प्रस्तुति- किशोर प्रियदर्शी
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कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण स्वयं भगवान विश्वकर्मा ने एक रात में की थी. यह देश का एकमात्र ऐसा सूर्य मंदिर है, जिसका दरवाजा पश्चिम की ओर है.
इस मंदिर के निर्माण का स्पष्ट कोई प्रमाण तो नहीं मिलता है, मगर कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण डेढ़ लाख वर्ष पूर्व किया गया था. छठ पर्व के मौके पर यहां लाखों लोग भगवान भास्कर की अराधना के लिए जुटते हैं.
ऐतिहासिक त्रेतायुगीन पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर अपनी विशिष्ट कलात्मक भव्यता के साथ साथ अपने इतिहास के लिए भी विख्यात है. औरंगाबाद से 18 किलोमिटर दूर देव स्थित सूर्य मंदिर करीब सौ फीट ऊंचा है. मान्यता है कि इस मंदिर का निर्माण त्रेता युग में स्वयं भगवान विश्वकर्मा ने किया था.
डेढ़ लाख वर्ष पुराना यह सूर्य मंदिर काले और भूरे पत्थरों की नायाब शिल्पकारी से बना यह सूर्य मंदिर ओड़िशा के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर से मिलता-जुलता है. मंदिर के निर्माणकाल के संबंध में मंदिर के बाहर लगे एक शिलालेख पर ब्राह्मी लिपि में लिखित और संस्कृत में अनूदित एक श्लोक के मुताबिक, इस मंदिर का निर्माण 12 लाख 16 हजार वर्ष त्रेता युग के बीत जाने के बाद इला-पुत्र पुरुरवा ऐल ने आरंभ करवाया.
शिलालेख से पता चलता है कि सन् 2017 ईस्वी में इस पौराणिक मंदिर के निर्माण काल को एक लाख पचास हजार सत्रह वर्ष पूरे हो गए हैं.
देव मंदिर में सात रथों से सूर्य की उत्कीर्ण प्रस्तर मूर्तियां अपने तीनों रूपों उदयाचल (सुबह) सूर्य, मध्याचल (दोपहर) सूर्य, और अस्ताचल (अस्त) सूर्य के रूप में विद्यमान है. पूरे देश में यही एकमात्र सूर्य मंदिर है जो पूर्वाभिमुख न होकर पश्चिमाभिमुख है. करीब एक सौ फीट ऊंचा यह सूर्य मंदिर स्थापत्य और वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है.
बिना सीमेंट या चूना-गारा का प्रयोग किए आयताकार, वर्गाकार, आर्वाकार, गोलाकार, त्रिभुजाकार आदि कई रूपों और आकारों में काटे गए पत्थरों को जोड़कर बनाया गया यह मंदिर अत्यंत आकर्षक एवं विस्मयकारी है.
देव सूर्य मंदिर देश की धरोहर एवं अनूठी विरासत है. हर साल छठ पर्व पर यहां लाखों श्रद्धालु छठ करने झारखंड, मध्य प्रदेश, उतरप्रदेश समेत कई राज्यों से आते हैं. कहा जाता है कि जो भक्त मन से इस मंदिर में भगवान सूर्य की पूजा करते हैं, उनकी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं.
जनश्रुतियों के मुताबिक, एक राजा ऐल एक बार देव इलाके के जंगल में शिकार खेलने गए थे. शिकार खेलने के समय उन्हें प्यास लगी. उन्होंने अपने आदेशपाल को लोटा भर पानी लाने को कहा. आदेशपाल पानी की तलाश करते हुए एक पानी भरे गड्ढे के पास पहुंचा. वहां से उसने एक लोटा पानी लेकर राजा को दिया. राजा के हाथ में जहां-जहां पानी का स्पर्श हुआ, वहां का कुष्ठ ठीक हो गया.
राजा बाद में उस गड्ढे में स्नान किया और उनका कुष्ठ रोग ठीक हो गया. उसके बाद उसी रात जब राजा रात में सोए हुए, तो सपना आया कि जिस गड्ढे में उन्होंने स्नान किया था, उस गड्ढे में तीन मूर्तियां हैं. राजा ने फिर उन मूर्तियों को एक मंदिर बनाकर स्थापित किया.
कार्तिक एवं चैत महीने में छठ करने कई राज्यों से लाखों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं. यहां मंदिर के समीप स्थित सूर्यकुंड तालाब का विशेष महत्व है. इस सूर्यकुंड में स्नान कर व्रती सूर्यदेव की आराधना करते हैं.
मंदिर के मुख्य पुजारी सच्चिदानंद पाठक ने बताया कि प्रत्येक दिन सुबह चार बजे भगवान को घंटी बजाकर जगाया जाता है. उसके बाद पुजारी भगवान को नहलाते हैं, ललाट पर चंदन लगाते हैं, नया वस्त्र पहनाते हैं. यह परंपरा आदि काल से चली आ रही है. भगवान को आदित्य हृदय स्त्रोत का पाठ सुनाया जाता है.
यूं तो सालभर देश के विभिन्न जगहों से लोग इस मंदिर में आते हैं और मनौतियां मांगते हैं, लेकिन छठ के मौके पर यहां खूब भीड़ जुटती है. मनौती पूरी होने पर यहां लोग सूर्यदेव को अर्ध्य देने आते हैं.
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