Monday, December 19, 2011

भारतीय संस्कृति और समलैंगिकता

Monday, December 19th, 2011
 
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Published on October 8, 2011 by Tamanna   ·   No Comments  ·   Post Views  37 views kk भारतीय संस्कृति और समलैंगिकताहाल ही में केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाब नबी आजाद ने अपने वक्तव्य में समलैंगिकता को एक अप्राकृतिक और गंभीर बिमारी कहकर संबोधित किया. उनके इस कथन से गे और लेस्बियन संप्रदाय के लोगों में रोष उत्पन्न होना स्वाभाविक था. लेकिन अगले ही दिन कॉग्रेस और अपने वोट बैंक को बचाने के लिए उन्होंने इस मुद्दे से यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया कि मीडिया मे उनके इस बयान को तोड़-मरोड़कर पेश किया हैं. उनका आश्य किसी की भावनाओं को ठेस इस पहुंचाना नहीं था. खास बात तो यह कि उनके इस बयान का केवल एलजीबीटी (लेस्बियन, गे, बाइसेक्युअल और ट्रांसजेंडर) जैसे संप्रदायों से जुड़े लोगों ने ही विरोध नहीं किया बल्कि बॉलिवुड और कईं ऐसे संस्थानों, जो मानवाधिकार के लिए लड़ रहें हैं, उनकी ओर से भी आजाद के इस बयान के विरुद्ध बुलंद आवाजे उठने लगी थी . अब ऐसे में कोई भी तरक्कीपसंद ‘नेता’ अपनी कुर्सी को बचाने के लिए अगर अपना बयान वापस ले लेता हैं तो इसमे कोई बुराई नहीं हैं. बल्कि उनका ऐसा ना करना थोड़ी हैरानी पैदा कर सकता था.

खैर, यहां बात राजनीति से जुड़ी हुई नहीं हैं तो राजनेता और उनकी चुनावी रणनीति के बारे में बात करने का कोई फायदा नहीं है. राजनीति से कहीं अधिक समलैंगिकता जैसा विषय जिसे हमारे समाज में होमोसेक्युएलिटी के नाम से अधिक जाना जाता है, हमारी भारतीय संस्कृति इसकी पवित्रता से जुडा हुआ हैं. पाश्चिमी देशों से भारत आई यह एक ऐसी बिमारी हैं. जिसके गंभीर परिणाम धीरे-धीरे भारत की संस्कृति और परंपराओं की मजबूत नींव को खोखला करते जा रहें हैं. भारतीय समाज जिसे कभी विश्व के सांस्कृतिक गुरू की उपाधी से नवाजा जाता था, आज अपने ही लोगों के भद्दे और अप्राकृतिक यौन आचरण की वजह से बरसों पुरानी इस पहचान को खोता जा रहा हैं.

भारत के संदर्भ में समलैंगिकता जैसा शब्द कोई नई अवधारणा नहीं हैं बल्कि बरसों से यह एक ऐसा प्रश्न बना हुआ हैं जो मनुष्य और उसके मानसिक विकार को प्रदर्शित करता हैं. सन 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणा से मुक्त कर दिया है. अदालत के इस आदेश से उन लोगों ने तो राहत की सांस ली ही होगी जो इसमें रूची रखते है या ऐसे बेहूदा संबंधों को बुरा नहीं मानकर उनका समर्थन करते हैं. लेकिन नियमों और कानूनों के पक्के भारतीय समाज में इसे किसी भी हाल में स्वीकार नहीं किया जा सकता. ब्रिटिश काल से चले आ रहें आदेशों और कानूनों की बात करें तो उनके जैसे खुले विचारों वाली सरकार ने भी इसे स्पष्ट रूप से मनुष्य द्वारा किया गया एक ऐसा अप्राकृतिक और अस्वाभाविक दंडनीय कृत्य माना था जिसके दोषी पाए जाने पर व्यक्ति 10 साल तक की कैद होने का प्रावधान था. लेकिन अब जब समलैंगिकता जैसे जघन्य अपराध को कानूनी मान्यता मिल गई हैं तो इससे भारत की बरसों पुरानी छवि और उसकी आन मिट्टी में मिलती प्रतीत होती है.

