यदि मैं शरीर छोड़ भी दू तो भी मैं अपने संन्यायों को छोड़ने वाला नहीं हूं।–ओशो
संभोग से समाधि की और—25
युवक और यौन— आदमी के मन का नियम उलटा है। इस नियमों का उलटा नहीं हो सकता है। हां कुछ जो बहुत ही कमजोर होंगे, वह शायद नहीं आ पायेंगे तो रात सपने में उनको भी वहां आना पड़ेगा। मन में उपवाद नहीं मानते है। जगत के किसी नियम में कोई अपवाद नहीं होता। जगत के नियम अत्यंत वैज्ञानिक है। मन के नियम भी उतने ही वैज्ञानिक हे।
यह जो सेक्स इतना महत्वपूर्ण हो गया है वर्जना के कारण। वर्जना की तख्ती लगी है। उस वर्जना के कारण यह इतना महत्वपूर्ण हो गया है। इसने सारे मन को घेर लिया है। सारा मन सेक्स के इर्द-गिर्द घूमने लगाता है।
फ्रायड ठीक कहता है कि मनुष्य का मन सेक्स के आस पास ही घूमता है। लेकिन वह यह गलत कहता है कि सेक्स महत्वपूर्ण है, इसलिए घूमता है।
नहीं, घूमने का कारण है, वर्जना इनकार, विरोध, निषेध। घूमने का कारण है हजारों साल की परम्परा। सेक्स को वर्जिन, गर्हित,निंदित सिद्ध करने वाली परम्परा इसके लिए जिम्मेदार है। सेक्स को इतना महत्वपूर्ण बनाने वालों में साधु, महात्माओं का हाथ है। जिन्होंने तख्ती लटकाई है वर्जना की।
यह बड़ा उलटा मालूम पड़ेगा। लेकिन यह सत्य है। और कहना जरूरी हे कि मनुष्यजाति को सेक्सुअलिटी की, कामुकता की तरफ ले जाने का काम महात्माओं ने ही किया है। जितने जोर से वर्जना लगाई है उन्होंने, आदमी उतने जोर से आतुर होकर भागने लगा है। इधर वर्जना लगा दी। उधर उसका परिणाम यह हुआ कि सेक्स आदमी की रग-रग से फूट कर निकल पड़ा है। थोड़ी खोजबीन करो, उपर की राख हटाओं, भीतर सेक्स मिलेगा। उपन्यास, कहानी, महान से महान साहित्यकार की जरा राख झाड़ों। भीतर सेक्स मिलेगा। चित्र देखो मूर्ति देखो सिनेमा देखो, सब वही।
और साधु संत इस वक्त सिनेमा के बहुत खिलाफ है। शायद उन्हें पता नहीं कि सिनेमा नहीं था तो भी आदमी यही सब करता था। कालिदास के ग्रंथ पढ़ो,कोई फिल्म इतनी अश्लील नहीं बन सकती। जितने कालिदास के वचन है। उठाकर देखें पुराने साहित्य को, पुरानी मूर्तियों को, पुराने मंदिरों को। जो फिल्म में है। वह पत्थरों में खुदा मिलेगा। लेकिन उनसे आंखे नहीं खुलती हमारी। हम अंधे की तरह पीछे चले जाते है। उन्हीं लकीरों पर।
सेक्स जब तक दमन किया जायेगा और जब तक स्वस्थ खुले आकाश में उसकी बात न होगी और जबतक एक-एक बच्चे के मन में वर्जना की तख्ती नही हटेगी। तब तक दुनिया सेक्स के औब्सैशन से मुक्त नहीं हो सकती। तब तक सेक्स एक रोग की तरह आदमी को पकड़े रहेगा। वह कपड़े पहनेगा तो नजर सेक्स पर होगी। खाना खायेगा तो नजर सेक्स पर होगी। किताब पढ़ेगा तो नजर सेक्स पर होगी। गीत गायेगा तो नजर सेक्स पर होगी। संगीत सुनेगा तो नजर सेक्स पर होगी। नाच देखेगा तो नजर सेक्स पर होगी। सारी जिंदगी उसकी सेक्स के आसपास घूमेगा।
अनातोली फ्रांस मर रहा था। मरते वक्त एक मित्र उसके पास गया और अनातोली जैसे अदभुत साहित्यकार से उसने पूछा कि मरते वक्त तुमसे पूछता हूं, अनातोली जिंदगी में सबसे महत्वपूर्ण क्या है? अनातोली ने कहा, जरा पास आ जाओ, कान में ही बता सकता हूं। आस पास और भी लोग बैठे थे। मित्र पास आ गया। वह हैरान हुआ कि अनातोली जैसा आदमी, जो मकानों की चोटियों पर चढ़कर चिल्लाने का आदमी है। जो उसे ठीक लगा हमेशा कहता रहा। वह आज भी मरते वक्त इतना कमजोर हो गया है कि जीवन की सबसे महत्वपूर्ण बात बताने को कहता है कि पास आ जाओ। कान में कहूंगा। सुनो धीरे से कान में, मित्र पास सरक आया। अनातोली कान के पास होंठ ले गया। लेकिन कुछ बोला नहीं। मित्र ने कहा, बोलते क्यों नहीं? अनातोली कहां तुम समझ गये। अब बोलने की कोई जरूरत नहीं है।
