शंभुनाथ
जनसत्ता 26 सितंबर, 2012: हिंदी का जन्म ही आजाद और लोकतांत्रिक मानसिकता की देन है। इसलिए इसे मानसिक आजादी की भाषा या लोकतंत्र की भाषा के रूप में देखा जाता है। अगर हमारी मानसिक आजादी और हमारा लोकतंत्र सुरक्षित है, तब हिंदी को आगे बढ़ने और विश्व में सम्मानजनक स्थान पाने से नहीं रोका जा सकता। पर अगर हम मानसिक आजादी खो रहे हों और लोकतंत्र बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मुट्ठी में चला जा रहा हो तो दुनिया की कई दूसरी भाषाओं की तरह हिंदी का तरह-तरह से संकट में पड़ना, इसका सिकुड़ना या विकृत होना निश्चित है। इन स्थितियों में हमें ‘इंडेंजर्ड लैंग्वेज’ की अवधारणा का विस्तार करना होगा। दुनिया की तमाम राष्ट्रीय भाषाओं को- जिनमें कई यूरोपीय भाषाएं भी हैं, दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका की भाषाएं भी हैं- और अपनी तमाम भारतीय भाषाओं को और निश्चित रूप से हिंदी को भी बढ़ते अंग्रेजी-वर्चस्व के बरक्स ‘इंडेंजर्ड लैंग्वेजेज’ के रूप में देखना चाहिए।
हिंदी लोकचेतना और लोकतंत्र की देन है। यह हम सिद्धों-नाथों से लेकर अमीर खुसरो, विद्यापति और भक्त कवियों से होते हुए भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद, निराला, अज्ञेय आदि तक देख सकते हैं। इन्होंने हिंदी को गढ़ा, विकसित किया और लोकप्रिय बनाया। आज मुख्यत: हिंदी को कौन निर्मित कर रहा है? आज जो मस्त, चुलबुली और दमकती हुई हिंदी दिखाई देती है, वह पहले से काफी फैली हुई भले नजर आए, हम उससे संतुष्ट नहीं हो सकते। आज सूचना और मनोरंजन की भाषा के रूप में निश्चय ही हिंदी का प्रसार हुआ है। पर क्या यह दफ्तर, अंतरराष्ट्रीय बाजार, उच्च-स्तरीय वार्ता, उच्च शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान और बहस की भाषा बन पाई है? इसलिए हमें कहना होगा कि भारत में अंग्रेजी-वर्चस्व की वजह से भाषा का लोकतंत्र नहीं है। हिंदी लोकतंत्र की भाषा सिर्फ तब बनेगी, जब सूचना और मनोरंजन की भाषा से आगे बढ़ कर ज्ञान और संवेदना की भाषा बने।
दक्षिण अफ्रीका की धरती पर ही महात्मा गांधी ने पहली बार साम्राज्यवादी भेदभाव के विरुद्ध ‘पैसिव रेजिस्टेंस’ शुरू किया था, अपने सत्याग्रह की शक्ति से दुनिया को परिचित कराया था। उनकी लड़ाई मानवीय आत्मसम्मान, आजादी और लोकतंत्र के लिए ही नहीं थी; राष्ट्रीय भाषाओं की मर्यादा की प्रतिष्ठा के लिए भी थी। गांधी ने भारत में कहा था, ‘‘मैकाले ने जिस शिक्षा की नींव रखी, उसने सबको गुलाम बना दिया है। यदि भारत अंग्रेजी बोलने वाले लोगों का स्वराज्य है, तो नि:संदेह अंग्रेजी ही राष्ट्रीय भाषा होगी। लेकिन अगर भारत करोड़ों भूखों मरने वालों, निरक्षरों और दलितों-अंत्यजों का स्वराज्य है और इन सबके लिए है तो हिंदी ही एकमात्र राष्ट्रभाषा हो सकती है।’’ अंग्रेजी भले फिलहाल एक अंतरराष्ट्रीय भाषा है, पर पिछले दरवाजे से विश्व भर में यथार्थत: यही ‘नेशनल लैंग्वेज’ बनती जा रही है और जीवन में चारों तरफ छाती जा रही है- हम ऐसा कभी होने नहीं देंगे। हम हिंदी ही नहीं, सभी भारतीय भाषाओं के आत्मसम्मान के लिए लड़ेंगे। जोहानिसबर्ग के विश्व हिंदी सम्मेलन की सार्थकता इसी में है कि यह अंग्रेजी-वर्चस्व के विरुद्ध लड़ाई का एक प्रेरणास्रोत बने।
