anjaan
14-06-2012, 08:31 PM
17 हाथी
सेठ घनश्याम दास बहुत बड़ी हवेली में रहता था। उसके तीन लड़के थे। पैसा,
नौकर, चाकर, घोड़ा गाड़ी तो थी ही, मगर उसे अपने ख़ज़ाने में सबसे अधिक प्यार
अपने 17 हाथियों से था। हाथियों की देखरेख में कोई कसर न रह जाए, इस बात
का उसे बहुत ख़्याल था। उसे सदा यही फ़िक्र रहता था कि उसके मरने के बाद
उसके हाथियों का क्या होगा। समय ऐसे ही बीतता चला गया और सेठ को महसूस हुआ
कि उसका अंतिम समय अब अधिक दूर नहीं है।
उसने अपने तीनों बेटों को अपने पास बुलाया और कहा कि मेरा समय आ गया है।
मेरे मरने के बाद मेरी सारी जायदाद को मेरी वसीयत के हिसाब से आपस में
बाँट लेना। एक बात का ख़ास ख़्याल रखना कि मेरे हाथियों को किसी भी किस्म की
कोई भी हानि न हो।
कुछ दिन बाद सेठ स्वर्ग सिधार गया। तीनों लड़कों ने जायदाद का बंटवारा पिता
की इच्छा अनुसार किया, मगर हाथियों को लेकर सब परेशान हो गए। कारण था कि
सेठ ने हाथियों के बंटवारे में पहले लड़के को आधा, दूसरे को एक तिहाई और
तीसरे को नौवाँ हिस्सा दिया था। 17 हाथियों को इस तरह बाँटना एकदम असम्भव
लगा। हताश होकर तीनों लड़के 17 हाथियों को लेकर अपने बाग में चले गए और
सोचने लगे कि इस विकट समस्या का कैसे समाधान हो।
तभी तीनों ने देखा कि एक साधू अपने हाथी पर सवार, उनकी ही ओर आ रहा है।
साधू के पास आने पर लड़कों ने प्रणाम किया और अपनी सारी कहानी सुनाई। साधू
ने कहा कि अरे इस में परेशान होने की क्या बात है। लो मैं तुम्हें अपना
हाथी दे देता हूँ। सुनकर तीनों लड़के बहुत खुश हुए। अब सामने 18 हाथी खड़े
थे। साधू ने पहले लड़के को बुलाया और कहा कि तुम अपने पिता की इच्छा अनुसार
आधे यानि नौ हाथी ले जाओ। दूसरे लड़के को बुलाकर उसने एक तिहाई यानि छ:
हाथी दे दिए। छोटे लड़के को उसने बुलाकर कहा कि तुम भी अपना नौंवाँ हिस्सा
यानि दो हाथी ले जाओ। नौ जमा छ: जमा दो मिलाकर 17 हाथी हो गए और एक हाथी
फिर भी बचा गया। लड़कों की समझ में यह गणित बिलकुल नहीं आया और तीनों साधू
महाराज की ओर देखते ही रहे। उन सब को इस हालत में देखकर साधू महाराज
मुस्काए और आशीर्वाद देकर तीनों से विदा ले, अपने हाथी पर जिस दिशा से आए
थे, उसी दिशा में चले गए। इधर यह तीनों सोच रहे थे कि साधू महाराज ने अपना
हाथी देकर कितनी सरलता और भोलेपन से एक जटिल समस्या को सुलझा दिया।
anjaan
14-06-2012, 08:31 PM
99 का चक्कर
सेठ करोड़ी मल पैसे से तो करोड़पति था मगर खरच करने के मामले में महाकंजूस।
उसका ये हाल था कि चमड़ी जाये पर दमड़ी न जाए। उस की इस आदत से उसके बीवी
बच्चे बहुत परेशान थे। सब कुछ होते हुए भी करोड़ी मल खाने पीने तक में
कंजूसी करता था। उसका बस चले तो घर में आलू और दाल के अलावा कुछ नहीं बनना
चाहिये।
सेठ के पड़ौस में ही कल्लू नाम के एक ग़रीब मज़दूर का घर था। कल्लू एक दम
फक्कड़ों की तरह रहता था। जो भी कमाता था, अपने बीवी बच्चों के खाने पिलाने
में खरच कर देता था। उस के घर में रोज़ हलवा पूरी बनते थे और वो सीना तान
कर मस्ती की चाल से चलता था।
कल्लू के रहन सहन को देख कर सेठ के बड़े लड़के लक्ष्मी नारायण को बहुत कष्ट
होता था। एक दिन जब उस से रहा नहीं गया तो बाप से जाकर बोला, “पिताजी क्या
बात है कि हमारे पास सब कुछ होते हुए भी हम ग़रीबों की तरह रहते हैं,
छोटी-छोटी चीज़ों के लिए आप के आगे हाथ फैलाना पड़ता है। ज़रा उधर कल्लू को
तो देखो। ग़रीब मज़दूर है मगर दिल बादशाहों जैसा है। तबियत से बाल बच्चों पर
खरच करता है और मस्त रहता है। आखिर बात क्या है।”
सेठ ने लक्ष्मी नारायण की बात बहुत ग़ौर से सुनी। थोड़ी देर चुप रहकर बोला
कि “बेटा लक्ष्मी, तुम जो भी कह रहे हो एक दम सच कह रहे हो। हम दोनों में
बस इतना अंतर है कि कल्लू अभी तक निन्यानवे के चक्कर में नहीं पड़ा है। जिस
दिन इस चक्रव्यूह में फँस जाएगा, उस दिन सब हेकड़ी निकल जाएगी।” पिता की
बात लक्ष्मी को बिल्कुल नहीं जँची और वो बाप से रोज़ बस कल्लू के बारे में
ही सवाल करता था। एक दिन सेठ ने लक्ष्मी को बुलाकर आदेश दिया कि “शाम को
दुकान बन्द करके तुम जब घर आओगे तो पेटी में से एक पोटली में निन्यानवे
रूपये डाल कर ले आना। ध्यान रहे कि रूपये निन्यानवे ही हों।”
पिता की आज्ञानुसार लक्ष्मी ने वो ही किया जो सेठ ने कहा था और शाम को
पोटली पिता के हाथ में थमा दी। थोड़ा अन्धेरा पड़ने पर सेठ ने बेटे को अपने
साथ चलने को कहा। जब वो कल्लू के घर के पास पहुँचे तो सेठ ने चुपके से
पोटली कल्लू के आँगन में फेंक दी और अपने घर वापिस आ गया।
सुबह जब कल्लू ने पोटली देखी तो उसकी उत्सुकता बहुत बढ़ गई। खोल कर देखा तो
उस में निन्यानवे रूपये मिले। कल्लू सोचने लगा और अपने में ही बुड़बुड़ाने
लगा, “हे ऊपर वाले, अगर देने ही थे तो पूरे एक सौ क्यों नहीं दिये, ये एक
रूपया कम क्यों दिया।” अब सारा दिन कल्लू इसी सोच में पड़ गया कि पोटली में
सौ रूपये कैसे बनें। एक रूपया बचाने के लिए उस ने पहिले अपने रहन सहन में
कमी कर दी, फिर खाने पीने में भी कटौती कर दी। जब सौ पूरे हो गए तो कल्लू
ने सोचा कि अब इनको एक सौ एक कैसे बनाऊँ। सौ से एक सौ एक, एक सौ एक से एक
सौ दो, एक सौ दो से एक सौ तीन, बस कल्लू इसी चक्कर में पड़ गया और पैसा
जोड़ने के फेर में रोज़ जो हलवा पूरी बनते थे वो सब बन्द हो गये। सारा दिन
कल्लू बस पोटली में रूपया बढ़ाने की फिकर में रहने लगा और जहाँ भी मौका
मिलता था वहीं पैसा बचाने की कोशिश करता।
पड़े निन्यानवे के चक्कर में, भूल गए हलवा पूरी
कैसे रूपैया एक जुड़ाऊँ, पोटली अभी रही अधूरी
anjaan
14-06-2012, 08:32 PM
टेढ़ी खीर
शादी की बारात की दावत चल रही थी। महमानों की बहुत सेवा हो रही थी।
महमानों में एक सज्जन जिनको सब भाई साहब कह कर बुलाते थे, वे जन्म से ही
नेत्रहीन थे। खाने के बाद खीर परोसी गई। भाई साहब को खीर बहुत पसन्द आई।
उन्होंने परसने वाले सज्जन को बुला के पूछा कि ये क्या है? उसके कहने पर
कि ये खीर है तो भाई साहब ने पूछा कि इसका कैसा रंग है? जब उन्हें बताया
कि इसका सफेद रंग है तो वह फिर बोले कि सफेद क्या होता है। परसने वाले ने
कहा कि जैसा बगुले का रंग होता है वैसा ही खीर का रंग है। भाई साहब ने
बगुला भी नहीं देखा था तो बोले कि भाई बगुला क्या होता है। परसने वाले को
जब कुछ नहीं सूझा तो उसने अपने हाथ को मोड़ कर बगुले की गरदन बना कर भाई
साहब को कहा कि ऐसा होता है। भाई साहब ने जब परसने वाले के हाथ को छुआ तो
बोले, "अरे! ये तो टेढ़ी खीर है!"
