सोमवार, 1 नवम्बर 2010
प्रवक्ता डॉट कॉम ने बहस चलाकर अच्छा काम किया है। मैं इधर-उधर की बातें न करके पहले सिर्फ उस फिनोमिना के बारे में कहना चाहता हूँ। जो पंकज और उनके जैसे लेखकों और युवाओं में घुस आया है। यह नव्य उदार संस्कृति का प्लास्टिक पोलीथीन फिनोमिना है। यह ईमेल संस्कृति है। इसमें सारवान कुछ भी नहीं है।
ये एक व्यक्ति के विचार नहीं हैं बल्कि यह एक फिनोमिना है। एक प्रवृत्ति है। पहले मैं यही सोच रहा था कि पाठकों की राय पर प्रतिक्रिया नहीं दूँगा। लेकिन इधर कुछ असभ्यता ज्यादा हो रही है। इसलिए बोलना जरूरी है। मैं बहुत सोच समझकर लिख रहा हूँ कि पंकजजी ने अपने लेख में जो कुछ लिखा है और उनके पक्ष में जिस तरह की टिप्पणियां लोगों ने लिखी हैं। वे सबकी सब वेब संस्कृति के सभ्य विमर्श का हिस्सा नहीं बन सकतीं। हां,वे वेब संस्कृति के असभ्य विमर्श का हिस्सा जरूर हैं। जैसे पोर्नोग्राफी है। उन्हें व्यक्ति या व्यक्तियों की राय के रूप में न देखकर एक फिनोमिना के रूप में देखें तो बेहतर होगा। सवाल यह है वेब पर दीनदयाल उपाध्याय (विचार-विमर्श की परेपरा) के लेख हैं और पोर्नोग्राफी भी है,हम किस परंपरा में जाना चाहते हैं ?
मेरी समस्या पंकजजी नहीं हैं। वह फिनोमिना है जिसकी वे अभिव्यक्ति कर रहे हैं। वह असभ्य भाषा है जिसकी वे अभिव्यक्ति कर रहे हैं। यह हिन्दी की इज्जत को मिट्टी में मिलाने वाली भाषा है। यह भाषा इस बात की द्योतक है कि हिन्दी का युवाओं में अपकर्ष हो रहा है। यह इस बात का भी संकेत है कि हिन्दी में ऐसे युवाओं का समूह पैदा हो गया है जो विचारों में गंभीरता के साथ अवगाहन करने से भाग रहा है। वह विचार विमर्श को ईमेल कल्चर में तब्दील कर रहा है।
विचार-विमर्श को ईमेल संस्कृति में तब्दील करने की अनुमति किसी को नहीं दी जा सकती। ईमेल संस्कृति की विशेषता है पढ़ा और नष्ट किया। यही पोलिथीन प्लास्टिक फिनोमिना की विशेषता है। यह वेब विमर्श नहीं है। यह ईमेल विमर्श है। यह इस बात का प्रतीक है कि अभी हमारे युवाओं का एक हिस्सा वेबसंस्कृति के लायक सक्षम नहीं बन पाया है। ये लोग ईमेल संस्कृति और विमर्श संस्कृति में अंतर करना नहीं जानते। इसे हम इसे वेब असभ्यता कहते हैं।
कायदे से पंकजजी का लेख न छपता तो बेहतर था। फिर भी संपादक की उदारता है कि उसने इस लेख और इस पर आई टिप्पणियों को प्रकाशित किया। पंकजजी ने जिस भाषा और जिस अविवेक के साथ लिखा है उससे मेरी यह धारणा पुष्ट हुई है कि हिन्दी को अभी माध्यम साक्षरता की सख्त जरूरत है। मुझे समझ नहीं आता कि इतना पढ़ लिखकर पंकजजी ने क्या सीखा ? अज्ञान की पराकाष्ठा के कुछ नमूने उनके लेख से देखें- लिखा है-
‘‘किसी व्यक्ति की तारीफ़ या निंदा में किये गए लेखन सामान्यतः निकृष्ट श्रेणी का लेखन माना जाता है. लेकिन 2 दिन में ही अगर यह लेखक दुबारा ऐसा निकृष्ट काम करने को मजबूर हुआ है तो इसके निहितार्थ हैं. खैर’’
उनके लेखे, मेरा लेखन निकृष्ट श्रेणी का लेखन है। यह निकृष्ट काम है। अरे भाई,यह किस स्कूल में पढ़ी भाषा है। विचार-विमर्श की यह भाषा नहीं है। लेखन तो सिर्फ लेखन है वह निकृष्ट और उत्कृष्ट नहीं होता। वे यह भी मानते हैं कि मैं अपने ‘‘कुतर्क थोपना’’ चाहता हूँ।जिससे असहमत हैं उसे कुतर्क कहना किस गुरू ने सिखाया है ? मैंने मुद्दे पर केन्द्रित लिखा है। उन्हें पूरा हक है कि वे किसी भी वामपंथ से संबंधित विषय पर प्रामाणिक ढ़ंग से आलोचना लिखें। पंकजजी नहीं जानते कि वे लेख नहीं लिखते, वे ईमेल लिखते हैं । ईमेल और लेख में अंतर होता है। यह विवेक उन्हें अर्जित करना होगा।
मैं सोच-समझकर हिन्दुत्व और उससे विषयों पर ही नहीं अन्य सैंकड़ों विषयों पर अपनी पहलकदमी से लिखता रहा हूँ। उसका एक सैद्धांतिक आधार है। मैं अनेक बार उस आधार की अपने लेखों में चर्चा भी करता हूँ। जिससे पाठक उन किताबों तक पहुँचे। ईमेल फिनोमिना ने सबसे बुरा काम किया है विचारों और विचारकों का असभ्यों की तरह उपहास करके। मार्क्स,लुकाच, आदि किसी से भी असहमत हो सकते हैं,लेकिन उन्हें पढ़ें और फिर लिखें लेकिन वे बिना पढ़े ही लिख रहे हैं।
मैं उनके लेख से सहज ही अनुमान लगा सकता हूँ कि वे प्रवक्ता के संसाधनों और मंच का दुरूपयोग कर रहे हैं और अपना पैसा भी बर्बाद कर रहे हैं। भारत की गरीब जनता का पैसा ,संजीवजी और उनके मित्रों के प्रयासों से चल रहे प्रवक्ता डॉट कॉम का स्पेस अनर्गल बातों के लिए घेरकर हम क्या अच्छा काम नहीं कर रहे ।
वेबसाइट पर खर्चा आता है और इसका सभ्यता विमर्श,पाठकों की चेतना बढ़ाने,उन्हें समाज के प्रति और भी जागरूक बनाने लिए इस्तेमाल होना चाहिए। न कि ईमेल की बेबकूफियों के लिए। मैं जानता हूँ कि संजीवजी किस विचारधारा के हैं लेकिन क्या इसके लिए उनपर आरोप लगाना ठीक होगा ?
