रंग भरती भगत सिंह और पाश की शहादत
23 मार्च शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का शहादत दिवस है। इन तीन नौजवान क्रांतिकारियों को अंग्रेजों ने फांसी दी थी। इस घटना के 57 साल बाद 23 मार्च 1988 को पंजाब के प्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह पाश को आतंकवादियों ने अपनी गोलियों का निशाना बनाया।
70 वाले दशक में पंजाब में जो क्रांतिकारी आंदोलन शुरू हुआ, उसके पक्ष में कविताएं लिखने के कारण भी पाश कई बार जेल गये थे, सरकारी जुल्म के शिकार हुए तथा वर्षों तक भूमिगत रहे। यह महज संयोग है कि पंजाब की धरती से पैदा हुए तथा क्रांतिकारी भगत सिंह के शहीदी दिवस के दिन ही अर्थात 23 मार्च को पंजाबी के क्रांतिकारी कवि अवतार सिहं पाश भी शहीद होते हैं। लेकिन इन दोनों क्रांतिकारियों के उद्देश्य व विचारों की एकता कोई संयोग नहीं है। यह वास्तव में भारतीय जनता की सच्ची आजादी के संघर्ष की क्रांतिकारी परंपरा का न सिर्फ सबसे बेहतरीन विकास है बल्कि राजनीति और संस्कृति की एकता का सबसे अनूठा उदाहरण भी है।
भगत सिंह और उनके साथियों ने आजादी का जो सपना देखा था, जिस संघर्ष और क्रांति का आह्वान किया था, वह अधूरा ही रहा। भारतीय जनता के गौरवशाली संघर्षों और विश्व पूंजीवाद के आंतरिक संकट के परिणामस्वरूप जो राजनीतिक आजादी 1947 में मिली, उसका लाभ केवल इस देश के
पूंजीपतियों, सामंतों और उनसे जुडे़ मुट्ठी भर विशेषाधिकार प्राप्त लोगों ने ही उठाया है। सातवां दशक आते-आते आजादी से मोहभंग की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। भारत के नये शासक वर्ग के खिलाफ जन असंतोष तेज होता है, जिसकी सबसे ठोस और मुखर अभिव्यक्ति चौथे राष्ट्रीय आम चुनाव और नक्सलबाड़ी विद्रोह में होती है। विशेष तौर से नक्सलबाड़ी विद्रोह ने भारतीय साहित्य को काफी गहराई तक प्रभावित किया तथा व्यक्तिवाद, निषेधवाद, परंपरावाद, अस्तित्ववाद, आधुनिकतावाद जैसी जन विरोधी प्रवृत्तियों को प्रबल चुनौती दी। विकल्प की तलाश कर रही बंग्ला, तेलुगू, हिन्दी, पंजाबी आदि भाषाओं की नयी पीढ़ी को तो जैसे राह ही मिल गयी। पंजाबी में नये कवियों की एक पूरी पीढ़ी सामने आयी, जिसने पंजाबी कविता को नया रंग-रूप प्रदान किया। अवतार सिंह पाश ऐसे कवियों की अगली पांत में थे।
पाश की पहली कविता 1967 में छपी थी। अर्थात पाश ने पंजाबी साहित्य के क्षेत्र में एक ऐसे दौर में प्रवेश किया जो दूसरी आजादी के क्रांतिकारी राजनीतिक संघर्ष का ही नहीं, अपितु नये जनवादी-क्रांतिकारी सांस्कृतिक आंदोलन का भी प्रस्थान बिन्दु था। अमरजीत चंदन के संपादन में निकली भूमिगत पत्रिका ‘दस्तावेज’ के चौथे अंक में परिचय सहित पाश की कविताओं का प्रकाशन तो पंजाबी साहित्य के क्षेत्र में धमाके की तरह था। पाश की इन कविताओं की पंजाब के साहित्य-हलके में काफी चर्चा रही। उन दिनों पंजाब में क्रांतिकारी संघर्ष अपने उभार पर था। पाश का गांव तथा उनका