anjaan
14-06-2012, 08:33 PM
देनेवाला जब भी देता, देता छप्पर फाड़ के
एक गाँव में रामू नाम का एक किसान रहता था। वह बहुत ही ईमानदार और
भोला-भाला था। वह सदा ही दूसरों की सहायता करने के लिए तैयार रहता था।
एक बार की बात है कि शाम के समय वह दिशा मैदान (शौच) के लिए खेत की ओर
गया। दिशा मैदान करने के बाद वह ज्योंही घर की ओर चला त्योंही उसके पैर
में एक अरहर की खूँटी (अरहर काटने के बाद खेत में बचा हुआ अरहर के डंठल का
थोड़ा बाहर निकला हुआ जड़ सहित भाग) गड़ गई। उसने सोचा कि यह किसी और के
पैर में गड़े इससे अच्छा है कि इसे उखाड़ दूँ। उसने जोर लगाकर खूँटी को
उखाड़ दिया। खूँटी के नीचे उसे कुछ सोने की अशरफियाँ दिखाई दीं। उसके
दिमाग में आया कि यह पता नहीं किसका है? मैं क्यों लूँ? अगर ये अशरफियाँ
मेरे लिए हैं तो जिस राम ने दिखाया, वह घर भी पहुँचाएगा (जे राम देखवने,
उहे घरे पहुँचइहें)। इसके बाद वह घर आकर यह बात अपने पत्नी को बताई। रामू
की पत्नी उससे भी भोली थी; उसने यह बात अपने पड़ोसी को बता दी। पड़ोसी
बड़ा ही घाघ था। रात को जब सभी लोग खा-पीकर सो गए तो पड़ोसी ने अपने
घरवालों को जगाया और कहा, ”चलो, हमलोग अशरफी कोड़ (खोद) लाते हैं।” पड़ोसी
और उसके घरवाले कुदाल आदि लेकर खेत में पहुँच गए। उन्होंने बताई हुई जगह
पर कोड़ा (खोदा)। सभी अवाक थे क्योंकि वहाँ एक नहीं पाँच-पाँच बटुलियाँ
(धातु का एक पात्र) थीं पर सबमें अशरफियाँ नहीं अपितु बड़े-बड़े पहाड़ी
बिच्छू थे। पड़ोसी ने कहा कि रामू ने हमलोगों को मारने की अच्छी योजना
बनाई थी। हमें इसका प्रत्युत्तर देना ही होगा। उसने अपने घरवालों से कहा
कि पाँचों बटुलियों को उठाकर ले चलो और रामू का छप्पर फाड़कर इन बिच्छुओं
को उसके घर में गिरा दो ताकि इन बिच्छुओं के काटने से मियाँ-बीबी की
इहलीला समाप्त हो जाए। घरवालों ने वैसा ही किया और रामू के छप्पर को
फाड़कर बिच्छुओं को उसके घर में गिराने लगे। लेकिन धन्य है ऊपरवाला और
उसकी लीला। जब ये बिच्छू घर में आते थे तो अशरफी बन जाते थे।
सुबह-सुबह जब रामू उठा तो उसने अशरफियों को देखा। उसने भगवान को धन्यवाद
दिया और अपनी पत्नी से कहा, ”देखी! देनेवाला जब भी देता, देता छप्पर फाड़
के।”
anjaan
14-06-2012, 08:33 PM
तेरी दुनिया बहुत निराली है
जुम्मे की नमाज़ पढ़ने को रहमत मियाँ अपने घर से निकले और मस्जिद की ओर चल
पड़े। सिर पे तुर्की टोपी, बदन पर रेश्मी कुर्ता, काली अचकन, हाथ में
नव्वाबी छड़ी और पैरों में शोलापुरी जूती बहुत जँच रही थी। मस्तनी चाल से
वो सोचते हुए जा रहे थे कि आज अल्लाह से अपने मन की सारी मुरादें माँगूगा।
मस्जिद पहुँच कर रहमत मियाँ ने जूते उतार कर एक तरफ़ रख दिए और हाथ धो कर
दुआ के लिये अन्दर गए। ओ मेरे मालिक, इस दुखी संसार में बस तू ही सभी का
एक सहारा है। मेरी इस खाली झोली को तू अपने करम से मालामाल कर दे ओ मेरे
दाता। तेरा ये बन्दा तुझ से यही भीख माँगने आया है। नमाज़ ख़त्म हुई और रहमत
मियाँ बाहर आए। बाहर आकर देखा कि उनकी शोलापुरी जूती ग़ायब है। ऐसा लगा कि
जूती के पर निकल आए हों और वो उड़ कर कहीं चली गई है। रहमत का मन बहुत दुखी
हुआ और वो नंगे पाँव अपने घर की ओर चल पड़े। सारे रास्ते वो ख़ुदा को बहुत
बुरा भला कह रहे थे और बुड़बुड़ाते जा रहे थे।
“अपाहिज को एक पैसा दे दो”, एकाएक यह शव्द उन के कान में पड़े। नज़र ऊपर उठा
कर देखा तो एक भिखारी हाथ फैलाए हुए भीख माँग रहा था। हालाँकि उसकी दोनों
टाँगे कटी हुई थीं और बो बैसाखियों का सहारा ले कर चल रहा था मगर उसकी
आँखो में एक अजीब क़िस्म की चमक थी। रहमत मियाँ ने जब ये माजरा देखा तो
एकाएक घबराया और चीख कर बोला।
“ओ मेरे मालिक, तेरा लाख-लाख शुक्र है, मेरे पास जूते तो नहीं है पर टाँगे
तो हैं। जूता तो फिर भी मिल जाएगा मगर इन टाँगों के बिना ये जिस्म बिल्कुल
अपाहिज है।”
किस तरह से तेरा मैं शुक्र करूँ, तेरी दुनिया बहुत निराली है
तू हम सब बन्दों को देता सदा, रहती कोई भी झोली न खाली है
anjaan
14-06-2012, 08:34 PM
जंगल के दोस्त
एक घने जंगल के किनारे एक ब्राह्मण रहता था। उसका नाम धर्म दास था। धर्म
दास पहले पास के एक गाँव में रहता था। धर्म दास सब को ज्ञान की बातें
समझाया करता था। कोई उसकी बात समझना ही नहीं चाहता था। उसका एक बेटा था।
उसका नाम ज्ञान देव था। ज्ञान देव अभी छोटा बच्चा ही था जब उसकी माँ चल
बसी थी। लोगों ने धर्म दास की बातों को उसकी मौत का कारण मान कर उसे गाँव
से बाहर निकाल दिया। तब से धर्म दास जंगल के किनारे झोंपड़ी बना कर रहने
लगा। जब धर्मदास आस पास के गाँवों में कुछ कमाने जाता तो घर में ज्ञान देव
अकेला ही खेलता रहता।
जंगल में एक बड़ा घास का मैदान था। वहाँ पर बहुत से जंगली घोड़े चरने के
लिए आते थे। एक दिन एक छोटा बच्चा धर्म देव की झोंपड़ी के पास आ गया।
ज्ञान देव ने घर में रखे हुए कुछ चने उसे खिलाए। घोड़े को एक नया स्वाद
मिला। रात को ज्ञान देव ने अपने पिता को बताया कि एक छोटे घोड़े से उसकी
दोस्ती हो गई है। ज्ञान देव ने बताया कि घोड़े को चने बहुत पसन्द आए थे।
अगले दिन धर्म दास एक बोरी चने की ले आया। अब घोड़ा वहाँ रोज आने लगा।
ज्ञान देव उसे बहुत चाव से चने खिलाता।
दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई। ज्ञान देव ने उसका नाम बादल रखा। चने खा कर
बादल तेजी से बड़ा होने लगा। वह अपने दूसरे हम उम्र साथियों से बहुत अधिक
बलवान हो गया। वह ज्ञान देव को अपनी पीठ पर बिठा कर दूर तक जंगल में ले
जाता। दोनों एक दूसरे की भाषा समझने लगे। बादल ने उसे बताया कि वह जंगल के
सब जानवरों की भाषा समझता है। कभी कभी वह ज्ञान देव को बताता कि कौन सा
जानवर क्या बात कर रहा है। ज्ञान देव को इसमें बहुत मजा आता।
बादल के साथियों ने एक दिन बादल की शिकायत घोड़ों के राजा से की। उन्होंने
कहा, “बादल रोज ही एक आदमी के बच्चे से मिलता है। इसलिए वह हमारे साथ नहीं
खेलता। हम उसके पास जाते हैं तो हमें लात मार कर दूर भगा देता है। वह आदमी
के बच्चे को अपनी पीठ पर भी बैठने देता है। हमारी सारी बातें भी उसे बताता
है।”
राजा को बादल का व्यवहार पसंद नहीं आया। उसने बादल को अपने पास बुला कर
सारी बात स्वयं जानने का निश्चय किया। अगले दिन बादल को राजा के दरबार में
पेश किया गया। राजा ने पूछा, “क्या यह सच है कि तुम एक आदमी के बच्चे को
अपनी पीठ पर बैठने देते हो।”
बादल ने कहा, “हाँ! वह मेरा दोस्त है।”
राजा ने कहा, “तुम जानते नहीं कि मानव कभी हमारा दोस्त नहीं हो सकता। वह
हमें बाँध कर अपने घर में रख लेता है। फिर हम पर सवारी करता है।”
बादल ने कहा, “पर मेरा दोस्त ऐसा नहीं है। वह मुझ से प्यार करता है। मैं
स्वयं ही उसे अपनी पीठ पर बैठाता हूँ। उसने ऐसा करने के लिए कभी नहीं कहा।”
घोड़ों के राजा ने पूछा, “क्या कारण है कि तुम अपने साथियों से बहुत
ज्यादा बड़े और बलवान हो गए हो। तुम सब को एक साथ मार कर भगा देते हो। इसी
