Tuesday, August 14, 2012

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आदिवासी औरतों की दुनिया का सच

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आदिवासी महिलाएं भले ही तन की काली हों, पर दिल की बहुत भोली होती हैं. झरने-सी उन्मुक्त निश्छल हंसी और पुटुस के फूलों-सा उनके नैसर्गिक स्व्भाव का क्या  कहना. वे जंगलों को प्रेम करती हैं. उसके नाते-रिश्ते की परिधि में गाय, बकरी, सुअर भी आते हैं. उनकी दुनिया सारे जहां तक व सिर पर पहाड-सा दुख, हृदय में पहाड-सा धीरज संजोये रहती हैं.
अन्या समाजों की तरह आदिवासी समाज भी महिलाओं और पुरुषों की सहभागिता से बना है, लेकिन इसमें जो एक सबसे बडी बात है, वह है आदिवासी समाज की संरचना में महिलाओं का पुरुषों से चौगुना योगदान.औरतें, आदिवासी समाज की अर्थव्यवस्थित की रीढ होती हैं. उन्हेंय खेत खलिहान, जंगल पहाड में ही नहीं, हाट-बाजारों में भी मेहनत-मजदूरी करते हुए देखा जा सकता है. अनाज के एक-एक दाने उनके पसीने से पुष्टा होते हैं. उनके घर की बाहरी-भीतरी चिकनी दीवारों और उस पर अंकित अनेक चित्रों से उनके मेहनत, रुचि और कल्प नाशीता का अंदाजा लगाया जा सकता है. वह अक्सर चुप रह कर सब कुछ सहती हैं. रोज मीलों पैदल चल कर पानी भी लाती हैं और नशे में धुत लडखडाते मर्दों को कंधों का सहारा भी देती हैं. भूख-प्या स, थकान से पस्त औरत मर्दों के रोज लात-घूसे भी सहती हैं और देर रात गए देह पर पाश्विक तांडव भी.सब कुछ सुनती, मन ही मन गुनती और भीतर ही भीतर लकडी सी घुनती निरंतर ये महिलाएं भला क्या जाने कि उनकी आंखों की पहुंच तक ही सीमित नहीं है उनकी दुनिया.
वे नहीं जानती कि इतनी महत्वपूर्ण भूमिकाओं और त्याग बलिदानों के बावजूद उन्हें उनके समाज ने उचित मान सम्मातन और कहीं कोई जगह क्यों नहीं दिया क्यों संपूर्ण चल अचल संपत्ति पर अपना अधिकार जमा छल-प्रपंच और परंपरा के नाम पर मकडी के जाले-सा उलझा कर रख दिया. शरीर के विभिन्न अंगों पर असंख्यी गोदने की तरह विडंबनाएं हैं, उनके जीवन में. कई बंदिशें और वर्जनाएं भी हैं, उनके लिए. जैसे वह हल नहीं छू सकती, चाहे लाख खेती का काम बिगड जाए. अगर भूल से भी मजदूरी में हल छू लिया तो प्रलय मच जायेगा. माझीथान में बैठे देवता का सिंहासन डोल उठेगा और फिर सजोनी किस्कूख की तरह हल में बैल बना कर जोतने जैसी अमानवीय घटनाओं को अंजाम देने से वे नहीं चूकेंगे. हल की तरह तीर-धनुष छूना भी उनके लिए अपराध है. इसके लिए भी कुछ ऐसी ही निर्धारित शर्त है. जीवन में सिर्फ एक बार शादी के समय लग्नल मंडप में उन्हेंी तीर-धनुश छूने का मौका मिलता है. उसके बाद फिर कभी नहीं. इतिहास साक्षी है संताल विद्रोह के समय आदिवासी औरतों ने फूलों-झरनों के रूप में जम कर अंग्रे सिपाहियों का मुकाबला किया था और दर्जनों को मौत के घाट उतार दिया था. क्या  वह काम उसने आंचा मार कर किया था. वे छप्प र-छावनी नहीं कर सकती. चाहे घर चू रहा हो या छप्पर टूट कर गिर गया हो. इस अपराध के लिए भी वैसी ही सजा है. नाक-कान काट कर घर से धकिया कर निकाल फेंकेगा दकियानूसी समाज. महिलाओं को जाहेर वृक्ष पर चढना या उसकी डालियां तोडना भी महिलाओं के लिए वर्जित है. संतालों की मान्य ता है कि जाहेर वृक्ष पर बोंगा निवास करते हैं. महिलाओं के उस पर चढने से वह अलविदा हो जाता है. बोंगा नाराज हो जाते हैं और वर्षा को रोक देते हैं, जिससे अकाल पड जाती है.