इलाका इस संघर्ष के केन्द्र में था। इस संघर्ष की गतिविधियों ने पंजाब के साहित्यिक माहौल में नयी ऊर्जा व नया जोश भर दिया था। पाश ने इसी संघर्ष की जमीन पर कविताएं रचीं और इसके जुर्म में गिरफ्तार हुए और करीब दो वर्षों तक जेल में रहे। सत्ता के दमन का मुकाबला करते हुए जेल में ढेरों कविताएं लिखीं और जेल में रहते उनका पहला कविता संग्रह 'लोककथा' प्रकाशित हुआ। इस संग्रह ने पाश को पंजाबी कविता में उनकी पहचान दर्ज करा दी।
1972 में जेल से रिहा होने के बाद पाश ने सिआड़ नाम से साहित्यिक पत्रिका निकालनी शुरू की। नक्सलबाडी आंदोलन पंजाब में बिखरने लगा था। साहित्य के क्षेत्र में भी पस्ती व हताशा का दौर शुरू हो गया था। ऐसे वक्त में पाश ने आत्मसंघर्ष करते हुए पस्ती व निराशा से उबरने की कोशिश
की तथा सरकारी दमन के खिलाफ व जन आंदोलनों के पक्ष में रचनाएँ की। पंजाब के लेखकों-संस्कृतिकर्मियों को एकजुट व संगठित करने का प्रयास चलाते हुए पाश ने 'पंजाबी साहित्य-सभ्याचार मंच' का गठन किया तथा अमरजीत चंदन, हरभजन हलवारही आदि के साथ मिलकर 'हेममज्योति' पत्रिका शुरू की। इस दौर की पाश की कविताओं में भावनात्मक आवेग की जगह विचार व कला की ज्यादा गहराई थी। चर्चित कविता 'युद्ध और शांति' पाश ने इसी दौर में लिखी। 1974 में उनका दूसरा कविता संग्रह 'उडडदे बाजा मगर' छपा जिसमें उनकी 38 कविताएं संकलित हैं। पाश का तीसरा संग्रह 'साडे समियां विच' 1978 में प्रकाशित हुआ। इसमें अपेक्षाकृत कुछ लम्बी कविताएं भी संग्रहित हैं। उनकी मृत्यु के बाद 'लडंगे साथी' शीर्षक से उनका चौथा संग्रह सामने आया जिसमें उनकी प्रकाशित व अप्रकाशित कविताएं संकलित हैं।
पाश की कविताओं का मूल स्वर राजनीतिक-सामाजिक बदलाव का अर्थात क्रांति और विद्रोह का है। इनकी कविताएं धारदार हैं। जहाँ एक तरफ सांमती-उत्पीड़कों के प्रति जबरदस्त गुस्सा व नफरत का भाव है, वहीं अपने जन के प्रति, क्रांतिकारी वर्ग के प्रति अथाह प्यार है। नाजिम हिकमत और ब्रतोल्त ब्रेख्त की तरह इनकी कविताओं में राजनीति व विचार की स्पष्टता व तीखापन है। कविता राजनीतिक नारा नहीं होती लेकिन राजनीति नारे कला व कविता में घुल-मिलकर उसे नया अर्थ प्रदान करते हैं तथा कविता के प्रभाव और पहुंच को आश्चर्यजनक रूप में बढाते हैं, यह बात पाश की कविताओं में देखी जा सकती हैं। पाश ने कविता को नारा बनाये बिना अपने दौर के तमाम नारों को कविता में बदल दिया।
पाश की कविताओं की नजर में एक तरफ 'शांति गॉंधी का जांघिया है जिसका नाड़ा चालीस करोड़ इन्सानों की फाँसी लगाने के काम आ सकता है' और 'शब्द जो राजाओं की घाटियों में नाचते हैं, जो प्रेमिका की नाभि का क्षेत्रफल मापते हैं, जो मेजों पर टेनिस बाल की तरह दौड़ते हैं और जो मैचों की ऊसर जमीन पर उगते हैं- कविता नहीं होते'' तो दूसरी तरफ 'युद्ध हमारे बच्चों के लिए- कपड़े की गेंद बनकर आएगा-युद्ध हमारी बहनों के लिए कढ़ाई के सुन्दर नमूने लायेगा- युद्ध