Monday, February 28, 2011

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नहीं दिख रहा किसी को शीला का महाघोटाला

: डीटीसी में रंगीन बसों का करप्‍शन पुराण :
 करप्शन के जमाने में हरिकथा अनंता... की तरह ही फिलहाल मामला कामनवेल्थ गेम करप्शन के साथ होकर भी इससे अलग है। करीब एक लाख करोड़ रूपए के कथित हुए विकास के नाम पर इस महाघोटाला या करप्शन पुराण के नौकरशाहों में नौकर तो जेल की रोटी का स्वाद ले रहे है, मगर अभी शाहों की बारी नहीं आई है। करप्शन गेम के बहाने ही इस बार हम आपको दिल्ली सरकार के एक ऐसे करप्शन पुराण की जानकारी दे रहे हैं, जिसको जानते और मानते तो सभी है, मगर करप्शन की बजाय इसे शीला सरकार की उपलब्धियों सा देख रहे हैं।
बस, रंगीन बसों के करप्शन मामले में कुछ और करप्ट आंकडे़ रख कर मैं यह बताने की हिमाकत कर रहा हूं कि नेता और नौकरशाहों के साथ मिलकर देश के जागो ग्राहक जागो वाले भी किस प्रकार दिल्ली की लाइफ लाइन को पटरी से उतारने की साजिश की है। सबसे आरामदायक बात तो ये है कि करीब दस हजार करोड़ रूपए के इस गोरखधंधे को ना तो करप्शन की श्रेणी में रखा गया है, और ना ही इसे करप्शन मानकर कोई जांच की मांग हो रही है। टाटा मोटर्स के स्वामी महामहिम रतन टाटा एंड कंपनी है, तो अशोक लेलैंड के मालिकों में हिंदुजा परिवार के लोग हैं।
जी हां, बात दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) की बदहाली की है। कामनवेल्थ गेम चालू होने से काफी पहले ही दिल्ली को ग्लोबल सिटी बनाने का संकल्प किया। कामनवेल्थ के लिए केंद्र से मिले वितीय कोष की बात करके हम अपने पाठकों को बोर नहीं करना चाहते। मेरा पूरा ध्यान डीटीसी के कायाकल्प के नाम पर इसको रसातल में पहुंचाने की कथा को सामने रखना है।
आमतौर पर नौकरशाहों, दलालों, ठेकेदारों और नेताओं (जिनके बगैर कोई घोटाला संभव ही नहीं) के द्वारा बेडा़गर्क कर दिए जाने वाले विभागों को सरकार फिर से काम चलाने लायक बनाती है। मगर, केंद्र और दिल्ली सरकार की साजिशों ने ही दिल्ली की लाइफ लाइन को बरबाद कर दिया। कामनवेल्थ गेम से पहले दिल्ली को नया लुक देने के लिए ही सरकार ने पुराने ढर्रे की 18 लाख वाली सामान्य बसों ( सरकार की नजर में इन गाडियों के अब मोटर पार्टस कंपनी ने बनाने बंद कर दिए) को हटाकर लो फ्लोर (नान एसी-56 लाख और एसी 70 लाख) बसों को लाने का अभियान शुरू हुआ। इन बसों की खरीद के लिए केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय के जवाहर लाल नेहरू शहरी पुर्ननिर्माण (विकास) फंड से कई किस्तों में करीब 10 हजार करोड़ रूपए बतौर कर्ज दिल्ली सरकार ने डीटीसी को दिलाए। इसी रकम से दिल्ली में तमाम लो-फ्लोर की लाल और हरे कलर की बसें दौड़ रही हैं। विपक्ष द्वारा इन बसों को ज्यादा रकम में खरीदने का आरोप लगता रहा है, मगर परिवहन मंत्री अरविंदर सिंह लवली और हारून युसूफ से लेकर मुख्यमंत्री तक इसे सबसे सस्ता बताने में नहीं हिचकती (अलबता, बीजेपी नेता विजय जाली द्वारा रखे गए सबूतों को सरकार हमेशा नकारती भी रही है)।