जो अपना दायित्व समझते हैं वे थोड़ा ठंड़े दिमाग से सोचें कि क्या उन्होंने इतने दिनों में एक भी ऐसा लेख लिखा जो बाद में प्रवक्ता वाले अपने लिए संपत्ति समझें ? वे लगातार ईमेल लिखते रहे हैं और ईमेल पढ़ते ही बेकार हो जाता है,अनेक बार उसे लोग पढ़ते भी नहीं हैं। यही वजह है प्रवक्ता पर पंकजजी और ऐसे ही लोगों के विचार जिस क्षण आते हैं ,उसी क्षण मर जाते हैं। इस तरह वे अपनी और प्रवक्ता की बौद्धिक और आर्थिक क्षति कर रहे हैं।
प्रवक्ता फोकट की कमाई से नहीं चलता। संजीव वगैरह किस तरह कष्ट करके उसके लिए संसाधन जुटाते होंगे,हम समझते हैं। प्रवक्ता या ऐसी ही अन्य वेब पत्रिकाओं के प्रति जो स्वैच्छिक प्रयासों से और सामाजिक तौर पर कुछ करने के इरादे से चलायी जा रही हैं उनका हमें बौद्धिक रूप से सही इस्तेमाल करना चाहिए। वेब पत्रिका कचरे का डिब्बा नहीं है कि उसमें कुछ भी फेंक दिया जाए। यह विचारों के आधान-प्रदान का गंभीर मंच है। उसे हमें ईमेल का मंच नहीं बनाना चाहिए। एक नमूना और देखें-
‘‘गरीब के भूखे पेट को अपना उत्पाद बना कर बेचने वाले इन दुकानदारों को ‘अपचय, उपचय और उपापचय’ पर बात करने के बदले सीधे ‘थेसिस, एंटीथेसिस और सिंथेसिस’ तक पहुचते हुए देखा जा सकता है. क्रूर मजाक की पराकाष्ठा यह कि ‘भूखे पेट’ को मार्क्स के उद्धरण बेच कर इनके एयर कंडीशनर का इंतज़ाम होता है. इन लोगों ने कोला और पेप्सी की तरह ही अपना उत्पाद बेचने का एक बिलकुल नया तरीका निकाला हुआ है. जिन-जिन कुकर्मों से खुद भरे हों, विपक्षी पर वही आरोप लगा उसे रक्षात्मक मुद्रा में ला दो. ताकि उसकी तमाम ऊर्जा आरोपों का जबाब देने में ही लग जाय. आक्रामक होकर वे इनकी गन्दगी को बाहर लाने का समय ही न सकें।’’
इस पूरे पैराग्राफ का मेरे प्रवक्ता पर प्रकाशित मेरे 200 से ज्यादा लेखों में से किसी से भी कोई लेना देना नहीं है। मैं नहीं जानता कि पंकजजी और उनके दोस्तों ने मेरी लिखी किताबें या मेरे ब्लॉग को गंभीरता से पढ़ा है या नहीं। वे आसानी से समझ सकते हैं कि मैं क्यों और किस नजरिए से लिखता हूँ।
मैं आज भी यही मानता हूँ कि हिन्दी में अभी बहुत ज्यादा विविध किस्म के गंभीर विचारों के उत्पादन और पुनर्रूत्पादन की जरूरत है। हमें गंभीरता और छिछोरेपन में अंतर करना चाहिए। हमें तर्क और कुतर्क में अंतर करना चाहिए। विचारधारा और कॉमनसेंस में अंतर करने की तमीज विकसित करनी चाहिए। विद्वानों ,राजनेताओं आदि से लेखन में कैसे सम्मान के साथ संवाद करें इसके बारे में सीखना चाहिए। दुख के साथ कहना पड़ रहा है ईमेल फिनोमिना यह नहीं समझता,नहीं समझ सकता।
उनके कुतर्क का एक और नमूना देखें- ‘‘लेखक के विचारों को आप कानून की तराजू में रखकर तौलेंगे तो बांटे कम पड़ जाएंगे…..!अब आप सोचें….. फासीवाद का इससे भी बड़ा नमूना कोई हो सकता है? यह उसी तरह की धमकी है जब कोई आतंकवादी समूह कहता है कि मुझे गिरफ्तार करोगे तो जेल के कमरे कम पड जायेंगे।’’ वे समझ ही नहीं पाए हैं कि मैं लेखक की अभिव्यक्ति के विशाल दायरे से जुड़ा सवाल सामने रख रहा था और वे शैतानी भरे तर्क दे रहे हैं।
पंकजजी की निकृष्टतम मानसिकता और ईमेल असभ्यता का नमूना है उनका यह कथन ‘‘तो अगर पंडित जी की बात मान ली जाय तो देश रसातल में पहुचेगा ही साथ ही कुत्सित मानसिकता का परिवार से लेकर राष्ट्र तक में कोई आस्था नहीं रखने वाला हर वामपंथी, स्वयम्भू लेखक ‘मस्तराम’ की तरह बन बाप-बेटी, भाई-बहन तक में सम्बन्ध स्थापित करने वाला लेख लिख वैचारिक हस्तमैथुन कर मस्त रहेगा.’’।
वे जानबूझकर इस तरह की घटिया भाषा लिख रहे हैं। इन पंक्तियों को देखकर कोई भी संपादक कैसे लेख प्रकाशित कर सकता है ? कैसे कोई पाठक इन पंक्तियों के लिखे जाने के बाद पंकजजी को बधाईयां दे सकता है। पंकजजी जानते हैं उन्होंने यह क्या लिखा है-फिर से पढ़ें - ‘‘स्वयम्भू लेखक ‘मस्तराम’ की तरह बन बाप-बेटी, भाई-बहन तक में सम्बन्ध स्थापित करने वाला लेख लिख वैचारिक हस्तमैथुन कर मस्त रहेगा.’।