उम्र में तुम मुझ से भी तेज दौड़ने लगे हो। मैंने देखा है कि तुम हवा से
बातें करते हो।”
“यह सब मेरे मित्र ज्ञान देव के कारण है। वह मुझे प्रतिदिन चने खिलाता है। मेरे बदन की प्यार से मालिश करता है।” बादल ने उत्तर दिया।
“और तुम हमारी बिरादरी की सारी बातें भी उसे बताते हो।” राजा ने क्रोध में भर कर कहा।
“मैं अपने घर की कोई बात नहीं बताता। केवल जंगल के जानवर क्या बात करते
हैं वही बताता हूँ। जंगल के पशु-पक्षियों की बोली उसे सिखाता हूँ। वह भी
मुझे अच्छी अच्छी बातें बताता है। अपनी भाषा भी मुझे सिखा रहा है। उसने
मुझे बताया है कि मानव उतना बुरा प्राणी नहीं है जितना हम उसे समझते हैं।”
बादल ने नम्रतापूर्वक कहा।
“यदि वह इतना अच्छा है तो तुमने आज तक हमें उससे मिलवाया क्यों नहीं,” राजा ने कहा।
“आपने पहले कभी ऐसा आदेश दिया ही नहीं। आप कहें तो मैं कल ही उसे आपके
दरबार में हाजिर कर दूँगा। उसे हमसे कोई भय नहीं है। मैंने उसे बताया है
कि घोड़े भी मानव से दोस्ती करना चाहते हैं।” बादल बोला।
राजा ने कहा, “क्या तुम नहीं जानते कि पड़ोस का राजा हमारे कितने ही
घोड़़ों को पकड़ कर ले गया है। वह मार मार कर उन्हें पालतू बना रहा है और
उन्हें ठीक से खाने को घास तक नहीं देता। इसलिए तुम्हें उसकी बातों में
नहीं आना चाहिए।”
“मेरा दोस्त ऐसा नहीं है। आप उससे मिलेगें तो जान जायेगें।” बादल ने कहा।
“तो ठीक है, मैं एक बार उससे मिलता हूँ। यदि मुझे वह अच्छा नहीं लगा तो
तुम्हें उससे दोस्ती तोड़नी पड़ेगी। यदि फिर भी तुम नहीं माने तो हम लोग
यह स्थान हमेशा के लिए छोड़ कर कहीं दूर चले जायेंगे। “राजा ने कहा।
“मुझे स्वीकार है। पर मैं जानता हूँ कि ऐसी नौबत कभी नहीं आयेगी।”
अगले दिन बादल ज्ञान देव को अपनी पीठ पर बिठा कर अपने राजा के पास ले आया।
ज्ञान देव ने अपने पिता से सिखी हुई कई अच्छी अच्छी बातें राजा को बताई।
उससे मिल कर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा कि तुम्हें केवल बादल ही
नहीं इसके दूसरे साथियों से भी दोस्ती करनी चाहिए।”
बादल को इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी। अब उसके बहुत सारे दोस्त बन गए।
अब तो ज्ञान देव का समय मजे से कटने लगा। वह बादल की पीठ पर बैठ कर दूर
दूर तक जंगल की सैर करता और नए-नए जानवरों के विषय में जानकारी प्राप्त
करता। नए-नए दोस्त बनाता।
बादल ने उसे बताया कि पड़ोस का राजा बहुत अत्याचारी है। इसीलिए हमारा राजा
उससे घृणा करता है। तुम ऐसा कोई काम मत करना जो हमारे राजा को अच्छा न लगे।
ज्ञान देव ने कहा, “ ऐसा कभी नहीं होगा बल्कि कभी मौका मिला तो मैं उस
राजा को समझाने का प्रयास करूँगा कि वह अपने घोड़ों का अच्छी तरह से
पालन-पोषण करे और उन्हें ठीक से दाना पानी दे।”
रात को ज्ञान देव ने अपने पिता को घोड़ों के राजा के साथ हुई अपनी भेंट के
बारे में बताया। उसने कहा कि एक आदमी के क्रूर व्यवहार के कारण घोड़े पूरी
मानव जाति से घृणा करने लगे हैं।
धर्म दास ने कहा, “तुम चिन्ता न करो मैं कल ही उस राजा के दरबार में जाने
वाला हूँ। यदि संभव हुआ तो मैं इस विषय में कुछ करने का प्रयास करूँगा।”
वास्तव में धर्म दास गाँव गाँव जा कर ज्ञान बाँटते थे। बदले में जो भी कुछ
भी मिलता उससे उनका गुजारा भली भाँति हो जाता था। बहुत से लोग धर्म दास को
दान अथवा भीख देने का प्रयास करते थे परन्तु धर्म दास उसे कभी भी स्वीकार
नहीं करता था। उसका कहना था कि यदि मेरी बात अच्छी लगे और उसे तुम ग्रहण
करो तो फिर जो चाहो दे दो। परन्तु भीख में मुझे कुछ नहीं चाहिए।
कुछ लोग धर्म दास की बातों से चिढ़ते थे। उन्होंने राजा को शिकायत की कि
धर्म दास राजा के विरुद्ध जनता को भड़काता है। इसीलिए राजा ने उसे दरबार
में हाजिर होने के लिए कहा था।
जब धर्म दास राजा के दरबार में पहुँचा तो वह बहुत ही क्रोध में था। वास्तव
में सुबह जब वह घुड़सवारी के लिए निकला था तो उसने अपने घोड़े को जोर से
चाबुक मार कर तेज दौड़ाने का प्रयास किया था। चाबुक की चोट से तिलमिलाए
घोड़े ने उसे अपनी पीठ से गिरा दिया था। उससे राजा को कुछ चोट भी लगी थी।
धर्म दास को देखते ही वह बोला, “ सुना है तुम हमारी प्रजा को हमारे
विरुद्ध भड़काते हो। उन्हें कहते हो कि हमारा आदेश न मानो। क्यों न
तुम्हें राजद्रोह के लिए कड़ा दंड दिया जाए।”
धर्म दास ने कहा, “राजन्* मैंने कभी भी किसी को आपके विरुद्ध नहीं
भड़काया। हाँ इतना जरूर कहा है कि अन्याय का साथ मत दो। अन्याय और
अत्याचार करने वाले का विरोध करो। भले ही वह राजा ही क्यों न हो। अत्याचार
चाहे किसी मानव पर हो अथवा किसी दूसरे प्राणी पर। चाहे किसी दरबारी पर हो
चाहे घोड़े पर। मुझे ज्ञात हुआ है कि आप अपने घोड़ों पर बहुत अधिक
अत्याचार करते हैं।”
घोड़ों का नाम सुनते ही राजा का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया। वह बोला,
“तो जो हमने सुना था वह ठीक ही था। तुम यहाँ घोड़ों की वकालत करने आए हो।
मैंने सुना है तुम्हारे बेटे की बहुत दोस्ती है घोड़ों से।”
“मेरे बेटे के तो जंगल के सब जानवर दोस्त हैं। वह सबसे प्यार करता है। किसी को नहीं सताता।” धर्म दास ने कहा।
“तुम मेरी प्रजा हो कर मुझ से जुबान लड़ाते हो।” इतना कह कर राजा ने अपने
सिपाहियों को आदेश दिया कि धर्म दास को हिरासत में ले लिया जाए। उस पर
राजद्रोह का मुकदमा चलाया जाए।
जब ज्ञान देव को इसके विषय में ज्ञात हुआ तो वह बहुत ही दु:खी हुआ। परन्तु
वह कर ही क्या सकता था। वह तो स्वयं ही अभी छोटा था। उसने अपनी पीड़ा बादल
को बताई।
बादल बोला, “तुम्हारे पिता जी को यह दंड हमारे कारण दिया जा रहा है। हम ही
इस समस्या का कोई समाधान निकालेगें तुम बिल्कुल चिन्ता न करो।”
ज्ञान देव हुत चिन्तित रहने लगा। एक दिन उसका मन बहलाने के लिए बादल उसे
लेकर दूर जंगल में निकल गया। वहाँ उसका सामना एक शेर से हो गया। शेर को
देख कर ज्ञान देव बहुत डर गया। बादल ने कहा तुम चिन्ता मत करो। शेर
तुम्हारा बाल भी बाँका नहीं कर पायेगा। अपने मित्र की रक्षा के लिए मैं
शेर से लड़ने में भी पीछे नहीं हटूँगा।”
शेर ने उसकी बात सुन ली। उसका मजाक बनाते हुए बोला, “तुम कौन से जंगल की
घास खा कर मेरा मुकाबला करोगे। मैं तुम्हें कच्चा ही चबा जाऊँगा। मत भूलो
मैं इस जंगल का राजा हूँ।”
बादल ने कहा, “अपने दोस्त के जीवन की रक्षा करना मेरा धर्म है।”
ज्ञान देव ने भी शेर को कहा कि हमारा आपसे कोई वैर नहीं फिर आप क्यों झगड़ा करना चाहते हैं।
शेर ने कहा, “मैं इसका घंमड तोड़ना चाहता हूँ कि यह मेरा मुकाबला कर सकता है।”
“तो ठीक है। साहस है तो खुले मैदान में आ जाओ। यह मानव हमारा फैसला करेगा
कि मुकाबले में कौन हारा और कौन विजयी हुआ।” बादल ने पूरे आत्मविश्वास के
साथ कहा।
शेर ने उसकी चुनौती स्वीकार कर ली।
तीनों एक खुले मैदान में पहुँच गए। बादल ने ज्ञानदेव को एक ऊँचे पेड़ पर
चढ़ा दिया। फिर कहा, “जब तक मैं न कहूँ इस पेड़ पर से नीचे मत उतरना। यहीं