विश्व हिंदी सम्मेलन निश्चय ही हिंदी की दशा और भावी दिशा पर सोचने के लिए था। यह भूलना नहीं होगा कि हिंदी का भविष्य पहले भी भारतीय भाषाओं के भविष्य से जुड़ा हुआ था और आज भी जुड़ा है। हमारी पहली और आखिरी मांग यह होनी चाहिए कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का सशक्तीकरण किया जाए। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के सशक्तीकरण का अर्थ है भारतीय जनता का सशक्तिकरण, लोकतंत्र को मजबूत बनाना। हम कहना चाहते हैं कि स्त्रियों के सशक्तीकरण, दलितों के सामाजिक न्याय, किसानों और आदिवासियों के सशक्तीकरण की तरह ही भारतीय भाषाओं का, हिंदी का सशक्तीकरण जरूरी है।
लोकतंत्र में हिंदी कहां है, किस दशा में है? हिंदी में लोकतंत्र कितना है, किस दशा में है? इन सवालों के सामने अगर हम-आप खड़े हों, हमारे भीतर रूह होगी तो वह कांप जाएगी। ‘लोकतंत्र में हिंदी’ इस समय भीष्म साहनी की ‘चीफ की दावत’ है और हिंदी में लोकतंत्र, प्रेमचंद से उदाहरण लेकर कहें तो, ‘ठाकुर का कुआं’ है। इसलिए बाहर अंग्रेजी-वर्चस्व से लड़ाई है तो हिंदीवालों को अपने भीतर छिपे सामंतवाद से भी कम नहीं लड़ना होगा।
गांधी ने कहा था, ‘सादा जीवन, उच्च विचार’। आज उसकी जगह छाता जा रहा है ‘कृत्रिम जीवन, निम्न विचार’। आज चारों तरफ वस्तुएं ही वस्तुएं हैं और विचार की कमी हो गई है।
हिंदी बाजार की भाषा बन चुकी हो, पर इसे लोकतंत्र की भाषा बनाना बाकी है। हिंदी लोकतंत्र की भाषा कैसे बने? हिंदी में अंग्रेजी के कुछ चमकीले शब्द आ जाने से या हिंदी के इंग्लिश बन जाने भर से यह लोकतांत्रिक नहीं हो सकती। हिंदी जिन स्थानों पर अपनाई जा रही है, बढ़ रही है, वहां की स्थानीय भाषाओं-संस्कृतियों के तत्त्व उसमें घुले-मिलें, यह हिंदी का लोकतंत्र है।
हिंदी में अंग्रेजी शब्दों का एकाधिकारवाद इसके लोकतांत्रिक स्वरूप के लिए खतरनाक है। इसलिए हिंदी के जातीय स्वरूप की रक्षा एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि इसके बिना यह विश्व में सम्मानजनक स्थान नहीं पा सकती।
दरअसल, इस समय अंग्रेजी खुद ही खोखली नहीं होती जा रही है, यह दुनिया की सारी भाषाओं और लोगों के जीवन को खोखला बना रही है। इसलिए हिंदी को लोकतंत्र की भाषा बनाने का अर्थ है, इसे कैसे राष्ट्रीय जन-जीवन का आईना बनाया जाए। हम इसे बाजार
जनसत्ता 26 सितंबर, 2012: हिंदी का जन्म ही आजाद और लोकतांत्रिक मानसिकता की देन है। इसलिए इसे मानसिक आजादी की भाषा या लोकतंत्र की भाषा के रूप में देखा जाता है। अगर हमारी मानसिक आजादी और हमारा लोकतंत्र सुरक्षित है, तब हिंदी को आगे बढ़ने और विश्व में सम्मानजनक स्थान पाने से नहीं रोका जा सकता। पर अगर हम मानसिक आजादी खो रहे हों और लोकतंत्र बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मुट्ठी में चला जा रहा हो तो दुनिया की कई दूसरी भाषाओं की तरह हिंदी का तरह-तरह से संकट में पड़ना, इसका सिकुड़ना या विकृत होना निश्चित है। इन स्थितियों में हमें ‘इंडेंजर्ड लैंग्वेज’ की अवधारणा का विस्तार करना होगा। दुनिया की तमाम राष्ट्रीय भाषाओं को- जिनमें कई यूरोपीय भाषाएं भी हैं, दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका की भाषाएं भी हैं- और अपनी तमाम भारतीय भाषाओं को और निश्चित रूप से हिंदी को भी बढ़ते अंग्रेजी-वर्चस्व के बरक्स ‘इंडेंजर्ड लैंग्वेजेज’ के रूप में देखना चाहिए।