हम इस बात को कतई नकार नहीं सकते कि ऐसे संबंध भी अन्य दूसरों कुप्रभावों की तरह पाश्चात्य देशों की ही देन हैं. इसका मूल कारण वहां की संस्कृति के काफी खुले और बंधन रहित होना हैं. मनोरंजन के नाम पर फूहड़ और भद्दे प्रयोग वहां के लोगों के लिए कोई नई बात नहीं हैं. आए दिन संबंधों से जुड़ी किसी नई विचारधारा का प्रचार-प्रसार होता ही रहता हैं. पाश्चात्य देशों में अब हालात ऐसे हो गए हैं कि व्यक्तियों के पारस्परिक संबंध भी केवल शारिरिक भोग और विलास तक ही सीमित रह गए हैं. यौन संबंधों मे पूर्ण रूप से लिप्त विदेशी संस्कृति समलैंगिकता जैसे संबंधों को भी फन और एक अनोखे प्रयोग के तौर पर लेती हैं, क्योंकि उन्हें यह सब सामान्य संबंधों से अधिक उत्साही लगता हैं. जिसका अनुसरण भारतीय लोग भेड़-चाल की तरह आंख मूंद कर करते हैं. वे मॉडर्न और अपडेटिड रहने के चक्कर में अपनी मौलिकता और अपनी पहचान के साथ भी समझौता करने से भी नहीं चूकतें. उन्हें अब संस्कृति और परंपराओं जैसी बातें आउट ऑफ फैशन लगती हैं.

आंकडों पर नजर डाले तो पिछले कुछ सालों में समलैंगिकों की संख्या और इस विषय में युवाओं रूझान में काफी इजाफा हुआ है। समलैंगिकों को अब धारा 377 के तहत कानूनी संरक्षण मिलना इसका एक सबसे बड़ा कारण हैं. क्योंकि जो संबंध हमेशा समाज की नजर से छुपाए जाते थे, आज खुले-आम उनका प्रदर्शन होने लगा हैं. ऐडस और एचआईवी जैसी यौन संक्रमित बिमारियों में आती बढोतरी का कारण भी ऐसे ही संबंधों की स्वीकार्यता हैं. निश्चित रूप से इसे दी गई कानूनी मान्यता मानव समाज, उसके स्वास्थ्य और मानसिकता पर भारी पड़ेगी.


यौन वरीयता मनुष्य का अपना व्यक्तिगत मामला हो सकता है, लेकिन एक इसी आधार पर उसे पूर्ण रूप  से स्वतंत्र नहीं छोड़ा जा सकता. इसके समर्थन से जुड़े लोगों का यह तर्क हैं कि व्यक्ति का आकर्षण किस ओर होगा यह उसकी मां के गर्भ में ही निर्धारित हो जाता हैं. और अगर वह समलिंगी संबंधों की ओर आकृष्ट होते हैं तो यह पूर्ण रूप से स्वाभाविक व्यवहार माना जाना चाहिए. लेकिन यहां इस बात की ओर ध्यान देना जरूरी है कि जब प्रकृति ने ही महिला और पुरुष दोनो को एक दूसरे के पूरक के रूप में पेश किया हैं. तो ऐसे हालातों में पुरुष द्वारा पुरुष की ओर आकर्षित होने के सिद्धांत को मान्यता देना कहा तक स्वाभाविक माना जा सकता हैं. इसके विपरीत समलैंगिकता जैसे संबंध स्पष्ट रूप से एक मनुष्य के मानसिक विकार की ही उपज हैं. यह एक ऐसे प्रदूषण की तरह है, जो धीरे-धीरे जो प्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष ढ़ंग से पूरे भारतीय समाज को अपनी चपेट में ले रहा हैं. यह पूर्ण रूप से अप्राकृतिक हैं, और हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि जब भी हम प्रकृति के विपरीत कोई काम करते है तो उसके गंभीर परिणाम भोगने ही पड़ते है.

भारतीय समाज में संबंधों की महत्ता इस कदर व्याप्त है कि कोई भी रिश्ता व्यक्तिगत संबंध के दायरे तक ही सीमित नहीं रह सकता. विवाह को एक ऐसी संस्था का स्थान दिया गया हैं जो व्यक्ति की मूलभूत आवश्यक्ता होने के साथ ही उसके परिवार के विकास के लिए भी बेहद जरूरी हैं. और ऐसे अदलती फरमान भारतीय समाज और पारिवारिक विघटन की शुरुआत को दर्शा रहा है. शारिरिक संबंधों को केवल एक व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र में रखना भले ही उसकी अपनी स्वतंत्रता के लिहाज से सही हों लेकिन सामाजिक दृष्टिकोण में पूर्ण रूप से गलत होगा. केवल मौज-मजे के लिए समलिंगी सम्बन्ध बनाना और समलैंगिता के समर्थन में निकाली गई किसी भी परेड़ का समर्थन करना ऐसे किसी भी समाज की पहचान नहीं हो सकती जो अपनी परंपरा और संस्कृति के विषय में गंभीर हों. और भारत जैसे सभ्य समाज में ऐसी स्वच्छंद उद्दंडता के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए.

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