प्रस्तुति-- स्वामी शरण प्रियदर्शी किशोर
जलराशि ने नाम दिए देशों को
हमारे देश भारत के दो और नाम प्रचलित हैं हिन्दुस्तान तथा इंडिया. ये दोनों नाम हमारे देश को सिंधु नदी के कारण मिले हैं. सिंधु नदी को प्राचीन ईरानवासियों ने अपने ढंग से उच्चारण करते हुए हिन्दू कहा. यूरोपवासियों ने उसे इंडस संबोधित किया. इंडस से इंडिया बना है. सिंधु नदी तिब्बत से निकलती है, भारत के लद्दाख क्षेत्र में बहकर बाद में वह पाकिस्तान की मु2य नदी बन गई है. कुल 2880 किलोमीटर की यात्री पूरी करते हुए सिंधु नदी अरब सागर में मिल जाती है. सिंधु नदी के कारण ही सिंध प्रदेश और सिंधी भाषा को नाम मिले हैं. दुनिया में और भी कई देशों को नदियों के नाम दिए हैं. पश्चिमी एशिया में एक देश है जोर्डन. इस देश ने भी अपना नाम जोर्डन नामक नदी के कारण पाया है.
जोर्डन एक छोटी नदीं है जो मृतसागर में समाती है. नदियों के आधार पर अफ्रीका महाद्वीप में कई देशों को नाम मिले हैं. नाइजर एक बड़ी नदी है जिसकी लंबाई 7180 किलोमीटर है. नाइजर एवं नाइजीरिया दोनों देशों ने अपने नाम इसी नदी से ग्रहण किए हैं. अटलांटिक महासागर के तट पर पश्चिमी अफ्रीका में दो छोटे-छोटे देश हैं-सेनेगल और गैमिम्या. दोनों देश अपने नामों के सदृश नदियों के कारण वि2यात हैं. सेनेगल और गै6बिया दोनों साधारण नदियां हैं मझौले आकार की. गैब्बिया महासागर में विलीन होकर अपनी यात्रा समाप्त करती है. इस नदी ने कांगों (किंशासा) और कांगो(ब्राजाविले) नाम के दो देशों को संज्ञा प्रदान की है.
अफ्रीका में एक और बड़ी नदी है जे6बेसी जो 3540 किलोमीटर की लंबाई पार कर दक्षिणी अटलांटिक में समा जाती है. जा6बिया देश में अपनी पहचान इस नदी से प्राप्त की है. यद्यपि मिस्त्र देश को नाम अलग कारण से मिला है, फिर भी उसका जीवन नील नदी पर आश्रित है. इसी कारण मिस्त्र (इजिप्ट) को नील नदी का वरदान कहा जाता है. 6650 किलोमीटर लंबी नदी नील, लंबाई के हिसाब से सबसे बड़ी नदी है. दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप में तीन देशों को नदियों के नाम दिए हैं. दक्षिणी अटलांटिक महासागर तट पर ब्राजील के दक्षिण तथा अर्जेंटीना के पूर्वी तट से सटा हुआ देश है-उरुग्वेय उरुग्वे नाम की नदी से दक्षिणी अमेरिका के स्विट्जरलैंड कहे जाने वाले इस देश को नाम दिया है.
उरुग्वे का पड़ोसी देश है पेराग्वे. पेराग्वे का नामकरण पेराग्वे नामक नदी से हुआ है. दक्षिण अमेरका महाद्वीप के मध्य में बहने वाली पेराग्वे एक बड़ी नदी 2494 किलोमीटर लंबी है. यह नदी इतनी चौड़ी है कि मझौले आकार के जहाज इसमें नौवहन कर सकते हैं. यही कारण है कि सागर तट विहीन पेराग्वे देश को समुद्र तट की कमी अनुभव नहीं होती. दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप के उ8ार में एक देश है-सूरीनाम. वहां सूपीनाम नामक नदी है. इसी नदी के किनारे वहां की राजधानी पारामारिबों स्थित है. सूरीनाम कोई 140 वर्ष पहले हजारों भारतवंशी मजदूर ले जाए गए हैं.
सूरीनाम नदी के देश सूरीनाम में लगभग 40 प्रतिशत निवासी भारतीय मूल के हैं. जल हमारे जीवन का मु2य आधार है. सही कहा गया है कि जल से ही जीवन है. यहीं जल जब बहता है तो नदी बन जाता है. बहती हुई नदियों ने कई देशों के नाम दिए हैं. स्थित जलराशि जब विशाल क्षेत्र में होती है तो उसे झील कहते हैं. झीलों ने भी अनेक देशों के नाम दिए हैं. मध्य अफ्रीका में एक बड़ी झील है टांगान्यिका. टांगन्यितका देश (पूर्वी अफ्रीका) और हिन्द महासागर के द्वीप देश जंजीबार का संघीय देश टांजानिया कहलाता है. टांगन्यिका के पड़ोस का देश है मलावी ने भी अपना नाम इसी नाम की झील से पाया है. मध्य अफ्रीका में उ8ार की ओर चाड नामक देश है. चाड नामक झील से पाया है.
श्रीधर बर्वे
साभार-नवभारत भोपाल
जोर्डन एक छोटी नदीं है जो मृतसागर में समाती है. नदियों के आधार पर अफ्रीका महाद्वीप में कई देशों को नाम मिले हैं. नाइजर एक बड़ी नदी है जिसकी लंबाई 7180 किलोमीटर है. नाइजर एवं नाइजीरिया दोनों देशों ने अपने नाम इसी नदी से ग्रहण किए हैं. अटलांटिक महासागर के तट पर पश्चिमी अफ्रीका में दो छोटे-छोटे देश हैं-सेनेगल और गैमिम्या. दोनों देश अपने नामों के सदृश नदियों के कारण वि2यात हैं. सेनेगल और गै6बिया दोनों साधारण नदियां हैं मझौले आकार की. गैब्बिया महासागर में विलीन होकर अपनी यात्रा समाप्त करती है. इस नदी ने कांगों (किंशासा) और कांगो(ब्राजाविले) नाम के दो देशों को संज्ञा प्रदान की है.
अफ्रीका में एक और बड़ी नदी है जे6बेसी जो 3540 किलोमीटर की लंबाई पार कर दक्षिणी अटलांटिक में समा जाती है. जा6बिया देश में अपनी पहचान इस नदी से प्राप्त की है. यद्यपि मिस्त्र देश को नाम अलग कारण से मिला है, फिर भी उसका जीवन नील नदी पर आश्रित है. इसी कारण मिस्त्र (इजिप्ट) को नील नदी का वरदान कहा जाता है. 6650 किलोमीटर लंबी नदी नील, लंबाई के हिसाब से सबसे बड़ी नदी है. दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप में तीन देशों को नदियों के नाम दिए हैं. दक्षिणी अटलांटिक महासागर तट पर ब्राजील के दक्षिण तथा अर्जेंटीना के पूर्वी तट से सटा हुआ देश है-उरुग्वेय उरुग्वे नाम की नदी से दक्षिणी अमेरिका के स्विट्जरलैंड कहे जाने वाले इस देश को नाम दिया है.
उरुग्वे का पड़ोसी देश है पेराग्वे. पेराग्वे का नामकरण पेराग्वे नामक नदी से हुआ है. दक्षिण अमेरका महाद्वीप के मध्य में बहने वाली पेराग्वे एक बड़ी नदी 2494 किलोमीटर लंबी है. यह नदी इतनी चौड़ी है कि मझौले आकार के जहाज इसमें नौवहन कर सकते हैं. यही कारण है कि सागर तट विहीन पेराग्वे देश को समुद्र तट की कमी अनुभव नहीं होती. दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप के उ8ार में एक देश है-सूरीनाम. वहां सूपीनाम नामक नदी है. इसी नदी के किनारे वहां की राजधानी पारामारिबों स्थित है. सूरीनाम कोई 140 वर्ष पहले हजारों भारतवंशी मजदूर ले जाए गए हैं.
सूरीनाम नदी के देश सूरीनाम में लगभग 40 प्रतिशत निवासी भारतीय मूल के हैं. जल हमारे जीवन का मु2य आधार है. सही कहा गया है कि जल से ही जीवन है. यहीं जल जब बहता है तो नदी बन जाता है. बहती हुई नदियों ने कई देशों के नाम दिए हैं. स्थित जलराशि जब विशाल क्षेत्र में होती है तो उसे झील कहते हैं. झीलों ने भी अनेक देशों के नाम दिए हैं. मध्य अफ्रीका में एक बड़ी झील है टांगान्यिका. टांगन्यितका देश (पूर्वी अफ्रीका) और हिन्द महासागर के द्वीप देश जंजीबार का संघीय देश टांजानिया कहलाता है. टांगन्यिका के पड़ोस का देश है मलावी ने भी अपना नाम इसी नाम की झील से पाया है. मध्य अफ्रीका में उ8ार की ओर चाड नामक देश है. चाड नामक झील से पाया है.
श्रीधर बर्वे
साभार-नवभारत भोपाल
राहत के जरिए हो जल संरक्षण
मध्य प्रदेश में नदियों की कमी नहीं है. बड़ी नदियां तो हैं ही, छोटी नदियां तो अत्यधिक हैं. ये छोटी नदियां बारिश के दिनों में बड़ी नदियों को पानी देती हैं. अच्छी बारिश हो तो यह प्राय: बेहतर स्थिति में होती हैं, लेकिन बारिश के बाद इन नदियों के पानी के भंडारण की व्यवस्था प्राय: नहीं है. इस बार बारिश कम होने से स्थिति विषम है. बुंदेलखंड क्षेत्र में तो खेतों में दरारें पड़ी हैं और सिंचाई तो बहुत दूर पीने के पानी के भी लाले पड़े हैं. बड़ी नदियों में से एक काली सिंध में पानी का जल स्तर तेजी से घट रहा है. राजगढ़ जिले के सारंगपुर क्षेत्र के लिए इस नदी को जीवनदायिनी की संज्ञा दी गई है, लेकिन इस बार पानी की कमी के चलते इस क्षेत्र को अभावग्रस्त घोषित कर दिया गया. इसके बावजूद क्षेत्र की नदी व अन्य जलस्रोतों से पानी के खुले आम दोहन के कारण नदी का जलस्तर तेजी से गिर रहा है.
हालांकि जलस्रोतों के दोहन पर रोक लगा दी गई है. लेकिन किसान सिंचाई के लिए निरंतर जलस्रोतों से पानी ले रहे हैं. बारिश नहीं होने से स्थिति भयावह हुई है और इसका असर भूजल स्रोतों पर भी पड़ा है. पानी की कमी वाले क्षेत्रों में समस्या शुरू हो गई है. प्रदेश में ऐसी स्थितियां बनती रहती हैं, मगर इसके स्थायी हल की ओर बढ़ने की ईमानदार कोशिश अब तक नहीं की गई है. जल अभावग्रस्त तथा सूखा प्रभावित क्षेत्रों में बांध बनाने और पानी रोकने का काम शुरू किया जाना आवश्यक समझा जाना चाहिए. छोटी-छोटी नदियों में डैम और बांध बनाने का काम तो शीघ्रता से शुरू करने की जरूरत है.
इन क्षेत्रों की समस्याओं के मद्देनजर राहत कार्य शुरू नहीं किया गया. जबकि बांध बनाने और जल संरचनाएं तैयार करने के काम में अभावग्रस्त लोगों को लगाकर उन्हें राहत दी जा सकती है. नदियों को जलस्रोतों को संरक्षित करने की ठोस योजना बनाने के साथ-साथ यह ध्यान में लाना जरूरी है कि बड़ी नदियों को पानी देने वाले स्रोतों को भी संरक्षित किया जाए. राहत कार्यों को पूरी पारदर्शिता और तत्परता से लागू करने की भी जरूरत है. आने वाले दिनों में पेयजल की कमी को देखते हुए इसकी मुक6मल व्यवस्था की जानी चाहिए. बहरहाल, अब आवश्यकता इस बात की है कि इन समस्याओं का स्थायी हल निकाला जाए ताकि आने वाले दिनों में पीने और सिंचाई के लिए पानी की कमी नहीं हो.
हालांकि जलस्रोतों के दोहन पर रोक लगा दी गई है. लेकिन किसान सिंचाई के लिए निरंतर जलस्रोतों से पानी ले रहे हैं. बारिश नहीं होने से स्थिति भयावह हुई है और इसका असर भूजल स्रोतों पर भी पड़ा है. पानी की कमी वाले क्षेत्रों में समस्या शुरू हो गई है. प्रदेश में ऐसी स्थितियां बनती रहती हैं, मगर इसके स्थायी हल की ओर बढ़ने की ईमानदार कोशिश अब तक नहीं की गई है. जल अभावग्रस्त तथा सूखा प्रभावित क्षेत्रों में बांध बनाने और पानी रोकने का काम शुरू किया जाना आवश्यक समझा जाना चाहिए. छोटी-छोटी नदियों में डैम और बांध बनाने का काम तो शीघ्रता से शुरू करने की जरूरत है.
इन क्षेत्रों की समस्याओं के मद्देनजर राहत कार्य शुरू नहीं किया गया. जबकि बांध बनाने और जल संरचनाएं तैयार करने के काम में अभावग्रस्त लोगों को लगाकर उन्हें राहत दी जा सकती है. नदियों को जलस्रोतों को संरक्षित करने की ठोस योजना बनाने के साथ-साथ यह ध्यान में लाना जरूरी है कि बड़ी नदियों को पानी देने वाले स्रोतों को भी संरक्षित किया जाए. राहत कार्यों को पूरी पारदर्शिता और तत्परता से लागू करने की भी जरूरत है. आने वाले दिनों में पेयजल की कमी को देखते हुए इसकी मुक6मल व्यवस्था की जानी चाहिए. बहरहाल, अब आवश्यकता इस बात की है कि इन समस्याओं का स्थायी हल निकाला जाए ताकि आने वाले दिनों में पीने और सिंचाई के लिए पानी की कमी नहीं हो.
नहरों के भरोसे नदियों को जीवनदान
अंबरीश कुमार
उत्तर प्रदेश में नदियों को बचाने का आजकल एक अनूठा प्रयोग चल रहा है. नदियों को बचाने के लिए नहरों से पानी छोड़ा जा रहा है. सई और रारी नदियों में यह सरकारी प्रयोग हो चुका है.
लखनऊ के बगल में सई नदी सूखी तो उसे बचाने के लिए पानी भरा गया. लेकिन नदियों को बहाने के ऐसे औपचारिक प्रयास रारी नदी पर सफल नहीं हुए. नहर से छोड़ा गया पानी कुछ ही घंटों में सूख गया. सिचाईं विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं कि नदियों से नहरों को पानी मिलता है लेकिन अब सरकारी आदेश है इसलिए काश्तकारों के हिस्से का पानी नदियों में छोड़ा जा रहा है.
फिर भी नदियों के भरोसे कितनी नदियों को जीवित किया जा सकता है? अयोध्या में सरयू का ज्यादातर हिस्सा रेत के टीले में बदलता जा रहा है. राम के जन्मभूमि में ही यह नदी अब अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है. उत्तर प्रदेश में कोई दर्जनभर नदियां इतिहास बनने के मुहाने पर हैं. कुछ का पानी खत्म हो रहा है तो कुछ में पानी के नाम पर औद्योगिक कचरा बह रहा है. बुंदेलखण्ड में बिषाहिल और बाणगंगा सूख गयी है. बागेन और केन की धार टूट रही है. बेतवा हमीरपुर तक आते-आते लड़खड़ाने लगती है.
चित्रकूट में बाणगंगा के बारे में कहा जाता है कि खुद भगवान श्रीराम ने इसे पाताल से निकाला था. जैसे आज बुंदेलखण्ड पानी के संकट से जूझ रहा है उस समय भी लोगों को पानी का संकट था. लोगों ने रामजी से प्रार्थना की और रामजी ने धरती को बाण से चीरकर जो जलधारा निकाली थी वह बाणगंगा बन गयी.
बड़ी नदियों में गंगा, यमुना और गोमती की भी हालत बुरी है. कानपुर में तो गंगा छूने लायक भी नहीं बचीं. हमीरपुर में यमुना का हाल बेहाल है. राजधानी लखनऊ में गोमती कचरे के ढेर में बदल गयी है. चंद्रावल, धसान, घाघरा, राप्ती नदियों में भी पानी कम होता जा रहा है और प्रदूषण बढ़ता जा रहा है. चंबल की थोड़ी चर्चा एक बार फिर हुई है लेकिन चर्चा का कारण पानी नहीं बल्कि घड़ियालों की मौत है.
गोमती और उसकी सहायक नदियों को बचाने के लिए गोमती अभियान की शुरूआत की गयी है. गोमती नदी गंगा से भी पुरानी मानी जाती है. मान्यता है कि मनु-सतरूपा ने इसी नदी के किनारे यज्ञ किया था और इसी नदी के किनारे नैमिषारण्य में 33 करोड़ देवी-देवताओं ने तपस्या की थी. लेकिन अब गोमती का पानी विषैला बन चुका है. लखनऊ में ही गोमती नदी का पानी काला पड़ चुका है. गोमती की सहायक नदियां दिन-रात इसमें कथिना चीनी मिलों का कचरा लाकर इसमें उड़ेल रही हैं. पीलीभीत के गोमथ तालाब से निकलनेवाली गोमती उत्तर प्रदेश में करीब 900 किलोमीटर की यात्रा करके जौनपुर में गंगा में समाहित हो जाती है.
आईटीआरसी के शोधपत्र के मुताबिक चीनी मिलों और शराब के कारखानों के औद्योगिक कचरे के कारण यह नदी बुरी तरह प्रदूषित हो चुकी है. सहायक नदियों का पानी सूख गया है और गोमती में जो कुछ पहुंचता है वह पानी नहीं बल्कि औद्योगिक कचरा होता है. अकेले लखनऊ शहर से ही इस नदी में 27 नालों से कचरा उड़ेला जाता है. जानकार बताते हैं कि गोमती की इस दुर्दशा के लिए वे मिले ज्यादा जिम्मेदार हैं जो अपना कचरा इस नदीं में उड़ेलती हैं. इन चीनी मिलों में हालांकि शोधन यंत्र लगे हुए हैं लेकिन उन्हें चलाया नहीं जाता और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड भी ऐसी मिलों के साथ मिलीभगत के चलते कभी कोई कार्रवाई भी नहीं करते.
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उत्तर प्रदेश में नदियों को बचाने का आजकल एक अनूठा प्रयोग चल रहा है. नदियों को बचाने के लिए नहरों से पानी छोड़ा जा रहा है. सई और रारी नदियों में यह सरकारी प्रयोग हो चुका है.
लखनऊ के बगल में सई नदी सूखी तो उसे बचाने के लिए पानी भरा गया. लेकिन नदियों को बहाने के ऐसे औपचारिक प्रयास रारी नदी पर सफल नहीं हुए. नहर से छोड़ा गया पानी कुछ ही घंटों में सूख गया. सिचाईं विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं कि नदियों से नहरों को पानी मिलता है लेकिन अब सरकारी आदेश है इसलिए काश्तकारों के हिस्से का पानी नदियों में छोड़ा जा रहा है.
फिर भी नदियों के भरोसे कितनी नदियों को जीवित किया जा सकता है? अयोध्या में सरयू का ज्यादातर हिस्सा रेत के टीले में बदलता जा रहा है. राम के जन्मभूमि में ही यह नदी अब अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है. उत्तर प्रदेश में कोई दर्जनभर नदियां इतिहास बनने के मुहाने पर हैं. कुछ का पानी खत्म हो रहा है तो कुछ में पानी के नाम पर औद्योगिक कचरा बह रहा है. बुंदेलखण्ड में बिषाहिल और बाणगंगा सूख गयी है. बागेन और केन की धार टूट रही है. बेतवा हमीरपुर तक आते-आते लड़खड़ाने लगती है.
चित्रकूट में बाणगंगा के बारे में कहा जाता है कि खुद भगवान श्रीराम ने इसे पाताल से निकाला था. जैसे आज बुंदेलखण्ड पानी के संकट से जूझ रहा है उस समय भी लोगों को पानी का संकट था. लोगों ने रामजी से प्रार्थना की और रामजी ने धरती को बाण से चीरकर जो जलधारा निकाली थी वह बाणगंगा बन गयी.
बड़ी नदियों में गंगा, यमुना और गोमती की भी हालत बुरी है. कानपुर में तो गंगा छूने लायक भी नहीं बचीं. हमीरपुर में यमुना का हाल बेहाल है. राजधानी लखनऊ में गोमती कचरे के ढेर में बदल गयी है. चंद्रावल, धसान, घाघरा, राप्ती नदियों में भी पानी कम होता जा रहा है और प्रदूषण बढ़ता जा रहा है. चंबल की थोड़ी चर्चा एक बार फिर हुई है लेकिन चर्चा का कारण पानी नहीं बल्कि घड़ियालों की मौत है.
गोमती और उसकी सहायक नदियों को बचाने के लिए गोमती अभियान की शुरूआत की गयी है. गोमती नदी गंगा से भी पुरानी मानी जाती है. मान्यता है कि मनु-सतरूपा ने इसी नदी के किनारे यज्ञ किया था और इसी नदी के किनारे नैमिषारण्य में 33 करोड़ देवी-देवताओं ने तपस्या की थी. लेकिन अब गोमती का पानी विषैला बन चुका है. लखनऊ में ही गोमती नदी का पानी काला पड़ चुका है. गोमती की सहायक नदियां दिन-रात इसमें कथिना चीनी मिलों का कचरा लाकर इसमें उड़ेल रही हैं. पीलीभीत के गोमथ तालाब से निकलनेवाली गोमती उत्तर प्रदेश में करीब 900 किलोमीटर की यात्रा करके जौनपुर में गंगा में समाहित हो जाती है.
आईटीआरसी के शोधपत्र के मुताबिक चीनी मिलों और शराब के कारखानों के औद्योगिक कचरे के कारण यह नदी बुरी तरह प्रदूषित हो चुकी है. सहायक नदियों का पानी सूख गया है और गोमती में जो कुछ पहुंचता है वह पानी नहीं बल्कि औद्योगिक कचरा होता है. अकेले लखनऊ शहर से ही इस नदी में 27 नालों से कचरा उड़ेला जाता है. जानकार बताते हैं कि गोमती की इस दुर्दशा के लिए वे मिले ज्यादा जिम्मेदार हैं जो अपना कचरा इस नदीं में उड़ेलती हैं. इन चीनी मिलों में हालांकि शोधन यंत्र लगे हुए हैं लेकिन उन्हें चलाया नहीं जाता और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड भी ऐसी मिलों के साथ मिलीभगत के चलते कभी कोई कार्रवाई भी नहीं करते.
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पानी के पत्रकार श्रीपद्रे से बातचीत
विकास पाण्डेय
श्रीपद्रे 70 के दशक से पानी की पत्रकारिता कर रहे हैं. 20 साल तक अदिके पत्रिका के मानद संपादक रहे. श्री पानी की रिपोर्टिंग करते हैं और लोग श्री के जरिए पानीदार भारत को समझते हैं.
क्या मुख्यधारा की पत्रकारिता पानी, पर्यावरण और गांव को वह महत्व दे रहा है जो उसकी जिम्मेदारी है?
ये ऐसे विषय हैं जिनकी रिपोर्टिंग करने के लिए आपको जमीनी स्तर पर जमकर काम करना होगा और अपनी समझ साफ रखनी होगी. अगर ऐसा नहीं है तो आप ऐसे विषयों के साथ न्याय नहीं कर सकते. इसे दुर्भाग्य ही कहिए आजकल आरामदायक कुर्सी पर बैठकर खेती-बाड़ी की रिपोर्टिंग की जाती है.
क्या इसके पीछे बाजार के ताकतों का हाथ है?
बहुत बार ऐसा होता है कि जब पत्रकार किसी जनपक्षीय मुद्दे की रिपोर्टिंग करता है तो प्रबंधन बाजार और विज्ञापन के दबाव में इस तरह की रिपोर्टिंग को दबाने की कोशिश करता है. फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तमाम खतरों के बावजूद इस देश में सच्चाई को रिपोर्ट करने की महान परंपरा रही है. लेकिन यह सच है कि वास्तविक मुद्दों से पत्रकारों की दूरी तो बढ़ी है. संभवतः यह बाजार की चमक-दमक का नतीजा है. इससे पार पाना इतना आसान नहीं होगा.
