मथुरा छाइ रही
धरती में विलीन हो चुकी पुनर्नवा और पटांगण की भीड़ी से लगा दाड़िम पलुराने लगा हैं। बाड़े को भर कर हरियाया ओलमारा नीलम जैसे नन्हे-नन्हे फूलों में फूलने लगा है। चलमोड़े से भरी पगडंडियों की मेड़ों पर नथ के चंदकों जैसे विविध नगीनों सरीखे फूलों से अपनी पहचान जना रहे हैं शंखपुष्पी और भृंगराज। जहाँ भी तनिक सी नमी पाई है, जहाँ-तहाँ कण्टकारी भी पीले-पीले फूल सिर माथे धर खड़ी है। भटकटैया खिलखिला रहा है। गमलों में उगाई हुई छरहरे बदन वाली नागफनी भी अपने विविध रंगों का नजराना लिए बसंतराज की खिदमत में हाजिर है। कम सूरत और भद्द में शुमार जंगली फूलों में भी खूबसूरती ढूँढ़ लेने वाले चक्षुस्मंतों को तो इन्हीं सबों को देखकर ऋतु के बदलाव का शगुन मनाने का शगल हुआ करता है।
देखने में कुछ-कुछ बाशिंग के फूलों जैसी, जंगली झड़बाटों में फूली मटमैली धूसर-फूसर कितनी ही झाड़ियाँ हैं। नहर की अल्पिकाओं व कच्ची गूलों के इर्द-गिर्द कितनी ही वनस्पतियों के उपेक्षित अनाम पुष्प गुच्छों और मंजरियों में अवांछित कीटों के झुण्ड के झुण्ड मडराने लगे हैं। भट, भटमार, कोहबर आदि कितने ही नामों से पहचानते हैं लोग इन झाड़-झंखाड़ों की झाड़ियों को। सबके अपने-अपने फूल हैं। शाल, साज, सागौन, खदिर के विरल-छितर दुर्बल पेड़ों के आसपास की धरती को आछन्न किये हुए लैंटाना कुरी के साझीदार हैं कितने ही किसम के भट-भटार। हल्दू, मवा और सेमल के भी अँखुवाने का समय है। उनके ‘बेले’ में भी फूल रही है करीपत्ती-नीममीठी। फूलदेई-जम्मादेई तक खिलते रहेंगे ये वनफूल जिन्हें बच्चे जहाँ-तहाँ पा जाते हैं तो अपने-अपने पोलीथीनों में भर कर ले आते हैं देहरियाँ पूजने।
इन दिनों गुड़हल, गुलाब, गेंदा, गुलदाउदी तो घर-आँगन और गमलों की शोभा बढ़ा ही रहे हैं। ऊँची पहाड़ियों में बुरूँश और गरम भाबरों में पलाश दमक-दहक रहे हैं। अर्क-आक-मदार भी होली दहन की राह देखने के लिए प्रतीक्षा पंक्ति में हाजिर हैं। मंदिरों में बजने वाले भोकर की जैसी आकृति का धतूरा भी सफेद-सफेद अधखुली छाता लिए उपेक्षित-तिरस्कृत जैसी जगहों पर खड़ा है लोगों की दृष्टि इनायत चाहने। फूलों में किसको छोटा कहें किसे बड़ा ? किसे आम कहें किसे खास ? हर फूल प्रकृति के विराट खजाने में सुरक्षित कीमती नगीना है। जो जितना नन्हा है उसमें उतनी ही महीन पच्चीकारी है। जो जितना चटक है उतना ही अभिराम है। देखते नहीं कुर्री की फुलवारी को ? धरती भर में बिखरे-फूले हुए ये फूल मथुरा वृन्दावन की याद दिला रहे हैं। पीपल, ब्याबड़ और बरगद के पल्लवन को ऋतु का उनमान जैसे हाथियों के झुण्डों को होता है वैसा ही अरविन्द, अशोक, आम, मल्लिका के पलुराने-बौराने, फूलने-फटवाने का पूर्वानुमान कर कामदेव चैत के दरवाजे पर आकर ताक-झाँक करने लगा है।
‘हर फूलन मथुरा छाइ रही’ की पंगत सकेत स्थल को बता रही है कि आओ हम करें कुछ छेड़छाड़। मिटाएँ मन की उड़भस-बुड़भस। गोकुल, वृन्दावन और मथुरा की होली-हुड़दंगों की मौज लेने चलें या फिर अपने मन को ही बनाएँ वृन्दावन। डोलें अपने ही गाँव-गिराम, नगर, शहर, हाट-बाजार, कस्बे-मोहल्ले। फूलों की तरह जहाँ पर जैसे भी हैं वहीं वैसे ही खिलें। हँसों खल-खल। खुद को रंग-रंगत से सराबोर होने देने के लिए पाँच दिनों को महारास के पाँच अध्याय समझें।
सरकत नॉय बटुवा डोरी बिना नाचें नॉय मारा मोरी बिना
सोने की गगरी टेसू के फुलवा खेलत नॉय रसिया गोरी के बिना
नंदगाम के कुँवर कन्हैया बरसाने की राधा गोरी
मन नवरंग नाय होय भैया बिरज की होरी बिना।