हिंदी लोकचेतना और लोकतंत्र की देन है। यह हम सिद्धों-नाथों से लेकर अमीर खुसरो, विद्यापति और भक्त कवियों से होते हुए भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद, निराला, अज्ञेय आदि तक देख सकते हैं। इन्होंने हिंदी को गढ़ा, विकसित किया और लोकप्रिय बनाया। आज मुख्यत: हिंदी को कौन निर्मित कर रहा है? आज जो मस्त, चुलबुली और दमकती हुई हिंदी दिखाई देती है, वह पहले से काफी फैली हुई भले नजर आए, हम उससे संतुष्ट नहीं हो सकते। आज सूचना और मनोरंजन की भाषा के रूप में निश्चय ही हिंदी का प्रसार हुआ है। पर क्या यह दफ्तर, अंतरराष्ट्रीय बाजार, उच्च-स्तरीय वार्ता, उच्च शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान और बहस की भाषा बन पाई है? इसलिए हमें कहना होगा कि भारत में अंग्रेजी-वर्चस्व की वजह से भाषा का लोकतंत्र नहीं है। हिंदी लोकतंत्र की भाषा सिर्फ तब बनेगी, जब सूचना और मनोरंजन की भाषा से आगे बढ़ कर ज्ञान और संवेदना की भाषा बने।
दक्षिण अफ्रीका की धरती पर ही महात्मा गांधी ने पहली बार साम्राज्यवादी भेदभाव के विरुद्ध ‘पैसिव रेजिस्टेंस’ शुरू किया था, अपने सत्याग्रह की शक्ति से दुनिया को परिचित कराया था। उनकी लड़ाई मानवीय आत्मसम्मान, आजादी और लोकतंत्र के लिए ही नहीं थी; राष्ट्रीय भाषाओं की मर्यादा की प्रतिष्ठा के लिए भी थी। गांधी ने भारत में कहा था, ‘‘मैकाले ने जिस शिक्षा की नींव रखी, उसने सबको गुलाम बना दिया है। यदि भारत अंग्रेजी बोलने वाले लोगों का स्वराज्य है, तो नि:संदेह अंग्रेजी ही राष्ट्रीय भाषा होगी। लेकिन अगर भारत करोड़ों भूखों मरने वालों, निरक्षरों और दलितों-अंत्यजों का स्वराज्य है और इन सबके लिए है तो हिंदी ही एकमात्र राष्ट्रभाषा हो सकती है।’’ अंग्रेजी भले फिलहाल एक अंतरराष्ट्रीय भाषा है, पर पिछले दरवाजे से विश्व भर में यथार्थत: यही ‘नेशनल लैंग्वेज’ बनती जा रही है और जीवन में चारों तरफ छाती जा रही है- हम ऐसा कभी होने नहीं देंगे। हम हिंदी ही नहीं, सभी भारतीय भाषाओं के आत्मसम्मान के लिए लड़ेंगे। जोहानिसबर्ग के विश्व हिंदी सम्मेलन की सार्थकता इसी में है कि यह अंग्रेजी-वर्चस्व के विरुद्ध लड़ाई का एक प्रेरणास्रोत बने।
विश्व हिंदी सम्मेलन निश्चय ही हिंदी की दशा और भावी दिशा पर सोचने के लिए था। यह भूलना नहीं होगा कि हिंदी का भविष्य पहले भी भारतीय भाषाओं के भविष्य से जुड़ा हुआ था और आज भी जुड़ा है। हमारी पहली और आखिरी मांग यह होनी चाहिए कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का सशक्तीकरण किया जाए। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के सशक्तीकरण का अर्थ है भारतीय जनता का सशक्तिकरण, लोकतंत्र को मजबूत बनाना। हम कहना चाहते हैं कि स्त्रियों के सशक्तीकरण, दलितों के सामाजिक न्याय, किसानों और आदिवासियों के सशक्तीकरण की तरह ही भारतीय भाषाओं का, हिंदी का सशक्तीकरण जरूरी है।