वर्षाजल संरक्षण पर आपका काफी काम हमारे सामने है. इस बात पर इतना जोर क्यों?
आखिरकार यह विज्ञान है. यह विशेष और बहुत व्यवस्थित ज्ञान है. इस विज्ञान को समझने के लिए आपको यह समझना होगा कि वर्षा का पैटर्न क्या है, मिट्टी कैसी है, जमीन के अंदर पानी का रिसाव/भराव कैसे होता है. इसके बाद ही हम किसी निष्कर्ष पह पहुंचते हैं. यह कितना आसान या मुश्किल है यह इस बात से तय होता है कि जमीन कैसी है. वैद्य के पास हजार लोग पेट में तकलीफ की शिकायत लेकर आते हैं तो वह सबको एक ही औषधि तो नहीं बताता. जैसे लक्षण होते हैं वैसा उपचार किया जाता है. इसीलिए मैं वर्षा जल संचय को एक विज्ञान कहता हूं जिसे समझने के लिए समझ और धैर्य दोनों जरूरी है.
क्या आपको लगता है कि पर्यावरण को रिपोर्ट करने में मीडिया हिचकता है?
मुझे ऐसा नहीं लगता. पत्रकारिता की पढ़ाई कहती है कि रिपोर्ट करने से पहले आपको विषय का चुनाव करना होता है. लेकिन जब आप पर्यावरण और गांव की रिपोर्टिंग करने जाते हैं तो यह सिद्धांत लागू नहीं होता. वहां आपको विषय की पहचान करनी होती है. जरूरी नहीं कि आप इंटरनेट पर बैठे-बैठे भारत के गांवों में घटनेवाली घटनाओं और वहां की समस्याओं के बारे में जान ही पायें. उन्हें जानने के लिए उनके बीच जाना होगा. कई बार ऐसा होता है कि आप जो कल्पना भी नहीं कर सकते वह घटना आपके सामने होती है. अब सवाल यह है कि आप उसको रिपोर्ट कैसे करेंगे. मीडिया के अधिकांश लोग यहीं चूक जाते हैं. इसलिए मैं कहता हूं कि गांव और पर्यावरण को रिपोर्ट करना है अपनी तरह से उनके बारे में मत सोचिए, उनकी तरह से उनको देखिए.
वेस्टर्न घाट का क्या मुद्दा है?
वेस्टर्न घाट ही नहीं, पूरा प्रदेश और पूरे देश की कृषि इस समय गंभीर संकट में है. जिस देश में खेती सबसे ज्यादा सुरक्षित जीविका का साधन था वहां अब खेती करना बड़ी चुनौती हो गयी है. लागत में बेतहाशा वृद्धि हुई है. खेती में मजदूरों की दिनों-दिन किल्लत बढ़ती जा रही है.
सरकार की सोच-समझ और योजनाओं पर आप क्या कहते हैं?
इस देश में जो राजनीतिज्ञ और नौकरशाह नीतियां बनाते हैं उनका जमीनी हकीकत से कुछ लेना-देना नहीं होता. नीतियों और वास्तविक जरूरतों में भारी अंतर है. इसके बावजूद हमारे नीतिकार कभी जमीनी हकीकतों को समझने की भी कोशिश नहीं करते. आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इतने संकटों के बावजूद दूर-दराज के इलाकों में जो किसान परंपरागतरूप से खेती कर रहे हैं वे खुश हैं. क्यों? क्योंकि उनके ऊपर योजनाओं की मार नहीं पड़ी है. अभी हाल में ही मैं कोलार के एक दूर दराज के गांव में गया था. वहां पहुंचना भी मुश्किल क्योंकि सड़क वगैरह की कोई खास सुविधा नहीं है. इसलिए प्लानिंग कमीशनवाले लोग उन्हें अभी तक शिक्षित करने नहीं पहुंचे हैं. वहां किसी प्रकार का कोई बोरवेल नहीं है फिर भी उनको यथेष्ट पानी मिलता है. पानी की उनकी अपनी व्यवस्था है और उन्हें किसी प्रकार के प्लानिंग की जरूरत नहीं है. वे खेती से खुश हैं.
और सरकार की ऋणनीति के बारे में?
मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि किसानों को मदद करने का यह ठीक रास्ता नहीं है. हमें यह समझना होगा कि किसानों का बड़ा वर्ग जिसे सचमुच मदद की जरूरत है वह बैंकों की पहुंच से दूर है. इसके कई सारे कारण हैं. क्या उन नीतियों का ऐसे किसानों के लिए कोई मतलब रह जाता है जो बैंकों के दायरे में ही नहीं है.
किसानों की बढ़ती आत्महत्या के लिए आप किसे जिम्मेदार मानते हैं.?
कुछ घटनाओं को छोड़ दें तो सरकार की नीतियां ही किसानों के लिए पैदा हुई इस विपदा की जिम्मेदार हैं. जो सबका पेट भरता है उसके साथ हम दोयम दर्जे के नागरिक का व्यवहार करते हैं. सरकार को भूल जाईये. समाज और पत्रकार भी तो उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक ही मानती है.
तो क्या वैकल्पिक मीडिया ही अब एकमात्र रास्ता होगा?
वैकल्पिक मीडिया वह शून्य नहीं भर सकता जो मुख्यधारा की मीडिया तैयार कर रही है. ब्लाग और कम्प्यूटर कुछ हद तक इस शून्य को भर सकते हैं. मैं यह नहीं मानता कि कम्प्यूटर गरीब के आंसू नहीं पोंछ सकता. मेरा मानना है कि तकनीकि अपनेआप में सुविधा प्रदान करती है अब यह प्रयोग करनेवाले पर निर्भर करता है कि वह उसका कैसा उपयोग करता है.
अदिके पत्रिका की शुरूआत में क्या दिक्कते आयीं. उस दौर में किसानों के लिए पत्रिका निकालना कितना मुश्किल था?
खेती की पत्रकारिता करने के लिए आपकी सबसे बड़ी पूंजी है आपकी विश्वसनीयता. कारण साफ है. आप जो लिखते हैं हजारों किसान उस पर अमल करते हैं. उसे पढ़कर अपने खेतों में प्रयोग करते हैं. और जब परिणाम आता है तो आपके लिखे और परिणाम में अंतर हुआ तो आपकी विश्वनीयता पर संकट खड़ा हो जाता है. इसलिए खेती के पत्रकार को तब तक किसी रिपोर्ट या सूचना को नहीं छापना होता जब तक उस रिपोर्ट की विश्वसनीयता पूरी तरह सिद्ध न हो जाए.
फिर भी मैं मानता हूं कि खेती के रिपोर्टिंग की सबसे बड़ी समस्या यह है कि किसान लिखता नहीं और लिखनेवाला किसानी नहीं करता. यह सबसे बड़ी चुनौती है. मेरा दो दशक का अनुभव है कि किसानों से लिखवाना बहुत मुश्किल है, फिर भी असंभव नहीं.
श्रीपद्रे के बारे में
साभार- http://visfot.com
श्रीपद्रे 70 के दशक से पानी की पत्रकारिता कर रहे हैं. 20 साल तक अदिके पत्रिका के मानद संपादक रहे. श्री पानी की रिपोर्टिंग करते हैं और लोग श्री के जरिए पानीदार भारत को समझते हैं.
क्या मुख्यधारा की पत्रकारिता पानी, पर्यावरण और गांव को वह महत्व दे रहा है जो उसकी जिम्मेदारी है?
ये ऐसे विषय हैं जिनकी रिपोर्टिंग करने के लिए आपको जमीनी स्तर पर जमकर काम करना होगा और अपनी समझ साफ रखनी होगी. अगर ऐसा नहीं है तो आप ऐसे विषयों के साथ न्याय नहीं कर सकते. इसे दुर्भाग्य ही कहिए आजकल आरामदायक कुर्सी पर बैठकर खेती-बाड़ी की रिपोर्टिंग की जाती है.
क्या इसके पीछे बाजार के ताकतों का हाथ है?
बहुत बार ऐसा होता है कि जब पत्रकार किसी जनपक्षीय मुद्दे की रिपोर्टिंग करता है तो प्रबंधन बाजार और विज्ञापन के दबाव में इस तरह की रिपोर्टिंग को दबाने की कोशिश करता है. फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तमाम खतरों के बावजूद इस देश में सच्चाई को रिपोर्ट करने की महान परंपरा रही है. लेकिन यह सच है कि वास्तविक मुद्दों से पत्रकारों की दूरी तो बढ़ी है. संभवतः यह बाजार की चमक-दमक का नतीजा है. इससे पार पाना इतना आसान नहीं होगा.
वर्षाजल संरक्षण पर आपका काफी काम हमारे सामने है. इस बात पर इतना जोर क्यों?
आखिरकार यह विज्ञान है. यह विशेष और बहुत व्यवस्थित ज्ञान है. इस विज्ञान को समझने के लिए आपको यह समझना होगा कि वर्षा का पैटर्न क्या है, मिट्टी कैसी है, जमीन के अंदर पानी का रिसाव/भराव कैसे होता है. इसके बाद ही हम किसी निष्कर्ष पह पहुंचते हैं. यह कितना आसान या मुश्किल है यह इस बात से तय होता है कि जमीन कैसी है. वैद्य के पास हजार लोग पेट में तकलीफ की शिकायत लेकर आते हैं तो वह सबको एक ही औषधि तो नहीं बताता. जैसे लक्षण होते हैं वैसा उपचार किया जाता है. इसीलिए मैं वर्षा जल संचय को एक विज्ञान कहता हूं जिसे समझने के लिए समझ और धैर्य दोनों जरूरी है.
क्या आपको लगता है कि पर्यावरण को रिपोर्ट करने में मीडिया हिचकता है?
मुझे ऐसा नहीं लगता. पत्रकारिता की पढ़ाई कहती है कि रिपोर्ट करने से पहले आपको विषय का चुनाव करना होता है. लेकिन जब आप पर्यावरण और गांव की रिपोर्टिंग करने जाते हैं तो यह सिद्धांत लागू नहीं होता. वहां आपको विषय की पहचान करनी होती है. जरूरी नहीं कि आप इंटरनेट पर बैठे-बैठे भारत के गांवों में घटनेवाली घटनाओं और वहां की समस्याओं के बारे में जान ही पायें. उन्हें जानने के लिए उनके बीच जाना होगा. कई बार ऐसा होता है कि आप जो कल्पना भी नहीं कर सकते वह घटना आपके सामने होती है. अब सवाल यह है कि आप उसको रिपोर्ट कैसे करेंगे. मीडिया के अधिकांश लोग यहीं चूक जाते हैं. इसलिए मैं कहता हूं कि गांव और पर्यावरण को रिपोर्ट करना है अपनी तरह से उनके बारे में मत सोचिए, उनकी तरह से उनको देखिए.
वेस्टर्न घाट का क्या मुद्दा है?
वेस्टर्न घाट ही नहीं, पूरा प्रदेश और पूरे देश की कृषि इस समय गंभीर संकट में है. जिस देश में खेती सबसे ज्यादा सुरक्षित जीविका का साधन था वहां अब खेती करना बड़ी चुनौती हो गयी है. लागत में बेतहाशा वृद्धि हुई है. खेती में मजदूरों की दिनों-दिन किल्लत बढ़ती जा रही है.
सरकार की सोच-समझ और योजनाओं पर आप क्या कहते हैं?
इस देश में जो राजनीतिज्ञ और नौकरशाह नीतियां बनाते हैं उनका जमीनी हकीकत से कुछ लेना-देना नहीं होता. नीतियों और वास्तविक जरूरतों में भारी अंतर है. इसके बावजूद हमारे नीतिकार कभी जमीनी हकीकतों को समझने की भी कोशिश नहीं करते. आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इतने संकटों के बावजूद दूर-दराज के इलाकों में जो किसान परंपरागतरूप से खेती कर रहे हैं वे खुश हैं. क्यों? क्योंकि उनके ऊपर योजनाओं की मार नहीं पड़ी है. अभी हाल में ही मैं कोलार के एक दूर दराज के गांव में गया था. वहां पहुंचना भी मुश्किल क्योंकि सड़क वगैरह की कोई खास सुविधा नहीं है. इसलिए प्लानिंग कमीशनवाले लोग उन्हें अभी तक शिक्षित करने नहीं पहुंचे हैं. वहां किसी प्रकार का कोई बोरवेल नहीं है फिर भी उनको यथेष्ट पानी मिलता है. पानी की उनकी अपनी व्यवस्था है और उन्हें किसी प्रकार के प्लानिंग की जरूरत नहीं है. वे खेती से खुश हैं.
और सरकार की ऋणनीति के बारे में?
मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि किसानों को मदद करने का यह ठीक रास्ता नहीं है. हमें यह समझना होगा कि किसानों का बड़ा वर्ग जिसे सचमुच मदद की जरूरत है वह बैंकों की पहुंच से दूर है. इसके कई सारे कारण हैं. क्या उन नीतियों का ऐसे किसानों के लिए कोई मतलब रह जाता है जो बैंकों के दायरे में ही नहीं है.
किसानों की बढ़ती आत्महत्या के लिए आप किसे जिम्मेदार मानते हैं.?
कुछ घटनाओं को छोड़ दें तो सरकार की नीतियां ही किसानों के लिए पैदा हुई इस विपदा की जिम्मेदार हैं. जो सबका पेट भरता है उसके साथ हम दोयम दर्जे के नागरिक का व्यवहार करते हैं. सरकार को भूल जाईये. समाज और पत्रकार भी तो उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक ही मानती है.
तो क्या वैकल्पिक मीडिया ही अब एकमात्र रास्ता होगा?
वैकल्पिक मीडिया वह शून्य नहीं भर सकता जो मुख्यधारा की मीडिया तैयार कर रही है. ब्लाग और कम्प्यूटर कुछ हद तक इस शून्य को भर सकते हैं. मैं यह नहीं मानता कि कम्प्यूटर गरीब के आंसू नहीं पोंछ सकता. मेरा मानना है कि तकनीकि अपनेआप में सुविधा प्रदान करती है अब यह प्रयोग करनेवाले पर निर्भर करता है कि वह उसका कैसा उपयोग करता है.
अदिके पत्रिका की शुरूआत में क्या दिक्कते आयीं. उस दौर में किसानों के लिए पत्रिका निकालना कितना मुश्किल था?
खेती की पत्रकारिता करने के लिए आपकी सबसे बड़ी पूंजी है आपकी विश्वसनीयता. कारण साफ है. आप जो लिखते हैं हजारों किसान उस पर अमल करते हैं. उसे पढ़कर अपने खेतों में प्रयोग करते हैं. और जब परिणाम आता है तो आपके लिखे और परिणाम में अंतर हुआ तो आपकी विश्वनीयता पर संकट खड़ा हो जाता है. इसलिए खेती के पत्रकार को तब तक किसी रिपोर्ट या सूचना को नहीं छापना होता जब तक उस रिपोर्ट की विश्वसनीयता पूरी तरह सिद्ध न हो जाए.
फिर भी मैं मानता हूं कि खेती के रिपोर्टिंग की सबसे बड़ी समस्या यह है कि किसान लिखता नहीं और लिखनेवाला किसानी नहीं करता. यह सबसे बड़ी चुनौती है. मेरा दो दशक का अनुभव है कि किसानों से लिखवाना बहुत मुश्किल है, फिर भी असंभव नहीं.
श्रीपद्रे के बारे में
साभार- http://visfot.com
निर्मल हुईं अपावन नदियां
नौ साल पहले एक फैक्ट्री के प्रदूषण के चलते चलियार नदी का पानी जहर हो चुका था. मगर फिर व्यापक जनआंदोलन के बाद 1999 में फैक्ट्री बंद हुई और आज चलियार जहर से आजादी पाकर जीवनदायिनी नदी के रूप में फिर से बहने लगी है. के ए शाजी की रिपोर्ट.
केरल की चौथी सबसे बड़ी नदी चलियार में जिंदगी फिर से बहने लगी है. इसका पुनर्जीवन नदी के किनारे बसे मल्लपुरम और कोजिकोड़ जिले के पांच लाख लोगों के लिए भी बड़ी राहत लेकर आया है. चलियार पिछले कई दशक से प्रदूषण की मार झेल रही थी. वजह थी आदित्य बिरला समूह के कारखाने ग्वालियर रेयॉन्स से नदी में समाती गंदगी. एक रिपोर्ट के मुताबिक एक समय तो हालात यहां तक पहुंच गए थे कि इसके पानी एक वक्त था जब नदी के किनारों पर बसे लोग इसके पानी में घुले जहर के फलस्वरूप कैंसर और दूसरी जानलेवा बीमारियों के शिकार हो रहे थे. अब ये खतरा दूर हो गया है. मछलियों की बढ़ती संख्या बता रही है कि चालीस साल तक नदी के पानी में घुला जहर अब खत्म हो गया है.
और कीचड़ में कोई फर्क ही नहीं रह गया था. लेकिन व्यापक जनविरोध के चलते फैक्ट्री बंद होने के नौ साल बाद मावूर और वझाकड़ इलाकों से होकर गुजरने वाली 169 किलोमीटर लंबी चलियार आज फिर से स्वच्छ पानी की अमृतधारा बन गई है. एक वक्त था जब नदी के किनारों पर बसे लोग इसके पानी में घुले जहर के फलस्वरूप कैंसर और दूसरी जानलेवा बीमारियों के शिकार हो रहे थे. अब ये खतरा दूर हो गया है. मछलियों की बढ़ती संख्या बता रही है कि चालीस साल तक नदी के पानी में घुला जहर अब खत्म हो गया है.
चलियार की विपदा की शुरुआत तब हुई जब 1958 में केरल में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई दुनिया की पहली कम्युनिस्ट सरकार अस्तित्व में आई. मुख्यमंत्री ईएमएस नंबूदरीपाद इस आम धारणा को दूर करने के लिए उत्सुक थे कि कम्युनिस्ट हड़ताल करवाकर कारखाने बंद करवा देते हैं और उद्योगों की तरक्की से उन्हें कोई मतलब नहीं. इसलिए उनकी सरकार ने उस समय के सबसे बड़े औद्योगिक घरानों में से एक के साथ समझौते पर दस्तखत किए और 1963 में मावूर में ग्वालियर रेयॉन्स सिल्क लिमिटेड का कारखाना शुरू हुआ. ये राज्य में सबसे बड़ा निजी उपक्रम था और इसे खुश करने के लिए कई तरह की रियायतें दी गईं.
इसकी पहली मार चलियार पर पड़ी. कंपनी को इस बात की छूट थी कि औद्योगिक इस्तेमाल के लिए वो चलियार से जितना चाहे पानी ले सकती है और कारखाने से निकलने वाला कचरा नदी में डाल सकती है. खतरा सामने आने में ज्यादा वक्त नहीं लगा. कारखाना शुरू होने के कुछ समय बाद ही चलियार का पानी पीकर पशुओं के मरने की खबरें आने लगीं. 1965 से चलियार बचाओ समिति के गठन के साथ ही कारखाने के विरोध का सिलसिला शुरू हुआ जिसकी परिणति 1999 में इसके बंद होने के रूप में हुई.
हालांकि इससे 2000 लोग बेरोजगार तो हुए मगर आज वो खुश हैं कि नदी में जिंदगी लौट आई है. इसके फायदे भी दिखाई देने लगे हैं. मछली उद्योग अब एक लाभकारी व्यवसाय बन गया है. पशुओं की संख्या बढ़ रही है. स्थानीय लोगों का स्वास्थ्य पर होने वाला खर्चा काफी कम हो गया है और लोग अब आराम से नदी में तैर और नहा सकते हैं.
जैसा कि विरोध की अगवाई करने वालों में से एक बाबू वर्गिस कहते हैं, “न सिर्फ मछलियों की कई प्रजातियां फिर से पाई जाने लगी हैं बल्कि उनका स्वाद भी पहले से बेहतर है.” वर्गिस उन कुछ लोगों में से एक है जिन्होंने कारखाने को बंद करवाने के लिए चलियार बचाओ अभियान शुरू किया था. ये लोग आज इसलिए भी खुश हैं कि तब औद्योगीकरण और रोजगार की दुहाई देकर अभियान से दूरी बनाने वाले लोग भी जहरमुक्त पानी के फायदों को महसूस कर रहे हैं. चलियार को बचाने के लिए लड़ी गई लड़ाई कई मायनों में अनोखी थी. ये आखिरकार एक बड़े औद्योगिक घराने के खिलाफ मिली जीत थी जिसे इंसानों और पर्यावरण की जरा भी चिंता नहीं थी.
कारखाने के खुलने से इलाके की वन संपदा को भी खासा नुकसान हुआ था. 1963 से 1974 के दौरान राज्य सरकार ने कारखाने को बांस और दूसरी जंगली लकड़ियां भारी छूट देकर महज एक रुपये प्रति टन की अवास्तविक कीमत पर उपलब्ध करवाईं. बिजली की कीमत 40 पैसे प्रति यूनिट रखी गई और चलियार से लिए गए पानी पर तो कोई भी शुल्क नहीं वसूला गया. अनुमान लगाया जा रहा है कि अकेले इन छूटों की कीमत ही करीब तीन हजार करोड़ रुपये बैठती है.
जैसा कि अभियान के लिए अपनी नौकरी तक छोड़ने वाले पत्रकार सी सुरेंद्रनाथ कहते हैं, “कारखाने ने सरकार को नाममात्र की कीमत अदा कर वायानाड इलाके की 90 फीसदी बांस के जंगल खत्म कर दिए और यहां के संवेदनशील पारिस्थिकीय तंत्र को काफी नुकसान पहुंचाया. इसके चलते लोगों को सांस, त्वचा संबंधी और कैंसर जैसी कई घातक बीमारियों का भी शिकार होना पड़ा.” मावूर और वाझाकड़ के बीच नाव चलाने वाले अबदुर्रहमान कहते हैं, “सांस लेने के लिए पर्याप्त ताजा हवा नहीं थी. नवजात बच्चों को अंधापन और मंदबुद्धि जैसी कई बीमारियां हो रहीं थीं.” एक स्थानीय डॉक्टर पी के दिनेश कहते हैं, “कारखाना बंद होने के दो साल के भीतर ही बच्चों में होने वाले सांस संबंधी रोगों में गिरावट आ गई.”
चलियार को बचाने के लिए लड़ी गई लड़ाई कई मायनों में अनोखी थी. ये आखिरकार एक बड़े औद्योगिक घराने के खिलाफ मिली जीत थी जिसे इंसानों और पर्यावरण की जरा भी चिंता नहीं थी. “इस लड़ाई ने एक मरती नदी को नई जिंदगी दी”, कहना है पर्यावरणविद सुगथ कुमारी का. विडंबना ये भी है कि सीपीएम, कांग्रेस और बीजेपी जैसी मुख्यधारा की पार्टियों और उनके मजदूर संगठनों ने हमेशा इस आंदोलन को कमजोर करने की कोशिश की और बिरला के पक्ष में खडीं रहीं.
आंदोलन के केंद्रबिंदु वाझायूर पंचायत के अध्यक्ष के ए रहमान रहे. अभियान में मजबूती से कंधा मिलाने वाले रहमान की जनवरी 1999 में कारखाने के प्रदूषण से हुए कैंसर से मौत हो गई थी. इसके विरोध में एक अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू की गई. मई 1999 में कारखाने ने उत्पादन बंद कर दिया और 2001 में इसे बंद करने की औपचारिक घोषणा कर दी गई.
हालांकि अब इलाके की हवा सल्फाइड की तीखी दुर्गंध से रहित है मगर इस हवा ने जिन लोगों को नुकसान पहुंचाया उन पीड़ितों को मुआवजा मिलना अब भी बाकी है. सुरेंद्रनाथ कहते हैं, “फैक्ट्री बंद होने से हर कोई खुश है मगर कोई भी कंपनी से मुआवजा देने के लिए नहीं कह रहा. शायद इसके लिए एक और संघर्ष छेड़ने की दरकार पड़े.”