ऐसा मजा है। और मित्र समझ गये और तुम भी समझ गये होगें। लेकिन हंसने की बात नहीं है। क्या ये पागल पन है? ये कैसे मनुष्य को पागलपन की और ले जा रहा है। दुनियां को पागलखाना बनाने की कोशिश की जा रही है।
इसका बुनियादी कारण यह है कि सेक्स को आज तक स्वीकार नहीं किया गया है। जिससे जीवन का जन्म होता है, जिससे जीवन के बीज फूटते है। जिससे जीवन में फूल आते है। जिससे जीवन की सारी सुगंध है, सारा रंग है। जिससे जीवन का सारा नृत्य है, जिसके आधार पर जीवन का पहिया घूमता है। उसको स्वीकार नहीं किया गया। जीवन के मौलिक आधार को अस्वीकार किया गया है। जीवन में जो केंद्रीय है परमात्मा जिसको सृष्टि का आधार बनाये हुए है—चाहे फूल हो, चाहे पक्षी हो, चाहे बीज हो, चाहे पौधे हो, चाहे मनुष्य हो—सेक्स जो कि जीवन के जीवन के जन्म का मार्ग है, उसको ही अस्वीकार कर दिया गया है।
उस अस्वीकृति को दो परिणाम हुए। अस्वीकार करते ही वह सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया। अस्वीकार करते ही वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो गया और मनुष्य के चित को उसने सब तरफ से पकड़ लिया है। अस्वीकार करते ही उसे सीधा जानने का कोई उपाय नहीं रहा। इसलिए तिरछे जानने के उपाय खोजने पड़े, जिनसे मनुष्य का चित विकृत और बीमार हो गया है। जिस चीज को सीधा जानने के उपाय न रह जायें और मन जानना चाहता हो,तो वह फिर गलत उपाय खोजने लग जाता है।
मनुष्य को अनैतिक बनाने में तथा कथित नैतिक लोगों का हाथ है। जिन लोगों ने आदमी को नैतिक बनाने की चेष्टा की है, दमन के द्वारा,वर्जना के द्वारा, उन लोगों ने सारी मनुष्य जाति को अनैतिक बना दिया है।
और जितना आदमी अनैतिक होता जा रहा है। उतनी ही वर्जना सख्त होती चली जाती है। वे कहते है। कि फिल्मों में नंगी तस्वीरें नहीं होनी चाहिए। वे कहते है, पोस्टरों पर नंगी तस्वीरे नहीं होनी चाहिए। वे कहते है किताब ऐसी होनी चाहिए। वे कहते है फिल्म में चुंबन लेते वक्त कितने इंच का फासला होना चाहिए। यह भी गवर्नमेंट तय करें। वे यह सब कहते है। बड़े अच्छे लोग हैं वे, इसलिए वे कहते है कि आदमी अनैतिक न हो जाये।
और उनकी ये सब चेष्टायें फिल्मों को और गंदा करती चली जाती है। पोस्टर और अश्लील होते चले जाते है। किताबें और गंदी होती चली जा रही है। हां, एक फर्क पड़ता है। किताब के भीतर कुछ रहता है, उपर कवर पर कुछ और रहता है। और अगर ऐसा नहीं रहता तो लड़का गीता खोल लेता है और गीता के अंदर दूसरी किताब रख लेता है। उसको पढ़ता है। बाइबिल पढ़ता है, अगर बाइबिल पढ़ता हो तो समझना भीतर कोई दूसरी किताब है। यह सब धोखा यह डिसेप्शन पैदा होता है वर्जना से।
विनोबा कहते है, तुलसी कहते है, अश्लील पोस्टर नहीं चाहिए। पुरूषोतम दास टंडन तो यहां तक कहते थे कि खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों पर मिट्टी पोतकर उनकी प्रतिमाओं को ढंक देना चाहिए। कहीं आदमी इनको देखकर गंदा न हो जाये। और बड़े मजे की बात यह है कि तुम ढँकते चले जाओ इनको,हजार साल से ढाँक ही रहे हो। लेकिन इनसे आदमी गंदगी से मुक्त नहीं होता। गंदगी रोज-रोज बढ़ती चली जाती है।
मैं यह पूछना चाहता हूं, कि अश्लील किताब, अश्लील सिनेमा के कारण आदमी कामुक होता है या कि आदमी कामुक है, इसलिए अश्लील तस्वीर और पोस्टर चिपकाये जा रहा है। कौन है बुनियादी?