हमारी बीवियों के स्तनों में दूध बनकर उतरेगा- युद्ध बूढ़ी माँ के लिए नजर का चश्मा बनेगा- युद्ध हमारे पुरखों की कब्रों पर फूल बनकर खिलेगा' और 'तुम्हारे इंकलाब में शामिल है संगीत और साहस के शब्द- खेतों से खदान तक युवा कंधों और बलिष्ठ भुजाओं से रचे हुए शब्द, बर्बर सन्नाटों को चीरते हजार कंठों से निकलकर आज भी एक साथ गूंज रहें शब्द’ हजारों कंठों से निकली हुई आवाज ही पाश की कविता में शब्दबद्ध होती है। पाश की कविताओं में इन्हीं कंठों की उष्मा है। इसीलिए पाश की कविताओं पर लगातार हमले हुए हैं। पाश को अपनी कविताओं के लिए दमित होना पड़ा है। बर्बर यातनाएं सहनी पड़ी हैं। यहाँ तक कि अपनी जान भी गवांनी पड़ी हैं। लेकिन चाहे सरकारी जेलें हों या आतंकवादियों की बन्दूकें.. पाश ने कभी झुकना स्वीकार नहीं किया बल्कि हजारों दलित-पीड़ित शोषित कंठों से निकली आवाज को अपनी कविता में पिरोते रहे, रचते रहे, उनका गीत गाते रहे और अपने प्रिय शहीद भगत सिंह की राह पर चलते हुए शहीद हो गये।
23 मार्च के दिन ही अपना खून बहाकर पाश ने राजनीति और संस्कृति के बीच खड़ी की जाने वाली दीवार को ढहाते हुए यह साबित कर दिया कि बेहतर जीवन मूल्यों व शोषण उत्पीड़न से मुक्त मानव समाज की रचना के संघर्ष में कवि व कलाकार भी उसी तरह का योद्धा है, जिस तरह एक राजनीतिककर्मी या राजनीतिक कार्यकर्ता। राजनीति और संस्कृति को एकरूप करते हुए पाश ने यह प्रमाणित कर दिया कि अपनी विशिष्टता के बावजूद मानव समाज के संघर्ष में राजनीति और संस्कृति को अलगाया नहीं जा सकता, बल्कि इनकी सक्रिय व जन पक्षधर भूमिका संघर्ष को न सिर्फ नया आवेग प्रदान करती है बल्कि उसे बहुआयामी भी बनाती है।
भगत सिंह मूलतरू एक राजनीतिक कार्यकर्ता थे। राजनीति उनका मुख्य क्षेत्र था। लेकिन उन्होंने तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक साहित्यिक सवालों पर भी अपनी सटीक टिप्पणी पेश की थी। अपने दौर में ब्रिटिश साम्राज्यवादियों, देशी विदेशी प्रतिक्रियावादी शाक्तियों व विचारों, धार्मिक कठमुल्लावादी, सांप्रदायिकता, अस्पृश्यता, जातिवाद जैसे मानव विरोधी मूल्यों के खिलाफ संघर्ष करते हुए भगत सिंह ने जनवादी-समाजवादी विचारों को प्रतिष्ठित किया। पाश की कविता, विचारधारा, पत्रकारिता व सांस्कृतिक सक्रियता से साफ पता चलता है कि उनकी राजनीतिक समझ बहुत स्पष्ट थी।
यही भगत सिंह और पाश की समानता है। भले ही इनकी शहादत के बीच 57 वर्षों का अंतर है। ये दोनों क्रांतिकारी योद्धा राजनीति और संस्कृति की दुनिया को बहुत गहरे प्रभावित करते हैं, साथ ही ये राजनीति और संस्कृति की एकता, पंजाब की धर्मनिरपेक्ष, जनवादी व क्रांतिकारी परंपरा के उत्कृष्ट वाहक हैं तथा अपनी शहादत से ये राजनीति और संस्कृति की एकता में नया रंग भरते हैं।
लेखक कौशल किशोर पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं तथा ब्लॉगर हैं.
उनके दुख-तकलीफ में हमारी हिस्सेदारी क्यों नहीं!