आभार - http://www.tehelkahindi.com
केरल की चौथी सबसे बड़ी नदी चलियार में जिंदगी फिर से बहने लगी है. इसका पुनर्जीवन नदी के किनारे बसे मल्लपुरम और कोजिकोड़ जिले के पांच लाख लोगों के लिए भी बड़ी राहत लेकर आया है. चलियार पिछले कई दशक से प्रदूषण की मार झेल रही थी. वजह थी आदित्य बिरला समूह के कारखाने ग्वालियर रेयॉन्स से नदी में समाती गंदगी. एक रिपोर्ट के मुताबिक एक समय तो हालात यहां तक पहुंच गए थे कि इसके पानी एक वक्त था जब नदी के किनारों पर बसे लोग इसके पानी में घुले जहर के फलस्वरूप कैंसर और दूसरी जानलेवा बीमारियों के शिकार हो रहे थे. अब ये खतरा दूर हो गया है. मछलियों की बढ़ती संख्या बता रही है कि चालीस साल तक नदी के पानी में घुला जहर अब खत्म हो गया है.
और कीचड़ में कोई फर्क ही नहीं रह गया था. लेकिन व्यापक जनविरोध के चलते फैक्ट्री बंद होने के नौ साल बाद मावूर और वझाकड़ इलाकों से होकर गुजरने वाली 169 किलोमीटर लंबी चलियार आज फिर से स्वच्छ पानी की अमृतधारा बन गई है. एक वक्त था जब नदी के किनारों पर बसे लोग इसके पानी में घुले जहर के फलस्वरूप कैंसर और दूसरी जानलेवा बीमारियों के शिकार हो रहे थे. अब ये खतरा दूर हो गया है. मछलियों की बढ़ती संख्या बता रही है कि चालीस साल तक नदी के पानी में घुला जहर अब खत्म हो गया है.
चलियार की विपदा की शुरुआत तब हुई जब 1958 में केरल में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई दुनिया की पहली कम्युनिस्ट सरकार अस्तित्व में आई. मुख्यमंत्री ईएमएस नंबूदरीपाद इस आम धारणा को दूर करने के लिए उत्सुक थे कि कम्युनिस्ट हड़ताल करवाकर कारखाने बंद करवा देते हैं और उद्योगों की तरक्की से उन्हें कोई मतलब नहीं. इसलिए उनकी सरकार ने उस समय के सबसे बड़े औद्योगिक घरानों में से एक के साथ समझौते पर दस्तखत किए और 1963 में मावूर में ग्वालियर रेयॉन्स सिल्क लिमिटेड का कारखाना शुरू हुआ. ये राज्य में सबसे बड़ा निजी उपक्रम था और इसे खुश करने के लिए कई तरह की रियायतें दी गईं.
इसकी पहली मार चलियार पर पड़ी. कंपनी को इस बात की छूट थी कि औद्योगिक इस्तेमाल के लिए वो चलियार से जितना चाहे पानी ले सकती है और कारखाने से निकलने वाला कचरा नदी में डाल सकती है. खतरा सामने आने में ज्यादा वक्त नहीं लगा. कारखाना शुरू होने के कुछ समय बाद ही चलियार का पानी पीकर पशुओं के मरने की खबरें आने लगीं. 1965 से चलियार बचाओ समिति के गठन के साथ ही कारखाने के विरोध का सिलसिला शुरू हुआ जिसकी परिणति 1999 में इसके बंद होने के रूप में हुई.
हालांकि इससे 2000 लोग बेरोजगार तो हुए मगर आज वो खुश हैं कि नदी में जिंदगी लौट आई है. इसके फायदे भी दिखाई देने लगे हैं. मछली उद्योग अब एक लाभकारी व्यवसाय बन गया है. पशुओं की संख्या बढ़ रही है. स्थानीय लोगों का स्वास्थ्य पर होने वाला खर्चा काफी कम हो गया है और लोग अब आराम से नदी में तैर और नहा सकते हैं.
जैसा कि विरोध की अगवाई करने वालों में से एक बाबू वर्गिस कहते हैं, “न सिर्फ मछलियों की कई प्रजातियां फिर से पाई जाने लगी हैं बल्कि उनका स्वाद भी पहले से बेहतर है.” वर्गिस उन कुछ लोगों में से एक है जिन्होंने कारखाने को बंद करवाने के लिए चलियार बचाओ अभियान शुरू किया था. ये लोग आज इसलिए भी खुश हैं कि तब औद्योगीकरण और रोजगार की दुहाई देकर अभियान से दूरी बनाने वाले लोग भी जहरमुक्त पानी के फायदों को महसूस कर रहे हैं. चलियार को बचाने के लिए लड़ी गई लड़ाई कई मायनों में अनोखी थी. ये आखिरकार एक बड़े औद्योगिक घराने के खिलाफ मिली जीत थी जिसे इंसानों और पर्यावरण की जरा भी चिंता नहीं थी.
कारखाने के खुलने से इलाके की वन संपदा को भी खासा नुकसान हुआ था. 1963 से 1974 के दौरान राज्य सरकार ने कारखाने को बांस और दूसरी जंगली लकड़ियां भारी छूट देकर महज एक रुपये प्रति टन की अवास्तविक कीमत पर उपलब्ध करवाईं. बिजली की कीमत 40 पैसे प्रति यूनिट रखी गई और चलियार से लिए गए पानी पर तो कोई भी शुल्क नहीं वसूला गया. अनुमान लगाया जा रहा है कि अकेले इन छूटों की कीमत ही करीब तीन हजार करोड़ रुपये बैठती है.
जैसा कि अभियान के लिए अपनी नौकरी तक छोड़ने वाले पत्रकार सी सुरेंद्रनाथ कहते हैं, “कारखाने ने सरकार को नाममात्र की कीमत अदा कर वायानाड इलाके की 90 फीसदी बांस के जंगल खत्म कर दिए और यहां के संवेदनशील पारिस्थिकीय तंत्र को काफी नुकसान पहुंचाया. इसके चलते लोगों को सांस, त्वचा संबंधी और कैंसर जैसी कई घातक बीमारियों का भी शिकार होना पड़ा.” मावूर और वाझाकड़ के बीच नाव चलाने वाले अबदुर्रहमान कहते हैं, “सांस लेने के लिए पर्याप्त ताजा हवा नहीं थी. नवजात बच्चों को अंधापन और मंदबुद्धि जैसी कई बीमारियां हो रहीं थीं.” एक स्थानीय डॉक्टर पी के दिनेश कहते हैं, “कारखाना बंद होने के दो साल के भीतर ही बच्चों में होने वाले सांस संबंधी रोगों में गिरावट आ गई.”
चलियार को बचाने के लिए लड़ी गई लड़ाई कई मायनों में अनोखी थी. ये आखिरकार एक बड़े औद्योगिक घराने के खिलाफ मिली जीत थी जिसे इंसानों और पर्यावरण की जरा भी चिंता नहीं थी. “इस लड़ाई ने एक मरती नदी को नई जिंदगी दी”, कहना है पर्यावरणविद सुगथ कुमारी का. विडंबना ये भी है कि सीपीएम, कांग्रेस और बीजेपी जैसी मुख्यधारा की पार्टियों और उनके मजदूर संगठनों ने हमेशा इस आंदोलन को कमजोर करने की कोशिश की और बिरला के पक्ष में खडीं रहीं.
आंदोलन के केंद्रबिंदु वाझायूर पंचायत के अध्यक्ष के ए रहमान रहे. अभियान में मजबूती से कंधा मिलाने वाले रहमान की जनवरी 1999 में कारखाने के प्रदूषण से हुए कैंसर से मौत हो गई थी. इसके विरोध में एक अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू की गई. मई 1999 में कारखाने ने उत्पादन बंद कर दिया और 2001 में इसे बंद करने की औपचारिक घोषणा कर दी गई.
हालांकि अब इलाके की हवा सल्फाइड की तीखी दुर्गंध से रहित है मगर इस हवा ने जिन लोगों को नुकसान पहुंचाया उन पीड़ितों को मुआवजा मिलना अब भी बाकी है. सुरेंद्रनाथ कहते हैं, “फैक्ट्री बंद होने से हर कोई खुश है मगर कोई भी कंपनी से मुआवजा देने के लिए नहीं कह रहा. शायद इसके लिए एक और संघर्ष छेड़ने की दरकार पड़े.”
आभार - http://www.tehelkahindi.com
ताकि वह झिलमिलाती रहे
उत्तराखंड के झिलमिल झील आरक्षित वन क्षेत्र में प्राकृतिक वन संपदा के अन्वेषण के दौरान विभिन्न प्राकृतिक वानस्पतिक प्रजातियां चिह्नित की गई हैं। यह क्षेत्र एक नवसृजित संरक्षित क्षेत्र है और इसके बारे में अभी कोई अभिलेख उपलब्ध नहीं है। रचना तिवारी अपने इस लेख में राज्य के तराई क्षेत्र की जैव-विविधता के संरक्षण और संवर्धन की आवश्यकता बता रही हैं
झिलमिल झील कटोरीनुमा दलदली क्षेत्र है जो उत्तराखंड में हरिद्वार वन प्रभाग के चिड़ियापुर क्षेत्र में गंगा नदी के बायें तट पर स्थित है। यह झील लगभग 3783.5 हेक्टेयर क्षेत्र में फैली हुई है। जैव-विविधता से भरपूर इस क्षेत्र में हिरणों की पांच प्रजातियां (चीतल, सांभर, काकड़, बारहसिंघा, पाड़ा) हाथी, नीलगाय, तेंदुआ, व बाघ इत्यादि जानवर बहुलता से पाये जाते हैं। सर्दी के मौसम में यहां प्रवासी पक्षी भी आते हैं। यहां लगभग 160 प्रकार के स्थायी व प्रवासी पक्षी पाये जाते हैं। यह क्षेत्र अपनी उत्पादकता के कारण कृषि के लिए भी उपयोगी है तथा बारहसिंघे की एक प्रजाति के लिए प्रसिध्द है। किंतु वन विभाग द्वारा क्षेत्र में अधिक मात्रा में यूकेलिप्टस वृक्षों के रोपण से बारहसिंघों का यह प्राकृतिक आवास सिकुड़ता जा रहा है। झिलमिल झील इस प्रजाति के लिए अंतिम आश्रय स्थल है। अगस्त 2005 में राज्य सरकार ने पारिस्थितिकी, प्राणि जगत, वनस्पति एवं भू-विविधता के आधार पर इसे संरक्षित क्षेत्र घोषित किया है।
बारहसिंघे पहले गंगा व ब्रह्मपुत्र के तटीय वनों में पाये जाते थे। यह प्रजाति सदाबहार दलदली वनों में रहने की आदी है। बढ़ते मानवीय दखल से सिकुड़ते जा रहे वन क्षेत्र के कारण ये बारहसिंघे भी सिमट गए हैं और लुप्त होने की कगार पर हैं।
बारहसिंघे को आईयूसीएन (इंटरनैशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर एंड नेचुरल रिसोर्सेस) द्वारा संकटग्रस्त प्रजाति घोषित किया गया है। पिछली शताब्दी में इनकी संख्या काफी थी किंतु अब शोचनीय दशा तक घट चुकी है। बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप और 'विकास कार्यों' के कारण इनके प्राकृतिक आवास सिमटते जा रहे हैं। झिलमिल झील इस संदर्भ में विशेष संवेदनशील है। यह पर्यावरणविदों के लिए चिंता का बड़ा विषय है।
झिलमिल झील गूजरों व स्थानीय निवासियों की मिलीजुली आबादी वाला क्षेत्र है। ये लोग अपनी रोजमर्रा की जरूरतों की पूर्ति के लिये इन्हीं जंगलों पर निर्भर हैं तथा कृषि व पशुपालन के परंपरागत कार्यों के अलावा मत्स्यपालन, केकड़ा व घोंघा पालन, जड़ी-बूटी उत्पादन इत्यादि का कार्य करते हैं। गांव के लोगों ने इस झील के संरक्षण के लिए जिम्मेदार भूमिका निभायी है। संरक्षण जैसे शब्द से परिचित न होने के बावजूद ये लोग मानव व प्रकृति के सहज रिश्तों व प्राकृतिक नियमों से भलीभांति परिचित हैं।
वन्य जंतुआें की समृध्द विविधता के अतिरिक्त यह क्षेत्र वानस्पतिक विविधता से भी परिपूर्ण है। पिछले दो साल में बारहसिंघों के भोजन व रहन-सहन के तरीकों पर शोध के दौरान इस लेखिका ने कई ऐसी पादप प्रजातियों को चिह्नित किया जिनके इस क्षेत्र में होने की विस्तृत व व्यवस्थित जानकारी पहले उपलब्ध नहीं थी। ये प्रजातियां न सिर्फ औषधीय रूप से, बल्कि यहां के जीव जंतुओं के लिए भी उपयोगी हैं। वस्तुत: यहां का जैव व वानस्पतिक वैविध्य प्रकृति-जीव व मानव के सह-अस्तित्व का अनूठा उदाहरण है और इसे हर हाल में संरक्षित व संवर्धित किये जाने की आवश्यकता है। इससे न सिर्फ पर्यावरणीय संतुलन को बनाये रखने, बल्कि इस क्षेत्र के निवासियों के पारम्परिक जीवन व आजीविका के संवर्धन में भी सहायता मिलेगी। यहां के निवासी अपनी विभिन्न आवश्यकताओं जैसे- चारा, रेशा, ईंधन, जड़ी-बूटियां, इमारती लकड़ी इत्यादि के लिए इसी जंगल पर प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से निर्भर हैं।
जैव-विविधता की प्रचुरता व प्राकृतिक सौंदर्य के कारण इस क्षेत्र में इको-टूरिज्म को भी प्रोत्साहित किया जा सकता है। इससे इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिए स्थायी रोजगार की संभावनाओं में वृध्दि होगी। साथ ही औषधीय पादपों के उचित संरक्षण व संवर्धन के लाभ भी उन तक पहुंच सकेंगे। यूकेलिप्टस की जगह मिश्रित वृक्षों के रोपण पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि जीव-जंतुओं को सहज प्राकृतिक वातावरण मिल सके। शासन द्वारा इस दिशा में प्रयास जरूर किए जा रहे हैं, पर वे पर्याप्त नहीं हैं। उन्हें व्यवस्थित कर उनमें जनसहभागिता को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। इसके साथ ही इस क्षेत्र में वन गूजरों के स्थायी पुनर्वास की भी आवश्यकता है, ताकि जंगल को अनियंत्रित मानवीय हस्तक्षेप से बचाया जा सके।
हिमालय की तराई में इस तरह के वन न सिर्फ जैव-विविधता की दृष्टि से उपयोगी हैं, बल्कि इस क्षेत्र में आवश्यक नमी बनाये रखने में भी सहायक हैं। इसके फलस्वरूप हिमालयी क्षेत्र में वर्षा के लिए आवश्यक स्थितियां बनी रहती हैं। वस्तुत: ये वन संपूर्ण उत्तर भारत की जलचक्रीय इकाई का अभिन्न अंग है। अत: इनके विकास और संरक्षण की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। जलवायु परिवर्तन व अधांधुध दोहन की प्रवृत्ति इन्हें संकट की ओर धकेल रही है। इसके चलते न सिर्फ वन नष्ट होते जा रहे हैं बल्कि संपूर्ण हिमालय भी गहरे पर्यावरणीय संकट से जूझ रहा है। हिमालय का यह संकट संपूर्ण दक्षिण एशिया की मानव सभ्यता का संकट है। अत: इस क्षेत्र व इसी तरह के अन्य वन क्षेत्रों के उचित संरक्षण व संवर्धन की महती आवश्यकता है।
संदर्भबाबू, सी.आर. (1997). हरबेशियस फ्लोरा ऑफ देहरादून, सीएसआईआर पब्लिकेशन, नई दिल्ली
बाबू, एम.एम. इत्यादि (1999), फ्लोरा ऑफ डबल्यूआईआई कैम्पस, चंद्रबणी
गौड़, आर.डी. (1999). फ्लोरा ऑफ द डिस्ट्रिक्ट गढ़वाल नार्थ वेस्ट हिमालया विद एथनोबॉटनिकल नोट्स, ट्रांसमीडिया, 811 पृष्ठ
मेसन, डी., मारबर्गर, जे.ई., अजीत कुमार, सी.आर. तथा प्रसाद, वी.पी. (1996). इलेस्टे्रटड फ्लोरा ऑफ केवलादेव नैशनल पार्क, भरतपुर, राजस्थान। ऑक्फोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, मुम्बई
नोट: नव चिह्नित पादप प्रजातियों की सूची यहां नहीं दी जा रही है। इसके लिए लेखिका रचना तिवारी से ईमेल पर संपर्क करें:
lucygray@gmail.com
झिलमिल झील कटोरीनुमा दलदली क्षेत्र है जो उत्तराखंड में हरिद्वार वन प्रभाग के चिड़ियापुर क्षेत्र में गंगा नदी के बायें तट पर स्थित है। यह झील लगभग 3783.5 हेक्टेयर क्षेत्र में फैली हुई है। जैव-विविधता से भरपूर इस क्षेत्र में हिरणों की पांच प्रजातियां (चीतल, सांभर, काकड़, बारहसिंघा, पाड़ा) हाथी, नीलगाय, तेंदुआ, व बाघ इत्यादि जानवर बहुलता से पाये जाते हैं। सर्दी के मौसम में यहां प्रवासी पक्षी भी आते हैं। यहां लगभग 160 प्रकार के स्थायी व प्रवासी पक्षी पाये जाते हैं। यह क्षेत्र अपनी उत्पादकता के कारण कृषि के लिए भी उपयोगी है तथा बारहसिंघे की एक प्रजाति के लिए प्रसिध्द है। किंतु वन विभाग द्वारा क्षेत्र में अधिक मात्रा में यूकेलिप्टस वृक्षों के रोपण से बारहसिंघों का यह प्राकृतिक आवास सिकुड़ता जा रहा है। झिलमिल झील इस प्रजाति के लिए अंतिम आश्रय स्थल है। अगस्त 2005 में राज्य सरकार ने पारिस्थितिकी, प्राणि जगत, वनस्पति एवं भू-विविधता के आधार पर इसे संरक्षित क्षेत्र घोषित किया है।
बारहसिंघे पहले गंगा व ब्रह्मपुत्र के तटीय वनों में पाये जाते थे। यह प्रजाति सदाबहार दलदली वनों में रहने की आदी है। बढ़ते मानवीय दखल से सिकुड़ते जा रहे वन क्षेत्र के कारण ये बारहसिंघे भी सिमट गए हैं और लुप्त होने की कगार पर हैं।
बारहसिंघे को आईयूसीएन (इंटरनैशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर एंड नेचुरल रिसोर्सेस) द्वारा संकटग्रस्त प्रजाति घोषित किया गया है। पिछली शताब्दी में इनकी संख्या काफी थी किंतु अब शोचनीय दशा तक घट चुकी है। बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप और 'विकास कार्यों' के कारण इनके प्राकृतिक आवास सिमटते जा रहे हैं। झिलमिल झील इस संदर्भ में विशेष संवेदनशील है। यह पर्यावरणविदों के लिए चिंता का बड़ा विषय है।
झिलमिल झील गूजरों व स्थानीय निवासियों की मिलीजुली आबादी वाला क्षेत्र है। ये लोग अपनी रोजमर्रा की जरूरतों की पूर्ति के लिये इन्हीं जंगलों पर निर्भर हैं तथा कृषि व पशुपालन के परंपरागत कार्यों के अलावा मत्स्यपालन, केकड़ा व घोंघा पालन, जड़ी-बूटी उत्पादन इत्यादि का कार्य करते हैं। गांव के लोगों ने इस झील के संरक्षण के लिए जिम्मेदार भूमिका निभायी है। संरक्षण जैसे शब्द से परिचित न होने के बावजूद ये लोग मानव व प्रकृति के सहज रिश्तों व प्राकृतिक नियमों से भलीभांति परिचित हैं।
वन्य जंतुआें की समृध्द विविधता के अतिरिक्त यह क्षेत्र वानस्पतिक विविधता से भी परिपूर्ण है। पिछले दो साल में बारहसिंघों के भोजन व रहन-सहन के तरीकों पर शोध के दौरान इस लेखिका ने कई ऐसी पादप प्रजातियों को चिह्नित किया जिनके इस क्षेत्र में होने की विस्तृत व व्यवस्थित जानकारी पहले उपलब्ध नहीं थी। ये प्रजातियां न सिर्फ औषधीय रूप से, बल्कि यहां के जीव जंतुओं के लिए भी उपयोगी हैं। वस्तुत: यहां का जैव व वानस्पतिक वैविध्य प्रकृति-जीव व मानव के सह-अस्तित्व का अनूठा उदाहरण है और इसे हर हाल में संरक्षित व संवर्धित किये जाने की आवश्यकता है। इससे न सिर्फ पर्यावरणीय संतुलन को बनाये रखने, बल्कि इस क्षेत्र के निवासियों के पारम्परिक जीवन व आजीविका के संवर्धन में भी सहायता मिलेगी। यहां के निवासी अपनी विभिन्न आवश्यकताओं जैसे- चारा, रेशा, ईंधन, जड़ी-बूटियां, इमारती लकड़ी इत्यादि के लिए इसी जंगल पर प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से निर्भर हैं।
जैव-विविधता की प्रचुरता व प्राकृतिक सौंदर्य के कारण इस क्षेत्र में इको-टूरिज्म को भी प्रोत्साहित किया जा सकता है। इससे इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिए स्थायी रोजगार की संभावनाओं में वृध्दि होगी। साथ ही औषधीय पादपों के उचित संरक्षण व संवर्धन के लाभ भी उन तक पहुंच सकेंगे। यूकेलिप्टस की जगह मिश्रित वृक्षों के रोपण पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि जीव-जंतुओं को सहज प्राकृतिक वातावरण मिल सके। शासन द्वारा इस दिशा में प्रयास जरूर किए जा रहे हैं, पर वे पर्याप्त नहीं हैं। उन्हें व्यवस्थित कर उनमें जनसहभागिता को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। इसके साथ ही इस क्षेत्र में वन गूजरों के स्थायी पुनर्वास की भी आवश्यकता है, ताकि जंगल को अनियंत्रित मानवीय हस्तक्षेप से बचाया जा सके।
हिमालय की तराई में इस तरह के वन न सिर्फ जैव-विविधता की दृष्टि से उपयोगी हैं, बल्कि इस क्षेत्र में आवश्यक नमी बनाये रखने में भी सहायक हैं। इसके फलस्वरूप हिमालयी क्षेत्र में वर्षा के लिए आवश्यक स्थितियां बनी रहती हैं। वस्तुत: ये वन संपूर्ण उत्तर भारत की जलचक्रीय इकाई का अभिन्न अंग है। अत: इनके विकास और संरक्षण की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। जलवायु परिवर्तन व अधांधुध दोहन की प्रवृत्ति इन्हें संकट की ओर धकेल रही है। इसके चलते न सिर्फ वन नष्ट होते जा रहे हैं बल्कि संपूर्ण हिमालय भी गहरे पर्यावरणीय संकट से जूझ रहा है। हिमालय का यह संकट संपूर्ण दक्षिण एशिया की मानव सभ्यता का संकट है। अत: इस क्षेत्र व इसी तरह के अन्य वन क्षेत्रों के उचित संरक्षण व संवर्धन की महती आवश्यकता है।
संदर्भबाबू, सी.आर. (1997). हरबेशियस फ्लोरा ऑफ देहरादून, सीएसआईआर पब्लिकेशन, नई दिल्ली
बाबू, एम.एम. इत्यादि (1999), फ्लोरा ऑफ डबल्यूआईआई कैम्पस, चंद्रबणी
गौड़, आर.डी. (1999). फ्लोरा ऑफ द डिस्ट्रिक्ट गढ़वाल नार्थ वेस्ट हिमालया विद एथनोबॉटनिकल नोट्स, ट्रांसमीडिया, 811 पृष्ठ
मेसन, डी., मारबर्गर, जे.ई., अजीत कुमार, सी.आर. तथा प्रसाद, वी.पी. (1996). इलेस्टे्रटड फ्लोरा ऑफ केवलादेव नैशनल पार्क, भरतपुर, राजस्थान। ऑक्फोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, मुम्बई
नोट: नव चिह्नित पादप प्रजातियों की सूची यहां नहीं दी जा रही है। इसके लिए लेखिका रचना तिवारी से ईमेल पर संपर्क करें:
lucygray@gmail.com
पानी की फिक्र : दस मई से पहले धान की नर्सरी नहीं
