फिल्मों में दांपत्य जीवन
भारतीय
सिनेमा में दांपत्य जीवन का चित्रण कई स्थानों पर देखने को मिलता है।
फिल्म निर्मातानिर्देशक उदारीकृत अर्थव्यवस्था में पतिपत्नी के बीच
वादविवाद, टकराव, लड़ाईझगड़ा एवं तलाक(संबंध विच्छेद) को सिनेमा के सुनहले
पर्दें पर उकेर रहे हैं। कुल मिलाकर निर्माताओं निर्देशकों का एक मात्र
लक्ष्य भारतीय संस्कृति तथा भारतीयविवाह संस्था को श्रेष्ठ साबित करते हुए
दिखाई देता है। परंतु हां, जीवन के उतारच़ाव में ये फिल्में मानवीय
झंझावातों को दिखा तो रही हैं पर ये नहीं सोचती कि किस प्रकार उसे सुदृ़
किया जाए। क्या दांपत्य जीवन का भारतीय दर्शन सफल हो सकता है? क्या
पतिपत्नी अलगाव होना ठीक है? भारतीय नारी मात्र पति के पदचिह्नों पर हीं
चलेगी या उसका भी कुछ आस्तित्व हो सकता है क्या? क्या वैवाहिक मूल्य बदल
रहे हैं? फिल्मों में प्रायः यह दिखाई देता है कि स्त्री अपने वासना तथा धन
की सुख के लिए कुछ भी करने को तैयार है।
“जिस्म” की बिपासा वसु तथा “7 खुन माफ” की प्रियंका चोपड़ा बदलते
भारतीयजीवनमूल्यों की निमित्त मात्र है। सुख की प्राप्ति के लिए यीशु के
शरण में जाती है। उसका दांपत्य जीवन पुरूष के धोखाधड़ी तथा बचकानी आदतों से
आजिज होकर कुछ गलत कदम उठाती है। मूलतः दांपत्य जीवन विश्वास तथा समर्पण का
संगम है। जहां पतिपत्नी गृहस्थी रूपी गाड़ी को चलाते हैं। ‘शतरंज के मोहरे’
में यह अनमोल विवाह तथा सेक्स समस्या को लेकर है तो दीपा मेहता के ‘फायर’
में पतिपत्नी द्वारा एक दूसरे के बीच दूरी के कारण है। यह ‘आपकी कसम’ में
दांपत्य जीवन में विश्वास तथा विवेक शून्यता के कारण।
प्रेमशास्त्र(कामसूत्र) और ‘हवस’ में पत्नी एक ओर सेक्स समस्या से पीड़ित है
तो दूसरी ओर अनमोल विवाह के कारण वह पति से पीड़ित है।
हिन्दी सिनेमा ने दांपत्य जीवन के हरेक पहलुओं को छूने का प्रयास किया है। हां, लेकिन इसमें जाति प्रथा, शैक्षणिक स्तर, असमान आर्थिक स्तर, रंगनस्ल, अनमेल विवाह, अंतर्धार्मिक और अंतर्राष्ट्रीय के साथ ही साथ विचार, रहनसहन तथा व्यवसाय के कारण टुटतेबिखरते दांपत्य जीवन को देखा जा सकता है।
50 से 70 के दशक में दांपत्य जीवन में उतारच़ाव को तो सामान्य स्तर पर देखा जा सकता है। परंतु 1980 से 2010 के दशक में स्त्री (की छवि) एवं दांपत्य जीवन को स्वछंद एवं उन्मुक्त दिखाने के चलन ने भारतीय जीवनमूल्यों पर होते प्रहार के तरफ इंगित करता है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सिनेमा तथा साहित्य समाज का दर्पण तो है ही लेकिन अति नाटकीयता इसके स्वरूप को नष्ट कर रहे हैं जिसे निर्माताओं, निर्देशकों तथा नायकोंनायिकाओं को विचार करना होगा। अन्यथा भारतीय समाज पर गलत प्राव पड़ेगा।
जब मनुष्य अति कामुक, व्यस्त तथा अस्तव्यस्त जीवन सा हो जाता है तो ‘दिल तो बच्चा है जी’’ की स्थिति आती है। हास्यव्यंग्य से ओतप्रोत इस फिल्म के कथावस्तु में तीनों विभिन्न प्रकृति के हैं। एक तलाकशुदा, एक ऐसे पत्नी के तलाश में है जो उसके प्रति समर्पित हो तथा दूसरा भारतीयजीवन मूल्यों के नजदीक रहने वाले पत्नी की खोज में है। तीसरा, रंगीन मिजाज है जिसका एकमात्र उद्देश्यृ कई स्ति्रयों के साथ यौन संबंधों को स्थापित करना। इस प्रकार फिल्मों में दिखाई देता है। ‘मर्डर’ व ‘जिस्म’ की विपासा जीवन साथी की खोज में न रहकर यौन ईच्छाओं के संतुष्टी को ही सबकुछ मान बैठती है।
‘कोरा कागज’ में लड़की कोरा कागज पर तलाक का दस्तखत करती है उसी वक्त नौकर कहता है “बेटी तलाक के कागजों पर हस्ताक्षर करने से ही जीवन के संबंध टुट सकते है क्या? तुम पति को भूल पाओगी क्या?’’ लेकिन वे फिर मिल जाते हैं?