लोकमानस में यह धारणा है कि सरकारी खजाने से पैसा निकालना आसान नहीं होता। मगर 2008 में विस चुनाव में जाने से पहले ही शीला सरकार ने दो हजार लो- फ्लोर बसों (एसी और नान एसी) के आदेश के साथ ही पैसे का अग्रिम भुगतान तक कर डाला। विपक्षी नेताओं ने आरोप लगाया कि अपना कमीशन खाने के लिए ही करोड़ों रूपए का पहले ही भुगतान कर दिया गया। शायद शीला सरकार को फिर से सत्ता में आने की उम्मीद नहीं थी। मगर, संयोग कहे या दुर्भाग्य कि शीला सरकार तीसरी बार फिर सत्ता में लौट आई। चुनाव में जाने से पहले दिल्ली के परिवहन मंत्री हारून युसूफ होते थे, मगर सत्‍ता की तीसरी पारी में परिवहन मंत्रालय का ठेका लवली को दिया गया है।
शीला सरकार की नयी पारी में फिर चालू होता है, लो-फ्लोर बस बनाने वाली कंपनियों और सरकार के बीच आंख मिचौली का खेल। 2008 में विधानसभा चुनाव से पहले किए गए भुगतान से अगस्त 2010 से पहले तक सभी बसों को देने का अनुबंध था, मगर तमाम सरकारी आंसू और आग्रह के बाद भी करीब 400 बसों को आज तक (कामनवेल्थ गेम खत्म हुए चार माह बीतने के बाद भी) कंपनी के डिपो से निकलकर दिल्ली में दौड़ने का सौभाग्य नहीं मिला है। गेम से पहले सरकार और कंपनियों के बीच वाद-विवाद और तकरार के इतने दौर चले कि इस पर अब कंपनियों की दादागिरी से सरकार को भी शर्म आ जाए। बस निर्माता कंपनियों के खिलाफ एक्शन लेने की बजाय गेम से ठीक आठ माह पहले (लवली के दवाब पर) सरकार ने फिर दो हजार बसों का आदेश दिए ( इनमें 900 बसें आ चुकी हैं)।  सरकार की तरफ से फिर शहरी विकास मंत्रालय के (जेएनएल) स्कीम के तहत सरकारी कारू के खजाने से फिर धन दोहन किया गया, मगर इस बार शहरी विकास मंत्रालय ने बसों में कटौती करके 1500 कर दी।
एक तरफ दिल्ली में लाल और हरे रंग की लो- फलोर बसे आती रही, तो दूसरी तरफ किलर के रूप में बदनाम ब्लू लाइन की बसों को पिछले तीन साल से चार-चार माह के टेम्परोरी परमिट से चलने की सुविधा दी जाती रही। लगभग 700 किलर बसों का आखिरी खेप अभी तक निकाल बाहक की राह देख रही है। पांच हजार से ज्यादा लो-फ्लोर बसों (कमीशन खाकर कहने की गुस्ताखीमाफ हो) समेत डीटीसी की पुरानी बसों को मिलाकर 6500 से ज्यादा बसों के बाद डीटीसी की असली समस्या (जिसके प्रति नेताओं ने कभी ध्यान ही नहीं दिया) शुरू होती है। भारी तादाद में चालकों और कंडक्टरों की किल्लत तो पहले से ही थी। ठेका पर हजारों चालकों और कंडक्टरों को रखे जाने के बाद भी (तकरीबन तीन हजार से भी ज्यादा स्टाफ की कमी है) रोजाना करीब दो हजार लो-फ्लोर बसें डिपो की शोभा बनकर डीटीसी का दीवाला निकाल रही है।