जैसे-जैसे औद्योगिक इकाइयों की तादाद, किसानों में नकदी फसल उगाने और शीतल पेय कंपनियों की होड़ बढ़ती गई है, भूजल का दोहन तेज हुआ है। इसके चलते बहुत से इलाके बिल्कुल सूख गए हैं। वहां जमीन से पानी खींचना नामुमकिन हो गया है। अनेक क्षेत्रों में जल्दी ही ऐसी स्थिति पैदा होने की आशंका जताई जाने लगी है। भूजल संरक्षण के लिए कुछ राज्य सरकारें छिटपुट उपाय तो करती नजर आती हैं, मगर संकट के मुकाबले यह बहुत कम है। दिल्ली सरकार ने कुछ साल पहले नए नलकूप लगाने पर प्रतिबंध लगा दिया और पहले से मौजूद नलकूपों के इस्तेमाल को नियंत्रित करने के मकसद से शुल्क की दर बढ़ा दी। अब पंजाब सरकार ने सिंचाई के नलकूपों के मनमाने इस्तेमाल करने पर लगाम लगाने की पहल की है। उसने एक अध्यादेश जारी कर दस मई से पहले धान की नर्सरी लगाने और पंद्रह जून से पहले रोपाई शुरू करने पर रोक लगा दी है। अगर कोई किसान ऐसा करता पाया जाएगा तो उसे दस हजार रुपये तक का जुर्माना देना पड़ सकता है। दरअसल, पंजाब में जल्दी धान उगाने की होड़ के चलते बहुत से किसान समय से पहले नर्सरी लगाना और रोपाई करना शुरू कर देते हैं। इससे गर्मी के मौसम में पानी का दोहन काफी बढ़ जाता है। अगर यही काम मानसून आने पर किया जाए तो भू- जल की खपत काफी कम हो जाती है। भू जल पर मंडराने वाले खतरे को पंजाब विश्वविद्यालय के कृषि विशेषज्ञों ने काफी पहले भांप लिया था। अठारह साल पहले ही उन्होंने राज्य सरकार को सुझाव दिया था कि नलकूपों के अंधाधुंध इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए धान की खेती से संबंधित दिशा- निर्देश जारी किए जाएं। मगर राज्य सरकार को अब आकर इसकी सुध आई है जब पंजाब के एक सौ आठ ब्लॉक शुष्क घोषित किए जा चुके हैं।
पंजाब सरकार के ताजा कदम से राज्य में भूजल के बेहिसाब दोहन पर निश्चय ही कुछ लगाम लगेगी। मगर यह उपाय बिल्कुल नाकाफी है। सिंचाई के अलावा भूजल का सबसे ज्यादा दोहन औद्योगिक इकाइयों के लिए यिका जाता है। शीतल पेय और बोतलबंद पानी के कारोबार और कपड़े की रंगाई- धुलाई वगैरह करने वाले कारखानों में भी बड़े पैमाने पर भूल का इस्तेमाल होता है। कई अध्ययनों से जाहिर हो चुका है कि जिन क्षेत्रों में शीतल पेय बनोन के संयंत्र लगे हैं वहां जमीनी पानी का स्तर काफी नीचे चला गया है। इसे लेकर स्थानीय लोगों के विरोध प्रदर्शन होते रहे हैं। कुछ राज्यों ने औद्योगिक इकाइयों में जलशोधन संयंत्र लगाने की अनिवार्यता जरूर लागू की है, मगर इन कंपनियों के मनमाने भू जल दोहन पर रोक लगाने के मद्देनजर कोई व्यावहारिक और पारदर्शी दिशा- निर्देश अब तक नहीं तैयार किया जा सका है। रोजमर्रा के उपयोग लागय पानी की उपलब्धता लगातार कम होते जाना गंभीर चिंता का विषय है। जिन इलाकों में धरती के नीचे पानी है भी वह खेतों में रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग के चलते तेजी से प्रदूषित हो रहा है। लिहाजा, धान की खेती को नियंत्रित करने जैसे हल्के उपायों से भूजल को बचाने का दावा नहीं किया जा सकता। पारंपरिक जल- स्रोतों के संरक्षण के साथ ही सिंचाई और औद्योगिक इकाइयों के लिए हो रही पानी की खपत को नियंत्रित करना होगा।
पंजाब सरकार के ताजा कदम से राज्य में भूजल के बेहिसाब दोहन पर निश्चय ही कुछ लगाम लगेगी। मगर यह उपाय बिल्कुल नाकाफी है। सिंचाई के अलावा भूजल का सबसे ज्यादा दोहन औद्योगिक इकाइयों के लिए यिका जाता है। शीतल पेय और बोतलबंद पानी के कारोबार और कपड़े की रंगाई- धुलाई वगैरह करने वाले कारखानों में भी बड़े पैमाने पर भूल का इस्तेमाल होता है। कई अध्ययनों से जाहिर हो चुका है कि जिन क्षेत्रों में शीतल पेय बनोन के संयंत्र लगे हैं वहां जमीनी पानी का स्तर काफी नीचे चला गया है। इसे लेकर स्थानीय लोगों के विरोध प्रदर्शन होते रहे हैं। कुछ राज्यों ने औद्योगिक इकाइयों में जलशोधन संयंत्र लगाने की अनिवार्यता जरूर लागू की है, मगर इन कंपनियों के मनमाने भू जल दोहन पर रोक लगाने के मद्देनजर कोई व्यावहारिक और पारदर्शी दिशा- निर्देश अब तक नहीं तैयार किया जा सका है। रोजमर्रा के उपयोग लागय पानी की उपलब्धता लगातार कम होते जाना गंभीर चिंता का विषय है। जिन इलाकों में धरती के नीचे पानी है भी वह खेतों में रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग के चलते तेजी से प्रदूषित हो रहा है। लिहाजा, धान की खेती को नियंत्रित करने जैसे हल्के उपायों से भूजल को बचाने का दावा नहीं किया जा सकता। पारंपरिक जल- स्रोतों के संरक्षण के साथ ही सिंचाई और औद्योगिक इकाइयों के लिए हो रही पानी की खपत को नियंत्रित करना होगा।
क्या है पानी का लीकेज? कौन हैं लीकेजर? - मधु भादुरी
किसी सामान्य व्यक्ति से पूछा जाए कि पानी की लीकेज क्या है? तो उसका सीधा सा जवाब होगा जो आप और हम सभी जानते हैं कि पाइप के टूट-फूट हो जाने के कारण बर्बाद होने वाले पानी को पानी की लीकेज कहेंगे। पर दिल्ली जल बोर्ड (डीजेबी) की परिभाषा के अनुसार 'नॉन रेवेन्यू वाटर' लीकेज हैं। दरअसल लीकेज के आड़ में डीजेबी अपनी उस कमी को छिपाने की कोशिश करता है जिसमें वह उस पानी को भी शामिल करता है, जिसका कर वह उगाह पाने में असमर्थ है। इस तरह का लीकेज लगभग 35 से 50 प्रतिशत है। लीकेजर हैं- दिल्ली पुलिस विभाग, अस्पताल, सीपीडब्लूडी, शिक्षण संस्थान, रेलवे सहित कई सरकारी एवं प्राइवेट संस्थान। जिनके झपर डीजेबी का लगभग 93 करोड़ रुपये का बकाया है। यह चौंकाने वाले तथ्य तब सामने आया जब सूचना के अधिकार के तहत श्रीमति मधुभादुरी (रिटायर्ड राजदूत) और वीपी श्रीवास्तव ने जब दिल्ली जल बोर्ड से दस लाख से ऊपर के बकायदारों की जानकारी मांगी। 93 करोड़ की राशि तो मात्र 10 लाख से ऊपर के बकायदारों की है। अगर इससे नीचे का आंकडा मांगे जाए तो 250 करोड़ रुपये से ज्यादा का ही बैठेगा।
'सैंया भये कोतवाल, तो डर काहे का' उक्त कहावत दिल्ली पुलिस पर सही चरितार्थ होती है। दिल्ली के सभी जोनों के विभिन्न थानों के ऊपर दिल्ली जल बोर्ड का करोड़ों का बकाया है, जिसे वह लेने में असमर्थ है। दिल्ली पुलिस जिसका 60प्रतिशत बजट लैप्स हो जाता है, जाने क्यों नहीं जलकर दे रहा है?
प्योर ड्रिंक्स मिनरल वाटर बनाने वाली कम्पनी जो लोगों की प्यास मिनरल वाटर के नाम पर दिल्ली जल बोर्ड के पानी से बुझाती है, की प्यास इतनी ज्यादा है कि उसे जल बोर्ड का 1करोड़ का बकाया देना उचित नहीं लगता। ऐसे ही और कई सरकारी एंव निजी संस्थान पानी का कर देना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। इन्हीं लीकेजर में कई प्राइवेट बिल्डर्स भी हैं, जैसे हूवर बिल्डर्स के मालिक पीके गुप्ता के ऊपर 23 लाख रुपये से ज्यादा का बकाया है और अपने फ्लैट क्रेताओं से वे जलकर वसूल चुके हैं, पर डीजेबी को कर देना नहीं चाहते। ऐसे मगरमच्छ लीकेजरों के सामने झुग्गी वालों का लीकेज तो कुछ भी नहीं है।
लीकेज का कारण पाइप लाइनों का जर्जर होना बताकर लीकेज फ्री बनाने का काम शुरू किया गया, जिसके लिए चालीस करोड़ रूपये के ठेके दिये गये। परन्तु नतीजा सीफ़र। हाल ही में डीजेबी के पूर्व मुख्य अधिकारी राकेश मोहन के यहां पड़े। छापे यही दर्शाते हैं कि बिना भ्रष्ट अधिकारियों की मदद के बिना कोई कैसे इतना बकायेदार हो सकता है?
डीजेबी के अधिकारियों से यह पूछना तो व्यर्थ होगा कि पिछले साल कितने बकायदारों के खिलाफ कानूनी कारवाई की गई? कितनों के कनेक्शन काटे गये? इस राशि को प्राप्त करने के लिए। इन सब बातों पर ध्यान दें तो दिल्ली जल बोर्ड की यह दलील की झुग्गी-झोपड़ी वाले पानी का कर नहीं देते और पानी की लीकेज कर पानी बर्बाद करते हैं तो उन सभी बकाएदारों के सामने ये झुग्गी-झोपडी वाले तो उंट के मुंह में जीरे के समान हैं।
'सैंया भये कोतवाल, तो डर काहे का' उक्त कहावत दिल्ली पुलिस पर सही चरितार्थ होती है। दिल्ली के सभी जोनों के विभिन्न थानों के ऊपर दिल्ली जल बोर्ड का करोड़ों का बकाया है, जिसे वह लेने में असमर्थ है। दिल्ली पुलिस जिसका 60प्रतिशत बजट लैप्स हो जाता है, जाने क्यों नहीं जलकर दे रहा है?
प्योर ड्रिंक्स मिनरल वाटर बनाने वाली कम्पनी जो लोगों की प्यास मिनरल वाटर के नाम पर दिल्ली जल बोर्ड के पानी से बुझाती है, की प्यास इतनी ज्यादा है कि उसे जल बोर्ड का 1करोड़ का बकाया देना उचित नहीं लगता। ऐसे ही और कई सरकारी एंव निजी संस्थान पानी का कर देना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। इन्हीं लीकेजर में कई प्राइवेट बिल्डर्स भी हैं, जैसे हूवर बिल्डर्स के मालिक पीके गुप्ता के ऊपर 23 लाख रुपये से ज्यादा का बकाया है और अपने फ्लैट क्रेताओं से वे जलकर वसूल चुके हैं, पर डीजेबी को कर देना नहीं चाहते। ऐसे मगरमच्छ लीकेजरों के सामने झुग्गी वालों का लीकेज तो कुछ भी नहीं है।
लीकेज का कारण पाइप लाइनों का जर्जर होना बताकर लीकेज फ्री बनाने का काम शुरू किया गया, जिसके लिए चालीस करोड़ रूपये के ठेके दिये गये। परन्तु नतीजा सीफ़र। हाल ही में डीजेबी के पूर्व मुख्य अधिकारी राकेश मोहन के यहां पड़े। छापे यही दर्शाते हैं कि बिना भ्रष्ट अधिकारियों की मदद के बिना कोई कैसे इतना बकायेदार हो सकता है?
डीजेबी के अधिकारियों से यह पूछना तो व्यर्थ होगा कि पिछले साल कितने बकायदारों के खिलाफ कानूनी कारवाई की गई? कितनों के कनेक्शन काटे गये? इस राशि को प्राप्त करने के लिए। इन सब बातों पर ध्यान दें तो दिल्ली जल बोर्ड की यह दलील की झुग्गी-झोपड़ी वाले पानी का कर नहीं देते और पानी की लीकेज कर पानी बर्बाद करते हैं तो उन सभी बकाएदारों के सामने ये झुग्गी-झोपडी वाले तो उंट के मुंह में जीरे के समान हैं।
चित्रकूट की दो नदियां गंदे पानी नालों में तब्दील
रामसेतु के साथ राम के चित्रकूट को बचाने की दिशा में आगे आयें समाजसेवी-राकेश शर्मा
चित्रकूट की यह विश्र्व प्रसिद्घ चौपाई - चित्रकूट के घाट में भई संतन की भीड़। तुलसीदास चंदन घिसैं तिलक देत रघुवीर॥ शायद अब कहानी ही रह जाएगी। क़्योंकि धर्मावलम्बियो के साथ पर्यटन और प्रकृति प्रेमियों के लिए यह किसी दिल दहला देने वाली घटना से कम नहीं होगी कि उनके मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की पावन भूमि चित्रकूट का अस्तित्व पूर्णतः खतरे में दिखलाई देने लग गया है और यहां का कण-कण अपना अस्तित्व बचाने के लिए किसी भागीरथी की राह देखने लग गया है।
क़्योंकि चित्रकूट की पावन मंदाकिनी जहां विलुप्त के कगार पर है वहीं इस गंगा में संगम होने वाली पयस्वनी एवं सरयू नदी का गंदे नाले में तब्दील हो जाना एक बड़ी चिंता का विषय बन गया है। क्योंकि चित्रकूट के सर्वांगीण विकास व प्रकृति संवर्धन के लिये केन्द्र सरकार एवं उत्तर प्रदेश व मध्यप्रदेश सरकारों द्वारा तहे दिल से दिये जाने प्रति वर्ष करोड़ों रुपये की अनुदान राशि अब बहुरूपियों और बेइमानों के बीच बंदरबांट होने से चित्रकूट के अस्तित्व और अस्मिता बचाने के नाम पर सवालिया निशान पैदा करा रही है।
मंदाकिनी एवं पयस्वनी गंगा की संगमस्थली राघव प्रयागघाट का दृश्य।
आज चित्रकूट का कण-कण अपना वजूद खोता जा रहा है और चित्रकूट के विकास के नाम पर काम करने वाले सामाजिक एवं राजनैतिक संस्थानों के साथ शासकीय कार्यालयों में पिछले अनेक वर्षों से बैठे भ्रष्ट अधिकारियों के बीच चित्रकूट का बंटवारा सा दिखने लग गया है। क्योंकि कागजों में तैयार होती चित्रकूट की विकास योजनायें और देश के औद्योगिक प्रतिष्ठस्ननों द्वारा यहां के विकास के लिये दिया जाने वाला करोड़ों रुपया का दान अब महज कागजी खानापूर्ति सा महसूस करा रहा है।
जिसके चलते यहां मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के चित्रकूट में विकास के नाम पर अमर्यादित लूट-खसोट, डकैतों का ताण्डव, नशा तस्कारों के विकसित जाल को चित्रकूट की बर्बादी के प्रमुख कारणों में जाना जाने लगा है। वहीं अधिकारियों की मिलीभगत से चित्रकूट की प्राकृतिक हरियाली को नेस्तनाबूद करने में आमदा खदान माफियाओं द्वारा चित्रकूट के कण-कण को इतिहास के पन्नों में बोझिल किये जाने का नापाक सिलसिला कायम किया जा चुका है अलबात्ता -
चित्रकूट में रम रहे रहिमन अवध नरेश, जा पर विपदा पड़त है सो आवत यहि देस।
पयस्वनी गंगा में पड़ा नगरपालिकाओं का गंदा कचड़ा स्थान-पाल धर्मशाला के पीछे
रहीम द्वारा लिखे इस काव्य में चित्रकूट में विपदा से पीडित होकर आने वाले लोगों को बड़ी राहत मिलने और उसका दुख दूर होने का उल्लेख किया गया है। परन्तु अब शायद ऐसा महसूस नहीं होगा। क़्योंकि इस चित्रकूट का आज रोम-रोम जल रहा है- और कण-कण घायल हो रहा है। इस चित्रकूट में विपात्ति के बाल मंडरारहे हैं और इस बगिया के माली अपने ही चमन को उजाड़ने में मशगूल लग गये हैं ऐसे में भला विपात्ति से घिरे चित्रकूट में आने वाले विपात्तिधारियों की विपात्ति कैसे दूर होगी? यह एक अपने आप में सवाल बन गया है।
क्योंकि सदियों पहले आदि ऋषि अत्रि मुनि की पत्नी सती अनुसुइया के तपोबल से उदगमित होकर अपना 35 किलोमीटर का रमणीक सफर तय करने वाली मंदाकिनी गंगा का वैसे तो संत तुलसीदास की जन्मस्थली राजपुर की यमुना नदी में संगम होने के प्रमाण हैं। परन्तु ऐसा नहीं लगता कि इस पावन गंगा का यह सफर अब आगे भी जारी रहेगा, क्योंकि इस गंगा का दिनों दिन गिरता जलस्तर जहां इसकी विलुप्तता का कारण माना जाने लगा है, वहीं इस गंगा में संगम होने वाली दो प्रमुख नदियों समेत असंख्य जलस्त्रोतों का विलुप्त होकर गंद नालियों में तब्दील होना एक चुनौती भरा प्रश्न आ खड़ा है ? धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार चित्रकूट का पौराणिक इतिहास बनाने वाली इस गंगा के पावन तट में स्थापित स्फटिक शिला के बारे में श्रीरामचरित मानस में संत तुलसीदास लिखते हैं कि-
एक बार चुनि कुसुम सुहाय, निजि कर भूषण राम बनाये।
सीतहिं पहिराये प्रभु सादर, बैठे स्फटिक शिला पर सुन्दर॥
मतलब इस मंदाकिनी गंगा के पावन तट पर भगवान श्रीराम द्वारा अपनी भार्या सीता का फूलों से श्रृंगार करके इस स्थान की शोभा बढ़ाई गयी है। वहीं इसी स्थान पर देवेन्द्र इन्द्र के पुत्र जयन्त द्वारा कौये का भेष बनाकर सीता माता को अपनी चोंच से घायल किये जाने का भी उल्लेख है। जबकि इस गंगा के पावन तट में स्थित राघव प्रयागघाट जिसकी पुण्यता के बारे में आदि कवि महर्षि बाल्मीक द्वारा अपने काव्य ब्रहमा रामायण में यह उल्लेख किया गया है कि-
हनिष्यामि न सन्देहो रावणं लोक कष्टकम।
पयस्वनी ब्रहमकुंडाद भविष्यति नदी परा॥15॥
सम रूपा महामाया परम निर्वाणदायनी।
पुरा मध्ये समुत्पन्ना गायत्री नाम सा सरित्॥ 1 6॥
सीतांशात्सा समुत्पन्ना マभविष्यति न संशयः।
पयस्वनी देव गंगा गायत्रीति सरिद्रयम्॥17॥
तासां सुसंगमं पुण्य तीर्थवृन्द सुसेवितम्।
प्रयागं राघवं नाम भविष्यति न संशयः॥18॥
सभी धार्मिकग्रन्थों में उल्लेखित राघवप्रयाग घाट जहां भगवान श्रीराम ने अपने पिता को तर्पण दिया है।
महर्षि बाल्मीक के अनुसार इस पुनीत घाट में महाराज दशरथ के स्वर्णवास होने की उनके भ्राता भरत एवं शत्रुघ्र द्वारा जानकारी दिये जाने पर भगवान श्रीराम द्वारा अपने स्वर्गवासी पिता को तर्पण एवं कर्मकाण्ड किये जाने का प्रमाण है। और इस पावन घाट पर कामदगिरि के पूर्वी तट में स्थित ब्रह्मास्न् कुंड से पयस्वनी (दूध) गंगा के उदगमित होने के साथ कामदगिरि के उत्तरी तट में स्थित सरयू धारा से सरयू गंगा के प्रवाहित होकर राघव प्रयागघाट में संगम होने के धार्मिक ग्रन्थों में प्रमण झलकाने वाला चित्रकूट का यह ऐतिहासिक स्थल राघव प्रयागघाट वर्तमान परिपेक्ष्य में उत्तर प्रदेश एवं मध्यप्रदेश की सीमा का प्रमुख प्रमाणित केन्द्र भी है।
आज इसी घाट के समीप रामघाट में संत तुलसीदास द्वारा चंदन घिसने और भगवान श्रीराम का अपने भाई लखन के साथ चंदन लगाने का प्रमाण पूरी दुनिया में हर आदमी के जुबान पर आने के बाद चित्रकूट के चित्रण का अहसास कराती है।
वहीं इस घाट के समीप ब्रह्मास्न् पुराण में उल्लेखित यज्ञवेदी घाट, शिव महापुराण में उल्लेखित मत्यगजेन्द्रनाथ घाट के साथ रानी अहिल्याबाई द्वारा बनवाया गया नौमठा घाट और समय-समय पर मंदाकिनी एवं पयस्वनी की इस संगमस्थली से निकलने वाली दुग्धधाराओं की तमाम घटनायें आज भी इस गंगा की पुण्यता को स्पर्श कराती हैं।
हर माह यहां लगने वाले अमावस्या,पूर्णासी के साथ दीपावली, कुम्भ, सोमवती एवं अनेक धार्मिक त्यौहारों में इस गंगा में डुबकी लगाने वाले असंख्य श्रद्घालुओं का सैलाब इस गंगा की पावनता को दूर-दूर तक महिमा मंडित कराता है। परन्तु आज इस गंगा के बिगड़ते जा रहे स्वरूञ्प से यह अहसास होने लग गया है कि अब वह दिन दूर नहीं होगा जब इस गंगा अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। क्योंकि इस गंगा के बारे में संत तुलसीदास द्वारा लिखा गया यह भाव-
नदी पुनीत पुरान बखानी, अत्रि प्रिया निज तप बल आनी।
सुरसरि धार नाम मंदाकिनी, जो सब पातक-कोतक डाकिनी॥
पूर्णतः विपरीत महसूस होने लग जायेगी- क्योंकि धार्मिक ग्रन्थों में पापियों का पाप डाकने वाली इस मंदाकिनी गंगा में अब इतना साहस नहीं रह गया है? कि वह नगर पंचायत व नगर पालिका द्वारा डलवाई जाने वाली ऊपर गंदगी, गंदे नाले, सैप्टिक टैंकों के स्त्रोतों के साथ अपने ही पंडे, पुजारियों, महन्त,मठाधीशों, व्यापारियों-चित्रकूट के सामाजिक, राजनैतिक हस्तियों की गंदगियों को अब अपने आप में स्वीकारें। आज इस पावन गंगा का कण-कण चिप-चिपाते पानी एवं गंदे संक्रञमक कीटाणुओं से ओतप्रोत होने के कारण इस कदर दयनीय हो चुका है। कि इस गंगा का चित्रकूट के बाहर गुणगान करने वाले कथित धर्मपुरोहितों द्वारा भी इसमें स्नान करके पुण्य अर्जन करने से कतराया जाया जाने लगा है? जो धर्म भीरूओं के लिये किसी गंभीर चिंता के विषय से कम तो नहीं है। भगवान श्रीराम के बारह वर्षों की साक्षी इस गंगा कोसमय रहते न बचाया गया तो निश्चित ही इस गंगा के साथ चित्रकूट का भी अस्तित्व समाप्त हो जायेगा और रामचरित मानस की यह चौपाई-
चित्रकूट जहां सब दिन बसत, प्रभु सियलखन समेत।
एक पहेली बन जायेगी।
क्योंकि इस गंगा के विलुप्त होने के बाद न यहां रामघाट होगा- और न ही यहां राघव प्रयागघाट ? अतः सरकार के साथ धर्म क्षेत्रों में तरह-तरह के तरीकों से शंखनाद करके अपना यशवर्धन करने वाले कथित समाज सेवियों को चाहिये कि इस विश्र्व प्रसिद्घ धार्मिक नगरी को बचाने के लिये एकनिश्चित मार्गदर्शिका तैयार कर उसके अनुरूञ्प यहां का विकास कार्य करायें।
साथ ही यहां के विकास के नाम पर काम करने वाले संस्थानों को उचित दिशा निर्देश दें ताकि चित्रकूट के प्राकृञ्तिक और धार्मिक सौन्दर्य एवं धरोहरों के संवर्धन एवं संरक्षण के हित में कार्य कराया जा सके। क्योंकि एक तरफ जहां आज चित्रकूट के सुदूर अंचलों में सदियों से अपनी रमणीकता और धार्मिकता को संजोये अनेक स्थलों का भी समुचित विकास अवरूञ्द्घ है। वहीं आज धार्मिकग्रन्थों में उल्लेखित मोरजध्वज आश्रम, मड़फा आश्रम, देवांगना, कोटितीर्थ, सरभंग आश्रम, सुतिक्षण आश्रम, चन्द्रलोक आश्रम, रामसैया जैसे अनेक ऐतिहासिक एवं पौराणिक स्थल अनेक समस्याओं के चलते चित्रकूट आने वाले करोड़ों धार्मिक एवं पर्यटनीय यात्रियों से दूर है।
जिसके लिये आज भगवान श्रीराम के भक्तञें द्वारा उनके द्वारा बनवाये गये त्रेतायुग में पत्थरों के रामसेतु को बचाने के लिये एक तरफ एकजुट होकर श्रीराम के प्रति अपना प्रेम और कर्तव्य दर्शाने का अभिनय करने वाले धर्म भीरुओं के जेहन में श्रीराम की आस्था का प्रतीक उनका अपना चित्रकूट को चारों तरफ से टूटने के बावजूद कुम्भकरणी निंद्रा में सोना उनकी वास्तविक आस्था पर चिंतन का विषय महसूस कराता है।