उनके मेहनत से पैदा हुए मुनाफे में हमारा हिस्सा होता है तो उनके तकलीफ और दुःख में हमारी हिस्सेदारी क्यों नहीं! जिस तरह से कार्बन पेपर खुद पर लिखी गई इबारतों को कापी करते हुए चलता है। ठीक उसी तरह अधिकांश चीजों को लेकर हमारी सोच और धारणाएं बंधी-बंधायी चौहद्दी के अन्दर घूमती और सिर पटकती रहती है।
खासकर क्रांतिकारियों के बारे में समाज के एक बड़े धड़े की सोच कुछ यूं है कि क्रान्ति का मतलब सिर्फ मारधाड़ और खूनखराबा है और क्रान्तिकारियों के बारे में क्या कहने अधिकांश लोगों की नजर में क्रान्तिकारी पत्थर दिल होते हैं। और बात-बात पर बम-पिस्तौल लेकर जिस-तिस को मारते फिरते हैं। जबकि इंसानी संवेदनाओं की कुल जमा-पूंजी का एक और नाम क्रान्ति हुआ करती है। अपने समय की घोर अमानवीयता, तड़पती संवेदनाओं के बीच इंसान मानवीय दुःख और हताशा को सुख और आशा में बदलने के लिए जब खुद को तैयार करता है तो वहीं से क्रान्ति और क्रान्तिकारियों का जन्म होता है।
23 मार्च को हम भगत सिंह का शहादत दिवस मनाते है। हम सारे लोग भगतसिंह को क्रान्तिकारी के रूप में याद करते हैं। उनके बारे में किसी से पूछने पर जवाब मिलता है कि वो गरम दल के थे और उन्होंने एसेम्बली में बम फेंका था। यही एक प्रचलित धारणा भगतसिंह के बारे में बनी हुई है। सच कहिए तो यही एक बड़ी दिक्कत हमारे साथ है कि शहीदों को या तो हम उनके शहादत दिवस पर याद करते हैं या फिर उनके जन्मदिन पर, जबकि शहीद किसी खास दिन की थाती नहीं होते बल्कि हमारे रोजमर्रा के जीवन में याद करने की चीज होते हैं। ताकि हमारे अन्दर जुल्म और शोषण के खिलाफ लड़ने के साथ ही आशा और उम्मीद की रोशनी बची रहे।
भगत सिंह की कुछ ऐसी छवि सत्ताधीशों ने पेश की है, जैसे धरती पर बढ़ रहे पाप और अन्याय के विरोध में आकाश्ा से किसी अवतार का अवतरण हुआ था। जो गोली और बम की भाषा में बात करता था। लेकिन भगत सिंह न तो एक दिन की उपज है और न ही आसमान से प्रकट हुआ कोई अवतार। धरती पर मौजूद लोगों की वेदना, दूसरों के दुःख-दर्द, परेशानियों को खुद में देखने, उन्हें समझने और उनका इलाज करने का नाम भगतसिंह था। एक ऐसा व्यक्तित्व जो मानवीय संवेदनाओं से लबालब भरा हुआ था। कुछ छोटी-छोटी घटनाओं को टुकड़े में जोड़कर इसे समझा जा सकता है।
एक टुकड़ा सन 1927 का है, जब भगत सिंह के पिता ने उन्हें डेयरी फार्म संभालने और उसका हिसाब-किताब देखने की जिम्मेदारी उनको दी। डेयरी फार्म में कई भैंसे थीं, जिनमें से एक को भगतसिंह मासी कहा करते थे। एक दिन भगत सिंह की मां ने कहा भगत ये भैंस भला तेरी मासी कैसे हो गई। भगत सिंह का जवाब था- ‘बेबे, बचपन में मैं तेरा दूध पीता था और अब ये मासी मुझे अपना दूध पिलाती है, इस नाते ये मेरी मासी लगी। एक रोज जब वो भैंस कहीं गुम हो गई तो मां ने फिर कहा- भगत तेरी मासी तो तुझे छोड़ कर चली गई। भगत सिंह का जवाब था - मां देखना मासी तो लौट आएगी लेकिन इस बार अगर मैं गया तो शायद फिर कभी न लौटूं।