डीटीसी के लिए लो-फ्लोर बसों को संभालना या रखना ही सबसे कठिन सा हो गया। दो तीन नए डिपो बनाए जाने के बाद भी 35 डिपो में इन रंगीन हाथियों को समा पाना दूभर हो गया। गेम से ठीक पहले दिल्ली के एलजी को गेम के बाद डिपो को तोडने का भरोसा देकर एक हजार रंगीन हाथियों के लिए गेम विलेज के करीब यमुना नदी बेल्ट की 80 एकड़ भूमि पर करोड़ों की लागत से मिलेनियम डिपो बना। इस एक डिपो कैंपस में चार डिपो है। गेम के बाद एलजी ने जब इस डिपो को तोड़ने की याद दिलवाई, तो अपना वायदा भूलकर मुख्यमंत्री मामले को टरकाने लगी। गेम के काफी पहले से ही एलजी और सीएम के बीच कड़वाहट थी। इसी विवाद को और तूल दिया गया है। एलजी की तरफ से मामले को शांत रखा गया है, मगर पर्यावरण से खिलवाड़ के नाम पर केंद्र भी शीला सरकार से नाराजगी जता चुकी है। फिलहाल विवादास्पद मिलेनियम डिपो पर कार्रवाई की तलवार लटकी है।
कामनवेल्थ गेम खात्में के बाद इन रंगीन हाथियों से हो रही डीटीसी की दुर्दशा को बताने से पहले इसके बैकग्रांउड को जानना जरूरी है। जिससे लोगों को सफेद हाथी के रूप में बदनाम डीटीसी के शानदार दौर का भी पता चल सके। गौरतलब है कि 1992 तक दिल्ली में केवल डीटीसी की बसें ही चलती थी। मगर नरसिम्हा राव सरकार में भूतल परिवहन मंत्री बने जगदीश टाइटलर ने ब्लू लाइन बसों के दिल्ली में इंट्री का रास्ता खोल दिया। और तभी से शुरू हो गया इसकी बर्बादी की अंतहीन कहानी। 1993 तक अपने तमाम खर्चों को झेलकर भी लाभ में चल रही डीटीसी पर घाटों और कर्जों का बोझ बढ़ता ही चला गया। कई साल तक तो यह विभाग केंद्र के अधीन ही संचालित होता रहा, मगर 1996-97 में करीब 14 हजार करोड़ रूपए की कर्ज माफी के साथ ही इसे दिल्ली सरकार के हवाले कर दिया गया। एक दिसंबर 1993 को दिल्ली में बीजेपी सरकार सत्तारूढ़ हो चुकी थी।
घाटे से लस्त-पस्त डीटीसी का हाल 2005-06 तक ये रहा कि हर माह इसकी मासिक आमदनी करीब 40-42 करोड़ होती रही, मगर इसके संचालन पर ही सारा खर्चे हो जाता था। साल 2000 से ही यह विभाग अपने कर्मचारियों के वेतन के लिए सरकार पर निर्भर था। हर माह लगभग 30 करोड़ रूपए के आक्सीजन (बतौर कर्ज) पर ही इसकी सांस चलती रही, मगर छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद से ही इसका दम उखड़ने (दमा ग्रस्त तो पहले से ही था) लगा। कर्मचारियों के एरियर भुगतान के लिए ही सरकार को करीब 250 करोड़ रूपए एक मुश्त देने पड़े।
कामनवेल्‍थ गेम के बाद दिल्ली से लगभग ब्लू लाईन बसें बाहर (अपना रंग और रूप बदल कर ज्यादातर ब्लू लाइन बसें दिल्ली के पड़ोसी शहरों में दौड़ रही हैं) हो चुकी है। इस समय डीटीसी की रोजाना आमदनी तीन करोड़ यानी लगभग 90 करोड़ रूपए मासिक की हो गई है, इसके बावजूद डीटीसी के घाटे का आलम यह है कि यह विभाग हर माह करीब 80-85 करोड़ रूपए के घाटे पर है। इस पर लगभग 46 हजार करोड़ रूपए कर्जे का बोझ लदा है। जिसके केवल ब्याज के रूप में डीटीसी को हर माह 14 करोड़ रूपए बैंको में जमा कराना होता है। 2005 तक ब्याज के रूप में केवल पांच करोड़ रूपए अदा करने पड़ते थे।