भगवान श्रीराम की इस प्रियस्थली चित्रकूट जहां उन्हें भ्राता लखन और उनकी पत्नी सीता की असंख्य लीलायें कण-कण में चित्रित हैं और ऐसे चित्रणों को अपने आंचल में समेटे यह चित्रकूट आज कथित इंसानों की चंद मेहरबानियों के लिये मोहताज सा होना निश्चित ही देशवासियों के लिये किसी गौरव का विषय नहीं है। सीमा विवाद- सम्मान विवाद जैसी अनेक संक्रञमक बीमारियों से ओतप्रोत सृष्टिकाल का यह चित्रकूट आज त्रेता के रामसेतु की तुलना में भी पीछे हो गया है। परन्तु चित्रकूट की जनमानस आज भी इस अपेक्षा में काल्पनिक है कि भगवान श्रीराम के भक्तञें द्वारा अपने भगवान की अस्तित्व स्थली चित्रकूट को बचाने की दिशा में कभी न कभी कोई न कोई पहल अवश्य की जायेगी। और संत तुलसीदास का चित्रकूट के प्रति यह भाव सदियों तक अमर रहे- चित्रकूट गिरि करहु निवासू तहं तुम्हार सब भातिं सुभाषू।
चित्रकूट चिंता हरण आये सुख के चैन, पाप कटत युग चार के देख कामता नैन।
राकेश शर्मा - 9425811633
चित्रकूट की यह विश्र्व प्रसिद्घ चौपाई - चित्रकूट के घाट में भई संतन की भीड़। तुलसीदास चंदन घिसैं तिलक देत रघुवीर॥ शायद अब कहानी ही रह जाएगी। क़्योंकि धर्मावलम्बियो के साथ पर्यटन और प्रकृति प्रेमियों के लिए यह किसी दिल दहला देने वाली घटना से कम नहीं होगी कि उनके मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की पावन भूमि चित्रकूट का अस्तित्व पूर्णतः खतरे में दिखलाई देने लग गया है और यहां का कण-कण अपना अस्तित्व बचाने के लिए किसी भागीरथी की राह देखने लग गया है।
क़्योंकि चित्रकूट की पावन मंदाकिनी जहां विलुप्त के कगार पर है वहीं इस गंगा में संगम होने वाली पयस्वनी एवं सरयू नदी का गंदे नाले में तब्दील हो जाना एक बड़ी चिंता का विषय बन गया है। क्योंकि चित्रकूट के सर्वांगीण विकास व प्रकृति संवर्धन के लिये केन्द्र सरकार एवं उत्तर प्रदेश व मध्यप्रदेश सरकारों द्वारा तहे दिल से दिये जाने प्रति वर्ष करोड़ों रुपये की अनुदान राशि अब बहुरूपियों और बेइमानों के बीच बंदरबांट होने से चित्रकूट के अस्तित्व और अस्मिता बचाने के नाम पर सवालिया निशान पैदा करा रही है।
मंदाकिनी एवं पयस्वनी गंगा की संगमस्थली राघव प्रयागघाट का दृश्य।
आज चित्रकूट का कण-कण अपना वजूद खोता जा रहा है और चित्रकूट के विकास के नाम पर काम करने वाले सामाजिक एवं राजनैतिक संस्थानों के साथ शासकीय कार्यालयों में पिछले अनेक वर्षों से बैठे भ्रष्ट अधिकारियों के बीच चित्रकूट का बंटवारा सा दिखने लग गया है। क्योंकि कागजों में तैयार होती चित्रकूट की विकास योजनायें और देश के औद्योगिक प्रतिष्ठस्ननों द्वारा यहां के विकास के लिये दिया जाने वाला करोड़ों रुपया का दान अब महज कागजी खानापूर्ति सा महसूस करा रहा है।
जिसके चलते यहां मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के चित्रकूट में विकास के नाम पर अमर्यादित लूट-खसोट, डकैतों का ताण्डव, नशा तस्कारों के विकसित जाल को चित्रकूट की बर्बादी के प्रमुख कारणों में जाना जाने लगा है। वहीं अधिकारियों की मिलीभगत से चित्रकूट की प्राकृतिक हरियाली को नेस्तनाबूद करने में आमदा खदान माफियाओं द्वारा चित्रकूट के कण-कण को इतिहास के पन्नों में बोझिल किये जाने का नापाक सिलसिला कायम किया जा चुका है अलबात्ता -
चित्रकूट में रम रहे रहिमन अवध नरेश, जा पर विपदा पड़त है सो आवत यहि देस।
पयस्वनी गंगा में पड़ा नगरपालिकाओं का गंदा कचड़ा स्थान-पाल धर्मशाला के पीछे
रहीम द्वारा लिखे इस काव्य में चित्रकूट में विपदा से पीडित होकर आने वाले लोगों को बड़ी राहत मिलने और उसका दुख दूर होने का उल्लेख किया गया है। परन्तु अब शायद ऐसा महसूस नहीं होगा। क़्योंकि इस चित्रकूट का आज रोम-रोम जल रहा है- और कण-कण घायल हो रहा है। इस चित्रकूट में विपात्ति के बाल मंडरारहे हैं और इस बगिया के माली अपने ही चमन को उजाड़ने में मशगूल लग गये हैं ऐसे में भला विपात्ति से घिरे चित्रकूट में आने वाले विपात्तिधारियों की विपात्ति कैसे दूर होगी? यह एक अपने आप में सवाल बन गया है।
क्योंकि सदियों पहले आदि ऋषि अत्रि मुनि की पत्नी सती अनुसुइया के तपोबल से उदगमित होकर अपना 35 किलोमीटर का रमणीक सफर तय करने वाली मंदाकिनी गंगा का वैसे तो संत तुलसीदास की जन्मस्थली राजपुर की यमुना नदी में संगम होने के प्रमाण हैं। परन्तु ऐसा नहीं लगता कि इस पावन गंगा का यह सफर अब आगे भी जारी रहेगा, क्योंकि इस गंगा का दिनों दिन गिरता जलस्तर जहां इसकी विलुप्तता का कारण माना जाने लगा है, वहीं इस गंगा में संगम होने वाली दो प्रमुख नदियों समेत असंख्य जलस्त्रोतों का विलुप्त होकर गंद नालियों में तब्दील होना एक चुनौती भरा प्रश्न आ खड़ा है ? धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार चित्रकूट का पौराणिक इतिहास बनाने वाली इस गंगा के पावन तट में स्थापित स्फटिक शिला के बारे में श्रीरामचरित मानस में संत तुलसीदास लिखते हैं कि-
एक बार चुनि कुसुम सुहाय, निजि कर भूषण राम बनाये।
सीतहिं पहिराये प्रभु सादर, बैठे स्फटिक शिला पर सुन्दर॥
मतलब इस मंदाकिनी गंगा के पावन तट पर भगवान श्रीराम द्वारा अपनी भार्या सीता का फूलों से श्रृंगार करके इस स्थान की शोभा बढ़ाई गयी है। वहीं इसी स्थान पर देवेन्द्र इन्द्र के पुत्र जयन्त द्वारा कौये का भेष बनाकर सीता माता को अपनी चोंच से घायल किये जाने का भी उल्लेख है। जबकि इस गंगा के पावन तट में स्थित राघव प्रयागघाट जिसकी पुण्यता के बारे में आदि कवि महर्षि बाल्मीक द्वारा अपने काव्य ब्रहमा रामायण में यह उल्लेख किया गया है कि-
हनिष्यामि न सन्देहो रावणं लोक कष्टकम।
पयस्वनी ब्रहमकुंडाद भविष्यति नदी परा॥15॥
सम रूपा महामाया परम निर्वाणदायनी।
पुरा मध्ये समुत्पन्ना गायत्री नाम सा सरित्॥ 1 6॥
सीतांशात्सा समुत्पन्ना マभविष्यति न संशयः।
पयस्वनी देव गंगा गायत्रीति सरिद्रयम्॥17॥
तासां सुसंगमं पुण्य तीर्थवृन्द सुसेवितम्।
प्रयागं राघवं नाम भविष्यति न संशयः॥18॥
सभी धार्मिकग्रन्थों में उल्लेखित राघवप्रयाग घाट जहां भगवान श्रीराम ने अपने पिता को तर्पण दिया है।
महर्षि बाल्मीक के अनुसार इस पुनीत घाट में महाराज दशरथ के स्वर्णवास होने की उनके भ्राता भरत एवं शत्रुघ्र द्वारा जानकारी दिये जाने पर भगवान श्रीराम द्वारा अपने स्वर्गवासी पिता को तर्पण एवं कर्मकाण्ड किये जाने का प्रमाण है। और इस पावन घाट पर कामदगिरि के पूर्वी तट में स्थित ब्रह्मास्न् कुंड से पयस्वनी (दूध) गंगा के उदगमित होने के साथ कामदगिरि के उत्तरी तट में स्थित सरयू धारा से सरयू गंगा के प्रवाहित होकर राघव प्रयागघाट में संगम होने के धार्मिक ग्रन्थों में प्रमण झलकाने वाला चित्रकूट का यह ऐतिहासिक स्थल राघव प्रयागघाट वर्तमान परिपेक्ष्य में उत्तर प्रदेश एवं मध्यप्रदेश की सीमा का प्रमुख प्रमाणित केन्द्र भी है।
आज इसी घाट के समीप रामघाट में संत तुलसीदास द्वारा चंदन घिसने और भगवान श्रीराम का अपने भाई लखन के साथ चंदन लगाने का प्रमाण पूरी दुनिया में हर आदमी के जुबान पर आने के बाद चित्रकूट के चित्रण का अहसास कराती है।
वहीं इस घाट के समीप ब्रह्मास्न् पुराण में उल्लेखित यज्ञवेदी घाट, शिव महापुराण में उल्लेखित मत्यगजेन्द्रनाथ घाट के साथ रानी अहिल्याबाई द्वारा बनवाया गया नौमठा घाट और समय-समय पर मंदाकिनी एवं पयस्वनी की इस संगमस्थली से निकलने वाली दुग्धधाराओं की तमाम घटनायें आज भी इस गंगा की पुण्यता को स्पर्श कराती हैं।
हर माह यहां लगने वाले अमावस्या,पूर्णासी के साथ दीपावली, कुम्भ, सोमवती एवं अनेक धार्मिक त्यौहारों में इस गंगा में डुबकी लगाने वाले असंख्य श्रद्घालुओं का सैलाब इस गंगा की पावनता को दूर-दूर तक महिमा मंडित कराता है। परन्तु आज इस गंगा के बिगड़ते जा रहे स्वरूञ्प से यह अहसास होने लग गया है कि अब वह दिन दूर नहीं होगा जब इस गंगा अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। क्योंकि इस गंगा के बारे में संत तुलसीदास द्वारा लिखा गया यह भाव-
नदी पुनीत पुरान बखानी, अत्रि प्रिया निज तप बल आनी।
सुरसरि धार नाम मंदाकिनी, जो सब पातक-कोतक डाकिनी॥
पूर्णतः विपरीत महसूस होने लग जायेगी- क्योंकि धार्मिक ग्रन्थों में पापियों का पाप डाकने वाली इस मंदाकिनी गंगा में अब इतना साहस नहीं रह गया है? कि वह नगर पंचायत व नगर पालिका द्वारा डलवाई जाने वाली ऊपर गंदगी, गंदे नाले, सैप्टिक टैंकों के स्त्रोतों के साथ अपने ही पंडे, पुजारियों, महन्त,मठाधीशों, व्यापारियों-चित्रकूट के सामाजिक, राजनैतिक हस्तियों की गंदगियों को अब अपने आप में स्वीकारें। आज इस पावन गंगा का कण-कण चिप-चिपाते पानी एवं गंदे संक्रञमक कीटाणुओं से ओतप्रोत होने के कारण इस कदर दयनीय हो चुका है। कि इस गंगा का चित्रकूट के बाहर गुणगान करने वाले कथित धर्मपुरोहितों द्वारा भी इसमें स्नान करके पुण्य अर्जन करने से कतराया जाया जाने लगा है? जो धर्म भीरूओं के लिये किसी गंभीर चिंता के विषय से कम तो नहीं है। भगवान श्रीराम के बारह वर्षों की साक्षी इस गंगा कोसमय रहते न बचाया गया तो निश्चित ही इस गंगा के साथ चित्रकूट का भी अस्तित्व समाप्त हो जायेगा और रामचरित मानस की यह चौपाई-
चित्रकूट जहां सब दिन बसत, प्रभु सियलखन समेत।
एक पहेली बन जायेगी।
क्योंकि इस गंगा के विलुप्त होने के बाद न यहां रामघाट होगा- और न ही यहां राघव प्रयागघाट ? अतः सरकार के साथ धर्म क्षेत्रों में तरह-तरह के तरीकों से शंखनाद करके अपना यशवर्धन करने वाले कथित समाज सेवियों को चाहिये कि इस विश्र्व प्रसिद्घ धार्मिक नगरी को बचाने के लिये एकनिश्चित मार्गदर्शिका तैयार कर उसके अनुरूञ्प यहां का विकास कार्य करायें।
साथ ही यहां के विकास के नाम पर काम करने वाले संस्थानों को उचित दिशा निर्देश दें ताकि चित्रकूट के प्राकृञ्तिक और धार्मिक सौन्दर्य एवं धरोहरों के संवर्धन एवं संरक्षण के हित में कार्य कराया जा सके। क्योंकि एक तरफ जहां आज चित्रकूट के सुदूर अंचलों में सदियों से अपनी रमणीकता और धार्मिकता को संजोये अनेक स्थलों का भी समुचित विकास अवरूञ्द्घ है। वहीं आज धार्मिकग्रन्थों में उल्लेखित मोरजध्वज आश्रम, मड़फा आश्रम, देवांगना, कोटितीर्थ, सरभंग आश्रम, सुतिक्षण आश्रम, चन्द्रलोक आश्रम, रामसैया जैसे अनेक ऐतिहासिक एवं पौराणिक स्थल अनेक समस्याओं के चलते चित्रकूट आने वाले करोड़ों धार्मिक एवं पर्यटनीय यात्रियों से दूर है।
जिसके लिये आज भगवान श्रीराम के भक्तञें द्वारा उनके द्वारा बनवाये गये त्रेतायुग में पत्थरों के रामसेतु को बचाने के लिये एक तरफ एकजुट होकर श्रीराम के प्रति अपना प्रेम और कर्तव्य दर्शाने का अभिनय करने वाले धर्म भीरुओं के जेहन में श्रीराम की आस्था का प्रतीक उनका अपना चित्रकूट को चारों तरफ से टूटने के बावजूद कुम्भकरणी निंद्रा में सोना उनकी वास्तविक आस्था पर चिंतन का विषय महसूस कराता है।
भगवान श्रीराम की इस प्रियस्थली चित्रकूट जहां उन्हें भ्राता लखन और उनकी पत्नी सीता की असंख्य लीलायें कण-कण में चित्रित हैं और ऐसे चित्रणों को अपने आंचल में समेटे यह चित्रकूट आज कथित इंसानों की चंद मेहरबानियों के लिये मोहताज सा होना निश्चित ही देशवासियों के लिये किसी गौरव का विषय नहीं है। सीमा विवाद- सम्मान विवाद जैसी अनेक संक्रञमक बीमारियों से ओतप्रोत सृष्टिकाल का यह चित्रकूट आज त्रेता के रामसेतु की तुलना में भी पीछे हो गया है। परन्तु चित्रकूट की जनमानस आज भी इस अपेक्षा में काल्पनिक है कि भगवान श्रीराम के भक्तञें द्वारा अपने भगवान की अस्तित्व स्थली चित्रकूट को बचाने की दिशा में कभी न कभी कोई न कोई पहल अवश्य की जायेगी। और संत तुलसीदास का चित्रकूट के प्रति यह भाव सदियों तक अमर रहे- चित्रकूट गिरि करहु निवासू तहं तुम्हार सब भातिं सुभाषू।
चित्रकूट चिंता हरण आये सुख के चैन, पाप कटत युग चार के देख कामता नैन।
राकेश शर्मा - 9425811633
उत्तराखंड में 'नदी बचाओ' पदयात्राएं
उत्तराखंड में बन रहे या प्रस्तावित 220 छोटे-बड़े बांधों के कारण यहां की सदानीरा नदियों का अस्तित्व संकट में है। जल विद्युत परियोजनाओं से प्रभावित होने वाले लाखों लोग आंदोलन की राह पर हैं।
नदियों को तेजी से उजाड़ रही जल विद्युत परियोजनाओं के भारी विस्फोटों के कारण मानवकृत भूस्खलन, भू-धंसाव व भूकंप जैसी स्थितियां पैदा हो रही हैं। अचरज इस बात का है कि बांध निर्माण करने वाली सरकार और कम्पनियां जल विद्युत परियोजनाओं से प्रभावित उत्तरकाशी जिले के गांव भंगेली, सुनगर, तिहार, कुंजन, हुर्री, भुक्की, सालंग, पाला, औंगी, कुमाल्टी, सैंज, भखाड़ी, जामक तथा चमोली जिले में चांई और टिहरी जिले में फलेंडा, चानी, बासी आदि गांवों की सुरक्षा, आजीविका और रोजगार की कोई व्यवस्था करने की बजाय पुलिस दमन के सहारे लोगों की आवाज को दबाने का कार्य कर रही हैं।
उत्तराखंड की नदियां प्राणरेखा हैं, जो सात करोड़ से अधिक लोगों को जीवन देती हैं, ये अब सूखने की कगार पर पहुंच गयी हैं। कोसी, नयार, पनार, गौला, नन्धौर जैसी सदाबहार नदियों ने नालों का रूप ले लिया है। इन्हें पुनर्जीवित करने के लिए सरकार के पास कोई योजना नहीं है। स्थानीय लोग इन नदियों के पुराने स्वरूप को वापस लाने के लिए व्यावहारिक सुझाव दे रहे हैं, आन्दोलन कर रहे हैं, लेकिन सरकारों के कान पर जूं नहीं रेंग रही है। इसके विपरीत पानी वाली नदियों को आंख मूंद कर निजी कंपनियों के हवाले जल विद्युत परियोजनाओं के लिए किया जा रहा है।
उत्तराखंड में इस समय विभिन्न नदियों पर 60 जल विद्युत परियोजनाओं का निर्माण निजी कंपनियां कर रही हैं। अनुमान है कि इन परियोजनाओं के पूरा होने पर 763 मेगावाट विद्युत का उत्पादन होगा। इस विद्युत उत्पादन से भले ही भारी राजस्व की प्राप्ति होगी, लेकिन इन परियोजनाओं के कारण प्रभावित होने वाले लगभग 10 लाख लोगों के गोचर, पनघट, सिंचाई तथा जल-जंगल-जमीन के अधिकार भी हमेशा के लिए खत्म होने जा रहे हैं। अकेले उत्तरकाशी जनपद में ही 10 छोटी जल-विद्युत परियोजनाएं निजी कंपनियों को सौंपी गयी हैं। इनसे निजी कंपनियां 22.5 मेगावाट विद्युत का उत्पादन करेंगी। उत्तरकाशी जनपद में ही 90 मेगावाट की मनेरी भाली जल विद्युत परियोजना प्रथम चरण के बैराज स्थल मनेरी में पानी रोके जाने से मनेरी से तिलोथ तक गांववालों को पारंपरिक श्मशान घाटों पर अंतिम संस्कार के लिए पानी उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। मनेरी भाली के द्वितीय चरण के पूरा होने के बाद यही स्थिति अब उत्तरकाशी से धरासू तक होने जा रही है।
गंगोत्तरी मार्ग पर भी भैरवघाटी, पाला-मनेरी, लोहारीनाग-पाला जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण के बाद तो उत्तरकाशी में गंगा कहीं-कहीं पर नजर आयेगी क्योंकि अधिकतर स्थानों पर गंगा इन तीनों विद्युत परियोजनाओं के कारण सुरंगों के अंदर से प्रवाहित होगी। उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड में जो 220 विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं या बन रही हैं उनकी वजह से यहां की उन नदियों को, जिन पर विद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन या प्रस्तावित हैं, लगभग 700 किमी. लंबी सुरंगों से होकर बहना पड़ेगा। इन परियोजनाओं से 22 लाख लोग सीधे तौर पर प्रभावित होंगे। जल, जंगल, जमीन का नुकसान कितना होगा, इसका अनुमान अभी नहीं लगाया जा सका है।
गंगा देश व विदेश के करोड़ों लोगों की आस्था और विश्वास का प्रतीक है। गंगा के उद्भव की कहानी भारतीय संस्कृति और सभ्यता की कहानी है। यह भारतीय परम्पराओं और मूल्यों की प्रतीक भी है। गंगा के अविरल बहाव के कारण ही इसकी पवित्रता और निर्मलता की कहानी कही जाती है। यह आध्यात्मिक तथा वैज्ञानिक सत्य है कि गंगा जल वर्षों तक घर में रखने के बाद भी सड़ता नहीं है। दुनिया में बढ़ते तापमान और पिघलते ग्लेशियरों के कारण गंगा के अस्तित्व पर शोधकर्ता और वैज्ञानिक सवाल उठाने लगे हैं। इसके अलावा भी यदि गंगा के अस्तित्व पर सवाल उठ रहा है तो उसका कारण इस पर बन रही जल विद्युत परियोजनाएं भी हैं, क्योंकि गंगोत्तरी से ही गंगा को सुरंग में कैद करने की योजना आधुनिक योजनाकारों ने बना डाली है। टिहरी से धरासू तक इन दिनों टिहरी बांध का विशालकाय जलाशय ही नजर आ रहा है। एक तरह से लगभग 40 किलोमीटर के दायरे में गंगा मृतप्राय: हो गयी है। धरासू से गंगोत्तरी की दूरी 125 किलोमीटर तक के इस मार्ग में जो छ: बांध बनने वाले हैं उससे गंगा एक सुरंग बांध से, दूसरे सुरंग बांध से होकर गुजरेगी तो यहां गंगा आधा दर्जन पोखर और तालाबों के रूप में बदल जाएगी। हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान के सुरेश भाई कहते हैं, ''हमारे योजनाकार, सरकारें विकास का जो मॉडल हिमालयी क्षेत्र में पर्यावरण की कीमत पर थोप रही हैं, उससे देश व जनता को कोई दीर्घकालीक लाभ मिलने वाला नहीं है। विकास के इस मॉडल से पहाड़ की नदीघाटी सभ्यता तो समाप्त होगी ही, सुरंगों के कारण अनेक गांवों का अस्तित्व भी समाप्त होने वाला है। चमोली जिले में सुरंग आधारित विष्णु प्रयाग जल विद्युत परियोजना से चांईं गांव का विध्वंस तथा उत्तरकाशी जिले में पाला गांव के अस्तित्व का जो संकट खड़ा हुआ है, वे आधुनिक विकास की उस तस्वीर को सामने रखते हैं जो विकास नहीं विनाश ला रही है।''
यमुना नदी पर भी उत्तराखंड में लखवाड़ से यमुनोत्तरी तक छह बांध बनाने की योजना ही इन बांधों के कारण यमुना के दर्शन लोगों को नहीं होंगे, क्योंकि यमुना की जलधारा भी इन बांधों के लिए बनने वाली सुरंगों में कैद हो जाएगी। यमुना नदी के जलग्रहण क्षेत्र में आने वाले बड़कोट, नौगांव, पुरोला विकास खंडों के गांव भूकम्प के अति संवेदनशील क्षेत्र में बसे हुए हैं। यहां सुरंग वाले बांधों के कारण स्थिति और ज्यादा विस्फोटक होने की आशंका है। मनेरी-भाली (प्रथम) परियोजना का दुष्प्रभाव तो सामने भी आ गया है। इस परियोजना के सुरंग के ऊपर जो गांव तथा कृषि भूमि 1991 के भूकम्प में खत्म हो गयी थी, वहां कृषि भूमि की नमी भी अब खत्म हो रही है और गांव के जलस्रोत सूख गए हैं। पर्यावरणीय संकट के कारण उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल की चार प्रमुख नदियों टौंस, यमुना, भगीरथी तथा गंगा में लगातार जल स्तर में कमी दर्ज की जा रही है। गत वर्ष इन नदियों में 20 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी। आमतौर पर अप्रैल में अच्छी धूप खिलने के कारण उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में बर्फ पिघलने से जाड़ों में कम हुआ जलस्तर बढ़ने लगता है, लेकिन गत वर्ष ऐसा नहीं हुआ। इसका एक बड़ा कारण बांध परियोजनाओं के लिए किए जा रहे अंधाधुंध विस्फोटों को भी माना जा रहा है। जिसकी वजह से इन नदियों के किनारों पर बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गयी हैं।
