ome राजनीति-सरकार कौन बचेगा : साख या राजकुमार चौहान?
कौन बचेगा : साख या राजकुमार चौहान?
मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की मुश्किलें खत्म होने का नाम नहीं ले रही हैं। राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़ी परियोजनाओं को लेकर लग रहे भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रही दिल्ली सरकार को अब लोकायुक्त मनमोहन सरीन ने नैतिकता के कठघरे में खड़ाकर आइना दिखा दिया है। मंत्रिमंडल में फेरबदल के बाद थोड़ा राहत महसूस कर रही मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को अंदाजा भी नहीं होगा कि लोक निर्माण मंत्री तथा उनके सबसे वफादार सहयोगी राजकुमार चौहान द्वारा पिछले साल की गई एक फोन कॉल उनकी सरकार के लिए मुसीबत का सबब बन जाएगी। अपनी स्वच्छ छवि के आधार पर अब तक विपक्षी दलों के अलावा अपनी ही पार्टी के विरोधी गुटों को मात देती रही मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के लिए लोकायुक्त का फैसला ‘सांप के मुंह में छछूंदर’ साबित हो रहा है। दिल्ली सरकार के इतिहास में यह पहली बार है जब लोकायुक्त ने किसी मंत्री के आचरण को संवैधानिक दायित्व और मर्यादाओं के विरुद्ध बताते हुए राष्ट्रपति से उन्हें बर्खास्त करने की सिफारिश की है।
मुख्यमंत्री भले ही लोकायुक्त के फैसले के बाद अपनी परेशानी छुपाने की कोशिश करें लेकिन अब साफ हो गया है कि अगर दिल्ली सरकार को नैतिकता के मानदंडों पर अपनी स्वच्छ छवि व पारदर्शी कार्यशैली को बनाए रखना है तो चौहान को देर-सवेर मंत्रिमंडल से बाहर करना ही होगा। दिल्ली सरकार के गलियारों में बृहस्पतिवार को लोकायुक्त के फैसले के बाद तमाम कयासों का बाजार गरम रहा। सचिवालय में मौजूद लोक निर्माण मंत्री राजकुमार चौहान शीतकालीन सत्र के दौरान दिए गए अपने इस बयान को दोहराते रहे कि जनप्रतिनिधि होने के नाते उनके पास मदद के लिए तमाम लोगों के फोन आते रहे हैं। पिछले साल जब टिवोली रिसॉर्ट के मालिक का फोन उनके पास आया था तो उन्होंने अन्य रुटीन मामलों की तरह कर चोरी की छानबीन करने गई टीम के मुखिया व्यापार एवं कर आयुक्त जलज श्रीवास्तव को कोई ज्यादती न होने की बात ही कही थी। चौहान के अनुसार इसमें कुछ भी गलत नहीं था और अधिकारियों को ही यह देखना था कि इस मामले में कैसे कार्यवाही करनी है।
रोचक तथ्य यह है कि लोकायुक्त मनमोहन सरीन ने अपने फैसले में स्पष्ट तौर पर चौहान के इस बयान पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि मंत्री चौहान को जनप्रतिनिधि की अपनी जिम्मेवारी की बजाय मंत्री पद के संवैधानिक दायित्व को निभाना चाहिए था। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित फिलहाल इस मामले में विस्तृत टिप्पणी करने की बजाय कुछ ज्यादा बोलने से बच रही हैं। मुख्यमंत्री को साफ तौर पर मालूम है कि आने वाले दिनों में यह मामला गरमाएगा। लोकसभा के बजट सत्र तथा अगले महीने दिल्ली विधानसभा के बजट सत्र के मददेनजर विपक्षी दल इस मुद्दे पर दिल्ली सरकार की कार्यशैली पर निशाना साधेंगे। मुख्यमंत्री और चौहान दोनों की दिक्कत यह भी है कि कांग्रेस आलाकमान पिछले कुछ समय से भ्रष्टाचार के मामलों पर कड़ा रुख अख्तियार कर रहा है।
टिवोली रिसॉर्ट में करोड़ों रुपयों की कर चोरी का मामला और उसे लेकर कर्तव्य पालन में जुटे अधिकारियों पर एक मंत्री द्वारा गैरवाजिब तरीके से दबाव बनाना भी भ्रष्टाचार को सहयोग करने की नजर से देखा जाएगा। सवाल यह भी उठ रहे हैं कि अगर कोई सरकार अपने ही लोकायुक्त के फैसले की अनदेखी करेगी तो फिर लोकायुक्त के संवैधानिक पद की उपयोगिता ही क्या रह जाएगी। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को फिलहाल यह भी समझ में नहीं आ रहा है कि इस मामले में अपने वफादार सहयोगी राजकुमार चौहान को बचाने के लिए क्या तरीका अपनाया जाए। राष्ट्रपति को भेजी अपनी सिफारिश में लोकायुक्त ने कड़े से कड़े शब्दों का इस्तेमाल करने में कोई परहेज नहीं किया है।
भ्रष्टाचार को लेकर दिल्ली सरकार के खिलाफ मुहिम में जुटे दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विजेंद्र गुप्ता का कहना है कि राजकुमार चौहान के कार्यकलाप से यह स्पष्ट हो गया है कि शीला सरकार किस कदर असंवैधानिक कार्यों और भ्रष्टाचार में गले तक डूबी हुई है। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पर तमाम आरोप लगाते हुए गुप्ता जनता के बीच दिल्ली सरकार के भ्रष्ट तंत्र की पोल खोलने की बात कह रहे हैं। दिल्ली नगर निगम के चुनावों के मद्देनजर कांग्रेस के लिए ये आरोप बड़ी मुश्किल के रूप में सामने आ सकते हैं।
दूसरी तरफ मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और राजकुमार चौहान के विरोधी गुट के कांग्रेसी नेताओं ने लोकायुक्त के फैसले पर पर्दे के पीछे रणनीति बनानी शुरू कर दी है। ये नेता कांग्रेस हाईकमान के सामने इस मामले को आधार बनाकर मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को हटाने की मुहिम में जुटने की सोच रहे हैं। मुख्यमंत्री के लिए सबसे बड़ी दिक्कत यह होगी कि लोकायुक्त के फैसले को लेकर कांग्रेस हाईकमान को किस प्रकार संतुष्ट किया जाए। माना जा रहा है कि अगर मुख्यमंत्री ने चौहान को बचाने के चक्कर में लोकायुक्त के फैसले की अनदेखी करने की कोशिश की तो दिल्ली में कांग्रेस को इसका खामियाजा हर स्तर पर उठाना पड़ेगा। विपक्षी दलों को ऐसा होने पर मुख्यमंत्री के खिलाफ हमला बोलने में आसानी होगी साथ ही शीला दीक्षित के लिए आम लोगों के बीच अपनी छवि को साफ बनाए रखने में ही मुश्किल झेलनी पड़ेगी। कयास लगाए जा रहे हैं कि अपनी गर्दन पर नैतिकता का फंदा कसने की इजाजत देने की बजाय मुख्यमंत्री राजकुमार चौहान को चलता करने में देर नहीं लगाएंगीं।
लेखक आनंद राणा हरिभूमि में चीफ रिपोर्टर हैं. उनका यह लेख फेसबुक से साभार लेकर प्रकाशित
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