से तमाशा देखना।”
इतना कह कर उसने शेर को ललकारा और घृणा से अपना मुँह उलटी दिशा में घुमा लिया।
शेर ने कहा, “लड़ना है तो सामने से मुकाबला करो। अभी से पीठ क्यों दिखा
रहे हो।” इतना कह कर शेर उसके समीप आया ही था कि बादल ने एक जोरदार
दुलत्ती मारी कि वह कई गज दूर जा गिरा।
गुस्से में शेर गुर्राता हुआ उसकी ओर लपका। अब तो बादल यह जा और वह जा।
बादल तो जैसे उड़ रहा था और शेर उसकी धूल तक को पकड़ नहीं पा रहा था।
ज्यों ही अवसर मिलता बादल अचानक रुकता और शेर के समीप आते ही उस पर एक
जोरदार दुलत्ती जड़ देता। कभी शेर का जबड़ा घायल होता और कभी कोई पंजा।
कुछ ही देर में शेर हाँफने लगा। बादल के एक भी वार का वह ठीक से उत्तर
नहीं दे पाया। अपनी लातों से मरम्मत करता हुआ बादल उसे उस पेड़ के नीचे ले
आया जिस पर ज्ञानदेव बैठा था। बादल अपनी टापों से उसे मारने ही जा रहा था
कि ज्ञान देव ने उसे रोक दिया।
ज्ञानदेव ने कहा, “नहीं नहीं इसे मारना नहीं चाहिए। बल्कि इससे दोस्ती
करनी चाहिए। हारा हुआ प्रतिद्वंद्वी भी शरणागत के समान होता है। शरणागत को
भी मारना नहीं चाहिए। मेरे पिता जी कहते हैं कि यह धर्म के विरुद्ध है।”
शेर ने भी हाथ जोड़ते हुए कहा, “मुझ से गलती हो गई मुझे भी अपनी शक्ति पर
इतना घमंड नहीं करना चाहिए था। ख़ैर आज से मैं भी तुम्हारा दोस्त हूँ। किसी
दिन मैं भी तुम्हारे काम आऊँगा।” इतना कह कर वे अपने अपने रास्ते पर चले
गए।
कुछ दिन बाद फिर तीनों एक स्थान पर मिल गए। ज्ञान देव को उदास देख कर शेर
ने उसकी उदासी का कारण पूछा। बादल ने उसे सारी कथा कह सुनाई।
शेर ने कहा, “वह राजा बहुत ही अत्याचारी है। जंगल में आ कर नाहक ही कितने
ही जानवरों को मार डालता है। जब तक मुझे सूचना मिलती है वह घोड़े पर सवार
हो कर भाग निकलता है। यदि तुम साथ दो तो मैं उसे सबक सिखा सकता हूँ।”
बादल ने कहा मुझे भी राजा से बदला लेना है । तीनों ने मिल कर एक योजना
बनाई और अगली बार राजा के जंगल में आने की प्रतीक्षा करने लगे।
एक दिन राजा जंगल में शिकार खेलने आया। योजना के अनुसार बादल ने उसके
घोड़े को कहा कि जब शेर उसे आस पास लगे तो वह राजा को घोड़े से गिरा दे।
राजा के घोड़े को तो पहले से ही राजा पर गुस्सा था। वह बिना बात ही उस पर
चाबुक चलाता रहता था।
ज्यों ही घोड़े को शेर की गुर्राहट सुनाई दी वह वहीं पर खड़ा हो गया। राजा
के चाबुक मारने पर भी वह टस से मस नहीं हुआ। ज्यों ही उसे शेर समीप आता
दिखाई दिया उसने राजा को जमीन पर गिरा दिया। वह स्वयं आ कर बादल के पास
खड़ा हो गया। शेर ने एक ही झपटे में राजा का काम तमाम कर दिया।
जब राजधानी में अत्याचारी राजा के मरने का समाचार पहुँचा तो चारों ओर
खुशियाँ मनाई जाने लगी। युवराज बहुत ही दयालु स्वभाव का युवक था। वह अपने
पिता को बार बार अत्याचार न करने की सलाह देता रहता था परन्तु राजा उसकी
बात नहीं मानता था। राजा बनते ही उसने सारे निरापराध लोगों को कैद से
मुक्त कर दिया। धर्म दास के गुणों का आदर करते हुए उसने उन्हें राज
पुरोहित के रूप में सम्मानित करके राजधानी में ही रहने का आग्रह किया।
ज्ञान देव के कहने पर नए राजा ने जानवरों का शिकार करने पर रोक लगा दी। सब
लोग सुखपूर्वक रहने लगे।
anjaan
14-06-2012, 08:35 PM
जैसी तुम्हारी इच्छा
मोहिनी को कौन नहीं जानता था। जैसा उसका नाम, वैसे ही उसके करम। मोहिनी
अपनी बातों से सदा सबका मन मोह लेती थी। हर किसी के दुख: सुख में सब का
साथ देती थी। औरों को खुश करने की खातिर वो अपने दुख: को भूल जाती थी।
पार्टीयाँ करने का उसे बहुत शौक था। उसका घर सदा लोगों से भरा रहता था। जब
भी देखो, धूम धड़क्का, धूम धड़क्का। आस पास के लोग भी उसकी इस आदत से परिचित
थे और सदा उसका साथ देते थे। समय बीतता गया और पार्टीयाँ यूँ ही चलती
रहीं। समय के साथ साथ मोहिनी का शरीर भी कमज़ोर होता जा रहा था, परन्तु
उसकी पार्टीयों में कोई परिवर्तन नहीं आया। हँसी खुशी का माहौल ऐसे ही बना
रहा।
आख़िर मोहिनी के जाने का समय आ गया। यमराज ने अपने दूत को धरती पर ये आदेश
देकर भेजा कि वो अपने साथ मोहिनी को ले आये। आज्ञा पाकर दूत धरती पर आया
जहाँ उसने देखा कि मोहिनी अपनी पार्टी में व्यस्त है। उसे दीन और दुनिया
की कोई ख़बर नहीं। उसे देख कर यमदूत की इतनी हिम्मत नहीं पड़ी कि वो बिना
बताए मोहिनी को ले जाए। दूत ने मनुष्य का वेश धारण किया और स्वयं भी
पार्टी में शामिल हो गया।
थोड़ी देर बाद जब मौका मिला तो दूत ने मोहिनी को एकांत में ले जाकर अपने
आने का कारण बताया। दूत ने मोहिनी को ये भी बताया कि आज उसको एक सौ लोगों
को अपने साथ ले जाना है। उसके पास जो सौ लोगों की लिस्ट है उस में मोहिनी
का नाम सब से पहला है। यह सुनकर मोहिनी ने दूत से कहा कि हे महात्मा मेरी
इस पार्टी में क्यों भंग डाल रहे हो। देख नहीं रहे हो कि लोग कितने मगन
हैं। मुझे तुम्हारे साथ जाने में कोई आपत्ति नहीं है, बस थोड़ा सा समय और
देदो। और हाँ, अगर ले ही जाना है तो अपनी लिस्ट को नीचे से शुरू क्यों
नहीं कर लेते। इस तरह से मेरा नम्बर सब से बाद आएगा और अपने लोगों का साथ
थोड़ी देर के लिये और मिल जाएगा। यमदूत के कहने पर कि ऐसा संभव नहीं है,
मोहिनी ने उस से कहा कि क्यों न वो भी कुछ देर पार्टी का आनन्द ले ले। दूत
ने मोहिनी के इस निमंत्रण को स्वीकार कर लिया और अपनी लिस्ट एक ओर रखकर
पर्टी का आनन्द लेने लगा।
मोहिनी इस दुनिया से इतनी जल्दी जाना नहीं चाहती थी। उसे ये भी पता था कि
यमदूत उसे छोड़ेगा भी नहीं। एकाएक उस के मन में विचार आया और उसने आँख
बचाकर यमदूत की लिस्ट में अपने नाम का कार्ड सब से नीचे कर दिया। सब काम
यूँ ही चलता रहा। थोड़ी देर बाद यमदूत को ध्यान आया और वो मोहिनी के पास
आकर कहने लगा कि उसने मोहिनी के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है और सब से
नीचे जिस का नाम है उसे वो सब से पहले ले जाएगा। यह सुनकर मोहिनी ने केवल
इतना कहा और चलने को तैयार हो गई।
टाल नहीं सकता कोई, लिखा जो है सो होए
कितने जतन कुछ भी करो, जो होना है सो होए
anjaan
14-06-2012, 08:35 PM
जैसे को तैसा
नदी के किनारे के जंगल में एक ऊँट रहता था। वह बहुत ही सीधा-साधा था। एक
दिन उसकी भेंट एक धूर्त सियार से हो गई। सियार ने ऊँट से मित्रता कर ली और
उसके साथ ही रहने लगा।
एक दिन सियार ने ऊँट से कहा, "ऊँट भाई ! चलिए मक्का खाने के लिए नदी के उस
पार चलते हैं।" ऊँट ने कहा, "हमें चोरी नहीं करना चाहिए।" इसपर सियार ने
कहा, "चोरी करने के लिए कौन कहता है? मक्के का खेत तो मेरे एक मित्र का ही
है।" ऊँट मान गया और सियार को अपनी पीठ पर बैठाकर नदी पार किया। मक्के के
खेत में पहुँकर सियार जल्दी-जल्दी मक्का खाने लगा। जब सियार का पेट भर गया
तो उसने ऊँट से कहा, "ऊँट भाई! मुझे हुँहुँआरी (हुँआ-हुँआ करने का मन) हो
रही है।" ऊँट के मना करने के बाद भी सियार हुँआ-हुँआ करने लगा। हुँआ-हुँआ
की आवाज सुनकर किसान खेत में दौड़ा आया। सियार तो भग गया पर उसने ऊँट की