एक ओर बांध परियोजनाओं ने गंगा के अस्तित्व पर सवालिया निशान लगा दिए हैं तो दूसरी ओर गंगा को प्रदूषणमुक्त करने के लिए चलायी जा रही योजनाएं सफेद हाथी साबित हो रही हैं। इस योजना के पहले चरण में 21 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च कर देने के बाद भी गंगा का प्रदूषण कम नहीं हो रहा है। उत्तराखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार बैक्टीरिया की मात्रा गंगा और उसकी सहायक नदियों में लगातार बढ़ रही है। लक्ष्मण झूला क्षेत्र में कोलीफार्म की मात्रा प्रति मिलीलीटर 1070 पाई गयी तो हरिद्वार में ललतारण पुल के समीप यह मात्रा बढ़कर 5500 प्रति मिलीलीटर हो गयी।
उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में भी कोसी, नयार, पनार, पश्चिमी रामगंगा, गौला, गगास, गोमती, गरुड़ गंगा, नन्धौर आदि सघन वनों से उद्गमित नदियों के सामने भी संकट खड़ा हो गया है। इनकी जलधाराएं प्रतिवर्ष घटती जा रही हैं। एक शोध से पता चला है कि कौसानी के पास पिनाथ पर्वत से निकलने वाली कोसी नदी का जल प्रवाह अल्मोड़ा के निकट 1994 में 995 लीटर प्रति सेकेण्ड था जो 2003 में घटकर केवल 85 लीटर प्रति सेकेण्ड रह गया है। लगभग यही स्थिति दूसरी नदियों की भी है। उत्तराखंड के सामाजिक व प्राकृतिक हलचलों पर गहरी नजर रखने वाले प्रो. शेखर पाठक कहते हैं, ''कौसानी से रामनगर तक 106 किलोमीटर लम्बी कोसी नदी पर आठ लाख से ज्यादा लोग निर्भर हैं। कोसी के किनारे प्राकृतिक स्रोतों के सूखने, भूकटाव, भूस्खलन, जलप्रदूषण से कोसी की दशा सोचनीय होती जा रही है। आलम यह है कि नदी किनारे बसे लोगों को भी सिर में बर्तन रखकर पानी ढोना पड़ रहा है।'' कुमाऊं विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर के वरिष्ठ भूवैज्ञानिक डा. जेएस रावत के एक अध्ययन के अनुसार, ''कोसी नदी में पानी प्रति वर्ष 50 लीटर प्रति सेकेण्ड की दर से कम हो रहा है। कोसी नदी के लिए जल संवर्धन की कारगर योजना नहीं बनाई गयी तो आने वाले डेढ़ दशक में कोसी पूरी तरह से सूख जाएगी क्योंकि इसकी चार सहायक नदियां पहले ही सूख चुकी हैं।
वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार इन नदियों के संरक्षण व संवर्धन के लिए समय रहते ठोस उपाय नहीं किए गए तो 15-20 वर्ष के बाद इन नदियों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। वनों को काटने, उनमें आग लगने तथा बांज वृक्षों की उपेक्षा करके चीड़ के पेड़ों को प्राथमिकता देने की हमारी वन नीति का यह दुष्परिणाम है। उत्तराखंड के नगर चाहे नदी तट पर बसे हों, या पर्वतों के ऊंचे ढलानों पर, सभी इन नदियों के जल पर जीवित हैं। सरकारों के दृष्टिकोण के कारण विकसित हुई उपभोग जीवन शैली ने जल का उपयोग व अधिकार भाव तो बढ़ाया है, लेकिन उसके लिएर् कत्तव्य निभाने की कोई जिम्मेदारी उन्हें महसूस नहीं होती। इसी के साथ ही उपभोगवादी इस आधुनिक जीवन के कारण नगरों में मलिन जल की मात्रा लगातार बढ़ती जा रही है। बगैर उपचार किए यह मलिन जल नदियों में छोड़कर जल प्रदूषण किया जा रहा है। रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, अल्मोड़ा, हल्द्वानी, रामनगर, श्रीनगर, ऋषिकेश, हरिद्वार जैसे नदी किनारे बसे नगरों में यही स्थिति है।
चम्पावत जिले के लोहाघाट क्षेत्र में पिछले तीन दशक के दौरान तेजी से जलस्रोतों के सूखने का दौर शुरू हुआ। इस अवधि में गाड़-गधेरों के जल स्तर में भारी कमी आने से नौला-धारे जैसे परम्परागत स्रोतों के जलस्तर में काफी गिरावट आई है। जल निगम ने गांव-गांव में पीने का पानी पहुंचाने के नाम पर पाइपलाइनें गांवों में पहुंचा दी हैं। दुष्परिणाम यह हुआ कि शताब्दियों से गांव वालों की प्यास बुझाते आ रहे नौलों की ओर से लोगों ने मुंह फेर लिया। सरकारी योजनाओं के कारण नौले-धारों व दूसरे जलस्रोतों में सीमेंट का प्रयोग करने से भी पानी के स्रोत सूख रहे हैं। इसकी वजह से सदानीरा नदियों वाले पहाड़ में दिनोंदिन पेयजल का गंभीर संकट खड़ा होता जा रहा है। लक्ष्मी आश्रम कौसानी की राधा बहन यह कहती हैं, ''कौसी, गोमती तथा गगास नदियों के जलस्रोत 45 किलोमीटर नीचे तक सूख चुके हैं। अधिकतर नदियों का जलस्तर घटने से बहाव का आवेग भी निरंतर घटता जा रहा है।''
नदियों व प्राकृतिक जलस्रोतों के ऊपर निरन्तर बढ़ रहे खतरे को देखते हुए ही उत्तराखंड में लोक जलनीति पर काम करने वाले पर्यावरण चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता 'वर्ष-2008' को 'नदी बचाओ' वर्ष के रूप में मना रहे हैं। जिसके पहले चरण में 1 जनवरी से 15 जनवरी 2008 तक राज्य के 15 नदियों के उद्गम स्थानों से 'नदी बचाओ' पदयात्राएं निकाली गयीं। इनके समापन पर रामनगर में 16 व 17 जनवरी 2008 को दो दिवसीय चिंतन बैठक भी की गयी। बैठक के बाद पारित अनेक प्रस्तावों के माध्यम से जल-जंगल-जमीन के अधिकार जनता को देने की मांग की गयी।
नदियों को तेजी से उजाड़ रही जल विद्युत परियोजनाओं के भारी विस्फोटों के कारण मानवकृत भूस्खलन, भू-धंसाव व भूकंप जैसी स्थितियां पैदा हो रही हैं। अचरज इस बात का है कि बांध निर्माण करने वाली सरकार और कम्पनियां जल विद्युत परियोजनाओं से प्रभावित उत्तरकाशी जिले के गांव भंगेली, सुनगर, तिहार, कुंजन, हुर्री, भुक्की, सालंग, पाला, औंगी, कुमाल्टी, सैंज, भखाड़ी, जामक तथा चमोली जिले में चांई और टिहरी जिले में फलेंडा, चानी, बासी आदि गांवों की सुरक्षा, आजीविका और रोजगार की कोई व्यवस्था करने की बजाय पुलिस दमन के सहारे लोगों की आवाज को दबाने का कार्य कर रही हैं।
उत्तराखंड की नदियां प्राणरेखा हैं, जो सात करोड़ से अधिक लोगों को जीवन देती हैं, ये अब सूखने की कगार पर पहुंच गयी हैं। कोसी, नयार, पनार, गौला, नन्धौर जैसी सदाबहार नदियों ने नालों का रूप ले लिया है। इन्हें पुनर्जीवित करने के लिए सरकार के पास कोई योजना नहीं है। स्थानीय लोग इन नदियों के पुराने स्वरूप को वापस लाने के लिए व्यावहारिक सुझाव दे रहे हैं, आन्दोलन कर रहे हैं, लेकिन सरकारों के कान पर जूं नहीं रेंग रही है। इसके विपरीत पानी वाली नदियों को आंख मूंद कर निजी कंपनियों के हवाले जल विद्युत परियोजनाओं के लिए किया जा रहा है।
उत्तराखंड में इस समय विभिन्न नदियों पर 60 जल विद्युत परियोजनाओं का निर्माण निजी कंपनियां कर रही हैं। अनुमान है कि इन परियोजनाओं के पूरा होने पर 763 मेगावाट विद्युत का उत्पादन होगा। इस विद्युत उत्पादन से भले ही भारी राजस्व की प्राप्ति होगी, लेकिन इन परियोजनाओं के कारण प्रभावित होने वाले लगभग 10 लाख लोगों के गोचर, पनघट, सिंचाई तथा जल-जंगल-जमीन के अधिकार भी हमेशा के लिए खत्म होने जा रहे हैं। अकेले उत्तरकाशी जनपद में ही 10 छोटी जल-विद्युत परियोजनाएं निजी कंपनियों को सौंपी गयी हैं। इनसे निजी कंपनियां 22.5 मेगावाट विद्युत का उत्पादन करेंगी। उत्तरकाशी जनपद में ही 90 मेगावाट की मनेरी भाली जल विद्युत परियोजना प्रथम चरण के बैराज स्थल मनेरी में पानी रोके जाने से मनेरी से तिलोथ तक गांववालों को पारंपरिक श्मशान घाटों पर अंतिम संस्कार के लिए पानी उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। मनेरी भाली के द्वितीय चरण के पूरा होने के बाद यही स्थिति अब उत्तरकाशी से धरासू तक होने जा रही है।
गंगोत्तरी मार्ग पर भी भैरवघाटी, पाला-मनेरी, लोहारीनाग-पाला जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण के बाद तो उत्तरकाशी में गंगा कहीं-कहीं पर नजर आयेगी क्योंकि अधिकतर स्थानों पर गंगा इन तीनों विद्युत परियोजनाओं के कारण सुरंगों के अंदर से प्रवाहित होगी। उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड में जो 220 विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं या बन रही हैं उनकी वजह से यहां की उन नदियों को, जिन पर विद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन या प्रस्तावित हैं, लगभग 700 किमी. लंबी सुरंगों से होकर बहना पड़ेगा। इन परियोजनाओं से 22 लाख लोग सीधे तौर पर प्रभावित होंगे। जल, जंगल, जमीन का नुकसान कितना होगा, इसका अनुमान अभी नहीं लगाया जा सका है।
गंगा देश व विदेश के करोड़ों लोगों की आस्था और विश्वास का प्रतीक है। गंगा के उद्भव की कहानी भारतीय संस्कृति और सभ्यता की कहानी है। यह भारतीय परम्पराओं और मूल्यों की प्रतीक भी है। गंगा के अविरल बहाव के कारण ही इसकी पवित्रता और निर्मलता की कहानी कही जाती है। यह आध्यात्मिक तथा वैज्ञानिक सत्य है कि गंगा जल वर्षों तक घर में रखने के बाद भी सड़ता नहीं है। दुनिया में बढ़ते तापमान और पिघलते ग्लेशियरों के कारण गंगा के अस्तित्व पर शोधकर्ता और वैज्ञानिक सवाल उठाने लगे हैं। इसके अलावा भी यदि गंगा के अस्तित्व पर सवाल उठ रहा है तो उसका कारण इस पर बन रही जल विद्युत परियोजनाएं भी हैं, क्योंकि गंगोत्तरी से ही गंगा को सुरंग में कैद करने की योजना आधुनिक योजनाकारों ने बना डाली है। टिहरी से धरासू तक इन दिनों टिहरी बांध का विशालकाय जलाशय ही नजर आ रहा है। एक तरह से लगभग 40 किलोमीटर के दायरे में गंगा मृतप्राय: हो गयी है। धरासू से गंगोत्तरी की दूरी 125 किलोमीटर तक के इस मार्ग में जो छ: बांध बनने वाले हैं उससे गंगा एक सुरंग बांध से, दूसरे सुरंग बांध से होकर गुजरेगी तो यहां गंगा आधा दर्जन पोखर और तालाबों के रूप में बदल जाएगी। हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान के सुरेश भाई कहते हैं, ''हमारे योजनाकार, सरकारें विकास का जो मॉडल हिमालयी क्षेत्र में पर्यावरण की कीमत पर थोप रही हैं, उससे देश व जनता को कोई दीर्घकालीक लाभ मिलने वाला नहीं है। विकास के इस मॉडल से पहाड़ की नदीघाटी सभ्यता तो समाप्त होगी ही, सुरंगों के कारण अनेक गांवों का अस्तित्व भी समाप्त होने वाला है। चमोली जिले में सुरंग आधारित विष्णु प्रयाग जल विद्युत परियोजना से चांईं गांव का विध्वंस तथा उत्तरकाशी जिले में पाला गांव के अस्तित्व का जो संकट खड़ा हुआ है, वे आधुनिक विकास की उस तस्वीर को सामने रखते हैं जो विकास नहीं विनाश ला रही है।''
यमुना नदी पर भी उत्तराखंड में लखवाड़ से यमुनोत्तरी तक छह बांध बनाने की योजना ही इन बांधों के कारण यमुना के दर्शन लोगों को नहीं होंगे, क्योंकि यमुना की जलधारा भी इन बांधों के लिए बनने वाली सुरंगों में कैद हो जाएगी। यमुना नदी के जलग्रहण क्षेत्र में आने वाले बड़कोट, नौगांव, पुरोला विकास खंडों के गांव भूकम्प के अति संवेदनशील क्षेत्र में बसे हुए हैं। यहां सुरंग वाले बांधों के कारण स्थिति और ज्यादा विस्फोटक होने की आशंका है। मनेरी-भाली (प्रथम) परियोजना का दुष्प्रभाव तो सामने भी आ गया है। इस परियोजना के सुरंग के ऊपर जो गांव तथा कृषि भूमि 1991 के भूकम्प में खत्म हो गयी थी, वहां कृषि भूमि की नमी भी अब खत्म हो रही है और गांव के जलस्रोत सूख गए हैं। पर्यावरणीय संकट के कारण उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल की चार प्रमुख नदियों टौंस, यमुना, भगीरथी तथा गंगा में लगातार जल स्तर में कमी दर्ज की जा रही है। गत वर्ष इन नदियों में 20 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी। आमतौर पर अप्रैल में अच्छी धूप खिलने के कारण उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में बर्फ पिघलने से जाड़ों में कम हुआ जलस्तर बढ़ने लगता है, लेकिन गत वर्ष ऐसा नहीं हुआ। इसका एक बड़ा कारण बांध परियोजनाओं के लिए किए जा रहे अंधाधुंध विस्फोटों को भी माना जा रहा है। जिसकी वजह से इन नदियों के किनारों पर बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गयी हैं।
एक ओर बांध परियोजनाओं ने गंगा के अस्तित्व पर सवालिया निशान लगा दिए हैं तो दूसरी ओर गंगा को प्रदूषणमुक्त करने के लिए चलायी जा रही योजनाएं सफेद हाथी साबित हो रही हैं। इस योजना के पहले चरण में 21 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च कर देने के बाद भी गंगा का प्रदूषण कम नहीं हो रहा है। उत्तराखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार बैक्टीरिया की मात्रा गंगा और उसकी सहायक नदियों में लगातार बढ़ रही है। लक्ष्मण झूला क्षेत्र में कोलीफार्म की मात्रा प्रति मिलीलीटर 1070 पाई गयी तो हरिद्वार में ललतारण पुल के समीप यह मात्रा बढ़कर 5500 प्रति मिलीलीटर हो गयी।
उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में भी कोसी, नयार, पनार, पश्चिमी रामगंगा, गौला, गगास, गोमती, गरुड़ गंगा, नन्धौर आदि सघन वनों से उद्गमित नदियों के सामने भी संकट खड़ा हो गया है। इनकी जलधाराएं प्रतिवर्ष घटती जा रही हैं। एक शोध से पता चला है कि कौसानी के पास पिनाथ पर्वत से निकलने वाली कोसी नदी का जल प्रवाह अल्मोड़ा के निकट 1994 में 995 लीटर प्रति सेकेण्ड था जो 2003 में घटकर केवल 85 लीटर प्रति सेकेण्ड रह गया है। लगभग यही स्थिति दूसरी नदियों की भी है। उत्तराखंड के सामाजिक व प्राकृतिक हलचलों पर गहरी नजर रखने वाले प्रो. शेखर पाठक कहते हैं, ''कौसानी से रामनगर तक 106 किलोमीटर लम्बी कोसी नदी पर आठ लाख से ज्यादा लोग निर्भर हैं। कोसी के किनारे प्राकृतिक स्रोतों के सूखने, भूकटाव, भूस्खलन, जलप्रदूषण से कोसी की दशा सोचनीय होती जा रही है। आलम यह है कि नदी किनारे बसे लोगों को भी सिर में बर्तन रखकर पानी ढोना पड़ रहा है।'' कुमाऊं विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर के वरिष्ठ भूवैज्ञानिक डा. जेएस रावत के एक अध्ययन के अनुसार, ''कोसी नदी में पानी प्रति वर्ष 50 लीटर प्रति सेकेण्ड की दर से कम हो रहा है। कोसी नदी के लिए जल संवर्धन की कारगर योजना नहीं बनाई गयी तो आने वाले डेढ़ दशक में कोसी पूरी तरह से सूख जाएगी क्योंकि इसकी चार सहायक नदियां पहले ही सूख चुकी हैं।
वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार इन नदियों के संरक्षण व संवर्धन के लिए समय रहते ठोस उपाय नहीं किए गए तो 15-20 वर्ष के बाद इन नदियों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। वनों को काटने, उनमें आग लगने तथा बांज वृक्षों की उपेक्षा करके चीड़ के पेड़ों को प्राथमिकता देने की हमारी वन नीति का यह दुष्परिणाम है। उत्तराखंड के नगर चाहे नदी तट पर बसे हों, या पर्वतों के ऊंचे ढलानों पर, सभी इन नदियों के जल पर जीवित हैं। सरकारों के दृष्टिकोण के कारण विकसित हुई उपभोग जीवन शैली ने जल का उपयोग व अधिकार भाव तो बढ़ाया है, लेकिन उसके लिएर् कत्तव्य निभाने की कोई जिम्मेदारी उन्हें महसूस नहीं होती। इसी के साथ ही उपभोगवादी इस आधुनिक जीवन के कारण नगरों में मलिन जल की मात्रा लगातार बढ़ती जा रही है। बगैर उपचार किए यह मलिन जल नदियों में छोड़कर जल प्रदूषण किया जा रहा है। रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, अल्मोड़ा, हल्द्वानी, रामनगर, श्रीनगर, ऋषिकेश, हरिद्वार जैसे नदी किनारे बसे नगरों में यही स्थिति है।
चम्पावत जिले के लोहाघाट क्षेत्र में पिछले तीन दशक के दौरान तेजी से जलस्रोतों के सूखने का दौर शुरू हुआ। इस अवधि में गाड़-गधेरों के जल स्तर में भारी कमी आने से नौला-धारे जैसे परम्परागत स्रोतों के जलस्तर में काफी गिरावट आई है। जल निगम ने गांव-गांव में पीने का पानी पहुंचाने के नाम पर पाइपलाइनें गांवों में पहुंचा दी हैं। दुष्परिणाम यह हुआ कि शताब्दियों से गांव वालों की प्यास बुझाते आ रहे नौलों की ओर से लोगों ने मुंह फेर लिया। सरकारी योजनाओं के कारण नौले-धारों व दूसरे जलस्रोतों में सीमेंट का प्रयोग करने से भी पानी के स्रोत सूख रहे हैं। इसकी वजह से सदानीरा नदियों वाले पहाड़ में दिनोंदिन पेयजल का गंभीर संकट खड़ा होता जा रहा है। लक्ष्मी आश्रम कौसानी की राधा बहन यह कहती हैं, ''कौसी, गोमती तथा गगास नदियों के जलस्रोत 45 किलोमीटर नीचे तक सूख चुके हैं। अधिकतर नदियों का जलस्तर घटने से बहाव का आवेग भी निरंतर घटता जा रहा है।''
नदियों व प्राकृतिक जलस्रोतों के ऊपर निरन्तर बढ़ रहे खतरे को देखते हुए ही उत्तराखंड में लोक जलनीति पर काम करने वाले पर्यावरण चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता 'वर्ष-2008' को 'नदी बचाओ' वर्ष के रूप में मना रहे हैं। जिसके पहले चरण में 1 जनवरी से 15 जनवरी 2008 तक राज्य के 15 नदियों के उद्गम स्थानों से 'नदी बचाओ' पदयात्राएं निकाली गयीं। इनके समापन पर रामनगर में 16 व 17 जनवरी 2008 को दो दिवसीय चिंतन बैठक भी की गयी। बैठक के बाद पारित अनेक प्रस्तावों के माध्यम से जल-जंगल-जमीन के अधिकार जनता को देने की मांग की गयी।
सूखा झेल रहा बुंदेलखंड
चार साल से लगातार सूखा झेल रहे बुंदेलखंड की दशा पर कितने ही धुरंधरों ने अपनी कलमें चलायीं, कितनों ने ही सूखी नहरों, सूखे खेतों को कैमरों में कैद कर दुनिया को बुंदेलखंड की हकीकत बतलायी और दिखायी। दुनिया के भूखे किसानों से हमारी पहचान करायी, इसलिए नहीं कि नेता यहां घोषणाओं की दुकाने खोलें बल्कि इसलिए कि सभी एकजुट हाें और बुंदेलखंड को इन विषम परिस्थितियों से उबारने के लिए कोई ठोस कदम उठाएं।
आज के बुंदेलखंड में हर जगह सरकारी व्यवस्था के खिलाफ गहरा असंतोष है। अव्यवस्था का आलम छोटी-छोटी चीजों तक के लिए है। एक वृद्ध वृद्धावस्था-पेंशन का आवेदन पत्र भरकर अगले कई वर्षों तक विभाग द्वारा स्वीकृत कर लिए जाने की राह देखता भर रह जाता है। सौ-पचास रुपये देने के बाद अगर स्वीकृत हुआ तो ठीक अन्यथा अगला एक वर्ष तो पुन: आवेदन भरे जाने के लिए प्रधान की चिरौरी में ही बीत जाता है।
भोजन सुरक्षा की सरकारी योजनाओं का असफल क्रियान्वयन हर जगह साफ दिखाई देता है। समस्याएं तो हैं ही, भ्रष्टाचार की स्थिति भी बदतर है। ग्रामीण विकास से संबंधित परियोजनाओं को गांव तक लाने के लिए प्रधान को न जाने कितने पापड बेलने पडते हैं, जबकि कुल अनुदान राशि का कम से कम 30 फीसद तो संबंधित महकमे का फिक्स्ड कमीशन ही हो जाता है।
ऐसे में, बुंदेलखंड के लिए मायावती सरकार ने 80 हजार करोड क़ा जो विशेष पैकेज मांगा है, क्या वह सरकारी नौकरों के लिए अशर्फियों की बरसात से कम होगा? इस 80 हजार करोड में से बुंदेलखंड की जनता को क्या मिलेगा यह सब जानते हैं। एक ग्रामीण वृद्धा श्यामदेवी ने कहा कि 'बडे नेता व अधिकारी तो हम गरीबों से भी गरीब होते हैं तभी तो हमारे हिस्से की रोटी भी हडप कर जाते हैं।'
चित्रकूट के मानिकपुर ब्लाक के टिकरिया गांव में एक सामाजिक संस्था द्वारा करवाए गए राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम के अनुसार नरेगा के सोशल ऑडिट (सामाजिक अंकेक्षण) में लाखों के घोटाले का पर्दाफाश हुआ। घोटाले के पर्दाफाश के कई सकारात्मक परिणाम हो सकते थे जैसे - घोटाले के जिम्मेदार अधिकारियों से घोटाले की राशि वसूली जाती, या उन्हें इस हेतु सख्त निर्देश देते हुए कुछ दिनों निलंबित रखा जाता ताकि पुन: इस तरह के घोटालों की संभावना रोकी जा सके। परंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ बल्कि एक ईमानदार अधिकारी जिन्होंने सामाजिक संगठन को सोशल-ऑडिट हेतु अनुमति प्रदान की थी उन्हीं को भ्रष्ट घोषित करके तबादला कर दिया गया।
बजट में केन्द्र द्वारा ऋणमाफी की घोषणा से किसान को थोडी देर के लिए तो हो सकता है कि राहत की सांस मिल जाए लेकिन सोचना यह है कि क्या ये घोषणाएं किसानों को चिरकालिक आर्थिक सुदृढता प्रदान कर पाएंगी? क्या ये घोषणाएं इस बात को सुनिश्चित करती हैं कि अगले वर्ष किसानों पर पुन: ऋण नहीं चढेग़ा?