यह वैचारिक स्तर सिर्फ ऐसे व्यक्ति का ही हो सकता है जिसने अपने को सभ्य न बनाया हो। जो ईमेल सभ्यता में कैदहो। वे जानते हैं वैचारिक हस्तमैथुन किसे कहते हैं ? उन्होंने कभी मेरी किताबें नहीं देखी हैं ? बाजार में उपलब्ध हैं और वे माध्यम साक्षर बनाने के लिए ही लिखी गयी हैं। अपमानजनक ,अश्लील भाषा में लिखकर ईमेल फिनोमिना ने मेरी धारणा को ही पुष्ट किया है कि अभी हिन्दी में सामान्य विचार-विमर्श बहुत पीछे है और इस दिशा में और भी ज्यादा लिखने की जरूरत है।
पंकजजी की समस्या यह है कि प्रवक्ता वाले मेरे इतने लेख क्यों छापते हैं ? दिक्कत उनकी समझ में है। मैं लिखता हूँ इसलिए छापते हैं , उनकी संपादकीय नीति के दायरे में लिखता हूँ इसलिए छापते हैं।
पंकजजी को आश्चर्य हो रहा है मेरे एक सप्ताह में एक दर्जन लेख प्रवक्ता पर देखकर। यदि वे मेरी एक साल में कभी-कभी आने वाली किताबों को देख लेंगे तो उनके हृदय की धड़कन बंद हो जाएगी। मैं एकमात्र लेखक हूँ जिसकी एक साथ नियमित कई किताबें आती रही हैं,मैं कभी खुशामद नहीं करता,मैं कभी सरकारी खरीद में किताब की बिक्री का प्रयास नहीं करता।मैंने कभी अपनी किताबों के पक्ष में आलोचनाएं नहीं लिखवायीं,इसके बावजूद वे बिकती हैं। मैं पंकजजी और उनके दोस्तों के ज्ञानवर्द्धन के लिए अपनी किताबों की एक सूची दे रहा हूँ। साथ में यह खबर भी कि ये किताबें महंगी हैं और बेहद सुंदर हैं। इन्हें एकबार पढ़ने के बाद आप कम से कम मीडिया में बहुत कुछ अनर्गल लिखना बंद कर देंगे।
मैं यदि कोई विषय चुनता हूँ तो उस पर एक नहीं कई लेख लिखता हूँ जिससे उस विषय को ठोस ढ़ंग से विस्तार के साथ सामने रखा जाए पाठकों को उस पर सोचने के लिए मजबूर किया जाए। मैं लेखन के लिए लेखन नहीं करता बल्कि माध्यम साक्षरता के परिप्रेक्ष्य में लिखता हूँ। इसका मकसद है आलोचनात्मक विवेक पैदा करना। इसका मकसद किसी विचारधारा को थोपना नहीं है। इस प्रसंग की अन्य बातें अगले लेख में जरूर पढ़ें।
अंत में एक बात प्रवक्ता से अनुरोध के रूप में कहनी है कि वे विषय पर केन्द्रित और सारवान लेख ही छापें,वे ईमेल और लेख में अंतर करें। अन्यथा उन्हें बार-बार पंकजजी जैसे फिनोमिना का सामना करना पड़ेगा। इससे प्रवक्ता की साख खराब होगी। प्रवक्ता का काम है आम पाठक की चेतना का स्तर ऊँचा उठाना। उसका काम यह नहीं है कि वह पाठक की चेतना के सबसे निचले धरातल पर ले चला जाए।
हिन्दी का पाठक पहले से ही चेतना के सबसे निचले स्तर पर जी रहा है। इसे ईमेल संस्कृति ,फेसबुक की दो पंक्ति के लेखन की संस्कृति और ट्विटर की 140 अक्षरों की संस्कृति ने हवा दी है। यह व्यक्ति को असभ्यता के धरातल से बांधे रखती है। हमें इससे बचना चाहिए। लेखन ,मीडिया और कम्युनिकेशन का मकसद है व्यक्ति को चेतना के निचले स्तर से ऊपर उठाना,उसे जोड़ना। यह काम करने के लिए पाठक की चेतना के सबसे निचले स्तर पर जाने की जरूरत नहीं है। इससे प्रवक्ता का मूल लक्ष्य ही नष्ट हो जाएगा।
प्रकाशित पुस्तकें
1. दूरदर्शन और सामाजिक विकास,1991,डब्ल्यू न्यूमैन एंड कंपनी,कोलकाता.
2. मार्क्सवाद और आधुनिक हिन्दी कविता,1994,राधा पब्लिकेशंस,दिल्ली
3.आधुनिकतावाद और उत्तर आधुनिकतावाद,1994,सहलेखन, संस्कृति प्रकाशन ,कोलकाता
4.जनमाध्यम और मासकल्चर, 1996,सारांश प्रकाशन दिल्ली.
5.हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास की भूमिका,1997,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि. दिल्ली
6.स्त्रीवादी साहित्य विमर्श ,2000,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि.दिल्ली
7.सूचना समाज ,2000, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीग्यूटर प्रा.लि. दिल्ली.
8.जनमाध्यम प्रौद्योगिकी और विचारधारा, 2000,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि.दिल्ली
9.माध्यम साम्राज्यवाद ,2002,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि. दिल्ली
10. जनमाध्यम सैध्दान्तिकी, 2002,सहलेखन, अनामिका पब्लिशर्स एड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि. दिल्ली
11.टेलीविजन,संस्कृति और राजनीति, 2004,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर. प्रा. लि. दिल्ली
12.उत्तर आधुनिकतावाद ,2004,स्वराज प्रकाशन, दिल्ली.
