Friday, February 25, 2011

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शीला के लिए आसान नहीं है चौहान को बचा पाना


सरकार चाहे बीजेपी की रही हो या कांग्रेस की। दिल्ली के मंत्रियों पर आचरण के खिलाफ हरकत करने या अपने पद का दुरूपयोग करने और नाना प्रकार के आरोपों से घिरने का बड़ा गौरवशाली इतिहास रहा है। इसके बावजूद पूरी बेशर्मी से अपने खिलाफ माहौल का सामना किया जाता रहा है। राजनीतिक बेशर्मी का ताजा उदाहरण एक बार फिर दिल्ली के सामने है। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित सरकार में सबसे पावरफुल, विश्वसनीय,  कई विभाग के मंत्री,  दलित नेता और सरकार में नंबर टू यानी उपमुख्यमंत्री राजकुमार चौहान की कुर्सी संकट में है। इस बार चौहान पर कर चोरी के मामले में एक नामी रिजार्ट का बचाव करने का आरोप है। अपने पावर, पोस्ट और पॉलिटिकल प्रेशर के जरिए चौहान ने पद का बेजा इस्तेमाल (इस तरह के मामले में हमेशा रूचि) किया।
इस मामले को सीएम या एलजी के हाथ में सौंपने की बजाय लोकायुक्त ने मंत्री के आचरण पर नाराजगी जाहिर की, और सीधे राष्ट्रपति से चौहान को मंत्री पद से हटाने की सिफारिश की है। इस सिफारिश से शीला समेत कांग्रेस के हाथ से मामला निकलता दिख रहा है। चूंकि चौहान शीला के सबसे विश्वसनीय है, लिहाजा चौहान को बचाने की चिंता शीला को सबसे ज्यादा है।
पिछले 18 साल के दौरान दिल्ली में दागदार मंत्रियों का शानदार रिकार्ड रहा है। रामनामी लहर के बाद 1993 में 41 साल के गठित विधानसभा चुनाव में बीजेपी सत्ता  में आई। वरिष्ठ नेता मदन लाल खुराना को मुख्यमंत्री बनाया गया, मगर कुछ भी बोलते रहने के लिए बदनाम बेलगाम खुराना, शहरी पार्टी बीजेपी के गंवई नेता साहिब सिंह वर्मा और ठीक चुनाव से पहले तीन सीएम सुषमा स्वराज यानी तीन मुख्यमंत्रियों के शासन काल में कई मंत्रियों पर गंभीर आरोप लगे।
स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवद्धन ने दिल्ली में पोलियो उन्मूलन अभियान को सबसे पहले चालू किया था। देखते ही देखते केंद्र ने पूरे देश में इस अभियान को लागू किया। बेहतर काम करने के बाद भी डा. हर्षवर्द्धन के घर में काम करने वाली एक नौकरानी गर्भवती हो गई। नौकरानी के गर्भ को महिमामंडित करने वाले मर्द की पहचान आज तक नहीं हो सकी है। यह मामला इतना तूल पकड़ा कि डा. हर्षवर्द्धन इस बाबत सफाई देने की बजाय रोजाना दफ्तर आने के बावजूद कई माह तक बीमार रहे।
महामारियों और बीमारियों के मामले मे राजधानी का सबसे कलंकित इलाका शाहाबाद दौलतपुर डेयरी में डेंगू की महामारी को लेकर इस संवाददाता से डा. हर्षवर्द्धन की जोरदार झड़प हो गई। डेंगू की महामारी से सैकड़ों लोगों के मरने की खबर सबसे पहले राष्ट्रीय सहारा की में छपी, जिसके खिलाफ प्रेस कांफ्रेस करके डा. हर्षवद्धन ने इसे गलत ठहराया। इस संवाददाता ने मंत्री के दावे को झूठलाया और मंत्री रूम में ही जमकर हंगामा हुआ। इस विवाद पर फिर कभी विस्तार से, मगर प्रेस कांफ्रेस में मंत्री के साथ देने वाले ज्यादातर पत्रकारों ने दूसरे दिन डेंगू से मरने वालों की तादातद को सही ठहरा कर डा. हर्षवर्द्धन को ही गलत ठहराया। वहीं अपने पत्रकारों के बीच यह संवाददाता अकेला सा पड़ गया था। इस मामले में केवल एक पत्रकार राम प्रकाश त्रिपाठी ने जमकर साथदिया, और मंत्री को गलत ठहराया।( आज त्रिपाठी कहां है, यह मैं नहीं जानता मगर उसकी दिलेरी का आज भी मैं कायल हूं।
