प्रस्तुति - उषा रानी / राजेंद्र प्रसाद
मनुष्य का सबसे बड़ा गुण साहस है क्योंकि यह अन्य सब गुणों का प्रतिनिधित्व करता है| साहस ही जीवन की विशेषताओं को व्यक्त होने का अवसर देता है| साहस सफलता का स्वप्न और संकल्प लेकर चलता है| यदि सम्मान युक्त जीवन जीना है तो साहसी बनना पड़ेगा| साहस समुद्र के अंदर से अपना रास्ता बनाता है और पहाड़ों को चीर कर आगे बढ़ता है| साहस के शब्दकोश में असंभव और पराजय नाम के कोई शब्द हैं ही नहीं|साहस से उस संकल्प- बल की उत्पत्ति होती है जिससे अंधेरे में भी प्रकाश फैलता है और असंभव संभव बन जाता है तथा जिस से सब कुछ उपलब्ध किया जा सकता है|"
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मनुष्य सर्वथा अकेला रह रहा होता तो और बात थी लेकिन ऐसा है नहीं, सभी के साथ रहना पडता है और वहीं उसके रजोगुण, तमोगुण प्रकट होने की संभावना होती है|आदमी उनमें खोकर उनके आवेश से भरा रहता है|सजग रहे कौन, निरीक्षण करे कौन? यदि ध्यान गया तब भी दुर्बलता की मजबूरी बनी रहती है|इसके लिए साहस चाहिए- प्रेम का साहस|
जो प्रेम से भागता है वह भय से भागता है|क्रोध भी भय है|
क्रोधी आदमी भीतर से भयभीत होता है|उसका अहंकार भय से बचने के लिए क्रोध का सहारा लेता है|
भय से न बच पाये तो क्या होगा ऐसी चिंता होती है|
समझदार आदमी इन सारे कारणों को समझकर प्रेम का साहस करता है|
साहस बहुत बड़ी बात है मगर अहंकार के हाथ में पडकर इसका दुरूपयोग होता है|जहाँ कहीं साहस की चर्चा चलती है इसकी आंखें चमक उठती हैं|यह ध्यान से सुनने लगता है|बात है भी सही|साहस के आगे किसीकी चलती भी नहीं|ज्यादा से ज्यादा उसका शरीर नष्ट होता है लेकिन इसकी उसे परवाह नहीं होती|परवाह हो तो साहसी कैसा?
दुनिया में जो बडे काम हुए हैं वे साहस ने ही किये हैं|ज्ञानी और अनुभवी तो स्वभाव से अंतर्मुखी होते हैं, सहज ही कर्म में प्रवृत्त नहीं होते|कर्म के लिए तो साहस, जोश, दृढता, ऊर्जा चाहिए|कर्म जगत में कठिनाईयां आती ही हैं इसलिए ठीक ही कहा है-
"साहस और धैर्य ऐसे गुण हैं जिनकी कठिन परिस्थितियां आ पडने पर बड़ी आवश्यकता होती है|"
धैर्य भी चाहिए|धैर्य को समझने वाली सूक्ष्म बुद्धि भी|
"वही व्यक्ति सच्चा साहसी है जो मनुष्यों पर आनेवाली भारी विपत्ति को बुद्धिमत्ता पूर्वक सह सकता है|"
और उसमें से बाहर निकल भी आता है|बाहर निकलने की जल्दी नही होती|बाहर निकलने की जल्दी हो तो धैर्य विकसित नहीं हो सकता, न साहस होता है|
धैर्य हीन साहस कैसा?