बहुत पिटाई की। सियार भागकर नदी किनारे आया और नदी पार करने के लिए ऊँट का
इंतजार करने लगा। थोड़ी ही देर में लँगड़ाते-लँगड़ाते ऊँट भी नदी के
किनारे पहुँचा। नदी पार करने के लिए सियार ऊँट की पीठ पर सवार हो गया।
जब ऊँट सियार को लेकर नदी के बीच में पहुँचा तो बोला, "सियार भाई! मुझे
लोटवाँस (लोटने की इच्छा) लग रही है।" इसपर सियार ने कहा, "पहले आप मुझे
उस पार कर दीजिए और फिर लोटिए।" सियार की बातों का ऊँट पर कोई असर नहीं
हुआ और वह लोटने लगा। सियार नदी में डूब-डूबकर अधमरा हो गया और किसी
प्रकार जान बचाकर इस पार आया।
जब यह बात जंगली जानवरों ने सुनी तो कहा, "जैसे को तैसा।"
anjaan
14-06-2012, 08:36 PM
तीन पुतले
महाराजा चन्द्रगुप्त का दरबार लगा हुआ था। सभी सभासद अपनी अपनी जगह पर
विराजमान थे। महामन्त्री चाणक्य दरबार की कार्यवाही कर रहे थे।
महाराजा चन्द्र्गुप्त को खिलौनों का बहुत शौक था। उन्हें हर रोज़ एक नया
खिलौना चाहिए था। आज भी महाराजा के पूछने पर कि क्या नया है; पता चला कि
एक सौदागर आया है और कुछ नये खिलौने लाया है। सौदागर का ये दावा है कि
महाराज या किसी ने भी आज तक ऐसे खिलौने न कभी देखें हैं और न कभी देखेंगे।
सुन कर महाराज ने सौदागर को बुलाने की आज्ञा दी। सौदागर आया और प्रणाम
करने के बाद अपनी पिटारी में से तीन पुतले निकाल कर महाराज के सामने रख
दिए और कहा कि अन्नदाता ये तीनों पुतले अपने आप में बहुत विशेष हैं। देखने
में भले एक जैसे लगते हैं मगर वास्तव में बहुत निराले हैं। पहले पुतले का
मूल्य एक लाख मोहरें हैं, दूसरे का मूल्य एक हज़ार मोहरे हैं और तीसरे
पुतले का मूल्य केवल एक मोहर है।
सम्राट ने तीनों पुतलों को बड़े ध्यान से देखा। देखने में कोई अन्तर नहीं
लगा, फिर मूल्य में इतना अन्तर क्यों? इस प्रश्न ने चन्द्रगुप्त को बहुत
परेशान कर दिया। हार के उसने सभासदों को पुतले दिये और कहा कि इन में क्या
अन्तर है मुझे बताओ। सभासदों ने तीनों पुतलों को घुमा फिराकर सब तरफ से
देखा मगर किसी को भी इस गुत्थी को सुलझाने का जवाब नहीं मिला। चन्द्रगुप्त
ने जब देखा कि सभी चुप हैं तो उस ने वही प्रश्न अपने गुरू और महामन्त्री
चाणक्य से पूछा।
चाणक्य ने पुतलों को बहुत ध्यान से देखा और दरबान को तीन तिनके लाने की
आज्ञा दी। तिनके आने पर चाणक्य ने पहले पुतले के कान में तिनका डाला। सब
ने देखा कि तिनका सीधा पेट में चला गया, थोड़ी देर बाद पुतले के होंठ हिले
और फिर बन्द हो गए। अब चाणक्य ने अगला तिनका दूसरे पुतले के कान में डाला।
इस बार सब ने देखा कि तिनका दूसरे कान से बाहर आगया और पुतला ज्यों का
त्यों रहा। ये देख कर सभी की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी कि आगे क्या होगा।
अब चाणक्य ने तिनका तीसरे पुतले के कान में डाला। सब ने देखा कि तिनका
पुतले के मुँह से बाहर आगया है और पुतले का मुँह एक दम खुल गया। पुतला
बराबर हिल रहा है जैसे कुछ कहना चाहता हो।
चन्द्रगुप्त के पूछ्ने पर कि ये सब क्या है और इन पुतलों का मूल्य अलग अलग क्यों है, चाणक्य ने उत्तर दिया।
राजन, चरित्रवान सदा सुनी सुनाई बातों को अपने तक ही रखते हैं और उनकी
पुष्टी करने के बाद ही अपना मुँह खोलते हैं। यही उनकी महानता है। पहले
पुतले से हमें यही ज्ञान मिलता है और यही कारण है कि इस पुतले का मूल्य एक
लाख मोहरें है।
कुछ लोग सदा अपने में ही मग्न रहते हैं। हर बात को अनसुना कर देते हैं।
उन्हें अपनी वाह-वाह की कोई इच्छा नहीं होती। ऐसे लोग कभी किसी को हानि
नहीं पहुँचाते। दूसरे पुतले से हमें यही ज्ञान मिलता है और यही कारण है कि
इस पुतले का मूल्य एक हज़ार मोहरें है।
कुछ लोग कान के कच्चे और पेट के हलके होते हैं। कोई भी बात सुनी नहीं कि
सारी दुनिया में शोर मचा दिया। इन्हें झूठ सच का कोई ज्ञान नहीं, बस मुँह
खोलने से मतलब है। यही कारण है कि इस पुतले का मूल्य केवल एक मोहर है।
यही ज्ञान लो तुम इन पुतलों से
इन्सान को तुम पहचानो ज़रा
अन्दर से कुछ, बाहर से कुछ
इस भेद को तुम अपनाओ ज़रा
anjaan
14-06-2012, 08:36 PM
भाग्य का लिखा टल नहीं सकता
बनारस के ज्योतिषाचार्य पण्डित कपिलदेव के बारे में प्रसिद्ध था वो जन्म
कुण्डली और ग्रहों का अध्ययन करके किसी का भी भविष्य ठीक ठीक बता सकते थे।
कभी कभी तो यदि ग्रहों का चक्कर अनुकूल न हो तो उपाय भी सुझा देते थे। अभी
तक उनकी भविष्यवाणी या उचित उपाय सदा सच होते आए थे और दूर दूर के लोग
उनको बहुत मानते थे तथा सम्मान देते थे।
कपिलदेव जी के परिवार में केवल पत्नी योगेश्वरी देवी और पुत्री कलावती थी।
जैसे जैसे कलावती बड़ी होने लगी, योगेश्वरी देवी को उसके विवाह की चिंता
होने लगी। वो बार बार पति को ये बात याद दिलाती थी कि वो जल्दी से जल्दी
पुत्री के हाथ पीले कर दें। कपिलदेव जी को भी अपनी ज़िम्मेवारी का पूरा
एहसास था मगर एक भविष्य की घटना जो उन्हें घुन्न की तरह खाए जा रही थी,
उसे वो पत्नी से कहते हुए बहुत घबरा रहे थे। आखिर पत्नी के बहुत आग्रह
करने पर वो बोले –
“योगेश्वरी, तुम क्या समझती हो कि मुझे इस बात का फ़िक्र नहीं है। मैंने
कलावती की कुण्डली कई बार देखी है और हर बार इस निश्चय पर पहुँचा हूँ कि
ये कन्या विवाह के तीन साल बाद विधवा हो जाएगी।”
कपिलदेव की ये बातें सुनकर योगेश्वरी बोली, “हे नाथ अगर इस के भाग्य में यही क्खा है तो इसका कोई उपाय भी तो होगा।”
“उपाय तो अवश्य है परंतु ग्रह इतने बलवान हैं कि कोई भी उपाय काम नहीं करेगा।” ऐसा कहकर कपिलदेव दुखी होकर रो पड़ा।
योगेश्वरी देवी बहुत सहनशील औरत थी। उसने दिल नहीं छोड़ा और पति से आग्रह
किया कि जो भी उपाय है हम उसे करेंगे। आप बस वर तलाश में लग जाओ। माता
पिता ने एक योग्य वर ढूँढ कर मकर संक्रांति के दिन शादी का महूरत निकाला।
सब ग्रहों का अध्य्यन करके कपिलदेव ने एक चाँदी का कटोरा लिया और उसके बीच
में एक बहुत छोटा सा सुराख कर के पानी में तैरने के लिए छोड़ दिया और बोले,
“ग्रहों के अनुसार जब ये कटोरा पानी से भर कर डूब जाएगा वही फेरों का
महूरत होगा और बुरी घड़ी टल जाएगी।”
उधर कलावती अपने पूरे साज शृंगार से सुसज्जित थी। सोने चाँदी और मोतियों
के आभूषण उस पर बहुत अच्छे लग रहे थे। उस ने भी चाँदी के लोटे की बात सुनी
और उसे देखने को उत्सुकित हो गई। पिता की आज्ञा लेकर अपनी सहेलियों सहित
वो नीचे आई और जहाँ लोटा तैर रहा था वहाँ सिर झुका कर सुराख में से पानी
को आता देखने लगी और थोड़ी देर बाद वापिस चली गई। उसे क्या मालूम था कि जब
वो झाँक कर कटोरे में देख रही थी तो उस के सिर के आभूषण का एक मोती कटोरे
में गिर गया है और कटोरे के उस छोटे से सुराख को बन्द कर दिया है। इधर
सारे लोग लोटा डूबने की इंतज़ार में थे कि कब लोटा डूबे और कब शादी की रसम
शुरू हो। कपिलदेव के हिसाब से लोटे को डूबने में कोई दो घण्टे लगने चाहिये
थे मगर जब इस बात को तीन घण्टे हो गए और लोटा फिर भी नहीं डूबा तो सब ने