छोटे और सीमांत किसानों की बडी संख्या आज संस्थागत ऋणों के बजाय महाजनों व रिश्तेदारों के ऋण के बोझ के तले दबी हुई है। गांव-गांव में गरीबों को ऋण के लिए उत्प्रेरित करने वाले दलालों का जाल बिछा हुआ है, जो बैंकों से सांठ-गांठ कर गरीबों के ऋण का बडा हिस्सा खा जाते हैं। 70 प्रतिशत कृषक आबादी वाले देश में कारों से मंहगे ब्याज पर ट्रैक्टर मिल रहे हैं। जहां पिछले पांच साल से बारिश का ग्राफ लगातार गिरता रहा है। वहां जल संरक्षण की सभी वैकल्पिक व्यवस्थाओं को नजरंदाज और खत्म किया गया है। आने वाली गर्मी के महीने बुंदेलखंड को और भी विकट परिस्थितियों में डालेंगे। यहां खराब हैंडपंपों की मरम्मत का काम जल निगम ग्राम पंचायत को सौंप कर छु्ट्टी पा जाता है। भूमि कटाव रोकने, जल संरक्षण के लिए वाटरशेड, चेकडैम, बंधी निर्माण, वनीकरण और बंधियों पर वृक्ष लगाकर हरियाली लाने की अरबों रुपये की योजनाएं केवल कागज तक ही सीमित रह गयी। बंजर भूमि को उर्वर बनाए जाने की कई योजनाएं कागजों पर ही चलती रही हैं, नतीजा बुंदेलखंड की कुल कृषिभूमि की लगभग 50 फीसद कृषि भूमि आज बंजर पडी है।
स्थिति यह हो गयी है कि किसान अपने पालतू जानवरों को छुट्टा छोडने को मजबूर हैं क्योंकि वे उन्हें चारा तो क्या पानी तक पिला पाने में असमर्थ हैं। जनवरी माह में ही स्थिति यह थी कि पानी के अभाव में कई विद्यालयों में दोपहर का भोजन तक नहीं बनाया जा रहा था। यह कहा जा सकता है कि बुंदेलखंड को इस स्थिति में पहुंचाने के लिए कुदरत से ज्यादा तुगलकशाही और भ्रष्टाचार जिम्मेदार हैं। यह बताने की जरूरत नहीं है कि भ्रष्टाचार से प्राप्त मुनाफे का कितना हिस्सा सरकारी मुलाजिम रखते हैं और कितना मंत्री। ऐसी स्थिति में मंत्री जी सरकारी महकमों को दुरुस्त करने की बात भला कैसे सोचें। बुंदेलखंड में लगातार जंगल काटे जा रहे हैं। लोगों के लिए आजीविका के कुछ ही जरिये रह गये हैं या तो लकडी क़ाट कर बेचें या पत्थर तोडें अथवा पलायन कर जाएं।
किसानों के पास अब खेती नहीं रही। खेत के खेत गिरवी रख दिये गये हैं। जमींदार अब शहरों में चौकीदारी पर उतर आए हैं। गांव के गांव बुजुर्गों से भरे पडे हैं। उनके जवान बेटे शहरों की तरफ पलायन कर गए हैं। एक किसान किन परिस्थितियों में अपनी खेती-किसानी छोड अनजान स्थानों की ओर पलायन करता है इसका दर्द बस वह ही समझ सकता है। जल-जंगल-जमीन सब कुछ गांव के लोगों का लुटता जा रहा है। बडे-बडे पहाड समतल भू-भाग में बदल रहे हैं। पहाडाें को काट रहे क्रशर वातावरण को प्रदूषित कर रहे हैं। यहां लगे मजदूर 40 से 50 तक की उम्र में सिलकोसिसनामक बीमारी के शिकार हो जाते हैं। गांव के गांव विधवाओं से भरे पडे हैं। एक जमाने में प्राकृतिक सम्पदाओं से संपन्न बुंदेलखंड आज जल, जंगल और खूबसूरत पहाडाें की बरबादी का दंश झेल रहा है।
राजनीतिक पार्टियों की घोषणाएं सीधे-सादे किसानों को बरगलाकर अगले लोकसभा चुनाव के लिए अपनी जमीन तैयार करने के अलावा और कुछ नहीं हैं। आज बुंदेलखंड में नित नए नेताओं का तांता लगा रहता है। सडक़ें चमकाईं जाती हैं। स्वागत की तैयारियां जोरों पर होती हैं। फटाफट बिजली के खंभे लगाए जाते हैं। अधिकारी एक ओर तो अपना चेहरा चमकाकर नेताओं की जी हुजूरी पूरी करते दिखते हैं तो दूसरी ओर वर्षों से न्याय की बाट जोह रहे ग्रामीणों को अपने मामले अपने तक ही रखने की ही सलाह देते हैं। नेताओं को सूखे-परती खेत दिखाए जाते हैं पर महीनों से ठंडे पडे चूल्हे नहीं दिखाए जाते। पार्टियों के प्रतिनिधि हमारे बीच से ही निकले हैं जो वस्तुस्थिति से अनजान नहीं हैं तब वे सवालों से क्यों परहेज करते हैं। वे संबंधित विभागों से ये क्यों नहीं पूछते कि अगर कुदरत ने नाइन्साफी की तो की लेकिन भोजन सुरक्षा की सभी योजनाएं भी लोगों को भूखे मरने से बचाने में क्यों असफल रहीं? असहायों के लिए अन्नपूर्णा योजना क्या उन्हें एक समय का भी भोजन उपलब्ध नहीं करा सकीं, राशन की दुकानों से बंटने वाला 25 कि.ग्रा. राशन क्या उन्हें जीवित रखने में सक्षम नहीं था? आंगनबाडियां बच्चों, किशोरी-लडक़ियों व महिलाओं के स्वास्थ्य की रक्षा क्यों नहीं कर पाए? मध्यान्ह भोजन क्या बच्चों को कम से कम एक समय अगर संतुलित आहार उपलब्ध करा पाता तो क्या किसान माता-पिता का बोझ थोडा कम न होता? आदेशों के अनुसार नरेगा में कार्यरत श्रमिकों की मेहनत का मेहनताना क्यों नहीं कुछ दिन और उनके परिवारों का पेट पाल सका?
ऊंचे-ऊंचे पहाडाें की कटाई करने वाले मजदूर परिवारों को क्या मिला कि नौबत यहां तक आ पहुंची? क्यों इन पांच साल में तालाबों को भरा नहीं गया, क्यों उपयोगी व फलदायी पौधों के बजाए विदेशी बबूल जैसे पौधे लगाए गए?
अत: जरूरी है कि सरकारी तंत्र को दुरुस्त करते हुए उसे कार्यों के प्रति जवाबदेह बनाया जाए। देश भर के कृषि विश्वविद्यालयों में खाद्यान्न उत्पादन से संबंधित शोधों को किसानों तक पहुंचाया जाए। सिंचाई, खाद व बिजली व्यवस्था को बेहतर बनाने में कोई कसर न छोडी ज़ाए। किसानों को उनकी पैदावार का समुचित समर्थन मूल्य मिले और फसल बीमा प्रणाली ऐसी हो कि किसान कर्जे से मुक्त रह सके। सूखे की समस्या के स्थायी हल व उपाय के लिए बीपीएल, अन्नपूर्णा और अंत्योदय जैसी कल्याणकारी योजनाओं को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए। साथ ही राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना तथा अन्य विकास योजनाओं को पूरी ईमानदारी से लागू किया जाए।
बुंदेलखंड के किसानों को चाहिए कि वे ऋणमाफी का झुनझुना न पकडें बल्कि अपनी आर्थिक सुदृढता की आधारभूत मांगों को लेकर सडक़ों पर उतरें।
आज के बुंदेलखंड में हर जगह सरकारी व्यवस्था के खिलाफ गहरा असंतोष है। अव्यवस्था का आलम छोटी-छोटी चीजों तक के लिए है। एक वृद्ध वृद्धावस्था-पेंशन का आवेदन पत्र भरकर अगले कई वर्षों तक विभाग द्वारा स्वीकृत कर लिए जाने की राह देखता भर रह जाता है। सौ-पचास रुपये देने के बाद अगर स्वीकृत हुआ तो ठीक अन्यथा अगला एक वर्ष तो पुन: आवेदन भरे जाने के लिए प्रधान की चिरौरी में ही बीत जाता है।
भोजन सुरक्षा की सरकारी योजनाओं का असफल क्रियान्वयन हर जगह साफ दिखाई देता है। समस्याएं तो हैं ही, भ्रष्टाचार की स्थिति भी बदतर है। ग्रामीण विकास से संबंधित परियोजनाओं को गांव तक लाने के लिए प्रधान को न जाने कितने पापड बेलने पडते हैं, जबकि कुल अनुदान राशि का कम से कम 30 फीसद तो संबंधित महकमे का फिक्स्ड कमीशन ही हो जाता है।
ऐसे में, बुंदेलखंड के लिए मायावती सरकार ने 80 हजार करोड क़ा जो विशेष पैकेज मांगा है, क्या वह सरकारी नौकरों के लिए अशर्फियों की बरसात से कम होगा? इस 80 हजार करोड में से बुंदेलखंड की जनता को क्या मिलेगा यह सब जानते हैं। एक ग्रामीण वृद्धा श्यामदेवी ने कहा कि 'बडे नेता व अधिकारी तो हम गरीबों से भी गरीब होते हैं तभी तो हमारे हिस्से की रोटी भी हडप कर जाते हैं।'
चित्रकूट के मानिकपुर ब्लाक के टिकरिया गांव में एक सामाजिक संस्था द्वारा करवाए गए राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम के अनुसार नरेगा के सोशल ऑडिट (सामाजिक अंकेक्षण) में लाखों के घोटाले का पर्दाफाश हुआ। घोटाले के पर्दाफाश के कई सकारात्मक परिणाम हो सकते थे जैसे - घोटाले के जिम्मेदार अधिकारियों से घोटाले की राशि वसूली जाती, या उन्हें इस हेतु सख्त निर्देश देते हुए कुछ दिनों निलंबित रखा जाता ताकि पुन: इस तरह के घोटालों की संभावना रोकी जा सके। परंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ बल्कि एक ईमानदार अधिकारी जिन्होंने सामाजिक संगठन को सोशल-ऑडिट हेतु अनुमति प्रदान की थी उन्हीं को भ्रष्ट घोषित करके तबादला कर दिया गया।
बजट में केन्द्र द्वारा ऋणमाफी की घोषणा से किसान को थोडी देर के लिए तो हो सकता है कि राहत की सांस मिल जाए लेकिन सोचना यह है कि क्या ये घोषणाएं किसानों को चिरकालिक आर्थिक सुदृढता प्रदान कर पाएंगी? क्या ये घोषणाएं इस बात को सुनिश्चित करती हैं कि अगले वर्ष किसानों पर पुन: ऋण नहीं चढेग़ा?
छोटे और सीमांत किसानों की बडी संख्या आज संस्थागत ऋणों के बजाय महाजनों व रिश्तेदारों के ऋण के बोझ के तले दबी हुई है। गांव-गांव में गरीबों को ऋण के लिए उत्प्रेरित करने वाले दलालों का जाल बिछा हुआ है, जो बैंकों से सांठ-गांठ कर गरीबों के ऋण का बडा हिस्सा खा जाते हैं। 70 प्रतिशत कृषक आबादी वाले देश में कारों से मंहगे ब्याज पर ट्रैक्टर मिल रहे हैं। जहां पिछले पांच साल से बारिश का ग्राफ लगातार गिरता रहा है। वहां जल संरक्षण की सभी वैकल्पिक व्यवस्थाओं को नजरंदाज और खत्म किया गया है। आने वाली गर्मी के महीने बुंदेलखंड को और भी विकट परिस्थितियों में डालेंगे। यहां खराब हैंडपंपों की मरम्मत का काम जल निगम ग्राम पंचायत को सौंप कर छु्ट्टी पा जाता है। भूमि कटाव रोकने, जल संरक्षण के लिए वाटरशेड, चेकडैम, बंधी निर्माण, वनीकरण और बंधियों पर वृक्ष लगाकर हरियाली लाने की अरबों रुपये की योजनाएं केवल कागज तक ही सीमित रह गयी। बंजर भूमि को उर्वर बनाए जाने की कई योजनाएं कागजों पर ही चलती रही हैं, नतीजा बुंदेलखंड की कुल कृषिभूमि की लगभग 50 फीसद कृषि भूमि आज बंजर पडी है।
स्थिति यह हो गयी है कि किसान अपने पालतू जानवरों को छुट्टा छोडने को मजबूर हैं क्योंकि वे उन्हें चारा तो क्या पानी तक पिला पाने में असमर्थ हैं। जनवरी माह में ही स्थिति यह थी कि पानी के अभाव में कई विद्यालयों में दोपहर का भोजन तक नहीं बनाया जा रहा था। यह कहा जा सकता है कि बुंदेलखंड को इस स्थिति में पहुंचाने के लिए कुदरत से ज्यादा तुगलकशाही और भ्रष्टाचार जिम्मेदार हैं। यह बताने की जरूरत नहीं है कि भ्रष्टाचार से प्राप्त मुनाफे का कितना हिस्सा सरकारी मुलाजिम रखते हैं और कितना मंत्री। ऐसी स्थिति में मंत्री जी सरकारी महकमों को दुरुस्त करने की बात भला कैसे सोचें। बुंदेलखंड में लगातार जंगल काटे जा रहे हैं। लोगों के लिए आजीविका के कुछ ही जरिये रह गये हैं या तो लकडी क़ाट कर बेचें या पत्थर तोडें अथवा पलायन कर जाएं।
किसानों के पास अब खेती नहीं रही। खेत के खेत गिरवी रख दिये गये हैं। जमींदार अब शहरों में चौकीदारी पर उतर आए हैं। गांव के गांव बुजुर्गों से भरे पडे हैं। उनके जवान बेटे शहरों की तरफ पलायन कर गए हैं। एक किसान किन परिस्थितियों में अपनी खेती-किसानी छोड अनजान स्थानों की ओर पलायन करता है इसका दर्द बस वह ही समझ सकता है। जल-जंगल-जमीन सब कुछ गांव के लोगों का लुटता जा रहा है। बडे-बडे पहाड समतल भू-भाग में बदल रहे हैं। पहाडाें को काट रहे क्रशर वातावरण को प्रदूषित कर रहे हैं। यहां लगे मजदूर 40 से 50 तक की उम्र में सिलकोसिसनामक बीमारी के शिकार हो जाते हैं। गांव के गांव विधवाओं से भरे पडे हैं। एक जमाने में प्राकृतिक सम्पदाओं से संपन्न बुंदेलखंड आज जल, जंगल और खूबसूरत पहाडाें की बरबादी का दंश झेल रहा है।
राजनीतिक पार्टियों की घोषणाएं सीधे-सादे किसानों को बरगलाकर अगले लोकसभा चुनाव के लिए अपनी जमीन तैयार करने के अलावा और कुछ नहीं हैं। आज बुंदेलखंड में नित नए नेताओं का तांता लगा रहता है। सडक़ें चमकाईं जाती हैं। स्वागत की तैयारियां जोरों पर होती हैं। फटाफट बिजली के खंभे लगाए जाते हैं। अधिकारी एक ओर तो अपना चेहरा चमकाकर नेताओं की जी हुजूरी पूरी करते दिखते हैं तो दूसरी ओर वर्षों से न्याय की बाट जोह रहे ग्रामीणों को अपने मामले अपने तक ही रखने की ही सलाह देते हैं। नेताओं को सूखे-परती खेत दिखाए जाते हैं पर महीनों से ठंडे पडे चूल्हे नहीं दिखाए जाते। पार्टियों के प्रतिनिधि हमारे बीच से ही निकले हैं जो वस्तुस्थिति से अनजान नहीं हैं तब वे सवालों से क्यों परहेज करते हैं। वे संबंधित विभागों से ये क्यों नहीं पूछते कि अगर कुदरत ने नाइन्साफी की तो की लेकिन भोजन सुरक्षा की सभी योजनाएं भी लोगों को भूखे मरने से बचाने में क्यों असफल रहीं? असहायों के लिए अन्नपूर्णा योजना क्या उन्हें एक समय का भी भोजन उपलब्ध नहीं करा सकीं, राशन की दुकानों से बंटने वाला 25 कि.ग्रा. राशन क्या उन्हें जीवित रखने में सक्षम नहीं था? आंगनबाडियां बच्चों, किशोरी-लडक़ियों व महिलाओं के स्वास्थ्य की रक्षा क्यों नहीं कर पाए? मध्यान्ह भोजन क्या बच्चों को कम से कम एक समय अगर संतुलित आहार उपलब्ध करा पाता तो क्या किसान माता-पिता का बोझ थोडा कम न होता? आदेशों के अनुसार नरेगा में कार्यरत श्रमिकों की मेहनत का मेहनताना क्यों नहीं कुछ दिन और उनके परिवारों का पेट पाल सका?
ऊंचे-ऊंचे पहाडाें की कटाई करने वाले मजदूर परिवारों को क्या मिला कि नौबत यहां तक आ पहुंची? क्यों इन पांच साल में तालाबों को भरा नहीं गया, क्यों उपयोगी व फलदायी पौधों के बजाए विदेशी बबूल जैसे पौधे लगाए गए?