लोकतंत्र में हिंदी कहां है, किस दशा में है? हिंदी में लोकतंत्र कितना है, किस दशा में है? इन सवालों के सामने अगर हम-आप खड़े हों, हमारे भीतर रूह होगी तो वह कांप जाएगी। ‘लोकतंत्र में हिंदी’ इस समय भीष्म साहनी की ‘चीफ की दावत’ है और हिंदी में लोकतंत्र, प्रेमचंद से उदाहरण लेकर कहें तो, ‘ठाकुर का कुआं’ है। इसलिए बाहर अंग्रेजी-वर्चस्व से लड़ाई है तो हिंदीवालों को अपने भीतर छिपे सामंतवाद से भी कम नहीं लड़ना होगा।
गांधी ने कहा था, ‘सादा जीवन, उच्च विचार’। आज उसकी जगह छाता जा रहा है ‘कृत्रिम जीवन, निम्न विचार’। आज चारों तरफ वस्तुएं ही वस्तुएं हैं और विचार की कमी हो गई है।
हिंदी बाजार की भाषा बन चुकी हो, पर इसे लोकतंत्र की भाषा बनाना बाकी है। हिंदी लोकतंत्र की भाषा कैसे बने? हिंदी में अंग्रेजी के कुछ चमकीले शब्द आ जाने से या हिंदी के इंग्लिश बन जाने भर से यह लोकतांत्रिक नहीं हो सकती। हिंदी जिन स्थानों पर अपनाई जा रही है, बढ़ रही है, वहां की स्थानीय भाषाओं-संस्कृतियों के तत्त्व उसमें घुले-मिलें, यह हिंदी का लोकतंत्र है।
हिंदी में अंग्रेजी शब्दों का एकाधिकारवाद इसके लोकतांत्रिक स्वरूप के लिए खतरनाक है। इसलिए हिंदी के जातीय स्वरूप की रक्षा एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि इसके बिना यह विश्व में सम्मानजनक स्थान नहीं पा सकती।
दरअसल, इस समय अंग्रेजी खुद ही खोखली नहीं होती जा रही है, यह दुनिया की सारी भाषाओं और लोगों के जीवन को खोखला बना रही है। इसलिए हिंदी को लोकतंत्र की भाषा बनाने का अर्थ है, इसे कैसे राष्ट्रीय जन-जीवन का आईना बनाया जाए। हम इसे बाजार
हम सिर्फ इस पर गर्व करते हैं कि हिंदी बोलने-समझने वालों की संख्या चालीस करोड़ से अधिक है। हमें इस संख्या से संतोष न करके देखना है कि हम हिंदी को अब तक गुणात्मक रूप से कितनी समृद्ध बना पाए हैं। हम इसे संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने का स्वप्न देखते रहे हैं, इसे विश्व-भाषा बनाने की फिक्र है। इस सवाल पर विचार कीजिए, क्या हिंदी में कोई अद्यतन विश्वकोश है? हिंदी पट््टी की अपनी उनचास भाषाएं, उपभाषाएं और बोलियां हैं। इन बोलियों के अद्भुत अंतर्ध्वनि वाले शब्द कुछ दशकों से गुम होने लगे हैं और बीस-पचीस सालों में, लगता है, विलुप्त हो जाएंगे। क्या हिंदी की जड़ों को बचाने के लिए उनचास खंडों में हिंदी लोक शब्दकोश हम बना पाए हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि हिंदी के एक सरकारी संस्थान में लगभग छह साल पहले ‘लघु हिंदी विश्वकोश’ की योजना उस समय के मानव संसाधन विकास मंत्री की उपस्थिति में स्वीकृत कराके तेजी से शुरू कर दी गई थी। काफी काम हुआ था, पर पिछले तीन सालों से सब ठप है या यह प्राथमिकता में नहीं है। अगर हिंदी को गुणात्मक रूप से समृद्ध करना हम जरूरी समझते हों, अगर जरूरी मानते हों कि हिंदी में इन्साइक्लोपीडिया, हिंदी लोक शब्दकोश बनने चाहिए तो ये चीजें भी विश्व हिंदी सम्मेलन की मुख्य चिंताओं में होनी चाहिए।