13.साम्प्रदायिकता,आतंकवाद और जनमाध्यम,,2005,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि.दिल्ली
14.युध्द,ग्लोबल संस्कृति और मीडिया ,2005,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा. लि.दिल्ली
15.हाइपर टेक्स्ट,वर्चुअल रियलिटी और इंटरनेट ,2006,अनामिका पब्लिकेशंस एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि.
16.कामुकता,पोर्नोग्राफी और स्त्रीवाद, 2007,(सहलेखन) आनंद प्रकाशन, कोलकाता.
17.भूमंडलीकरण और ग्लोबल मीडिया,2007,(सहलेखन),अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि.दिल्ली
18. नंदीग्राम मीडिया और भूमंडलीकरण ,2007, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि.दिल्ली
19.प्राच्यवाद वर्चुअल रियलिटी और मीडिया,(शीघ्र प्रकाश्य),अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि. दिल्ली
20. वैकल्पिक मीडिया , लोकतंत्र और नॉम चोम्स्की (2008),अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि. दिल्ली
21.तिब्बत दमन और मीडिया,2009, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि. दिल्ली
22. 2009 लोकसभा चुनाव और मीडिया,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि.
दिल्ली.
23.ओबामा और मीडिया,2009, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि. दिल्ली
24.डिजिटल युग में मासकल्चर और विज्ञापन, (2010),सहलेखन,अनामिका पब्लिशर्स एंड
डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि. दिल्ली .
सम्पादित पुस्तकें
25.बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद,1991,डब्ल्यू न्यूमैन एंड कंपनी,कोलकाता.
26.प्रेमचंद और मार्क्सवादी आलोचना, सहसंपादन,1994,संस्कृति प्रकाशन,कोलकाता.
27.स्त्री अस्मिता,साहित्य और विचारधारा,सहसंपादन, 2004,आनंद प्रकाशन ,कोलकाता.
28.स्त्री काव्यधारा, सहसंपादन,2006,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि. दिल्ली.
29.स्वाधीनता-संग्राम,हिन्दी प्रेस और स्त्री का वैकल्पिक क्षेत्र,सहसंपादन, 2006, अनामिका प्रा.लि. दिल्ली
रविवार, 15 नवम्बर 2009
सावधान इंटरनेट पर सीआईए आपकी जासूसी कर रहा है
कल तक इंटरनेट पर आनंद और स्वाधीनता के दिन थे। अब खतरा सामने आ गया है। अमेरिकी गुप्तचर संस्था सीआईए ने अपने पैर इंटरनेट पर रख दिए हैं। सीआईए की नजरदारी का काफी गंभीर अर्थ है। अब सीआईए के 'ई जासूस' आपके ब्लॉग पढ़ना चाहते हैं,ट्विटर और फेसबुक में आप क्या कर रहे हैं उसे देखना चाहते हैं। यहां तक कि वे यह भी जानना चाहते हैं कि इंटरनेट से आप कौन सी किताब 'अमाजॉन' से खरीद रहे हैं ,कौन सी किताब आप इंटरनेट पर पढ़ रहे हैं। इस सबका हिसाब सीआईए तैयार कर रहा है। अमेरिका की एक निवेश कंपनी ' इन -क्यू- टेल' ने अपनी पूंजी का बड़ा हिस्सा इस क्षेत्र में निवेश करने का फैसला लिया है। यह फर्म सीआईए की सहयोगी कंपनी है। इस कंपनी ने दृश्य तकनीकी संसार में पैसा लगाने का फैसला किया है। यह काम वह अनेक साफटवेयर कंपनियों में पैसा निवेश करके करना चाहती है। इसके बहाने वह पूरे इंटरनेट पर नजरदारी करेगी।
अमेरिका में गुप्तचर सेवाओं में एक बड़ा आन्दोलन चल रहा है जिसके तहत नेट की सूचनाओं को जानने,एकत्रित करने और फिर उसे सीआईए,एफबीआई आदि के काम में लगाने के लिए हजारों लोग लगे हैं। अब आपकी इंटरनेट पर लिखी प्रत्येक चीज उनके निशाने पर है। इस समय इंटरनेट पर मीडिया के विभिन्न माध्यमों के जरिए सूचनाओं,कार्यक्रमों आदि के संचार की बाढ़ आयी हुई है। एक अनुमान के अनुसार वेब 2.0 साइट पर जाने वाले लोगों की तादाद प्रतिदिन पांच लाख है। इसी तरह तकरीबन एक मिलियन से ज्यादा लोग प्रतिदिन ब्लॉग,बातचीत,ई व्यापार, फ्लिकर,यू ट्यूब,आदि का इस्तेमाल कर रहे हैं। सीआईए के गुप्तचर अपने 'ई' जासूसों के जरिए यह भी वर्गीकरण कर रहे हैं कि कौन कितना प्रभावशाली संप्रेषण कर रहा है। प्रभावशाली,कम प्रभावशाली और सामान्य संप्रेषण के नाम से तीन वर्ग बनाए गए हैं। वे यह भी देख रहे हैं कि यूजर किस तरह की प्रतिक्रियाएं व्यक्त कर रहा है। यूजर कौन सी पोस्ट को फार्वर्ड कर रहा है। नेट लेखक के साथ यूजर किस तरह का संवाद कर रहा है। जिन मसलों पर सोशल नेटवर्क या ब्लाक पर चर्चाएं हो रही हैं उनका विश्व राजनीति पर क्या असर होगा। अगर असर गंभीर होने की संभावनाएं हैं तो सीआईए जासूस चेतावनी देंगे। ये बातें 'इन-क्यू टेल' के प्रवक्ता डोनाल्ड तिघे ने कही हैं। इस कार्य के लिए खास किस्म का सॉफ्टवेयर इस्तेमाल किया गया है जिसके जरिए आपकी सूचनाएं एकत्रित की जा रही हैं। यह सॉफ्टवेयर बताता है कि किसकी पोस्ट पॉजिटिव है, किसकी नेगेटिव है। विभिन्न संचार उपकरण बनाने वाली कंपनियां और संचार बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस सॉफटवेयर का इस्तेमाल कर रही हैं। 