Saturday, February 25, 2023

मनुष्य होने की कला

 एक बार सूफी फकीर फरीद बनारस के निकट होकर गुजर रहे थे, जहां कबीर रहते थे। फरीद के शिष्यों ने कहा- "यदि आप कबीर से भेंट करें तो आप दोनों का मिलना हम सभी के लिए अद्‌भुत, रोमांचकारी, आनन्दमय और आशीर्वाद स्वरूप होगा।"

ऐसा ही कबीर और उनके शिष्यों के मध्य भी हुआ। जब उन्होंने सुना कि फरीद उधर से गुजर रहे हैं। इसलिए उन्होंने कबीर से कहा- "यदि आप फरीद साहब से कुछ दिन आश्रम में रुकने का आग्रह करें तो हम सभी के लिए यह बहुत अच्छा होगा।"


फरीद के शिष्यों ने कहा- "आप दोनों के मध्य हुए वार्तालाप को सुनने का हमें महान अवसर मिलेगा। हम लोग वह सब कुछ सुनने को बहुत आतुर हैं कि बुद्धत्व को उपलब्ध हुए दो संत एक दूसरे से क्या कहते हैं।"


अपने शिष्यों की बात सुनकर फरीद हंसा और उसने कहा- "हम दोनों मिलेंगे तो जरूर, लेकिन मैं नहीं सोचता कि वहां कोई बातचीत भी होगी, लेकिन अच्छा है। तुम लोग खुद देखना, क्या होता है?"

कबीर ने अपने शिष्यों से कहा- " से जाकर कहो कि वह यहां पधारें और विश्राम करें, लेकिन जो भी पहले बोलेगा वह यह सिद्ध करेगा कि वह बोध को उपलब्ध नहीं है।"


फरीद आए कबीर ने उनका स्वागत किया। वे दोनों हंसे। उन्होंने एक दूसरे का आलिंगन किया और मौन बैठे रहे। फरीद वहां दो दिन रुके और वे कबीर के साथ कई घंटे साथ बैठे रहे। दोनों के ही शिष्य बहुत बेचैनी से प्रतीक्षा कर रहे थे कि दोनों के मध्य कुछ बातचीत हो। कोई कुछ तो कहे, लेकिन कोई एक शब्द तक न बोला। तीसरे दिन फरीद जब चलने लगे तो कबीर ने उन्हें विदा किया। वे दोनों फिर हंसे। एक दूसरे से आलिंगनबद्ध हुए और फिर अलग हो गए।


विदा होने के क्षण फरीद के शिष्यों ने उन्हें चारों ओर से घेर कर कहा- "सब कुछ व्यर्थ रहा। समय ही बरबाद हुआ। हम लोगों को आशा थी कि आप दोनों के मिलने पर कुछ अभूतपूर्व घटेगा। पर कुछ भी तो नहीं हुआ। आप अचानक वहां इतने गुंगे क्यों बन गए। आप हम लोगों से तो बहुत-सी बातें करते हैं।"


फरीद ने उत्तर दिया- "वह सभी जो मैं जानता हूं वह भी जानते हैं। कुछ भी कहने को रहा ही नहीं। मैंने उनकी आंखों में झांका और वह वहीं दिखाई दिए जहां मैं हूं। जो कुछ उन्होंने देखा, वही सब कुछ मैंने भी देखा। जो कुछ उन्होंने महसूस किया, मैंने भी वैसा ही महसूस किया। अब वहां कहने को कुछ था ही नहीं।"


- मनुष्य होने की कला

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