ने 1945 में बंदी बना लिया था। नवंबर 1946 में मेजर जनरल शाहनवाज खान, कर्नल प्रेम सहगल और कर्नल गुरुबक्‍श सिंह के खिलाफ दिल्ली के लाल किले में अंग्रेजी हकूमत ने राजद्रोह का मुकदमा चलाया। लेकिन भारी जनदबाव और समर्थन के चलते ब्रिटिश आर्मी के जनरल आक्निलेक को न चाहते हुए भी आजाद हिंद फौज के अफसरों को अर्थदण्ड का जुर्माना लगाकर छोड़ने का विवश होना पड़ा। जनरल शाहनवाज खान और बाकी अफसरों की पैरवी सर तेज बहादुर सप्रू, जवाहर लाल नेहरु, आसफ अली, बुलाभाई देसाई और कैलाश नाथ काटजू ने की थी। 1946 में आजाद हिंद फौज की समाप्ति के बाद जनरल शाहनवाज खान ने महात्मा गांधी और पंडित जवाहर लाल नेहरू के प्रेरणा से इंडियन नेशनल कांग्रेस में शामिल हो गये। 1947 में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने जनरल शाहनवाज खान को कांग्रेस सेवा दल के सदस्यों को सैनिकों की भांति प्रशिक्षण और अनुशासन सिखाने की अहम जिम्मेदारी सौंपी। जनलर खान को कांग्रेस सेवा दल के सेवापति का पद नवाजा गया, जिसका निर्वाहन उन्होंने वर्ष 1947 से 1951 तक किया था, और अपने जीवन के अंतिम दिनों में भी वह 1977 से 1983 तक कांग्रेस सेवा दल के प्रभारी बने रहे।




वर्ष 1952 में पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर मेरठ से चुनाव जीते। इसके बाद वर्ष 1957, 1962 व 1971 में मेरठ से लोकसभा चुनाव जीता। मेरठ लोकसभा सीट से प्रतिनिधित्व करने वाले जनरल शाहनवाज खान 23 साल केंद्र सरकार में मंत्री रहे। 1952 में चुनाव जीतने के बाद वह पॉलियामेंट्री सेक्रेटी और डिप्टी रेलवे मिनिस्टर बने। 1957-1964 तक वह केन्द्रीय खाद्य एवं कृषि मंत्री के पद पर रहे। 1965 में कृषि मंत्री एवं 1966 में श्रम, रोजगार एवं पुनर्वास मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाली। 1971 से 1975 तक उन्होंने पेट्रोलियम एवं रसायन और कृषि एवं सिंचाई मंत्रालयों की बागडोर संभाली। 1975 से 1977 के दौरान वह केन्द्रीय कृषि एवं सिंचाई मंत्री के साथ एफसीआई के चेयरमैन का उत्तदायित्व भी उन्होंने संभाला।  मेरठ जैसे संवेदनशील शहर का दो दशकों से अधिक प्रतिनिधित्व जनरल खान ने किया और उनके कुशल नेतृत्व और सबको साथ लेकर चलने की नीति के कारण शहर में कभी कोई दंगा फसाद नहीं हुआ, जो एक मिसाल है। 1956 में भारत सरकार ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की नेताजी की मौत के कारणों और परिस्थितियों के खुलासे के लिए एक कमीशन बनाया था, जिसकी अध्यक्ष जनरल शाहनवाज खान थे।


जनरल शाहनवाज खान शुरू में नेताजी सुभाष चंद्र बोस से प्रभावित हुए तो बाद में गांधी जी के साथ रहे। पंडित नेहरु ने उन्हें ‘खान’ की उपाधि से नवाजा। जनरल शाहनवाज के पीए रहे मतीन बताते हैं कि छठें लोकसभा चुनाव में जब मेरठ से उनके बजाय मोहसिना जी को टिकट दिया गया तो उन्होंने मोहसिना जी के साथ जाकर नामांकन कराया। वह सबके सुख-दुख में शामिल होते थे। जनरल शाहनवाज के पोते आदिल शाहनवाज बताते हैं कि, ‘रेलवे का एक कर्मचारी बिना अवकाश घर चला गया तो उसे सस्पेंड कर दिया गया। जनरल साहब ने तब कैबिनेट मंत्री लाल शास्त्री जी से कहा। उन्होंने गंभीरता से नहीं लिया। इस पर उन्होंने अगले दिन अपना इस्तीफा भेज दिया। शास्त्री जी ने कारण पूछा तो बोले कि ‘अगर अवाम के लिए काम करने लायक नहीं हूं तो इस कुर्सी पर बैठने का मुझे हक नहीं है। आजाद हिन्दुस्तान में लाल किले पर ब्रिटिश हुकूमत का झंडा उतारकर तिरंगा लहराने वाले जनरल शाहनवाज ही थे। देश के पहले तीन प्रधानमंत्रियों ने लालकिले से जनरल शाहनवाज का जिक्र करते हुए संबोधन की शुरुआत की थी। आज भी लालकिले में रोज शाम छह बजे लाइट एंड साउंड का जो कार्यक्रम होता है, उसमें नेताजी के साथ जनरल शाहनवाज की आवाज है। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष सेवानिवृत्त न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने जनरल खान की देश के प्रति निष्ठा और राष्ट्रनिर्माण में अग्रणी भूमिका को देखते हुए भारत सरकार से जनरल खान को भारत रत्न देने की मांग की है। डाक विभाग  महान स्वतंत्रा सेनानी जनरल शाहनवाज खा कर्नल प्रेम चंद और कर्नल गुरुबख्‍श पर डाक टिकट जारी कर चुका है।


