Tuesday, November 14, 2023

जीवात्मा और परमात्मा का सम्बन्ध

 *_🌻 जीवात्मा और परमात्मा का सम्बन्ध  🌻*


*_🌹 एकोऽहं द्वितीयो नाऽस्ति 


       _जब रावण की सेना को हरा कर- और सीता जी को लेकर श्री राम चन्द्र जी वापस अयोध्या पहुंचे - तो वहां उन सब के लौटने की ख़ुशी में एक बड़े भोज का आयोजन हुआ।

       _वानर सेना के भी सभी लोग आमंत्रित थे- लेकिन बेचारे,सब ठहरे वानर ही न...?

      _तो सुग्रीव जी ने उन सब को खूब समझाया- देखो- यहाँ हम मेहमान हैं, और अयोध्या के लोग हमारे मेजबान।

      ‌‌ _तुम सब यहाँ खूब अच्छे से आचरण करना - हम वानर जाति वालों को लोग *शिष्टाचार विहीन* न समझें,इस बात का ध्यान रखना!

        _वानर भी अपनी जाति का मान रखने के लिए तत्पर थे,किन्तु एक वानर आगे आया- और हाथ जोड़ कर श्री सुग्रीव से कहने लगा *"प्रभो - हम प्रयास तो करेंगे कि अपना आचार अच्छा रखें, किन्तु हम ठहरे बन्दर* कहीं भूल चूक भी हो सकती है- तो अयोध्या वासियों के आगे हमारी अच्छी छवि रहे- इसके लिए मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप किसी को हमारा अगुवा बना दें!

          ‌  _जो न सिर्फ हमें मार्गदर्शन देता रहे,बल्कि हमारे बैठने आदि का प्रबंध भी सुचारू रूप से चलाये, कि कही इसी चीज़ के लिए वानर आपस में लड़ने भिड़ने लगें तो हमारी छवि धूमिल नहीं होगी!"

         _अब वानरों में सबसे ज्ञानी,व *श्री राम के सर्व प्रिय तो हनुमान ही माने जाते थे-* तो यह जिम्मेदारी भी उन पर आई!

          _भोज के दिन श्री हनुमान जी सबके बैठने वगैरह का इंतज़ाम करते रहे, और सबको ठीक से बैठाने के बाद श्री राम के समीप पहुंचे, *तो श्री राम ने उन्हें बड़े प्रेम से कहा- कि तुम भी मेरे साथ ही बैठ कर भोजन करो।*

       _अब हनुमान पशोपेश में आ गए, उनकी योजना में प्रभु के बराबर बैठना तो था ही नहीं!

        _" वे तो अपने प्रभु के जीमने के बाद ही- प्रसाद के रूप में भोजन ग्रहण करने वाले थे!"

      _न तो उनके लिए बैठने की जगह ही थी, और ना ही केले का पत्ता- तो हनुमान बेचारे पशोपेश में थे- *ना तो प्रभु की आज्ञा टाली जाए,ना उनके साथ खाया जाए!* प्रभु तो भक्त के मन की बात जानते हैं ना ?

         _तो वे जान गए कि- मेरे हनुमान के लिए- केले का पत्ता भी नहीं है,और ना ही स्थान है।

        _उन्होंने अपनी कृपा से अपने से लगता हनुमान के बैठने जितना स्थान बढ़ा दिया *(जिन्होंने इतने बड़े संसार की रचना की हो उन्होंने ज़रा से और स्थान की रचना कर दी )*  लेकिन प्रभु ने एक और केले का पत्ता नहीं बनाया!


     _उन्होंने कहा *"हे मेरे प्रिय! अति प्रिय छोटे भाई!, या पुत्र की तरह प्रिय हनुमान!*  तुम मेरे साथ मेरे ही केले के पत्ते में भोजन करो।

           _क्योंकि भक्त और भगवान तो एक ही हैं-  *एकोऽहं द्वितीयो नाऽस्ति* तो कोई हनुमान को भी पूजेगा , तो मुझे ही प्राप्त करेगा *(यही अद्वैत यानी एकेश्वरवाद है.)"*

        _इस पर श्री हनुमान जी बोले - "हे प्रभु - आप मुझे कितने ही अपने बराबर बताएं,मैं कभी आप नहीं होऊँगा,ना तो कभी हो सकता हूँ - ना ही होने की अभिलाषा है! *,,,,, (यह है द्वैत,यानी जीव और ब्रह्म, भक्त और भगवान,के बीच की मर्यादा),,,,,* - मैं सदा सर्वदा से आपका सेवक हूँ,और रहूँगा-आपके चरणों में ही मेरा स्थान था - और रहेगा।

      _*तो मैं  तो आपकी थाल में से खा ही नहीं सकता!"*

     _जब हनुमान जी ने प्रभु के साथ भोजन करने से इनकार कर दिया। *तब,श्री राम ने अपने सीधे हाथ की मध्यमा अंगुली से केले के पत्ते के मध्य में एक रेखा खींच दी - जिससे वह पत्ता एक भी रहा- और दो भी हो गया! एक भाग में प्रभु ने भोजन किया- और दूसरे अर्ध भाग में हनुमान को कराया। तो जीवात्मा और परमात्मा के ऐक्य और द्वैत- दोनों के चिन्ह के रूप में केले के पत्ते आज भी एक होते हुए भी दो हैं -और दो होते हुए भी एक है।*

_*"यानी द्वैत में अद्वैत "* यही सृष्टि की व्यवस्था है , जो ब्रह्म और जीव के संबंध- *यानी द्वैत में अद्वैत को दर्शाती है।* इसे समझ लिया- तो जीवन से उद्धार तय है! यहीं है *जीवात्मा एवं परमात्मा का सम्बन्ध।**


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