वहाँ जाकर लोटे का निरिक्षण किया और जो पाया उसे देख कर चकित हो गए।
हालाँकि शादी का महूरत निकल चुका था मगर लड़के वालों के आग्रह करने पर शादी
कर दी गई। ठीक तीन साल बाद वही हुआ जिसका डर था।
ज़ोर लगाले मनुष्य तू कितना, भाग्य पलट न पाओगे
हाथ की रेखाओं में जो लिखा है, उसी को बस तुम पाओगे
anjaan
14-06-2012, 08:37 PM
बड़ा कौन - लक्ष्मी या सरस्वती
इस कहानी में ज्ञान की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है। संस्कृत में भी कहा
गया है "विद्या धनम् सर्व धनम् प्रधानम्"। इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है
कि ज्ञान की महिमा सर्वोपरि है। ज्ञानी की पूछ हर जगह होती है।
एक बार लक्ष्मी और सरस्वती में यह बहस होने लगी कि हम दोनों में बड़ा कौन
है? लक्ष्मी माँ कहती थीं कि मैं बड़ी हूँ और सरस्वती माँ कहती थीं कि
मैं। बहुत समय तक बहस चली लेकिन कोई निष्कर्ष नहीं निकला। अभी बहस चल ही
रही थी तभी वहाँ से एक भिखमंगा गुजरा। लक्ष्मी माँ ने कहा कि मैं इस
भिखमंगे को अमीर बना दूँगी इस पर सरस्वती माँ ने हँसकर कहा कि मैं ऐसा
नहीं होने दूँगी। इसके बाद माँ लक्ष्मी ने भिखमंगे के रास्ते में सोने की
ईंट गिरा दीं और हर्षित हो गईं कि सोने की ईंट पाकर भिखमंगा अमीर हो
जाएगा।
भिखमंगा अभी सोने की ईंट के दो चार कदम इधर ही था तभी माँ सरस्वती की उसपर
कृपा हो गई। भिखमँगा सोचा कि मेरे पास तो दृष्टि है, सबकुछ अच्छी तरह से
दिखाई दे रहा है इसके लिए चलने में भी परेशानी नहीं हो रही है लेकिन अंधे
लोग कैसे चलते होंगे? थोड़ा मैं भी अंधा बनकर देखूँ। इसके बाद भिखमंगा आँख
बंद करके चलने लगा और सोने की ईंट को पार कर गया। माँ लक्ष्मी ने अपना सर
पीट लिया और माँ सरस्वती को अपने से बड़ा मान लिया।
anjaan
14-06-2012, 08:38 PM
बापू उसे मत फैंकना तुम्हारे काम आएगा
सरकारी नौकरी से रिटायर होने के बाद किरपालू और उसकी बीवी धन्नो ने सोचा
कि रामपुर में जाकर बसा जाय। रामपुर में ही उसका इकलौता बेटा मुरली अपने
इकलौते बेटे गप्पू और पत्नी दुलारी के साथ रहता था। वहाँ जाकर किरपालू ने
अपना मकान बनवाया और मुरली को जो किराए के मकान में रहता था अपने साथ रहने
को कहा। सब कुछ ठीक चल रहा था। अचानक एक दुर्घटना में धन्नो की मृत्यु हो
गई। धन्नो के मर जाने के बाद किरपालू तो एकदम गुमसुम हो गया। उसके ग़म में
वो स्वयं बीमार पड़ गया।
बाप की यह हालत देख कर मुरली ने उसकी खूब सेवा करनी शुरु कर दी और हर
प्रकार से देखभाल की। पिता ने भी देखा कि बेटा कितना ख्याल कर रहा है।
किरपालू ने एक दिन मुरली को अपने पास बुलाया और अपनी सारी जायदाद उसके नाम
करदी। सब कुछ मिल जाने के बाद अब मुरली के बरताव में परिवर्तन आना शुरु हो
गय। वो बाप की अवहेलना करने लगा और दुलारी से भी कह दिया कि बापू जब भी
कुछ मागें उसको मत देना।
किरपालू की हालत दिन प्रति दिन बिगड़ती चली गई। एक ओर स्वास्थ्य खराब रहने
लग और दूसरी ओर मुरली ने उसके लिए घर से बाहर टूटी हुई खाट डाल दी और ओढ़ने
के लिए उस पर एक टाट बिछा दिया। किरपालू अब अपने दिन वहीं पर काटने लगा।
दुलारी का व्यवहार तो मुरली से भी खराब था। वो तो बात बात पर गाली पर उतर
आती थी। गप्पू यह सब देख रहा था ओर उसको कुछ भी समझ नहीं आ रहा था।
आख़िर एक दिन किरपालू की मृत्यु हो गई। बाप के मरने पर दुनिया को दिखाने के
लिये मुरली बहुत रो रहा था। दुलारी के तो आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे
थे। यह सब देख कर गप्पू एक अजीब उलझन में पड़ गया।
दाह संस्कार करने के बाद मुरली घर लौटा। जब अड़ौसी पड़ौसी चले गए तो
दुलारी से अकेले में बात कर के बाहर आया और खाट और टाट को उठाने लगा।
गप्पू के पूछने पर कि वो उन चीज़ों का क्या करेगा तो मुरली बोला कि वो उसको
बाहर फैंक देगा।
इतना सुनना था कि गप्पू एकदम बोल उठा।
"पिताजी उस खाट और टाट को संभल कर रख लीजिएगा। उसे मत फैंकना क्योंकि जब आप बूढ़े होंगे तो यह सब आपके काम आएँगे।"
anjaan
14-06-2012, 08:38 PM
सच्चा सोनार
बात बहुत पुरानी है, वही आज कहानी है । एक गाँव में एक सोनार रहता था । वह
सोनारी (गहने बनाने और बेचने का काम) करता था । उसके चार बेटे थे । एक दिन
सोनार ने अपने चारों बेटों को बुलाया और पूछा,"तुम सबको मालूम है, सच्चे
सोनार की परिभाषा ?" बड़े बेटे ने कहा, "जो बचाए रुपए में से चार आने, हम
सच्चा सोनार उसी को माने।" मझले ने कहा, "सच्चे सोनार का है यह आशय, पचास
पैसे खुद की जेब में और पचास ही पाएँ ग्राहक महाशय।" सझले ने कहा,
"बिल्कुल नहीं! सच्चे सोनार का होना चाहिए यही सपना, रुपये में बारह आना
अपना।" अब बारी थी छोटे की, उसने कही बात पते की, "रुपये का रुपया भी ले
लो और ग्राहक को खुश भी कर दो।"
चलिए अब आगे की दास्तान सुनते हैं:-
सोनार और उसके बेटों की बातें एक अमीर महाशय सुन रहे थे। उन्होंने सोनार
के छोटे बेटे की परीक्षा लेनी चाही। एक दिन अमीर महाशय ने सोनार के छोटे
बेटे को अपने घर पर बुलाया और कहा, "मुझे सोने का एक हाथी बनवाना है लेकिन
मैं चाहता हूँ कि वह हाथी तुम मेरे घर पर बनाओ।" अमीर महाशय की बात सोनार
के छोटे बेटे ने स्वीकार कर ली। वह प्रतिदिन अमीर महाशय के घर पर आने लगा
और अमीर महाशय की देख-रेख में हाथी का एक-एक भाग बनाने लगा। शाम को जब
सोनार का छोटा लड़का अपने घर पर पहुँचता था तो वहाँ भी पीतल से एक हाथी का
एक-एक भाग बनाता था। एक हफ्ते में अमीर महाशय के घर हाथी बनकर तैयार हो
गया । सोनार के छोटे बेटे ने अमीर महाशय से कहा, "महाराज, थोड़ा दही
मँगाइए, क्योंकि दही लगाने से इस हाथी में और चमक आ जाएगी।" अभी अमीर
महाशय दही की व्यवस्था कराने की सोच ही रहे थे तभी घर के बाहर किसी
ग्वालिन की आवाज सुनाई दी, "दही ले! दही।" अमीर महाशय ने उस ग्वालिन को
बुलवाया। सोनार के बेटे ने कहा, "महाराज! इतनी दही क्या होगी? आप इस
ग्वालिन को सौ-पचास दे दीजिए और मैं इस दही की नदिया (बरतन) में हाथी को
डुबोकर निकाल लेता हूँ ।" राजा ने कहा, "ठीक है ।" इसके बाद सोनार के छोटे
बेटे ने दही में हाथी को डुबोकर निकाल लिया और ग्वालिन अपना दही लेकर फिर
बेचने निकल पड़ी । सोनार के बेटे ने अमीर महाशय से कहा, "महाराज! आपका
हाथी तैयार है।" अमीर महाशय हँस पड़े और बोले, "एक दिन तो तुम अपने पिता
को सच्चे सोनार की परिभाषा बता रहे थे और शत-प्रतिशत कमाने की बात कर रहे
थे ।" सोनार का बेटा जोरदार ठहाका लगाया और कहा, "महाराज! मैं अपने पिता
से झूठ नहीं बोला। दही बेचनेवाली मेरी पत्नी थी और असली हाथी मेरे घर चला
गया और आपको मिला सोने का पानी चढ़ा हुआ नकली हाथी। हुआ यों कि दही की
नदिया में यह नकली हाथी पहले से डला हुआ था और मैंने डुबाया तो असली हाथी
को लेकिन निकाला इस नकली हाथी को। समझे।" अमीर महाशय हैरान भी थे और
परेशान भी, क्योंकि उन्हें सच्चे सोनार की परिभाषा समझ में आ गई थी ।
प्रेम से बोलिए स्वर्णकार महाराज की जय !!