धैर्य युक्त होने से वह अडिग है|वह सदा समस्या रहित है|समस्या शब्द अहंकार का है, साहस का नहीं|साहसी इस भाषा में सोचता ही नहीं| वह इसे अवसर की तरह लेता है|
कहा है-"सहनशक्ति के अभ्यास में अपना शत्रु सबसे अच्छा शिक्षक है|"
गीता के समत्व योग को जिसने अच्छी तरह समझ लिया वह स्वागत करेगा कि आने दो शत्रु को, हानि को, दुख, पराजय को, रोग शोक को हम सहने की शक्ति बढाने के अवसर की तरह लेंगे उसे|
साहसी आदमी में असीम सहनशक्ति होती है|हम सहनशक्ति को अच्छी दृष्टि से नहीं देखते-यह अहंकार का काम है|अहंकारी आदमी साहसी तो होना चाहता है किंतु सहनशक्ति उसे नापसंद होती है इसलिए वह चूक जाता है|
साहसी आदमी में सहनशक्ति हो तो वह समझदार भी होता है|समझदार हो तो शायद ही कभी उसे 'एक्शन' लेने की जरूरत पडती है|
साहस अहंकार को अच्छा लगता है इसलिए वह साहस का गुणगान करता है|
हम दूसरी बात कर रहे हैं|जो भी समाज के संरक्षक हैं, शुभचिंतक हैं वे साहस को प्रेम से जोडकर देखते हैं|
प्रेम ही आधार शिला है|प्रेम का अभाव है इसलिए साहस की जरूरत पडती है-प्रेम के साहस की|
"ध्यान रखना तुम अगर तथाकथित सांसारिक प्रेम की पीड़ा से न गुजरे तो तुम ईश्वरीय प्रेम को भी न पा सकोगे"
संसार से त्रस्त होकर कोई ईश्वर की भक्ति में डूब जाना चाहता है तो वह पलायनवादी है, कमजोर है, साहस नहीं है उसमें प्रेम करने का सबसे जैसा कि गीता कहती है-
"सर्वभूतहितेरता:|"
सर्वे भवंतु सुखिनः प्रार्थना हमारे यहाँ इसी संदेश में से आयी है|
मगर साहस?साहस के अभाव में कमजोर हृदय से की गयी प्रार्थना का असर नहीं होता|प्रार्थना क्रियात्मक होनी चाहिए|वह संभव हो पाता है साहस से-प्रेम के साहस से|
ऐसा भी नहीं कि केवल प्रेम कर लिया जबानी (हालांकि यह भी अच्छा है फिर भी) साहस को जब किसीको सहयोग की आवश्यकता होती है तब दिल खोलकर सहयोग करता भी है|वह केवल नाम का साहस थोडे ही है, शब्दकोश में लिखा शब्द जिसमें उसका अर्थ बता रखा है|उस अर्थ को तो कोई भी पढ ले लेकिन जब सचमुच किसी साहसी आदमी से सामना होता है तब उसका असली अर्थ समझ में आता है|
"क्या साहस को स्वीकार किये बिना ही कहीं शुभ यश प्राप्त होता है? "
ऐसे शुभ यश देने वाले साहस की जरूरत है सूक्ष्म दृष्टि से, न कि अहंकार को संतुष्ट करने वाले की तरह|
यह तभी संभव होगा जब प्रेम का साहस हो|साहस इसलिए क्यों कि प्रेम की इच्छा नहीं होती, घृणा, द्वेष, ईर्ष्या से घिरे रहते हैं|
जबर्दस्ती प्रेम के लिए कहा जाय तो अवसाद उत्पन्न हो जाता है|क्या जबर्दस्ती प्रेम हो सकता है? उसके लिए साहस चाहिए|क्षुद्र हृदय की दुर्बलता का अंत चाहिए|
तब युद्ध हो सकता है|
ऐसा युद्ध जो हमें हमारी सारी कमजोरियों से उबार लेता है और समत्व योग में स्थापित कर देता है|
"क्लैब्यं मा स्म गम:पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते|क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्त्तिष्ठ परंतप||हे अर्जुन, नपुंसकता को मत प्राप्त हो, यह तेरे में योग्य नहीं है|हे परंतप! तुच्छ हृदय की दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो|"
युद्ध की बात से अहंकार बड़ा उत्साहित होता है, उसकी शत्रुता की वृत्ति शिखर पर पहुँच जाती है मगर यह गीता है जो साथ साथ सजग कर देती है कि ध्यान रहे तुम ही तुम्हारे शत्रु या मित्र हो इसलिए तुम्हारे भीतर तथाकथित शत्रु या मित्र को लेकर समता होनी चाहिए|भीतर शांति, सन्नाटा, बाहर निष्काम कर्म|वह स्वत:होता है बिना कर्ता भोक्ता भाव के|वह ईश्वरीय विधान की तरह है जो किसी को किसीकी स्वतंत्रता छीनने की अनुमति नहीं देता|
केवल आवश्यकतानुसार यथायोग्य कर्म की अनुमति ही देता है|
कर्म के पीछे प्रज्ञा शक्ति होती है|
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