'इन-क्यू-टेल' कंपनी अपनी इस योजना के आधार पर एक पायलट सर्वे करने जा रही है और यह पायलट सर्वे यदि सफल रहता है तो इसके बड़े ही दूरगामी परिणाम होंगे। यह सीधे व्यक्ति के मौलिक अधिकारों के साथ मानवाधिकारों का हनन है। 'आई-क्यू-टेल' कंपनी ने इस काम में अभी 90 लोगों को लगाया हे और आरंभिक तौर पर 20 मिलियन डालर का निवेश किया है, लेकिन यह निवेश बढ़ भी सकता है। इस मामले में विदेशी भाषाओं पर भी नजरदारी रहेगी। अभी 9 विदेशी भाषाएं इस प्रयोग के लिए चुनी गयी हैं। यह सारा काम 'विजिविल टेक्नोलॉजी' कंपनी के जरिए कराया जा रहा है। उसने ही इसका सॉफ्टवेयर बनाया है। यह कंपनी 2008 से इस क्षेत्र में प्रवेश पाने की कोशिश कर रही थी और अंत में उसे सफलता मिल ही गयी। यह कंपनी अमरीकी गुप्तचर संस्था की सहयोगी कंपनी के रूप में काम कर रही हे और इसने विभिन्न भाषाओं के विशेषज्ञ और सैन्य विशेषज्ञ इंजीनियर जुगाड़ किए हैं। इनका काम है विभिन्न भाषाओं की नेट संचार सामग्री की जांच-पड़ताल करना। इस समय अरबी,फ्रेंच, उर्दू, फारसी और रूसी पर नजरदारी चल रही है। इस कंपनी ने अपनी 'सूचना व्यवस्था सुरक्षा इंजीनियरों' की एक विशालकाय फौज तैयार की है इसमें सूचना तकनीक के कुशल लोगों को शामिल किया गया है। इसमें वे लोग भी शामिल किए गए हैं जो पॉलिग्राफ सुरक्षा में कुशल माने जाते हैं।
सीआईए परेशान है सोशल नेटवर्किंग साइट की बढ़ती जनप्रियता से। वे लगातार छान फटक रहे हैं कि कौन सी साइट जनप्रिय है और उस पर तुरंत अपने 'ई' जासूस लगा देते हैं। ये 'ई' जासूस लगातार बेचैन आत्मा की तरह एक साइट से दूसरे साइट की ओर भागते रहते हैं। अमेरिका के जासूस परेशान हैं कि नेट के 70 प्रतिशत यूजर गैर अमेरिकी हैं। ये अमेरिका के बाहर रहते हैं। इनका जाल दुनिया के 180 देशों में फैला हुआ है। तकरीबन 200 गैर अंग्रेजी भाषी ब्लागर-ट्विटर समूह हैं, ये लोग रीयल टाइम में तूफान मचाए हुए हैं। इन्हें सीआईए नजरअंदाज नहीं करना चाहता। उनका मानना है कि यह रीयल टाइम सूचना सुनामी है। हम उन्हें अबोध कहकर नजरअंदाज नहीं कर सकते।
सोमवार, 14 सितम्बर 2009
साइबरयुग में 'ई' निरक्षरता शर्मिंदगी है
बुद्धिजीवी स्वभाव से ठलुआ होता है। भारतीय भाषाओं के बुद्धिजीवी का ठलुआपन अब और भी परेशानी पैदा कर रहा है। यह पढा लिखा अनपढ है। उसने अपनी अपडेटिंग बंद कर दी है। संचार क्रांति के लिए जरूरी है इस ठलुआ बुद्धिजीवी की चौतरफा धुनाई। जिस तरह शिक्षित न होना अपमान की बात मानी जाती थी उसी तरह साइबर शिक्षित न होना भी अपमान की बात है। हमारे पिछडेपन का संकेत है। साइबर पिछडेपन पर वैसे ही हमला बोलना चाहिए जैसे निरक्षरता पर हमला बोलते हैं। निरक्षरता सामाजिक विकास की सबसे बडी बाधा थी तो साइबर निरक्षरता महाबाधा है। साइबर बेगानेपन को किसी भी तर्क से वैधता प्रदान करना देशद्रोह है,सामाजिक परिवर्तन के प्रति बगावत है। इसे किसी भी तर्क से गौरवान्वित नहीं किया जाना चाहिए। अखबार और पत्रिका का संपादक है वह गर्व से कहता है हम कम्प्यूटर पर नहीं लिखते,हम इंटरनेट पर नहीं लिखते। सवाल किया जाना चाहिए क्यों नहीं लिखते ? कम्प्यूटर पर नहीं लिखना,इंटरनेट पर नहीं पढना और नहीं लिखना निरक्षरता है। निरक्षरता पर हमारे बुद्धिजीवी को गर्व नहीं करना चाहिए। बल्कि उसे शर्म आनी चाहिए।
कम्प्यूटर लेखन,इंटरनेट लेखन नये युग की साक्षरता है। अक्षरज्ञान पुराने युग की साक्षरता थी जो आज सामाजिक और बौद्धिक विकास के लिए अपर्याप्त है। साइबर निरक्षर वैसे ही होता है जैसा निरक्षर होता है। कॉलेज,विश्वविद्यालयों से लेकर स्कूलों में पढाने वाले शिक्षक अपने साइबर अज्ञान का महिमामंडन करते रहते हैं। आज के युग में साइबर अज्ञानी और कम्प्यूटर पर लिखने से परहेज करने वाला लेखक बुनियादी तौरपर निरक्षर लेखक है।