anjaan
14-06-2012, 08:39 PM
पहले मैं तो छोड़ के देखूँ
चुन्नू को गुड़ खाने की बहुत बुरी आदत थी। सारा दिन बस उसको गुड़ चाहिए।
परिणम यह हुआ कि उसका फुंसी और फोड़ों से बुरा हाल हो गया। माँ बाप अलग
परेशान क्योंकि वो किसी की सुनता नहीं था। बस गुड़ खाने से मतलब।
बहुत जतन किए पर सब बेकार। दवाई का असर तो जब हो जब वो गुड़ खाना छोड़े। बस
यही क्रम चलता रहा। कुछ दिन बाद पता चला कि गाँव में एक बहुत सिद्ध साधू
आया हुआ है जो सब मुरादें पूरी करता है। चुन्नू के पिता बनवारी लाल ने
सोचा कि क्यों न साधू महाराज से बिनती करूँ, शायद कुछ काम बन जाए और इसका
गुड़ खाना छूट जाए। यह सोच कर बनवारी लाल चुन्नू को साथ लेकर साधू के पास
गया और सारी कहानी सुनाने के बाद बोला कि महाराज इसका कुछ करो। साधू ने
पहिले चुन्नू की ओर देखा फिर बनवारी की ओर देख कर कहा कि एक सप्ताह के बाद
आना।
एक सप्ताह के बाद बनवारी लाल चुन्नू को लेकर साधू को मिलने गया। साधू ने
थोड़ी देर तक चुन्नू की ओर देखा और फिर आँखों में आँखें डाल कर कहा कि
बेटा गुड़ खाना छोड़ दो, यह तुम्हारे लिए अच्छा नहीं है। इतना कह कर साधू
ने दोनों बाप बेटे को घर जाने को कहा।
घर पहुँचते ही बनवारी लाल हैरान कि चुन्नू ने गुड़ नहीं माँगा। यही नहीं
उसने तो कुछ दिन बाद गुड़ खाना बिल्कुल छोड़ दिया। धन्यवाद देने के लिए
बनवारी लाल साधू के पास पहुँचा। धन्यवाद देने के बाद उस ने साधू के पैर
पकड़ लिए और पूछा कि महाराज जब आपके बस कहने मात्र पर चुन्नू ने गुड़ खाना
छोड़ दिया तो आप ने मुझे एक सप्ताह बाद क्यों बुलाया।
साधू कहने लगे कि बेटा बनवारी लाल, जिस दिन तुम चुन्नू को लेकर आए थे उस
दिन मैं ने भी गुड़ खाया हुआ था। उसको कुछ कहने से पहिले मैं यह देखना
चाहता था कि क्या मैं भी गुड़ खाना छोड़ सकता हूँ। उस एक सप्ताह में मैं ने
गुड़ को हाथ तक नहीं लगाया था। यही कारण है कि मेरे कहने का चुन्नू पर फ़ौरन
असर हो गया।
चुन्नू को कुछ शिक्षा देने से पहिले मैं तो छोड़ के देखूँ कि यह मेरे लिए सम्भव है या नहीं तभी मैं उसको कुछ कह सकता हूँ।
यह सुन बनवारी लाल ने साधू के पैर पकड़ लिए और घर की ओर चल पड़ा।
anjaan
14-06-2012, 08:39 PM
चावल बन गया धान
नमस्कार, क्या आप लोगों को पता है कि बहुत पहले खेतों में चावल बोया जाता
था और चावल ही काटा जाता था। मनन कीजिए, कितना अच्छा था वह समय, जब ना धान
पीटना पड़ता था और ना ही चावल के लिए उसकी कुटाई ही करनी पड़ती थी। खेत
में चावल बो दिया और जब चावल पक गया तो काटकर, पीटकर उसे देहरी (अनाज रखने
का मिट्टी का पात्र) में रख दिया। तो आइए कहानी शुरु करते हैं; चावल से
धान बनने की।
एकबार बाभन टोला (ब्राह्मण टोला) के ब्राह्मणों को एक दूर गाँव से भोज के
लिए निमंत्रण आया। ब्राह्मण लोग बहुत प्रसन्न हुए और जल्दी-जल्दी
दौड़-भागकर उस गाँव में पहुँच गए। हाँ तो यहाँ आप पूछ सकते हैं कि
दौड़-भागकर क्यों गए। अरे भाई साहब, अगर भोजन समाप्त हो गया तो और वैसे भी
यह कहावत ‘एक बोलावे चौदह धावे’ ब्राह्मण की भोजन-प्रियता के लिए ही सृजित
की गई थी (है)। बिना घुमाव-फिराव के सीधी बात पर आते हैं। वहाँ ब्राह्मणों
ने जमकर भोजन का आनन्द उठाया। पेट फाड़कर खाया, टूटे थे जो कई महीनों के।
भोजन करने के बाद ब्राह्मण लोग अपने घर की ओर प्रस्थान किए।
पैदल चले, डाड़-मेड़ से होकर क्योंकि सवारी तो थी नहीं। रास्ते में चावल
के खेत लहलहा रहे थे। ब्राह्मण देवों ने आव देखा ना ताव और टूट पड़े चावल
पर। हाथ से चावल सुरुकते (बाल से अलग करते) और मुँह में डाल लेते। उसी
रास्ते से शिव व पार्वती भी जा रहे थे । यह दानवपना (ब्राह्मणपना) माँ
पार्वती से देखा नहीं गया और उन्होंने शिवजी से कहा, ”देखिए न, ये
ब्राह्मण लोग भोज खाकर आ रहे हैं फिर भी कच्चे चावल चबा रहे हैं।” शिवजी
ने माँ पार्वती की बात अनसुनी कर दी। माँ पार्वती ने सोचा, मैं ही कुछ
करती हूँ और सोच-विचार के बाद उन्होंने शाप दिया कि चावल के ऊपर छिलका हो
जाए।
तभी से खेतों में चावल नहीं धान उगने लगे। धन्य हे ब्राह्मण देवता।
anjaan
14-06-2012, 08:40 PM
करत-करत अभ्यास ते
बात उन दिनों की है जब काशी विद्या के केन्द्र के रूप में विश्व-प्रसिद्ध
था । विद्याध्ययन के लिए, दूर-दूर से लोग यहाँ आते थे । विद्याध्ययन की
ललक लिए एक गरीब ब्राह्मण कुमार काशी पहुँचा । वह एक योग्य गुरु के
सानिध्य में विद्याध्ययन करने लगा । वह अपने गुरु का बहुत प्रिय था पर
पढ़ाई में फिसड्डी था । कई सालों तक वह परीक्षा में अनुत्तीर्ण होता रहा ।
बार-बार परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने के कारण उसका मन पढ़ाई से उचट गया ।
एक दिन बोरिया-बिस्तर समेटकर वह अपने गाँव की ओर चल पड़ा । उसके दिमाग में
अब एक ही बात चल रही थी, "पढ़ने नहीं जाऊँगा और भीख माँगकर खाऊँगा" । उस
समय भिक्षाटन ब्राह्मणों का जन्मसिद्ध अधिकार समझा जाता था । आप इसका यह
अर्थ कत्तई न निकालें कि उस समय ब्राह्मण आलसी होते थे ।
चलते-चलते वह ब्राह्मण कुमार, दोपहर को एक गाँव में पहुँचा । कड़ी धूप थी
और उसका पूरा शरीर पसीने में नहाया हुआ था। उसकी ज्ञान-पिपासा तो मर गई थी
पर जल-पिपासा तेज हो गई थी । वह एक कुएँ पर पहुँचा और गठरी से लोटी-डोरी
निकालकर पानी भरने लगा । पानी भरते समय अचानक उसके दिमाग में कुछ कौंधा ।
वह विस्मय से कभी रस्सी को देख रहा था तो कभी कुएँ की जगत को ।
उसने सोचा कि जब इस घासफूस की रस्सी के बार-बार घर्षण से पत्थर (कुएँ की
जगत) भी घिस जाता है । उसमें रस्सी के निशान भी पड़ जाते हैं तो विद्या के
बार-बार अभ्यास से मेरा दिमाग क्यों नहीं घिस सकता । इसके बाद उसके कदम
पुनः विद्या प्राप्ति के लिए काशी की ओर मुड़ गए । कालान्तर में उसकी मेहनत
रंग लाई और उसकी गणना काशी के बड़े-बड़े विद्वानों में होने लगी ।
सच ही कहा गया है-
करत-करत अभ्यास ते, जड़मति होत सुजान,
रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निशान ।
anjaan
14-06-2012, 08:41 PM
कठपुतली का नाच
छत्रपुर के ठाकुर रणवीर सिंह की उदारता और न्याय से सब जनता भली भाँति
परिचित थी। उन के दीवान करम चन्द का तो बस कहना ही क्या। उनकी चतुरता और
ज्ञान का सब को पता था। दीवानजी छत्रपुर के सारे काम-काज को देखते थे।
उनके होते हुए ठाकुर रणवीर सिंह को किसी भी तरह की फ़िक्र नहीं था। रणवीर
सिंह दीवान जी को बहुत मानते थे और हर बात में उनकी सलाह लेते थे। रियासत
बहुत बड़ी थी इस लिये दीवानजी को काफ़ी घूमना फिरना पड़ता था। निश्चय है कि
दीवानजी की तनख्वाह भी काफ़ी थी। ठाकुर साहिब के निजी नौकर सुन्दर के इलावा
सारी जनता दीवानजी को बहुत मान देती थी। सुन्दर को सदा यही शिकायत रहती थी
कि वो ठाकुर साहिब की सेवा में सदा लगा रहता है मगर उसको दीवानजी से बहुत
कम पैसे मिलते हैं। यह बात रह रहकर उसको परेशान करती थी। एक दिन ठाकुर