हर माह 90 करोड़ रूपए की आमदनी के बावजूद लगभग 90 करोड़ घाटे में है। विभाग में कर्मचारियों के वेतन पर हर माह लगभग 60 करोड़ खर्च होते है। मुकदमा, ड्रेस, टेलीफोन, बिजली, प्रिटिंग स्टेशनरी आदि पर सालाना खर्च 40 करोड़ की है। इस्टेब्लिशमेंट (विभागीय परिचालन) पर करीब 30 करोड़ रूपए खर्च हो जाते हैं। यानी मासिक कमाई से वेतन और दफ्तर चल सकता है, तो बसों के परिचालन के लिए सरकारी मदद चाहिए। यह हाल तब है, जब ब्लू लाइन बसों का डिब्बा गोल होने ही वाला है। सामान्य बसों का प्रति एक किलोमीटर परिचालन (ईपीके) 17 रूपए पड़ता है, जबकि रंगीन लो-फ्लोर बसों का ईपीके परिचालन खर्च 23 रूपए है। स्टाफ की कमी से रोजाना की दो शिफ्टों में सुबह में करीब 1500 और शाम में लगभग 2500 बसें डिपों में ही रह जा रही है। रोजाना लगभग 16 हजार बसों के फेरे मिस हो रहे है। ज्यादातर डिपो मैनेजर अपनी नाक बचाने के लिए बसों को डिपो से बाहर निकाल कर इसे डैमेज दिखाते हुए फिर वापस डिपो में कर दे रहे हैं। वहीं मोटर पार्टस या तकनीकी खराबी से रोजाना करीब 700 से ज्यादा बसें विभिन्न डिपो में बीमार खड़ी रहती हैं।
यानी बीमार और सफेद हाथी के रूप में तब्दील इस विभाग की खस्ता हाल से किसी को भी गुरेज नहीं है। सीएम भी इस कंगाल विभाग के मालदार मंत्रालय को हमेशा किसी अपने खासमखास को ही सौंपती रही है। चाहे परवेज हाशमी हों या अजय माकन, ये लोग सीएम के इशारों पर नाचने तक ही इस विभाग में रह सके। हारून युसूफ भले ही आज तक विश्वसनीय बने रहे हो, मगर सीएम लवली को भी मौका देकर अपनी निष्ठा की परीक्षा लेती रहती हैं।
करीब 20 साल के दौरान ही यह विभाग इस समय इतना कर्जदार हो गया है कि डीटीसी की आधी संपति बेचकर ही इसे चुकाना संभव हो पाएगा। एक तरफ डीटीसी की कंगाली बढ़ती रही, तो दूसरी तरफ यहां आने वाले ज्यादातर नौकरशाहों से लेकर बाबूओं ने अपनी हैसियत करोड़ों की बना ली। सरकारी अनुकंपा पर चल रही डीटीसी का आज कोई खरीददार भी नही है। देखना यही है कि करप्शन के मामले में दिल्ली सरकार के ग्राफ को लगातार नीचा करने वाले इस विभाग का क्या होगा। चाहे जो हो, यह तो समय साबित करेगा, मगर हजारों करोड़ की हेराफेरी करने वालों का लगता है कुछ भी नहीं होगा, क्योंकि पीएम मनमोहन सिंह की अध्यक्षता वाली करप्शन जांच समिति की जांच कंपनियों को भी पर्दे के पीछे के इस महाघोटाले की खबर शायद नहीं लगी हो?
लेखक अनामी शरण बबल दिल्‍ली में पत्रकार हैं.

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