साइबर संस्कृति का तेजी से विकास हो रहा है। हम चाहें या न चाहें साइबर संस्कृति हमारे घर आ गयी है। साइबर संस्कृति के घर आने के साथ ही साइबर भाषाएं भी घर में आने के लिए दस्तक दे रही है। भारतसरकार की मदद से सभी 22 भाषाओं के फॉण्ट मुफत में इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। भारत सरकार ने भारतीय भाषाओं के फाण्ट और यूनीकोड सिस्टम के विकास पर तकरीबन 1300 करोड रूपये खर्च किए हैं। जाहिर है भाषा के निर्माण में अब तक का यह सबसे बडा निवेश है। इसके दूरगामी सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनीतिक परिणाम सामने आएंगे। भारत सरकार ने हाल ही में अपने एक फैसले के तहत बीस हजार कॉलेजों और पांच हजार शोध संस्थानों को 'सूचना,संचार और तकनीकी मिशन' के तहत ब्रॉडबैण्ड सुविधा मुहैयया कराने का फैसला किया है। इसके अलावा आज भारत की सभी प्रमुख भाषाओं के फाँण्ट मुफत में उपलब्ध हैं। कल बंगलौर में बांग्ला,कोंकणी, संथाली, सिन्धी और मणिपुरी भाषा के साफटवेयर को जारी करने बाद आज भारत की सभी 22 भाषाओं में कम्प्यूटर लेखन की व्यवस्था उपलब्ध हो गयी है। इसे आसानी से www.ildc.in से डाउनलोड किया जा सकता है। अभी तक भारतीय भाषाओं के सात लाख सीडी डाक से भेजे जा चुके हैं। तकरीबन 39 लाख लोगों ने इंटरनेट से डाउनलोड किया है। भारत की जनसंख्या और संभावित कम्प्यूटर यूजरों के लिहाज से यह संख्या बहुत ही कम है। भारतीय भाषाओं के मुफत साफटवेयर की उपलब्धता के कारण इन भाषाओं का इंटरनेट पर इस्तेमाल और भी तेजी से बढेगा। केन्द्र सरकार की योजना के अनुसार प्रति छह गांवों में से एक गांव में 'कॉमन सर्विस सेंटर' खोला जाएगा,जिसके जरिए जनता को स्थानीय भाषा में ईमेल करने की सुविधा उपलब्ध होगी। इस प्रक्रिया में स्थानीय भाषाओं में कम्प्यूटर का इस्तेमाल तेजी से बढेगा।
भारतीय भाषाओं के कम्प्यूटरी रूपान्तरण की प्रक्रिया बेहद धीमी और गैर शिरकत वाली है फलत: भारत में अभी भी कम्प्यूटर भाषा में दुरूस्तीकरण धीमी गति से चल रहा है। अनेक भाषाओं के साफटवेयरों के बारे में शिकायतें भी आ रही हैं। ये शिकायतें जायज हैं, लेकिन इनका समाधान तब ही संभव है जब बुद्धिजीवियों खासकर भाषायी बुद्धिजीवियों की कम्प्यूटर भाषा के दुरूस्तीकरण में दिलचस्पी पैदा हो। वे 'ई साक्षर' बनें। भाषायी बुद्धिजीवी अभी तक कम्प्यूटर का न्यूनतम प्रयोग करते हैं। वे अभी भी कलम -कागज के युग के आगे नहीं जा पाए हैं। कम्प्यूटर लेखन को युवाओं का खेल मानते हैं। ब्लागरों को छिछोरा मानते हैं। ज्यादातर बुद्धिजीवी अभी भी कम्प्यूटर सामग्री का इस्तेमाल नहीं करते।वे साहित्य को तो मानते हैं और जानते हैं लेकिन 'ई' साहित्य को लेकर उनमें कोई दिलचस्पी नहीं है।
'ई' साहित्य विकासशील साहित्य है। 'ई' साहित्य का किसी भी किस्म के साहित्य, मीडिया, रीडिंग आदत,संस्कृति आदि से बुनियादी अन्तर्विरोध नहीं है। 'ई' साहित्य और डिजिटल मीडिया प्रचलित मीडिया रूपों और आदतों को कई गुना बढ़ा देता है। जिस तरह कलाओं में भाईचारा होता है उसी तरह 'ई' साहित्य का अन्य पूर्ववर्ती साहित्यरूपों और आदतों के साथ बंधुत्व है। फर्क यह है कि 'ई' साहित्य डिजिटल में होता है। अन्य साहित्यरूप गैर-डिजिटल में हैं ,डिजिटलकला वर्चस्वशाली कला है। वह अन्य कलारूपों और पढ़ने की आदतों के डिजिटलाईजेशन पर जोर देती है। अन्य रूपों को डिजिटल में रूपान्तरित होने के लिए मजबूर करती है। किंतु इससे कलारूपों को कोई क्षति नहीं पहुँचती। यह भ्रम है कि 'ई' साहित्य और 'ई' मीडिया साहित्य के पूर्ववर्ती रूपों को नष्ट कर देता है, अप्रासंगिक बना देता है। वह सिर्फ कायाकल्प के लिए मजबूर जरूर करता है।
अमरीका में सबसे ज्यादा 'ई' कल्चर है और व्यक्तिगत तौर पर सबसे ज्यादा किताबें खरीदी जाती हैं। अमरीका में बिकने वाली किताबों की 95 फीसदी खरीद व्यक्तिगत है। मात्र पांच प्रतिशत किताबें पुस्तकालयों में खरीदी जाती हैं। अमरीका में औसतन प्रत्येक पुस्तकालय सदस्य साल में दो किताबें लाइब्रेरी से जरूर लेता है। एक अनुमान के अनुसार पुस्तकालयों से किताब लाने और व्यक्तिगत तौर पर खरीदने का अनुपात एक ही जैसा है। यानी तकरीबन 95 प्रतिशत किताबें पुस्तकालयों से लाकर पढ़ी जाती हैं। इसके विपरीत भारत में अमरीका की सकल आबादी के बराबर का शिक्षित मध्यवर्ग है और उसमें किताबों की व्यक्तिगत खरीद 25 फीसद ही है। बमुश्किल पच्चीस फीसद किताबें ही व्यक्तिगत तौर पर खरीदकर पढ़ी जाती हैं। हाल ही में किए सर्वे से पता चला है कि विश्वविद्यालयों के मात्र पांच प्रतिशत शिक्षक ही विश्वविद्यालय पुस्तकालय से किताब लेते हैं।