हिन्दी सिनेमा ने दांपत्य जीवन के हरेक पहलुओं को छूने का प्रयास किया है। हां, लेकिन इसमें जाति प्रथा, शैक्षणिक स्तर, असमान आर्थिक स्तर, रंगनस्ल, अनमेल विवाह, अंतर्धार्मिक और अंतर्राष्ट्रीय के साथ ही साथ विचार, रहनसहन तथा व्यवसाय के कारण टुटतेबिखरते दांपत्य जीवन को देखा जा सकता है।
50 से 70 के दशक में दांपत्य जीवन में उतारच़ाव को तो सामान्य स्तर पर देखा जा सकता है। परंतु 1980 से 2010 के दशक में स्त्री (की छवि) एवं दांपत्य जीवन को स्वछंद एवं उन्मुक्त दिखाने के चलन ने भारतीय जीवनमूल्यों पर होते प्रहार के तरफ इंगित करता है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सिनेमा तथा साहित्य समाज का दर्पण तो है ही लेकिन अति नाटकीयता इसके स्वरूप को नष्ट कर रहे हैं जिसे निर्माताओं, निर्देशकों तथा नायकोंनायिकाओं को विचार करना होगा। अन्यथा भारतीय समाज पर गलत प्राव पड़ेगा।
जब मनुष्य अति कामुक, व्यस्त तथा अस्तव्यस्त जीवन सा हो जाता है तो ‘दिल तो बच्चा है जी’’ की स्थिति आती है। हास्यव्यंग्य से ओतप्रोत इस फिल्म के कथावस्तु में तीनों विभिन्न प्रकृति के हैं। एक तलाकशुदा, एक ऐसे पत्नी के तलाश में है जो उसके प्रति समर्पित हो तथा दूसरा भारतीयजीवन मूल्यों के नजदीक रहने वाले पत्नी की खोज में है। तीसरा, रंगीन मिजाज है जिसका एकमात्र उद्देश्यृ कई स्ति्रयों के साथ यौन संबंधों को स्थापित करना। इस प्रकार फिल्मों में दिखाई देता है। ‘मर्डर’ व ‘जिस्म’ की विपासा जीवन साथी की खोज में न रहकर यौन ईच्छाओं के संतुष्टी को ही सबकुछ मान बैठती है।
‘कोरा कागज’ में लड़की कोरा कागज पर तलाक का दस्तखत करती है उसी वक्त नौकर कहता है “बेटी तलाक के कागजों पर हस्ताक्षर करने से ही जीवन के संबंध टुट सकते है क्या? तुम पति को भूल पाओगी क्या?’’ लेकिन वे फिर मिल जाते हैं?
भारतीय जीवन ने दांपत्य जीवन को समझौता नहीं माना है। उसने तो उसे सात
जन्मों का बंधन(संस्कार) माना है। अग्नि को साक्षी मानकर पतिपत्नी एक
पत्नी व॔त का संक ल्प लेते हैं।
फिल्म साहित्य का लक्ष्य विविधताओं, कुठाओं तथा मनोविकारों से ग॔सित
पतिपत्नी को त्राण दिलाने से है न कि विष घोलने से। फिल्म, लेखक, नायक,
नायिका, निर्माता, निर्देशक, गीतकार, तथा सहयोगियों का लक्ष्य टुटते बिखरे
दांपत्य जीवन को सबल एवं सशक्त बनाने से होना चाहिए। ती हमारे सपनों का
संगठित, स्वस्थ एवं एकात्म भारतबन सकता है। पतिपत्नी का मात्र यौन संबध तक
ही केंद्रित होकर जीवन साथी एवं मित्र
भव का होना परमावश्यक नहीं है तथा उसका आधार दांपत्य प्रेम के साथ ही
भारतीय मूल्यों एवं मानदंडो की मान्यता पर केंद्रित होना चाहिए। आज के
जमाने में जहां भारतीय समाज से मूल्य, प्रथा, परंपरा, सभ्यता और संस्कृति
के नाम पर सांस्कृतिक संस्कृति विकृतिकरण के द्वारा नंगा नाच हो रहा है।
ऐसे समय में भारतीय मूल्यों की स्थापना के लिए तथा सफल दाम्पत्य जीवन के
स्वप्न का साकार करने के लिए सार्थक सिनेमा की अवश्यकता है जो पतिपत्नी के
संबंधों को सृदृ़ कर सके।
‘लेखक, पत्रकार, फिल्म समीक्षक, कॅरियर लेखक, मीडिया लेखक एवं
हिन्दुस्थान समाचार में कार्यकारी फीचर संपादक तथा ‘आधुनिक सभ्यता और
महात्मा गांधी’ विषय पर डी. लिट्. कर रहे हैं।
(नवोत्थान लेख सेवा, हिन्दुस्थान समाचार)
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