एक और वाकया इसी फार्म हाउस का है। फार्म हाउस पर काम करने वाले किसानों ने भगतसिंह के पिता से कुछ कर्ज वगैरह लिया था। उन्होंने भगतसिंह से कहा भगत मैं किसी काम से जा रहा हूं, तू जरा हिसाब-किताब देख लेना। भगतसिंह उन दिनों टालस्टाय की किताब को पढ़ रहे थे। किसानों की जिंदगी के बेबसी को बयां करने वाले इस किताब से भगतसिंह किसानों की जिन्दगी को समझ रहे थे। फार्म हाउस पर काम करने वाले किसानों के कर्जे की बही पर नजर दौड़ाते हुए उन्होनें किसानों से कर्ज लेने की वजह पूछी तो उन्हें पता चला कि उनकी परेशानी काम करने के दौरान ही उन पर आयी थी। तो उन्होंने कर्ज के बही के उन पन्नों को ही काट दिया जिस पर कर्जदारों का नाम चढ़ा था। शाम को लौट कर आए पिता ने जब पूछा भगत तूने ये क्या किया! तो भगतसिंह ने अपने पिता को समझाते हुए कहा कि जब उनके मेहनत से पैदा हुए मुनाफे में हमारा हिस्सा होता है तो उनकी तकलीफ और दुःखों में भी हमारी हिस्सेदारी होनी चाहिए।
यह नजरिया था उस भगतसिंह का, जिसे आम आदमी की तकलीफ और उसके दर्द की समझ इतनी गहराई तक थी कि आगे चलकर आम जनता के दुखों का अन्त करने के लिए उन्होंने इन्कलाब-जिन्दाबाद का नारा दिया। एक और वाकया जेल के दिनों से जुड़ा हुआ है। ये वो दिन थे जब भगत सिंह जेल में बंद थे और उनपर चल रहे मुकदमें सुनवाई का दौर चल रहा था। जेल में भगतसिंह जिस सेल में कैद थे, उस सेल की सफाई झगड़ू नाम का सफाईवाला करता था। भगत सिंह उसे बेबे यानी मां कहकर बुलाते थे। एक दिन उन्होंने उससे कहा कि - बेबे न जाने कब मुझे हमेशा के लिए जाना पड़े मेरी ख्वाहिश तेरे हाथ की बनी रोटी खाने की है। भगत सिंह का इतना कहना था कि झगड़ू के आंखों में आंसू आ गए। उसने कहा- मैं ठहरा एक मामूली सफाई वाला, बहुत छोटा आदमी फिर तू मुझे बेबे क्यूं कहता है।
भगत सिंह ने उसे गले लगाते हुए कहा- बेबे न कहूं तो क्या कहूं! बचपन में मेरे कमरे की सफाई बेबे किया करती थी और अब तू करता है। इस नाते तो तू मेरे लिए बेबे ही हुआ। अब तूझे मैं बेबे क्यों न कहूं! इस तरह के अनगिनत पल हैं उस भगतसिंह के जिन्दगी के, जो महज 23 साल की उम्र में साम्राज्यवादी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जंग लड़ते हुए फांसी चढ़ गया। लेकीन उसकी छोटी सी उम्र की यह यात्रा संवेदनाओं और रिश्तों को घर के चौखट से बाहर निकालकर उसे अपने समय के सबसे मौजूं सवालों से जोड़कर उन सवालों के हल करने की यात्रा थी।
इन्कलाब- जिन्दाबाद उस यात्रा का अन्तिम पड़ाव था, जहां समाज से लेकर राजनीति को बदलना था। आदमी के पक्ष में आदमी के लिए। उनका इन्कालाब-जिन्दाबाद बम-गोली से बदलाव की नहीं आम आदमी के संवेदनाओं को समझने उसके दुःखों को बदलने की यात्रा है, और भगत सिंह के विचार इस यात्रा में हमारे मागर्दशक भी हैं और मित्र भी. काश हम इसे समझ सकें, क्योंकि भगत सिंह मरते नहीं वो तो लोक जाया हैं!
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