यमुनानगर। डीएवी गर्ल्स कॉलेज में प्रवासी
साहित्य पर चल रही अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी के दूसरे दिन प्रवासी साहित्य
की प्रवृतियों को लेकर खासतौर पर चर्चा की गई। इस परिचर्चा सत्र की
अध्यक्षता मशहूर लेखक और हंस पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव, के साथ ही
मध्य प्रदेश कला परिषद की पत्रिका कलावार्ता के संपादक हरि भटनागर व
केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड के उपनिदेशक भगवान दास मोरवाल ने की।
इस
सत्र में प्रवासी लेखकों की कहानियों की मीमांसा करते हुए महेंद्र मिश्र
ने कहा कि किसी भी लेखक की एक कहानी पढक़र उसके बारे में अंदाजा नहीं लगाया
जा सकता। कथा के जरिए मानवीय संबंधों का फर्क उभर कर समाने आता है।
उन्होंने कहा कि भोगे हुए अनुभवों पर ही कहानी नहीं लिखी जा सकती। अनुभव
दायरे की चीज नहीं अपितु यथार्थ है। उन्होंने बुर्जुगों के एकाकी जीवन पर
विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि दिव्या माथुर की बचाव कहानी
स्त्री की अस्मिता को बचाने पर आधारित है। जबकि २०५० कहानी अच्छी
कल्पनाशीलता का परिचय देती है। मिश्र के मुताबिक कहानी २०५० मशीनी सभ्यता
के भविष्य को भी खूबसूरत अंदाज में पेश करने में सफल हुई है। उन्होंने कहा
कि फंतासी द्वारा प्रभावशाली कथ्य प्रस्तुत किया जा सकता है।
इस
चर्चा में भाग लेते हुए मशहूर लेखक प्रेम जनमेजय ने कहा कि विदेशों में
हिन्दी की अच्छी चीजों को अपनाया जा रहा है। भारत में हिन्दी पढ़ाना
बेगार का काम माना जाता है, जबकि विदेश में जो हिन्दी पढ़ाते हैं, वे
वीआईपी की श्रेणी में आते है। इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि वहाँ
पर हिन्दी का क्या स्थान है।
डीएवी गर्ल्स
कॉलेजमें प्रवासी साहित्य पर चल रही अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी के दूसरे दिन
सुप्रसिद्ध कथाकार एवं हंस पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव ने चार
पुस्तकों का विमोचन किया। जिसमें दिल्ली से आए भगवानदास मोरवाल की पुस्तक
रेत का उदूं अनुवाद , लंदन से आई दिव्या माथुर की पुस्तक २०५० और अन्य
कहानियां, आबूधावी से पधारे लेखक कृष्ण बिहारी की कहानी संग्रह स्वेत श्याम
रतनार, कथा यूके के महासचिव तेजेंद्र शर्मा के कहानी संग्रह का पंजाबी
अनुवाद कल फ़ेर आंवीं का विमोचन किया गया। तेजेंद्र शमां के कहानी संग्रह
का अनुवाद महेंद्र सिंह विरदी ने किया है। इस मौके पर संगोष्ठी के संयोजक
अजित राय ने बताया कि रेत के उर्दू अनुवाद को प्रकाशित करने में नई
प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी का प्रयोग किया गया है। कहानी संग्रह २०५० में लंदन
में वहाँ के जन जीवन का चित्रण किया गया है। स्वेत श्याम रतनार में अरब के
वातावरण को दिखाया गया है। खाड़ी के देशों में गए लोगों की समस्याओं को
उठाया गया है। कल फ़ेर आंवीं कहानी संग्रह में भारत व विदेश की संस्कृति का
सामंज्सय दिखाया गया है।
प्रवासी साहित्य पर चल
रहे अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी के दूसरे दिन प्रवासी साहित्य में स्त्री
जीवन विषय पर संगोष्ठी आयोजित की गई। अध्यक्षता कनाडा से आई वसुधा हिन्दी
साहित्य पत्रिका की संपादक स्नेह ठाकुर ने की। जबकि शरजाह से आई
अभिव्यक्ति (इंटरनेट पत्रिका) की संपादक पूर्णिमा वर्मन अतिथि के रुप में
उपस्थित रहीं।
ठाकुर ने कहा कि प्रवासी कथाकारों
ने अपने साहित्य में स्त्री जीवन के सभी पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डाला
गया है। भारतीय संस्कृति में नारी को प्रथम स्थान दिया गया है। लेकिन
विदेशों में ऐसा नहीं है। विदेशों में स्त्रियों का जीवन कैसा है, इसके
बारे में भारतीय लेखक बहुत कम जानते हैं। लेकिन विदेशी साहित्यकारों को
उसका अनुभव बखूबी है। उन्होंने कहा कि लिखने के लिए संस्कृति को छोडऩे की
जरुरत नहीं है। क्योंकि वहीं हमारी थाती है। उन्होंने सभागार में बैठे
लोगों से आह्वान किया कि वे पूरब और पश्चिम की संस्कृति में से अच्छी चीजों
को जोडक़र एक नई संस्कृति बनाएँ और उससे युवा पीढ़ी को अवगत कराएँ। तभी
हमारा प्रयास सार्थक होगा। हमें अच्छा साहित्य और अच्छे विचार ग्रहण करने
चाहिए, भले ही वे कहीं के भी क्यों न हो।