साहिब अपनी रियासत का दौरा करने निकले। उनके साथ सुन्दर भी था। अकेले में
मौका पाकर सुन्दर ने अपने दिल की बात ठाकुर साहिब से कही और विनती की कि
उसको भी दीवानजी के बराबर तनख्वाह मिलनी चाहिए। रणवीर सिंह ने सुन्दर की
बात बहुत ध्यान से सुनी और कहा कि “तुम ठीक कहते हो सुन्दर, तुम्हारी बात
पर हम घर जाकर फ़ैसला करेंगे”।
इतने में कुछ शोर शराबे की आवाज़ सुनाई पड़ी। ठाकुर साहिब ने सुन्दर को कहा
कि वो जाकर देखे कि शोर कैसा है। सुन्दर भागा हुआ गया और आकर बताया कि वो
बंजारे हैं।
“वो तो ठीक है, मगर वो कहाँ से आए हैं”, ठाकुर साहिब ने पूछा।
सुन्दर फिर भाग कर गया और आकर बोला कि वो राजस्थान से आए हैं।
“वो कौन लोग हैं ज़रा पता तो लगाओ”, ठाकुर साहिब ने फिर पूछा।
सुन्दर फिर भाग कर गया और आकर बताया कि वो कठपुतली वाले हैं।
“वो यहाँ क्या करने आएँ हैं”, ठाकुर साहिब ने फिर प्रश्न किया।
सुन्दर फिर भाग कर गया और आकर बताया कि वो कठपुतली का नाच दिखाने आए हैं।
“सुन्दर, जाकर पता तो करो कि क्या ये लोग आज रात को हमें पुतली का नाच
दिखाएँगे।” सुन्दर फिर भागा गया और आकर बताया कि वो लोग आज रात को पुतली
का नाच दिखाएँगे।
अब तक सुन्दर थक चुका था और उसको समझ नहीं आरहा था कि ठाकुर साहिब ये सब
क्यों कर रहे हैं। छोटी छोटी बातों को लेकर उसे क्यों परेशान कर रहे हैं।
इतने में दीवनजी आये और ठाकुर साहिब ने उनको भी यही सवाल किया कि वो जाकर
देखें कि शोर कैसा है। दीवानजी गए और थोड़ी देर में आकर बताया कि ये लोग
राजस्थान के बनजारे हैं, कठपुतली का नाच कराते हैं। सुना है कि ये लोग
अपने काम में बहुत माहिर हैं, इसी लिए मैं ने इनसे कहा है कि आज रात को ये
यहाँ पर आपको अपनी कला का प्रदर्शन दिखाएँ।
सुन्दर ये सब देख रहा था। इस से पहले कि ठाकुर साहिब कुछ कहें उस को अपनी
गलती का एहसास हो गया। वो हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और बोला, “अन्नदाता आज
आपने मेरी आँखें खोल दी। मैं जहाँ भी हूँ और जैसा भी हूँ ठीक हूँ। बिना
किसी कारण मैं ने दीवान जी की शान में ग़लत सोचा। इस बात की मैं क्षमा
चाहता हूँ।”
anjaan
14-06-2012, 08:41 PM
कन्हैया की हाज़िर जवाबी
बचपन में दौलत राम बहुत ग़रीब था। समय के साथ साथ उसने शहर में जाकर ख़ूब
मेहनत की और बहुत पैसा कमाया। जैसे-जैसे लक्ष्मी मैया की कृपा होती गई,
दौलत राम का घमण्ड बढ़ता गया और वो हर किसी को नीची निगाह से देखने लगा।
बहुत दिन बाद वो शहर से अपने गाँव आया। दुपहर में एक बार जब वो घूमने
निकला तो उसे अपने बचपन की सारी यादें ताज़ा होने लगीं। उसे वो सारे दृश्य
याद आने लगे जहाँ उसने अपना बचपन बिताया था। एकाएक उसका ध्यान एक बरगद के
पेड़ पर पड़ा जिस के नीचे एक आदमी आराम से लेटा हुआ था। क्योंकि धूप थोड़ी
तेज़ होने लगी थी इसलिए दौलत राम सीधा वहाँ पहुँचा और देखा कि उसका बचपन का
साथी कन्हैया वहाँ आराम से लेटा हुआ है।
बजाए इस के कि दौलत राम अपने पुराने मित्र का हाल चाल पूछे, उस ने कन्हैया को टेढ़ी नज़र से देख कर कहा-
“ओ कन्हैया, तू तो बिल्कुल निठल्ला है। न पहले कुछ करता था और न अब कुछ करता है। मुझे देख मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गया हूँ।”
यह सुनकर कन्हैया थोड़ा बुड़बुड़ा कर बैठ गया। दौलत राम का हालचाल पूछा और
कहने लगा कि समस्या क्या है। दौलत राम के ये कहने पर कि वो काम क्यों नहीं
करता, कन्हैया ने पूछा कि उस का क्या फ़ायदा होगा। दौलत राम ने कहा कि तेरे
पास बहुत सारे पैसी हो जाएँगे।
“उन पैसों का मैं क्या करूँगा?” कन्हैया ने फिर प्रश्न किया।
“अरे मूर्ख, उन पैसों से तू एक बहुत बड़ा महल बनाएगा।”
“क्या करूँगा मैं उस महल का?” कन्हैया ने फिर तर्क किया।
“ओ मन्द बुद्धि उस महल में तू आराम से रहेगा, नौकर चाकर होंगे, घोड़ा गाड़ी
होगी, बीवी बच्चे होंगे।” दौलत राम ने ऊँचे स्वर से गुस्से में कहा।
“फिर उसके बाद?” कन्हैया ने फिर प्रश्न किया।
अब तक दौलत राम अपना धीरज खो बैठा था। वो गुस्से में झुँझला कर बोला-
“ओ पागल कन्हैया, फिर तू आराम से लम्बी तान कर सोएगा।”
ये सुन कर कन्हैया ने मुस्कुराकर जवाब दिया- “सुन मेरे भाई दौलत, तेरे आने से पहले, मैं लम्बी तान के ही तो सो रहा था।”
ये सुनकर दौलत राम के पास कुछ भी कहने को नहीं रहा। उसे इस चीज़ का एहसास
होने लगा कि जिस दौलत को वो इतनी मान्यता देता था वो एक सीधे-साधे कन्हैया
की निगाह में कुछ भी नहीं। आगे बढ़ कर उसने कन्हैया को गले लगा लिया और
कहने लगा कि आज उसकी आँखें खुल गई हैं। दोस्ती के आगे दौलत कुछ भी नहीं
है। इंसान और इंसानियत ही इस जग मैं सब कुछ है।
anjaan
14-06-2012, 08:42 PM
अपना हाथ जगन्नाथ
बुलाकी एक बहुत मेहनती किसान था। कड़कती धूप में उसने और उसके परिवार के
अन्य सदस्यों ने रात दिन खेतों में काम किया और परिणाम स्वरूप बहुत अच्छी
फ़सल हुई। अपने हरे भरे खेतों को देख कर उसकी छाती खुशी से फूल रही थी
क्योंकि फसल काटने का समय आ गया था। इसी बीच उसके खेत में एक चिड़िया ने एक
घौंसला बना लिया था। उसके नन्हें मुन्ने चूज़े अभी बहुत छोटे थे।
एक दिन बुलाकी अपने बेटे मुरारी के साथ खेत पर आया और बोला, "बेटा ऐसा करो
कि अपने सभी रिश्तेदारों को निमन्त्रण दो कि वो अगले शनिवार को आकर फ़सल
काटने में हमारी सहायता करें।" ये सुनकर चिड़िया के बच्चे बहुत घबराए और
माँ से कहने लगे कि हमारा क्या होगा। अभी तो हमारे पर भी पूरी तरह से
उड़ने लायक नहीं हुए हैं। चिड़िया ने कहा, "तुम चिन्ता मत करो। जो इन्सान
दूसरे के सहारे रहता है उसकी कोई मदद नहीं करता।"
अगले शनिवार को जब बाप बेटे खेत पर पहुचे तो वहाँ कोई भी रिश्तेदार नहीं
पहुँचा था। दोनों को बहुत निराशा हुई बुलाकी ने मुरारी से कहा कि लगता है
हमारे रिश्तेदार हमारे से ईर्ष्या करते हैं, इसीलिए नहीं आए। अब तुम सब
मित्रों को ऐसा ही निमन्त्रण अगले हफ़्ते के लिए दे दो। चिड़िया और उसके
बच्चों की वही कहानी फिर दोहराई गई और चिड़िया ने वही जवाब दिया।
अगले हफ़्ते भी जब दोनों बाप बेटे खेत पर पहुचे तो कोई भी मित्र सहायता
करने नहीं आया तो बुलाकी ने मुरारी से कहा कि बेटा देखा तुम ने, जो इन्सान
दूसरों का सहारा लेकर जीना चहता है उसका यही हाल होता है और उसे सदा
निराशा ही मिलती है। अब तुम बाज़ार जाओ और फसल काटने का सारा सामान ले आओ,
कल से इस खेत को हम दोनों मिल कर काटेंगे। चिड़िया ने जब यह सुना तो बच्चों
से कहने लगी कि चलो, अब जाने का समय आ गया है - जब इन्सान अपने बाहूबल पर
अपना काम स्वयं करने की प्रतिज्ञा कर लेता है तो फिर उसे न किसी के सहारे
की ज़रूरत पड़ती है और न ही उसे कोई रोक सकता है। इसी को कहते हैं बच्चो
कि, "अपना हाथ जगन्नाथ।"
इस से पहले कि बाप बेटे फसल काटने आएँ, चिड़िया अपने बच्चों को लेकर एक सुरक्षित स्थान पर ले गई।
vBulletin® v3.8.7, Copyright ©2000-2012, vBulletin Solutions, Inc.