अत: जरूरी है कि सरकारी तंत्र को दुरुस्त करते हुए उसे कार्यों के प्रति जवाबदेह बनाया जाए। देश भर के कृषि विश्वविद्यालयों में खाद्यान्न उत्पादन से संबंधित शोधों को किसानों तक पहुंचाया जाए। सिंचाई, खाद व बिजली व्यवस्था को बेहतर बनाने में कोई कसर न छोडी ज़ाए। किसानों को उनकी पैदावार का समुचित समर्थन मूल्य मिले और फसल बीमा प्रणाली ऐसी हो कि किसान कर्जे से मुक्त रह सके। सूखे की समस्या के स्थायी हल व उपाय के लिए बीपीएल, अन्नपूर्णा और अंत्योदय जैसी कल्याणकारी योजनाओं को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए। साथ ही राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना तथा अन्य विकास योजनाओं को पूरी ईमानदारी से लागू किया जाए।
बुंदेलखंड के किसानों को चाहिए कि वे ऋणमाफी का झुनझुना न पकडें बल्कि अपनी आर्थिक सुदृढता की आधारभूत मांगों को लेकर सडक़ों पर उतरें।
दम तोड़ रही है बेतवा की धार
अंबरीश कुमार
ओरछा अप्रैल। बुंदेलखंड की जीवन रेखा बेतवा नदी की धार दम तोड़ती नजर आ रही है। नदी की धार टूटना शुभ संकेत नहीं है। बुंदेलखंड के लिए यह खतरे की घंटी है। महोबा से ओरछा पहुंचे तो बेतवा को देखकर हैरान रह गए। यही बेतवा हमीरपुर तक बुंदेलखंड में लोगों की जीवन रेखा का काम करती है। सामने बिना पत्तियों वाले पेड़ों का सूखा जंगल है तो दाएं-बाएं सिर्फ बड़े-बड़े पत्थर। कहीं कोई धारा या प्रवाह दिखाई नहीं पड़ता। कंचना घाट पर बेतवा एक तालाब के रूप में नजर आती है। कुछ साल पहले तक यहां हरे-भरे जंगलों के बीच बेतवा का प्रवाह डरा देता था। बुंदेलखंड में पानी के सारे स्रोत धीरे-धीरे सूखते ज रहे हैं। समूचे बुंदेलखंड में चंदेलों ने ६८ बड़े जलाशय बनाए थे। जिनमें कई बांध में भी बदल दिए गए। पर ज्यादातर तालाब सूख चुके हैं। तालाबों का रखरखाव न होने से पानी संकट और गहरा रहा है। दूसरी तरफ ललितपुर, ओरछा, मऊरानी पुर , ङांसी, महोबा, कालपी और हमीरपुर जसे इलाकों में भूजल का स्तर 30 से 50 फीट और नीचे चला गया है। अब हैंडपंप या बोरिंग के लिए डेढ़ सौ से दो फीट तक खुदाई की ज रही है। यह बात अलग है कि नदी, तालाब और पहाड़ बुंदेलखंड के नेताओं की कमाई का बड़ा जरिया बन चुके हैं। नदी से बालू का ठेका हो, तालाब की गहराई बढ़ाने के लिए खुदाई का ठेका हो या फिर पहाड़ खनन का। सभी पर विधायक, सांसद और मंत्री के नाते-रिश्तेदारों का कब्ज है। यहां के सारे बाहुबली विधायक, सांसद, मंत्री इन ठेकों से करोड़ों रुपए महीने कमा रहे हैं। दूसरी तरफ हमीरपुर के जुगनी गांव की बच्ची प्रभा दो-तीन दिन में एक बार खाना खा पाती है और इसी इलाके में कजर्, सूखे और भुखमरी चलते दजर्नों किसान खुदकुशी कर चुके हैं। बुंदेलखंड के दोहन में राजनैतिक नेताओं की भूमिका पूरा अलग विषय है।
बुंदेलखंड में बेतवा, केन, धसान, उरमिल और यमुना नदी हैं। इनमें धसान और यमुना को छोड़ कर सभी का हाल बेहाल है। ओरछा में तो भगवान के राम के चरणों में ही बेतवा की धार टूट रही है। पूरे इलाके में सूखे का असर है। बबूल, नीम और सूखे बांसों के बीच अचानक दहकते हुए सुर्ख पलाश जरूर सुखद लगते हैं। पर गांव के भीतर जते ही हालात भयावह नजर आते हैं। उत्तर प्रदेश-मध्यप्रदेश सीमा पर बेतवा के आसपास पिपरा, बमरौली शीतल, बिल्ट, रजपुरा और बागन गांव के बाद ङांसी की तरफ गोपालपुर, गणोशगढ़, सरमउ और हस्तिनापुर जसे गांव में पानी को लेकर जगरूकता अभियान चलाया ज रहा है। इस इलाके में भूजल स्तर काफी नीचे ज चुका है। कई गांवों में एक हैंडपंप है जहां देररात तक महिलाओं की लाइन लगी रहती है। तारा गांव में डवलपमेंट अल्टरनेटिव संस्था के पर्यावरणविद् सोनल कुलस्रेष्ठ ने कहा, ‘पानी के मौजूदा संकट के पीछे जंगलों की अधाधुंध कटाई है। जंगल कटे तो मिट्टी भी नहीं रूकी और बरसात का पानी संचय नहीं हो पाया। इस क्षेत्र में बड़ी-बड़ी चट्टाने हैं। चट्टाने यदि टूटी हों या दरक जएं तो पानी नीचे ज सकता है। पर सालिड रॉक (ठोस चट्टान) के चलते यहां पानी संचय नहीं हो पा रहा है। पिछले छह साल में सिर्फ दो बार बारिश हुई है। इससे भूजल स्तर डेढ़ सौ से दो फीट नीचे ज चुका है।’
बुंदेलखंड में अब पानी समाज का मुख्य मुद्दा बन रहा है। तालाब और पोखरों की फिर याद आ रही है। हमीरपुर में मौदहा बांध से नहर के जरिए जो तालाब-पोखर और गड्ढे भरवाए गए थे वह सात दिन में सूख गए। गर्मी में बुंदेलखंड और तप जता है। सिर्फ पथरीले बुंदेलखंड में बजरी-पत्थर की गर्म भभक और कहर ढाती है। एसे में मवेशियों के लिए पानी का इंतजम भी जरूरी है। महोबा में प्रशासन ने मवेशियों के लिए ३७५ चिरहई (मवेशियों के लिए पानी का हौद) बनवाए थे पर ज्यादातर कागजों में ही हैं। अब ललितपुर से लेकर हमीरपुर तक मवेशियों के चारे-पानी के लिए प्रशासन कुछ पहल करता नजर आ रहा है। पर प्रशासन की दिक्कत यह है कि पानी ला सकता है पानी बना नहीं सकता। बड़े ट्यूबेल से पानी का संकट और बढ़ रहा है। जहां सरकारी ट्यूबेल से पानी भरा जता है वहां के आसपास के गांव में कई हैंडपंपों से पानी निकलना बंद हो ज रहा है। बुंदेलखंड में महोबा के बाद सूखे का ज्यादा असर हमीरपुर में बढ़ता नजर आ रहा है। हमीरपुर के कलेक्टर समीर वर्मा के मुताबिक कई जहों पर पानी व सूखा की स्थिति गंभीर है। तो कुछ गांव में अति गंभीर है। रांठ में दस गांव गंभीर स्थिति में हैं तो मौदहा में २९ गांव गंभीर स्थिति में हैं। सरीला क्षेत्र में 30 गांव गंभीर स्थिति में हैं तो पांच गांव अतिगंभीर स्थिति में। हमीरपुर में सौ लोगों पर एक हैंडपंप का मानक है। कई जगहों पर एक से ज्यादा हैंडपंप लगाए गए हैं। फिर भी पानी का संकट कम नहीं हो पा रहा है। पानी की गंभीर स्थिति का अंदाज इसी से लगाया ज सकता है कि सूखा राहत की बैठक में हमीरपुर के कलेक्टर ने इजराइल का उदाहरण देते हुए कहा, ‘बुंदेलखंड से भी कम पानी इजराइल में बरसता है। बावजूद उसके वहां की पैदावार बुंदेलखंड से आठ गुना है। क्योंकि लोग वहां पानी संचय करते हैं और ड्रिप इरीगेशन (बूंद-बूंद से सिंचाई) की प्रणाली वहां इस्तेमाल की जती है।’ हालांकि एक तथ्य और यह भी है कि इजराइल में विधायक, सांसद और मंत्री नदी, तालाब और पहाड़ों का इतनी बेदर्दी से दोहन भी नहीं करते। जसा बुंदेलखंड में हो रहा है।
बेतवा नदी करीब सवा सौ किलोमीटर की सफर तय कर जब हमीर पहुंचती है तो उसकी धार नल के धार जसी हो जती है। कुछ साल पहले तक यही बेतवा नदी ओरछा से लेकर हमीरपुर तक उफनाती नजर आती थी। हमीरपुर के किसान नेता प्रीतम सिंह ने कहा, ‘यहां तो बेतवा नदी नल की धारा से भी कमजोर हो चुकी है। यह हाल अप्रैल के पहले हफ्ते का है। गर्मी और बढ़ी तो बेतवा की धार टूट भी सकती है। नदी की धार टूट जए तो जीवन कैसे चलेगा।’
इस जिले में सूखे और अकाल का बुरा हाल है। टेढ़ा गांव, पचकरा, ममना, धौल, बंगरा, रहटिया और जिगनी में दाने-दाने के लिए किसान मोहताज है। कर्ज में डूबे किसानों को रोज भरपेट खाने को नहीं मिल पाता। गांव-गांव के खाली होते ज रहे हैं। पीने का पानी नहीं और खाने को अन्न नहीं है। रहटिया गांव के पास मिले जगदम्बा ने कहा, ‘भइया भूख बर्दाश्त नहीं होती है। बच्च जब खाली पेट सोता है तो जिंदा रहने का मन नहीं करता। दो-तीन में कहीं मजदूरी मिल जती है तो रोटी नसीब हो पाती है।’ (साभार- जनसत्ता)
ओरछा अप्रैल। बुंदेलखंड की जीवन रेखा बेतवा नदी की धार दम तोड़ती नजर आ रही है। नदी की धार टूटना शुभ संकेत नहीं है। बुंदेलखंड के लिए यह खतरे की घंटी है। महोबा से ओरछा पहुंचे तो बेतवा को देखकर हैरान रह गए। यही बेतवा हमीरपुर तक बुंदेलखंड में लोगों की जीवन रेखा का काम करती है। सामने बिना पत्तियों वाले पेड़ों का सूखा जंगल है तो दाएं-बाएं सिर्फ बड़े-बड़े पत्थर। कहीं कोई धारा या प्रवाह दिखाई नहीं पड़ता। कंचना घाट पर बेतवा एक तालाब के रूप में नजर आती है। कुछ साल पहले तक यहां हरे-भरे जंगलों के बीच बेतवा का प्रवाह डरा देता था। बुंदेलखंड में पानी के सारे स्रोत धीरे-धीरे सूखते ज रहे हैं। समूचे बुंदेलखंड में चंदेलों ने ६८ बड़े जलाशय बनाए थे। जिनमें कई बांध में भी बदल दिए गए। पर ज्यादातर तालाब सूख चुके हैं। तालाबों का रखरखाव न होने से पानी संकट और गहरा रहा है। दूसरी तरफ ललितपुर, ओरछा, मऊरानी पुर , ङांसी, महोबा, कालपी और हमीरपुर जसे इलाकों में भूजल का स्तर 30 से 50 फीट और नीचे चला गया है। अब हैंडपंप या बोरिंग के लिए डेढ़ सौ से दो फीट तक खुदाई की ज रही है। यह बात अलग है कि नदी, तालाब और पहाड़ बुंदेलखंड के नेताओं की कमाई का बड़ा जरिया बन चुके हैं। नदी से बालू का ठेका हो, तालाब की गहराई बढ़ाने के लिए खुदाई का ठेका हो या फिर पहाड़ खनन का। सभी पर विधायक, सांसद और मंत्री के नाते-रिश्तेदारों का कब्ज है। यहां के सारे बाहुबली विधायक, सांसद, मंत्री इन ठेकों से करोड़ों रुपए महीने कमा रहे हैं। दूसरी तरफ हमीरपुर के जुगनी गांव की बच्ची प्रभा दो-तीन दिन में एक बार खाना खा पाती है और इसी इलाके में कजर्, सूखे और भुखमरी चलते दजर्नों किसान खुदकुशी कर चुके हैं। बुंदेलखंड के दोहन में राजनैतिक नेताओं की भूमिका पूरा अलग विषय है।
बुंदेलखंड में बेतवा, केन, धसान, उरमिल और यमुना नदी हैं। इनमें धसान और यमुना को छोड़ कर सभी का हाल बेहाल है। ओरछा में तो भगवान के राम के चरणों में ही बेतवा की धार टूट रही है। पूरे इलाके में सूखे का असर है। बबूल, नीम और सूखे बांसों के बीच अचानक दहकते हुए सुर्ख पलाश जरूर सुखद लगते हैं। पर गांव के भीतर जते ही हालात भयावह नजर आते हैं। उत्तर प्रदेश-मध्यप्रदेश सीमा पर बेतवा के आसपास पिपरा, बमरौली शीतल, बिल्ट, रजपुरा और बागन गांव के बाद ङांसी की तरफ गोपालपुर, गणोशगढ़, सरमउ और हस्तिनापुर जसे गांव में पानी को लेकर जगरूकता अभियान चलाया ज रहा है। इस इलाके में भूजल स्तर काफी नीचे ज चुका है। कई गांवों में एक हैंडपंप है जहां देररात तक महिलाओं की लाइन लगी रहती है। तारा गांव में डवलपमेंट अल्टरनेटिव संस्था के पर्यावरणविद् सोनल कुलस्रेष्ठ ने कहा, ‘पानी के मौजूदा संकट के पीछे जंगलों की अधाधुंध कटाई है। जंगल कटे तो मिट्टी भी नहीं रूकी और बरसात का पानी संचय नहीं हो पाया। इस क्षेत्र में बड़ी-बड़ी चट्टाने हैं। चट्टाने यदि टूटी हों या दरक जएं तो पानी नीचे ज सकता है। पर सालिड रॉक (ठोस चट्टान) के चलते यहां पानी संचय नहीं हो पा रहा है। पिछले छह साल में सिर्फ दो बार बारिश हुई है। इससे भूजल स्तर डेढ़ सौ से दो फीट नीचे ज चुका है।’
बुंदेलखंड में अब पानी समाज का मुख्य मुद्दा बन रहा है। तालाब और पोखरों की फिर याद आ रही है। हमीरपुर में मौदहा बांध से नहर के जरिए जो तालाब-पोखर और गड्ढे भरवाए गए थे वह सात दिन में सूख गए। गर्मी में बुंदेलखंड और तप जता है। सिर्फ पथरीले बुंदेलखंड में बजरी-पत्थर की गर्म भभक और कहर ढाती है। एसे में मवेशियों के लिए पानी का इंतजम भी जरूरी है। महोबा में प्रशासन ने मवेशियों के लिए ३७५ चिरहई (मवेशियों के लिए पानी का हौद) बनवाए थे पर ज्यादातर कागजों में ही हैं। अब ललितपुर से लेकर हमीरपुर तक मवेशियों के चारे-पानी के लिए प्रशासन कुछ पहल करता नजर आ रहा है। पर प्रशासन की दिक्कत यह है कि पानी ला सकता है पानी बना नहीं सकता। बड़े ट्यूबेल से पानी का संकट और बढ़ रहा है। जहां सरकारी ट्यूबेल से पानी भरा जता है वहां के आसपास के गांव में कई हैंडपंपों से पानी निकलना बंद हो ज रहा है। बुंदेलखंड में महोबा के बाद सूखे का ज्यादा असर हमीरपुर में बढ़ता नजर आ रहा है। हमीरपुर के कलेक्टर समीर वर्मा के मुताबिक कई जहों पर पानी व सूखा की स्थिति गंभीर है। तो कुछ गांव में अति गंभीर है। रांठ में दस गांव गंभीर स्थिति में हैं तो मौदहा में २९ गांव गंभीर स्थिति में हैं। सरीला क्षेत्र में 30 गांव गंभीर स्थिति में हैं तो पांच गांव अतिगंभीर स्थिति में। हमीरपुर में सौ लोगों पर एक हैंडपंप का मानक है। कई जगहों पर एक से ज्यादा हैंडपंप लगाए गए हैं। फिर भी पानी का संकट कम नहीं हो पा रहा है। पानी की गंभीर स्थिति का अंदाज इसी से लगाया ज सकता है कि सूखा राहत की बैठक में हमीरपुर के कलेक्टर ने इजराइल का उदाहरण देते हुए कहा, ‘बुंदेलखंड से भी कम पानी इजराइल में बरसता है। बावजूद उसके वहां की पैदावार बुंदेलखंड से आठ गुना है। क्योंकि लोग वहां पानी संचय करते हैं और ड्रिप इरीगेशन (बूंद-बूंद से सिंचाई) की प्रणाली वहां इस्तेमाल की जती है।’ हालांकि एक तथ्य और यह भी है कि इजराइल में विधायक, सांसद और मंत्री नदी, तालाब और पहाड़ों का इतनी बेदर्दी से दोहन भी नहीं करते। जसा बुंदेलखंड में हो रहा है।
बेतवा नदी करीब सवा सौ किलोमीटर की सफर तय कर जब हमीर पहुंचती है तो उसकी धार नल के धार जसी हो जती है। कुछ साल पहले तक यही बेतवा नदी ओरछा से लेकर हमीरपुर तक उफनाती नजर आती थी। हमीरपुर के किसान नेता प्रीतम सिंह ने कहा, ‘यहां तो बेतवा नदी नल की धारा से भी कमजोर हो चुकी है। यह हाल अप्रैल के पहले हफ्ते का है। गर्मी और बढ़ी तो बेतवा की धार टूट भी सकती है। नदी की धार टूट जए तो जीवन कैसे चलेगा।’
इस जिले में सूखे और अकाल का बुरा हाल है। टेढ़ा गांव, पचकरा, ममना, धौल, बंगरा, रहटिया और जिगनी में दाने-दाने के लिए किसान मोहताज है। कर्ज में डूबे किसानों को रोज भरपेट खाने को नहीं मिल पाता। गांव-गांव के खाली होते ज रहे हैं। पीने का पानी नहीं और खाने को अन्न नहीं है। रहटिया गांव के पास मिले जगदम्बा ने कहा, ‘भइया भूख बर्दाश्त नहीं होती है। बच्च जब खाली पेट सोता है तो जिंदा रहने का मन नहीं करता। दो-तीन में कहीं मजदूरी मिल जती है तो रोटी नसीब हो पाती है।’ (साभार- जनसत्ता)
खतरे में है गंगा का मायका -
भारत डोगराकभी बाढ़ तो कभी पानी की जबर्दस्त कमी। यह हालत देश के विशाल मैदानी इलाकों में अक्सर नजर आती है। इसकी कई वजहें हैं, लेकिन सबसे बड़ी वजह यह है कि पहाड़ी इलाकों में नदियों के जलग्रहण क्षेत्र या कैचमेंट एरिया का पर्यावरण तबाह हो रहा है। जब पहाड़ी जलग्रहण इलाकों में जंगल घटते हैं, मिट्टी का कटाव तथा भूस्खलन बढ़ता है और बारिश का ज्यादातर पानी जमीन में जाने की बजाय तेजी से नदियों की ओर दौड़ता है, तो नीचे के मैदानी इलाकों में कभी बाढ़ तो कभी जल-अभाव का खतरा पैदा हो जाता है।
यह बात सदियों से भारतीय सभ्यता को सींचने वाली गंगा नदी और उसके मायके उत्तराखंड के मामले में तो और भी साफ नजर आती है। हिमालय के विशाल, लेकिन कच्चे पहाड़ों में वन, भूमि और जल-संरक्षण पर ध्यान देना वैसे भी जरूरी है, वरना मिट्टी के कटाव, भूस्खलन और बाढ़ का खतरा किसी भी हद तक बढ़ सकता है। ग्लोबल वार्मिंग के इस दौर में यह संकट पहले से ज्यादा गहरा हो गया है। हालांकि दुनिया भर के ग्लेशियर पिघल रहे हैं और पीछे खिसक रहे हैं, लेकिन हाल में विशेषज्ञों ने बताया है कि हिमालय में यह सिलसिला औसत से भी तेज है।
इसका मतलब है कि शुरुआती कुछ बरसों में नदियों में पानी सामान्य मात्रा से ज्यादा पहुंच कर बाढ़ की नौबत ला सकता है, जबकि आगे चलकर पानी की जबर्दस्त किल्लत पड़ जाएगी। ग्लेशियर पिघलने से इनके नीचे झीलें बन रही हैं, जिनके किनारे मलबे और बर्फ के बने हैं। बर्फ पिघलने से इनमें से कुछ झीलें अचानक फूट सकती हैं और नीचे के इलाकों में भयंकर तबाही मचा सकती हैं।
होना तो यह चाहिए था कि इस बेहद नाजुक दौर में हिमालय और खासकर उत्तराखंड़ के विकास तथा नियोजन में बहुत सावधानी बरती जाती। आपदाओं की संभावना और नुकसान कम करने को खास तवज्जो दी जाती। लेकिन सरकारी नीतियां इसके उलट रही हैं। उत्तराखंड में नदियों पर ऐसे प्रोजेक्ट बनाए गए, जो इन खतरों को बढ़ाने वाले हैं। इनके नियोजन में ग्लोबल वार्मिंग संबंधी बदलावों को ध्यान में रखा ही नहीं गया।
इनमें शायद सबसे खतरनाक प्रोजेक्ट टिहरी बांध है। जिन नामी विशेषज्ञों, यहां तक कि सरकार की अपनी विशेषज्ञ समितियों ने इस प्रोजेक्ट के खतरों के प्रति समय-समय पर चेतावनी दी, उनकी लिस्ट काफी लंबी है। एनवायरनमेंट मिनिस्ट्री की एक हाई लेवल कमिटी ने विस्तार से बताया था कि भूकंप के बड़े खतरे वाले इलाके में बने इस खतरनाक बांध के टूटने से नीचे के इलाकों में भयानक तबाही मच सकती है। इस आधार पर इस कमिटी ने बांध निर्माण रोकने की सिफारिश की थी, पर इसे सरकार ने नहीं माना।
बाद में जब इस प्रोजेक्ट के हाई टेंशन तार बिछाने का काम चल रहा था तो गंगा की सहायक नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों में हजारों पेड़ कटने की नौबत आ गई। एनवायरनमेंट मिनिस्ट्री की समिति के दो सदस्यों से पूछने पर पता चला कि इस बारे में अफसरों ने उन्हें बताया तक नहीं था। इन पेड़ों को बचाने के लिए हेंवलघाटी क्षेत्र में आंदोलन हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने अपना जांच दल भेजा। इस दल के इंस्पेक्शन के बाद अफसरों ने कटान वाली पट्टी की चौड़ाई पहले से काफी कम कर दी, जिससे हजारों पेड़ों की रक्षा हुई। लेकिन इससे यह भी पता चला कि पहले अफसरों ने नाहक ही हजारों पेड़ काटने की तैयारी कर ली थी।
इस तरह की कई मिसालें है कि गंगा के जलग्रहण क्षेत्र को लेकर कितनी लापरवाही बरती जा रही है। कई वर्ष पहले लीसा निकालने के लिए चीड़ के पेड़ों की अंधाधुंध कटाई की जाती थी। बहुत हद तक चिपको आंदोलन का ही योगदान था कि उत्तराखंड के एक बड़े इलाके में हरे पेड़ों के कटान पर रोक लगी। इससे गंगा के मायके में पर्यावरण को कुछ राहत मिली, पर उसी समय टिहरी बांध जैसी योजनाएं नया खतरा लेकर सामने आ गईं।
टिहरी बांध से अनेक जोखिमों के साथ विस्थापन की बहुत बड़ी समस्या भी पैदा हुई, जिसका संतोषजनक समाधान आज तक नहीं हुआ। कुछ लोगों ने चाहे चालाकी से अपने लिए अच्छे पैकेज का जुगाड़ कर लिया, लेकिन हजारों साधारण गांववासी आज भी न्याय के लिए भटक रहे हैं। लेकिन टिहरी बांध तो एक शुरुआत है। सरकार ने गंगा और उसकी सहायक नदियों पर बहुत सी पनबिजली परियोजनाओं को जल्दबाजी में आगे बढ़ा दिया है।
जिन गांवों का जीवन इनसे प्रभावित हो रहा था उनसे बहुत कम मशविरा किया गया। कहीं गांववासियों ने भूकंपीय क्षेत्र के अधिक अस्थिर होने की शिकायत की, कहीं खेत-खलिहान या चरागाह उजड़ने की, कहीं परंपरागत सिंचाई तथा जलस्त्रोत नष्ट होने की, तो कहीं भूस्खलन जैसे खतरे बढ़ने की। कई जगह लोगों ने यह भी कहा कि अगर हमसे मशविरा लेकर काम हो तो हम ऐसे उपाय सुझा सकते हैं जिनसे पर्यावरण के नुकसान और जोखिमों को कम से कम किया जा सकेगा।
भिलंगना नदी के प्रोजेक्ट के बारे में पिफलैंडा और आसपास के लोगों ने यही कहा, लेकिन उनका भयंकर उत्पीड़न किया गया। किसी आंदोलनकारी को जेल में ठूंसा गया तो किसी को निर्ममता से पीटा गया। यह रवैया लोकतंत्र विरोधी तो है ही, देश को खतरे में डालने वाला भी है। इसीलिए उत्तराखंड के लोग अब संगठित होकर नदियों को बचाने की मुहिम शुरू कर रहे हैं, जैसे उन्होंने जंगल बचाने के लिए चिपको आंदोलन छेड़ा था।
सरकार को चाहिए कि वह इस उभरती आवाज पर ध्यान दे और विकास की शुरुआत इस इलाके के परंपरागत घराटों (पनचक्कियों) से करे। इससे ऊर्जा का सस्ता, परंपरागत स्त्रोत बचेगा और स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिलेगा। इन घराटों के साथ धीरे-धीरे पनबिजली का उत्पादन जुड़ सकता है। जैसे स्थानीय लोगों की इस मामले में कुशलता बढे़गी, वे अपने गांव के नदी-नालों पर ऐसी माइक्रो व मिनी पनबिजली परियोजनाएं तैयार कर सकते हैं जिनके बुरे असर न्यूनतम हों और जिनकी ऊर्जा से पहाड़ की इकॉनमी मजबूत हो। ऊपर से प्रोजेक्ट थोपने के बजाय इस राह पर चलें तो टकराव के बिना सबकी भलाई का काम होगा।
यह वक्त लापरवाही बरतने का नहीं है, क्योंकि पूरी मानवता का भविष्य दांव पर लगा है। पहले जैसी उपेक्षा अब हम अपने संसाधनों के साथ नहीं बरत सकते। इस बात का अहसास हमें जितनी जल्द हो जाए, उतना अच्छा। सिर्फ सही नीतियां ही हमें आने वाले भयानक खतरों से बचा सकती हैं। जनता को इसका अहसास है, लेकिन शासकों को नहीं।
( लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैं)
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