पढ़ने -पढ़ाने की संस्कृति के विकास में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के द्वारा निर्मित 'यूजीसी-इंफोनेट' नामक 'ई' पत्रिकाओं के संकलन की महत्वपूर्ण भूमिका है। एक जमाना था जब जे.एन.यू. आदि बड़े संस्थानों के पास ही विदेशी पत्रिकाओं को मंगाने की क्षमता थी आज स्थिति बदल गयी है। आज यू.जी.सी. के द्वारा संचालित इस बेव पत्रिका समूह का हिन्दुस्तान के सभी विश्वविद्यालय लाभ उठाने की स्थिति में हैं। इस संकलन में साढ़े चार हजार से ज्यादा श्रेष्ठतम पत्रिकाएं संकलित हैं। मजेदार बात यह है कि इस संग्रह के बारे में अधिकतर शिक्षक जानते ही नहीं हैं। शिक्षितों की अज्ञानता का जब यह आलम है तो आम छात्रों तक ज्ञान कैसे पहुंचेगा ? जरूरत इस बात की है कि 'ई' साक्षरता और 'ई' लेखन को नौकरीपेशा शिक्षकों और वैज्ञानिकों के लिए अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। जो शिक्षक ,शोधार्थी और वैज्ञानिक नियमित 'ई' लेखन नहीं करे उसकी पगार,स्कालरशिप,तरक्की,इनक्रीमेंट रोक लेने चाहिए। जो लोग भारत सरकार का बौद्धिक उत्पादन के लिए धन पाते हैं उन्हें बदले में अपने विषय में 'ई' लेखन के लिए मजबूर किया जाना चाहिए। भारत की नयी ज्ञान संपदा का बडा हिस्सा अभी भी अंग्रेजी में आ रहा है अत: हमारे बुद्धिजीवियों को अपनी भाषा में कुछ न कुछ सामग्री इंटरनेट पर उपलब्ध करानी चाहिए। हमें यह भी सोचना चाहिए कि ऐसा क्या हुआ कि जगदीशचन्द्र बोस,सत्येन्द्रबोस जैसे महान वैज्ञानिक बांग्ला में भी विज्ञानलेखन कर लेते थे और आज अमर्त्यसेन जैसा लेखक अपनी मातृभाषा में एकदम नहीं लिखता। अपनी भाषा के प्रति बुद्धिजीवी के इस बेगानेपन से हमें लडना चाहिए।
(मोहल्ला लाइव पर 14 सितम्बर 2009 को प्रकाशित)
कम्प्यूटर लेखन,इंटरनेट लेखन नये युग की साक्षरता है। अक्षरज्ञान पुराने युग की साक्षरता थी जो आज सामाजिक और बौद्धिक विकास के लिए अपर्याप्त है। साइबर निरक्षर वैसे ही होता है जैसा निरक्षर होता है। कॉलेज,विश्वविद्यालयों से लेकर स्कूलों में पढाने वाले शिक्षक अपने साइबर अज्ञान का महिमामंडन करते रहते हैं। आज के युग में साइबर अज्ञानी और कम्प्यूटर पर लिखने से परहेज करने वाला लेखक बुनियादी तौरपर निरक्षर लेखक है।
साइबर संस्कृति का तेजी से विकास हो रहा है। हम चाहें या न चाहें साइबर संस्कृति हमारे घर आ गयी है। साइबर संस्कृति के घर आने के साथ ही साइबर भाषाएं भी घर में आने के लिए दस्तक दे रही है। भारतसरकार की मदद से सभी 22 भाषाओं के फॉण्ट मुफत में इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। भारत सरकार ने भारतीय भाषाओं के फाण्ट और यूनीकोड सिस्टम के विकास पर तकरीबन 1300 करोड रूपये खर्च किए हैं। जाहिर है भाषा के निर्माण में अब तक का यह सबसे बडा निवेश है। इसके दूरगामी सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनीतिक परिणाम सामने आएंगे। भारत सरकार ने हाल ही में अपने एक फैसले के तहत बीस हजार कॉलेजों और पांच हजार शोध संस्थानों को 'सूचना,संचार और तकनीकी मिशन' के तहत ब्रॉडबैण्ड सुविधा मुहैयया कराने का फैसला किया है। इसके अलावा आज भारत की सभी प्रमुख भाषाओं के फाँण्ट मुफत में उपलब्ध हैं। कल बंगलौर में बांग्ला,कोंकणी, संथाली, सिन्धी और मणिपुरी भाषा के साफटवेयर को जारी करने बाद आज भारत की सभी 22 भाषाओं में कम्प्यूटर लेखन की व्यवस्था उपलब्ध हो गयी है। इसे आसानी से www.ildc.in से डाउनलोड किया जा सकता है। अभी तक भारतीय भाषाओं के सात लाख सीडी डाक से भेजे जा चुके हैं। तकरीबन 39 लाख लोगों ने इंटरनेट से डाउनलोड किया है। भारत की जनसंख्या और संभावित कम्प्यूटर यूजरों के लिहाज से यह संख्या बहुत ही कम है। भारतीय भाषाओं के मुफत साफटवेयर की उपलब्धता के कारण इन भाषाओं का इंटरनेट पर इस्तेमाल और भी तेजी से बढेगा। केन्द्र सरकार की योजना के अनुसार प्रति छह गांवों में से एक गांव में 'कॉमन सर्विस सेंटर' खोला जाएगा,जिसके जरिए जनता को स्थानीय भाषा में ईमेल करने की सुविधा उपलब्ध होगी। इस प्रक्रिया में स्थानीय भाषाओं में कम्प्यूटर का इस्तेमाल तेजी से बढेगा।