यह समझने की जरूरत है कि लोकतंत्र में जो भी शक्ति आती है, वह राष्ट्रीय भाषाओं की उन्नति से आती है, जिनमें हिंदी प्रमुख है। इस समय लोकतंत्र अंग्रेजी की मुट्ठी में है और अंग्रेजी विदेशी वित्तीय पूंजी की मुट्ठी में है। अगर हम सोचते हैं कि लोकतंत्र में आम लोगों की हिस्सेदारी बढ़े तो इसके लिए जरूरी है कि हिंदी की भूमिका को विस्तार मिले। हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाएं पॉवर ग्रिड की तरह हैं, हमारी संस्कृति की ही नहीं, हमारी जातीय आत्म-पहचान और विकास की भी। अगर हिंदी का पॉवर ग्रिड फेल हुआ तो समझना चाहिए संपूर्ण भारतीय जीवन में अंधकार छा जाएगा। कृत्रिम रोशनी के कुछ छोटे-छोटे द्वीप भले झलमलाएं! मुश्किल यह है कि वैश्वीकरण के जमाने में एक इतना बड़ा सांस्कृतिक आक्रमण है, पर इससे लोग डरते नही हैं। वे अब डरते हैं सिर्फ भूत-प्रेत की फिल्मों से। और गर्व क्या अब तो शर्म भी नहीं है।
मीडिया के लोगों को इस पर सोचना चाहिए कि लोकतंत्र का आज चौथा खंभा कौन है- मीडिया या बाजार। संभवत: अब मीडिया की जगह बाजार लोकतंत्र का चौथा खंभा बनता जा रहा है, जो खुद पत्रकारों और संपूर्ण मीडिया जगत के लिए एक चुनौतीपूर्ण मामला है। हिंदी पत्रकारिता और मीडिया का एक गौरवशाली राष्ट्रीय इतिहास है। एक समय हिंदी पत्रकारिता जब हिंदी को बना-बढ़ा रही थी, वह अतीत के दकियानूसी विचारों और पश्चिम के अंधानुकरण से लड़ रही थी। आज मीडिया ‘पेड न्यूज’ से आक्रांत है। हिंदी का जो कुछ श्रेष्ठ और सुंदर है, अब वह बिग मीडिया से बहिष्कृत है। पत्रकार का मूल्य इससे आंका जाता है कि वह कितनी अधिक बिकाऊ खबर ले आता है। निश्चय ही हिंदी आज मीडिया और विज्ञापन की प्रधान भाषा है। हिंदी के बिना आम उपभोक्ता तक पहुंचना मुश्किल है। मगर इस सवाल पर सोचना होगा कि मीडिया हिंदी पाठक या दर्शक के दिमाग का कितना ‘रेजिमेंटेशन’ कर रहा है और उसे कितना स्वाधीन बना रहा है। मीडिया की बाजारू भाषा में जीवन का मजा है, पर जीवन का सौंदर्य नहीं है।
विश्व हिंदी सम्मेलन में इस पर गहरी चिंता व्यक्त की जानी चाहिए कि हिंदी को हिंदी क्षेत्र के शिक्षित लोगों की जितनी ताकत मिलनी चाहिए, उतनी नहीं मिल रही है। विश्व बांग्ला सम्मेलन हर साल होता है। बंगाल के बुद्धिजीवी, समाचारपत्र, व्यापारी सभी उसका अभिनंदन करते हैं। दूसरी भारतीय भाषाओं के विदेश में बसे लोगों ने भी अपनी भाषा-संस्कृति नहीं छोड़ी है। हिंदी के लोग ही इतने उदासीन क्यों हैं, वे देश में और विदेशों में हिंदी के लिए आगे क्यों नहीं आते? एक अरण्यरोदन-सा कहीं हो जाता है विश्व हिंदी सम्मेलन।
विश्व हिंदी सम्मेलन को एक ऐसा अवसर समझना चाहिए, जब हम मिले-जुलें, समस्याओं को पहचानें, आपस में बैठ कर समस्याओं के समाधान निकालें, दूरियां मिटाएं और यह सोचें कि हिंदी के लिए और क्या किया जा सकता है। चीरफाड़ जरूरी है, पर सिर्फ चीरफाड़ नहीं। हम यह देखें कि कैसे हिंदी की सरकारी संस्थाएं हिंदी की कब्रें न बनने पाएं। इस पर सोचें कि कैसे हर साल विश्व हिंदी सम्मेलन हो- एक साल भारत में और एक साल विदेश में। कैसे हम विश्व हिंदी सम्मेलन को एक ऐसी जगह बनाएं, जहां हिंदी से जुड़ी सांस्कृतिक विविधता की उच्च झलक हो। विश्व हिंदी सम्मेलन विदेशी शहरों में महज घूम-फिर आने का मामला नहीं है, यह एक संकल्प से भर जाने का मामला है- इस सम्मेलन का प्रतीक गांधी का चरण चिह्न यही कहता था। यह बौद्धिक साम्राज्यवाद लड़ने का आह्वान करता है। क्या दक्षिण अफ्रीका का सम्मेलन एक प्रस्थान-बिंदु बनेगा। क्या यह भारत के हिंदी क्षेत्र में कोई आलोड़न पैदा कर सका?