हां तो, बात नौकरानी के गर्भाधारण का मामला तूल पकड़ता रहा और तमाम आरोपं को पूरी ठिठाई से सामना करते हुए डा. हर्षवर्द्धन अंत तक मंत्री बने रहे। 1998 में बीजेपी के सत्‍ता गंवाने के बाद इस पर एक्शन लेने की बजाय विधायक डा. हर्षवर्द्धन को प्रदेश बीजेपी का मुखिया बना दिया गया।
 दिल्ली सरकार में उधोग मंत्री रहे हरशरण सिंह बल्ली का कारनामा और भी चौंकाने वाला है। एक तरफ दिल्ली के पर्यावरण को बेहतर बनाने के लिए इलेक्ट्रो-प्लेंटिंग पर बैन लगा दिया गया। मंत्री के रूप में बल्ली अपने अधिकारियों को इलेक्ट्रो-प्लेंटिंग के खिलाफ जोरदार मुहिम चलाने का प्रेस में दावा करते हुए रोजाना अपनी कामयाबी का बाजा बजाते। वहीं दूसरी तरफ अपने ही घर के भूतल में बल्ली इलेक्ट्रो-प्लेंटिंग का कारखाना चलाते रहे। इनके ही विभाग के अधिकारियों ने मंत्री निवास पर रेड करके दिल्ली में प्रतिबंधित इलेक्ट्रो-प्लेंटिंग के कारखाने को सील किया। पहली मंजिल पर पूरे परिवार के साथ रहने वाले बल्ली इसे पॉलिटिकल साजिश भी नहीं करार दे सके। दूसरों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले विशाल काया के 110 किलो से भी भारी बल्ली के चेहरे पर मुस्कान कायम रही। विपक्ष की मांग के बाद भी बल्ली की कुर्सी नहीं गई।
दिल्ली खाद्य विभाग में बाबूगिरी की नौकरी करते हुए कई तरह से बदनाम रहे लाल बिहारी तिवारी को खुराना सरकार में खाद्य मंत्री बनाया गया। हालांकि तिवारी किस्मत के इतने धनी निकले की पूर्वी दिल्ली से इन्हें दो बार सांसद बनने का भी मौका मिला। मगर, इन पर एक समय आय से अधिक संपति और अपने घर के मेनगेट पर दवाब डालकर लाखों रूपए के गेट लगवाने का भी आरोप लगा। जिसके खिलाफ एक्शन लेने की बजाय तिवारी को लोकसभा में भेजा गया। हालांकि मंत्री के रूप में तिवारी का कार्यकाल अब तक के सभी मंत्रियों से बेहतर रहा है।
कांग्रेस में भी परिवहन मंत्री रहे परवेज हाश्मी को आचरण की वजह से मंत्री पद खोना पड़ा था। उर्जा मंत्री रहे डा. नरेन्द्र नाथ को भी मुख्यमंत्री से उलझने की वजह से ही पद गंवाना पड़ा था। मुख्यमंत्री से उलझने के चलते ही कभी नंबर टू रहे डा. अशोक कुमार वालिया को भी अपना रूतबा लगातार गंवाना पड़ रहा है। हालांकि डा. वालिया आज भी मंत्री है, मगर ताजा फेरबदल में भी इनके ही पावर को कम किया गया है।
ताजा मामला सीएम की पेशानी पर बल डाल सकता है। लोकायुक्त की सिफारिश के बाद एकाएक यह मामला शीला की पकड़ से बाहर जाता दिख रहा है। हालांकि चौहान के पोस्ट गंवाने से शीला ही कमजोर होंगी। पर्दे के पीछे वे अपने इस सिपहसालार को हर संभव बचाना चाहेंगी। मगर करप्शन को लेकर पार्टी की इमेज पर बात आ गई तो चौहान के हाथ से मंत्री की कुर्सी फिसल सकती है। करप्शन को लेकर पहले से ही बेहाल शीला भी खुलकर चौहान के लिए मैदान में नहीं आ सकती। उधर, कामनवेल्थ गेम करप्शन से घिरे सुरेश कलमाडी भी शीला दीक्षित को जांच में शामिल करने की वकालत करके बेहाल कर रखा है।
अपने आचरण और पद के बेजा इस्तेमाल के मामले में यदि दिल्ली के विधायकों के करतूतों का खुलासा किया जाए तो इस पर एक मोटा सा ग्रंथ लिखना पड़ेगा। शनि की वक्री नजर से परेशान शीला के लिए चौहान पर ग्रहण एक बुरी खबर है। देखना है कि मुखिया की बजाय एक तानाशाह की तरह दिल्ली सरकार को हांक रही शीला के लिए चौहान मामले से निपटना क्या मुमकिन होगा?
लेखक अनामी शरण बबल दिल्‍ली में पत्रकार हैं.

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