महान स्वतंत्रता सेनानी, देशभक्त और कुशल राजनेता जनरल शाहनवाज खान को काल के क्रूर हाथों ने हम सबसे से 9 दिसंबर 1983 को हमसे छीन लिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जनरल खान की मौत को देश के अपूरणीय क्षति करार दिया था और उनके परिवार को फोन करके जनरल खान के पार्थिव शरीर को मेरठ से दिल्ली दफनाने का आग्रह किया था। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इंदिरा जी के कहने पर गाजियाबाद मोहन नगर में जनरल खान के शवयात्रा की अगुआई की थी। इंदिरा जी ने उस समय कहा था कि नेताजी ने आजाद हिंद फौज के दौरान ‘दिल्ली चलो’ का नारा बुलंद किया था, और जनरल खान भी यही चाहते थे कि उनको लालकिले के पास दफनाया जाए। लालकिले के पास स्थित जामा मस्जिद के निकट जनरल खान को पूरे सम्मान के साथ दफनाया गया था। जनरल खान के परिवार में उनके तीन पुत्र महमूद नवाज, अकबर नवाज, अजमल नवाज और तीन पुत्रियां मुमताज, फहमिदा और लतीफ फातिमा हैं। लतीफ फातिमा को उन्होंने गोद लिया था। लतीफ फातिमा बालीवुड के मशहूर अभिनेता शाहरूख खान की मां हैं। जनरल खान के पोते आदिल शाहनवाज अपने दादा के नाम से जनरल शाहनवाज खान फांउडेशन का संचालन करते हैं।
लेखक डा. आशीष वशिष्‍ठ लखनऊ के स्‍वतंत्र पत्रकार हैं

फिर से बस्तर / yayawae




9 comments:

jaiswalvirendra 20 जनवरी 2012 5:27 पूर्वाह्न
fare and square blog.
shikha varshney 20 जनवरी 2012 6:31 पूर्वाह्न
बस्तर पर अच्छी जानकारी युक्त पोस्ट.
DUSK-DRIZZLE 21 जनवरी 2012 9:22 अपराह्न
YOUR POST EXPOSED THE NECKED TRUTH OF THE INHABITANTS OF THE BASTAR. UNDER THE DEMOCRATIC SYSTEM EVERYBODY HAS OWN BASTAR BUT THE WORST CONDITION OF BASTAR SHOWS THE REAL FACE OF THE GOVERNMENT. AFTER ALL IT IS TOWERING ISSUE- WHO SHOULD BE GOVERN AND WHO WILL WORK IN THE FORM OF GOVERNMENT OR WHO SHOULD BE ACCOUNTABLE FOR THAT POSITION AS YOU WROTE?
देवेश तिवारी (Devesh Tiwari) 22 जनवरी 2012 12:08 अपराह्न
सुन्दर विश्लेषण .. जानकारी के लिए धन्यवाद ........
sangita 23 जनवरी 2012 10:41 पूर्वाह्न
behad sargarbhit post hae aapki. bastar ke prati aaj tak jo udaasinta dekhi jati rhi vo ab nahimn hona chahiye,par kya kiya jaye in safed poshon ka jo sirf or sirf rajniti hi karna chahte haen ve chahte hi nahin ki vhan sthiti samanya ho,nahin to vhan avaedh khanan kaese hoga,mining market down ho jayega.
thanx aapkne mere blog par sadsytali sda hi svagat hae.
Shanti Garg 24 जनवरी 2012 9:00 पूर्वाह्न
बहुत बेहतरीन और प्रशंसनीय.......
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
डॉ.मीनाक्षी स्वामी 24 जनवरी 2012 9:26 पूर्वाह्न
बस्तर की मैना फिर से चहके, इसके लिये शुभकामनाएं।
आजादी के इतने सालों बाद भी हालात सुधरे नहीं बल्कि बिगडे अधिक हैं। छोटे स्वार्थों के लिये देश का बडा अहित करने में परहेज नहीं है।
संवेदना जगानेवाली पोस्ट।
surendrahanspal 25 जनवरी 2012 9:12 पूर्वाह्न
भाई रमेश जी , बस्तर के सुकमा पर आप कि कलम की धार गजब ईमान्दारी से चली बधाई . डर गया हु इस नन्गे सच को पड कर अकबर को आप ने याद किया राजधानी मे बैट कर शासक मजे करते है. सच अभि भारत आजाद नही हुआ है .
ब्लॉ.ललित शर्मा 27 जनवरी 2012 7:15 पूर्वाह्न
नए जिलों के बनने से प्रशासन नागरिकों की पहुंच के भीतर होता। अगर यही कार्य पहले की सरकारों ने किए होते तो आज यह हालात देखने नहीं पड़ते।


डॉ रमन सिंह को ढेर सारी शुभकामनाएं


अच्छी पोस्ट

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