भारतीय भाषाओं के कम्प्यूटरी रूपान्तरण की प्रक्रिया बेहद धीमी और गैर शिरकत वाली है फलत: भारत में अभी भी कम्प्यूटर भाषा में दुरूस्तीकरण धीमी गति से चल रहा है। अनेक भाषाओं के साफटवेयरों के बारे में शिकायतें भी आ रही हैं। ये शिकायतें जायज हैं, लेकिन इनका समाधान तब ही संभव है जब बुद्धिजीवियों खासकर भाषायी बुद्धिजीवियों की कम्प्यूटर भाषा के दुरूस्तीकरण में दिलचस्पी पैदा हो। वे 'ई साक्षर' बनें। भाषायी बुद्धिजीवी अभी तक कम्प्यूटर का न्यूनतम प्रयोग करते हैं। वे अभी भी कलम -कागज के युग के आगे नहीं जा पाए हैं। कम्प्यूटर लेखन को युवाओं का खेल मानते हैं। ब्लागरों को छिछोरा मानते हैं। ज्यादातर बुद्धिजीवी अभी भी कम्प्यूटर सामग्री का इस्तेमाल नहीं करते।वे साहित्य को तो मानते हैं और जानते हैं लेकिन 'ई' साहित्य को लेकर उनमें कोई दिलचस्पी नहीं है।
'ई' साहित्य विकासशील साहित्य है। 'ई' साहित्य का किसी भी किस्म के साहित्य, मीडिया, रीडिंग आदत,संस्कृति आदि से बुनियादी अन्तर्विरोध नहीं है। 'ई' साहित्य और डिजिटल मीडिया प्रचलित मीडिया रूपों और आदतों को कई गुना बढ़ा देता है। जिस तरह कलाओं में भाईचारा होता है उसी तरह 'ई' साहित्य का अन्य पूर्ववर्ती साहित्यरूपों और आदतों के साथ बंधुत्व है। फर्क यह है कि 'ई' साहित्य डिजिटल में होता है। अन्य साहित्यरूप गैर-डिजिटल में हैं ,डिजिटलकला वर्चस्वशाली कला है। वह अन्य कलारूपों और पढ़ने की आदतों के डिजिटलाईजेशन पर जोर देती है। अन्य रूपों को डिजिटल में रूपान्तरित होने के लिए मजबूर करती है। किंतु इससे कलारूपों को कोई क्षति नहीं पहुँचती। यह भ्रम है कि 'ई' साहित्य और 'ई' मीडिया साहित्य के पूर्ववर्ती रूपों को नष्ट कर देता है, अप्रासंगिक बना देता है। वह सिर्फ कायाकल्प के लिए मजबूर जरूर करता है।
अमरीका में सबसे ज्यादा 'ई' कल्चर है और व्यक्तिगत तौर पर सबसे ज्यादा किताबें खरीदी जाती हैं। अमरीका में बिकने वाली किताबों की 95 फीसदी खरीद व्यक्तिगत है। मात्र पांच प्रतिशत किताबें पुस्तकालयों में खरीदी जाती हैं। अमरीका में औसतन प्रत्येक पुस्तकालय सदस्य साल में दो किताबें लाइब्रेरी से जरूर लेता है। एक अनुमान के अनुसार पुस्तकालयों से किताब लाने और व्यक्तिगत तौर पर खरीदने का अनुपात एक ही जैसा है। यानी तकरीबन 95 प्रतिशत किताबें पुस्तकालयों से लाकर पढ़ी जाती हैं। इसके विपरीत भारत में अमरीका की सकल आबादी के बराबर का शिक्षित मध्यवर्ग है और उसमें किताबों की व्यक्तिगत खरीद 25 फीसद ही है। बमुश्किल पच्चीस फीसद किताबें ही व्यक्तिगत तौर पर खरीदकर पढ़ी जाती हैं। हाल ही में किए सर्वे से पता चला है कि विश्वविद्यालयों के मात्र पांच प्रतिशत शिक्षक ही विश्वविद्यालय पुस्तकालय से किताब लेते हैं।
पढ़ने -पढ़ाने की संस्कृति के विकास में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के द्वारा निर्मित 'यूजीसी-इंफोनेट' नामक 'ई' पत्रिकाओं के संकलन की महत्वपूर्ण भूमिका है। एक जमाना था जब जे.एन.यू. आदि बड़े संस्थानों के पास ही विदेशी पत्रिकाओं को मंगाने की क्षमता थी आज स्थिति बदल गयी है। आज यू.जी.सी. के द्वारा संचालित इस बेव पत्रिका समूह का हिन्दुस्तान के सभी विश्वविद्यालय लाभ उठाने की स्थिति में हैं। इस संकलन में साढ़े चार हजार से ज्यादा श्रेष्ठतम पत्रिकाएं संकलित हैं। मजेदार बात यह है कि इस संग्रह के बारे में अधिकतर शिक्षक जानते ही नहीं हैं। शिक्षितों की अज्ञानता का जब यह आलम है तो आम छात्रों तक ज्ञान कैसे पहुंचेगा ? जरूरत इस बात की है कि 'ई' साक्षरता और 'ई' लेखन को नौकरीपेशा शिक्षकों और वैज्ञानिकों के लिए अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। जो शिक्षक ,शोधार्थी और वैज्ञानिक नियमित 'ई' लेखन नहीं करे उसकी पगार,स्कालरशिप,तरक्की,इनक्रीमेंट रोक लेने चाहिए। जो लोग भारत सरकार का बौद्धिक उत्पादन के लिए धन पाते हैं उन्हें बदले में अपने विषय में 'ई' लेखन के लिए मजबूर किया जाना चाहिए। भारत की नयी ज्ञान संपदा का बडा हिस्सा अभी भी अंग्रेजी में आ रहा है अत: हमारे बुद्धिजीवियों को अपनी भाषा में कुछ न कुछ सामग्री इंटरनेट पर उपलब्ध करानी चाहिए। हमें यह भी सोचना चाहिए कि ऐसा क्या हुआ कि जगदीशचन्द्र बोस,सत्येन्द्रबोस जैसे महान वैज्ञानिक बांग्ला में भी विज्ञानलेखन कर लेते थे और आज अमर्त्यसेन जैसा लेखक अपनी मातृभाषा में एकदम नहीं लिखता। अपनी भाषा के प्रति बुद्धिजीवी के इस बेगानेपन से हमें लडना चाहिए।
(मोहल्ला लाइव पर 14 सितम्बर 2009 को प्रकाशित)
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