किसी व्येक्ति का बाल काटना भी संथाल महिलाओं के लिए वर्जित है. आज संथाली समाज में प्रमुख और संपूर्ण चल-अचल संपत्ति का हकदार केवल पुरुष हैं. आदिवासी औरतों का अपने पिता की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं बनता. जब-तक उसकी शादी नहीं होती उनके नाम से जमीन का एक टुकडा अलग रखा जाता है, जिसकी उपज से उसका भरण-पोषण और शादी की जाती है. शादी के बाद वह जमीन उसके भाइयों में बंट जाती है और अगर उसका कोई नहीं रहा तो उनके सबसे करीबी संगोष्ठियों में. अगर उसका पिता किसी को गोद लेकर धर जंवाई बसा लेता है तो ऐसी हालत में उसकी संपत्ति का हकदार उसका पति होता है. किसी कारणवश अगर लडकी को कुंवारी छोड कर उसका पिता मर जाता है तो ऐसे में पिता की संपत्ति पर उसका कोई हक नहीं होता, बल्कि उसके पिता के भाइयों में बंट जाता है. अगर कहीं वह बीच में विधवा हो गई, तो बस पूछिये मत. जमीन जायदाद हडपने की नीयत से उसके गोतिया भाई एक-एक षडयंत्र के तहत तुरंत उस पर डायन का आरोप लगा देंगे. जमीन सहित समस्तो प्राकृतिक साधनों पर सामूहिक स्वा-मित्वन की बात झूठी है. पहले कभी रहा होगा, लेकिन अब यह बीते जमाने की बात हो गई. जब खतियान बना, सरकार को मालगुजारी दी जाने लगी तो खतियान में पुरुशों का नाम चढा. कुंवारी लडकियों के साथ भी अजीब विडंबना है, कभी हाट बाजार मेला घूमने गई तो वहां भी जिसको जो पसंद आया भगा कर ले गया और साल छह महीना पास रख कर मन हुआ तो शादी की, नहीं तो छोड दिया. भले ही लडकी उसे पसंद करे न करे. ऐसे मामले में भी समाज का रवैया औरतों के पक्ष में सकारात्मभक नहीं होता. पहले समुदाय में थोडी बहुत नैतिकता और मानवीय भावना बची हुई थी. इस वजह में संयुक्त परिवार था लोगों में सामुदायिक और सामूहिकता थी. घर गांव की चाटुकारिता ने सब कुछ तहस-नहस कर दिया. परिणामत: आज संताली समाज की औरतें न घर की है, न घाट की. इस तरह संताली औरतों के लिए कहीं कोई व्या‍वहारिक व्यावस्थाा नहीं है, आदिवासी प्रथागत नियम कानून में. अंग्रेजी गैंजर की रिपोर्ट ने भी संताली प्रथागत कानून को वै़द्य ठहराया और आदिवासी औरतों को जमीन पर अधिकार वे वंचित कर दिया. आज आजादी के इतने सालों पर भी जबकि भारतीय संविधान में कितने संशोधन हुए, संताली प्रथागत कानून में अबतक कोई संशाधन नहीं हुआ. 1956 में जब हिंदू औरतों को पारिवारिक संपत्ति में हिस्सार देने के लिए हिंदू उत्तधराधिकारी अधिनियम बना तो उसी समय आदिवासी औरतों को उस विरादरी से अलग छोड दिया गया, प्रथागत कानून के जयंती शिकंजे में घुट-घुट कर जीने और तिल-तिल कर मरने के लिए. आज जबकि अपने चारों ओर बदलती कमियों को देख कर ये अपने अभिशप्ता जीवन के खिलाफ जोर-शोर से आवाज उठारही है. छोटी-छोटी जमातों से जुडकर पढना लिखना और मुंह खोलना सीख रही है. अपने हक और अधिकारों के लिए मिल बैठ कर बतियाने लगी है, प्रथागत कानूनों-सी लौह-किवाडों को धकियाने लगी है.

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