कुमाऊँ की होलियाँ बिरज से आई हैं। पहली चीर का धड़ा मथुरा से ही लाते रहे हैं हमारे लोग। उसकी थापना होने के बाद ही होली खेलने, गाने-गवाने की परम्परा शुरू होते रही है अपने यहाँ। होली, जो रंग, कुंकुम, अबीर, केसर, गुलाल और पानी-पिचकारी की भी होती है फूलों की भी। विशेषकर गेंदा-हजारी के फूलों को चूर कर और गुलाब की पंखुड़ियों को पिरोकर इकट्ठे किये गये ढेरों से होती है फूलों की बौछार। रंगों के इन्द्रधनुषी आकारों के ऊपर से बरसती ये पुष्प पंखुड़ियाँ मंदिरों की धरती में बिछौनों जैसी बिछ जाती हैं मंदिरों में रखे हुए हिंडोलों, फूलों और पालनों में सजने के लिए ही बगीचों में खिलते हैं ये फूल। भगवान श्रीकृष्ण के विभिन्न स्वरूपों के प्रदर्शक हैं ये मन्दिर। मधुरेश, मदन, मोहन, गिरधर, गोपाल, द्वारिकाधीश, बालकृष्ण, विट्ठल, वनमाली, गोपालाल, गोकुललाल, श्रीनाथ जैसे सहस्त्रोंनाम रूप। पश्चिमी उत्तर-प्रदेश, राजस्थान और गुजरात में जहाँ-जहाँ पुष्टिमार्गीय दार्शनिक-भक्त बल्लभाचार्य ओर उनके पुत्र गोस्वामी बिट्ठलनाथ की बैठकें हैं, झूलों, हिंडोलों और सजावट के दर्शनों के लिए भक्तों की भीड़ लगी रहती है। राजस्थान के कांकरोली, खमनोर, चैपेता, लालबाग, चैपाटी आदि के बड़े-बड़े उद्यानों में फूलों की ही फसल उगाई जाती है। नाथद्वारा में श्रीनाथ जी के फागुन के महिने आयोजित होने वाले ‘डोल’ उत्सव में तो फूलों का ही डोला बनता है। डोल के दिन ही धुलेंडी भी होती है। खमनोर के शाहीबाग में गुलाबों से गुजलाब जल, इत्र और गुलकंद का ही कुटीर-धंधा चलता है। आश्विन मास की प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक केले के पत्तों, फूलों और फूलों की कलियों से बहुत आकर्षक झाँकियाँ सजती हैं। डोलों, झाँकियों, बौछारों और न्योछावरी के अलावा हिंडोलों के लिए भी फूलों का इस्तेमाल होता है। पूरा सावन तो हिंडोलों का महिना तो होता ही है। अधिक मास, हरियाली अमावस, हाण्डी उत्सव आदि कितने ही मौकों में हिंडोले सजाने की परम्परा है कृष्ण मंदिरों में।
द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण का श्रीनाथ जी के विहद से पीठ, गद्दी व मंदिरों की स्थापना करके उनकी अर्चना और सेवा विधि की व्यवस्थापना स्थिर करने वाले आचार्य बल्लभ मध्ययुग के दिग्गज दार्शनिकों में गिने जाते हैं। उनका जन्म 1479 सन् में हुआ था। उनके लड़के विट्ठलदास भी बहुत बड़े धर्माचार्य थे। इन पिता-पुत्रों ने श्रीमद्भागवत और भगवद्गीता को वैष्णव मत का बीज ग्रंथ मानकर देश में व्यापक प्रचार-प्रसार किया। इनका दार्शनिक मत ‘पुष्टिमार्ग’ करके प्रसिद्ध है। इन्होंने भगवद्ग्रंथ का जहाँ-जहाँ पारायण किया उन स्थानों को ‘बैठकी’ कहा जाता है। आचार्य बल्लभ की बैठकी की संख्या चैरासी और विट्ठल्लनाथ की 28 है। बल्लभाचार्य की 76वीं बैठकी हरिद्वार में 77वीं बद्रीनाथ में और 78वीं केदारनाथ में हुई थी। इनकी ‘बैठकों’ के जरिये उत्तराखंड में कृष्ण भक्ति का व्यापक दौर शुरू हुआ। यहाँ के लोकरंग में राधाकृष्ण की होलियाँ ऐसी जमीं कि हमारी धरती को मथुरा-वृन्दावन बनने में देर न लगी। ‘अष्टछाप’ के नाम से प्रसिद्ध ब्रजभाषा के चार कवि सूरदास, परमानन्द दास, कुम्भनदास और कृष्णदास बल्लभाचार्य के ही शिष्य थे। शेष चार नन्ददास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी और गोविन्द स्वामी विट्ठलनाथ जी के शिष्य हुए। मेवाड़, मथुरा, वृन्दावन और गुजरात सहित समस्त ‘बैठकों’ में कृष्ण भगवान के स्वरूपों की सेवा पद्धति, श्रृंगार और कीर्तन-भजन का जो विस्तृत व व्यवस्थित विधान इन्होंने बनाया वह आज भी उसी रूप में चलता है। संगीत, कविता और भक्ति की त्रिवेणी है इस विधान में। होलियों के बोलों में धर्म, संस्कृति और साहित्य की इसी चेतना की तरफ इशारे होते ह
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