इंटरनेट
पत्रिका अभिव्यक्ति की संपादक पूर्णिमा ने कहा कि प्रवासी कहानी हिन्दी
के अंतर्राष्ट्रीयकरण की दिशा में सशक्त कदम उठा रही है। उन्होंने कहा कि
प्रवासी कहानीकारों का शिल्प अलग तरह का होता है। प्रवासी लेखकों के कथानक
अजीब नहीं, बल्कि अलग है। प्रवासी कहानी व भारतीय कहानी के अपने-अपने
क्षेत्र है। उन्होंने कहा कि मीडिया ने संवेदनाओं और सोच का वैसा वैश्वीकरण
नहीं किया, जितना होना चाहिए। फिलहाल प्रवासी लेखन भाषा के एक गंभीर संकट
से गुजर रहा है।
नीरजा माधव ने स्त्री के बारे
में विचार विमर्श किया। उन्होंने बताया कि उनकी अभी तक स्त्रियों पर ३६ से
ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। उन्होंने कहा कि हिन्दी में हमारे
संस्कार विद्यमान है।
दिल्ली से आए पत्रकार महेश दर्पण ने कहा
कि जब एक लडक़ी मुस्लिम लडक़े से प्रेम करती है और उसे धर्म बदलने के लिए
कहा जाता है, तो वह इंकार कर देती है। ऐसा क्यों होता है। इससे हमें स्त्री
की मानसिकता का पता चलता है।
मुंबई से आई मधु
अरोड़ा ने प्रवासी साहित्य में स्त्री जीवन पर विस्तार से प्रकाश डाला।
उन्होंने कहा कि भारतीय सोच भारतीय मानसिकता को दिखाती है। तेजेंद्र शर्मा
की रचना नारी पात्र में बताया गया है कि विदेशी संस्कृति में शोर शराबा
वर्जित है।
जय वर्मा ने मानवीय संबंध और नारी पर विस्तार से
प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि प्रवासी साहित्य में कलात्मकता और रचनात्मकता
दोनों का मिश्रण है। डा. कृष्ण कुमार ने कहा कि हिन्दी साहित्य में
प्रवासी नाम की कोई चीज नहीं है। हिन्दी में प्रवास के गलत मायने दिए गए
हैं। जो घर से दो दिन बहार रहे वह प्रवासी कहलाता है। संगोष्ठी के दौरान
महेंद्र मिश्र, विजय श्र्मा, प्रेमजनमेजय, बृजेश के बर्मन, नीलम शर्मा
अंशु, अजंता शर्मा, निर्मला, उर्मिला शुक्ला, ने अपना शोध पत्र प्रस्तुत
किया।
हिन्दी के साथ कलम का ही नहीं अपितु दिल
का भी रिश्ता है। हम जब भी कलम उठते है, तो हिन्दी का ही साहित्य लिखते
है। बावजूद इसके उन्हें प्रवासी कह कर पुकारा जा रहा है। हिन्दी के साथ
हमारी संवेदनाएँ जुड़ी हुई है। हिन्दी व हिंदुस्तान के लिए इतना करने के
बावजूद भी हम प्रवासी ही है। अब तो प्रवासी सुनना बड़ा कटु लगता है। उक्त
वेदना कनाडा से आई वसुधा हिन्दी साहित्य पत्रिका की संपादक स्नेह ठाकुर ने
प्रवासी साहित्य पर डीएवी गर्ल्स कॉलेजमें आयोजित अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी
में व्यक्त की।
स्नेह ठाकुर ने कहा कि लोग अपने मायके पर
गौरवान्वित महसूस करते हैं, लेकिन उसे अपनी ससुराल पर नाज़ है। क्योंकि
उनकी ससुराल हरियाणा के करनाल जिले में हैं। उसने स्वयं को कभी प्रवासी
नहीं सोचा। उसका दिल आज भी हिंदुस्तानी है। यहाँ की संस्कृति, रीति-रिवाज व
भाषा उसके रोम-रोम में बसी हुई है। इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है
कि हिन्दी व हिंदुस्तान के साथ उनका रिश्ता कैसा है।
प्रवासी
टुडे मासिक पत्रिका के संपादक डा. जय वर्मा ने प्रवासी साहित्यकारों की
पीड़ा को रेखांकित करते हुए कहा कि अपने ही देश में हिन्दी के लेखकों को
आज हीनभावना से देखा जा रहा है। जो कि गलत है।
इस
मौके पर कृष्ण बिहारी ने कहा कि साहित्य तो साहित्य होता है। चाहे वह
विदेश में बैठ कर लिखा गया हो या फिर देश में। भाषा तो अभिव्यक्ति का एक
माध्यम है। वह तो सिर्फ लोगों के दिलों में बसती है। हमें प्रवासी
साहित्कार कह कर संबोधित न करें। क्योंकि भले ही हम विदेश में रह रहे हैं,
लेकिन किसी न किसी रूप से तो आज भी हिंदुस्तान के साथ जुड़े हुए हैं।
डा.
कृष्ण कुमार ने कहा कि प्रवासी साहित्यकारों ने शोध करके जिस साहित्य की
रचना की है, वह अतुलनीय है। प्रवासी साहित्यकारों ने स्वयं को कभी भी भारत
से अलग नहीं समझा। फिर यहाँ के बाशिंदे क्यों हमारे साथ भेदभाव की नजरिया
रखते हैं, यह समझ के परे की बात है। जब लोग उन्हें प्रवासी कहते हैं, तो
उनकी भावनाएँ आहत होती है। जो कि गलत है। हम तो सिर्फ साहित्य के माध्यम
से सृजन करना चाहते हैं। प्रवासी साहित्यकारों को भी मुख्य धारा की श्रेणी
से जोड़ा जाए, ताकि आने वाली पीढ़ी के सामने एक मिशाल कायम हो सके।
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