बुनियाद में आदमी की मांग है, अश्लील पोस्टर के लिए, इसलिए अश्लील पोस्टर लगता है और देखा जाता है। साधु संन्यासी भी देखते है। लेकिन देखने में एक फर्क रहता है। आप उसको देखते है और अगर आप पकड़ लिए जायेंगे देखते हुए तो समझा जायेगा कि यह आदमी गंदा है। और अगर कोई साधु संन्यासी मिल जाये, और आप उससे कहें कह आप क्यों देख रहे है। तो वह कहेगा कि हम तो निरीक्षण कर रहे है, स्टडी कर रहे है, कि किस तरह लोगों को अनैतिकता से बचाया जाये। इसलिए अध्यन कर रहे है। इतना फर्क पड़ेगा। बाकी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। बल्कि आप बिना देखे निकल भी जायें। साधु संन्यासी बिना देखे कभी नहीं निकल सकते थे। क्योंकि उनकी वर्जना और भी ज्यादा है, उनका चित और भी वर्जित है।
एक संन्यासी मेरे पास आये। वे नौ वर्ष के थे, तब दुष्टों ने उनको दीक्षा दे दी। नौ वर्ष के बच्चे को दीक्षा देना कोई भले आदमी का काम हो सकता है। नौ वर्ष का बच्चा, बाप मर गया है उसका। संन्यासी को मौका मिल गया। उन्होंने उसको दीक्षा दे दी। अनाथ बच्चे के साथ कोई भी दुर्व्यवहार किया जा सकता था। उनको दीक्षा दे दी गई। वह आदमी नौ वर्ष की उम्र से बेचारा संन्यासी है। अब उनकी उम्र कोई पचास साल है। वह मेरे पास रुके थे। मेरी बात सुन कर उनकी हिम्मत जगी कि मुझे सच्ची बात कही जा सकती है। इस मुल्क में सच्ची बातें किसी से भी नहीं कहीं जा सकती है। सच्ची बातें कहना मत, नहीं तो फंस जाओगे। उन्होंने एक रात मुझसे कहा कि मैं बहुत परेशान हूं,सिनेमा के पास से निकलता हूं तो मुझे लगता है, अंदर पता नहीं क्या होता होगा? इतने लोग तो अंदर जाते है। इतनी क्यू लगाये खड़े रहते है। जरूर कुछ न कुछ बात तो होगी ही। हालांकि मंदिर में जब मैं बोलता हूं तो मैं कहता हूं कि सिनेमा जाने वाले नर्क में जायेंगे। लेकिन जिनको मैं कहता हूं नर्क जाओगे,वे नर्क की धमकी से भी नहीं डरते। और सिनेमा जाते है। मुझे लगता है जरूर कुछ बात होगी।
नौ साल का बच्चा था, तब साधु हो गया। नौ साल के बाद ही उनकी बुद्धि अटकी रह गयी। उसके आगे विकसित नहीं हुई। क्योंकि जीवन के अनुभव से उन्हें तोड़ दिया गया था। नौ साल के बच्चे के भीतर जैसे भाव उठे कि सिनेमा के भीतर क्या हो रहा है। ऐसा उनके मन में उठता है लेकिन किससे कहें? मुझसे कहा, तो मैंने उनसे कहा कि सिनेमा दिखला दूँ आपको? वे बोले कि अगर दिखला दें तो बड़ी कृपा होगी। झंझट छूट जाये,यह प्रश्न मिट जाये। कि क्या होता है? एक मित्र को मैंने बुलवाया कि इनको ले जाओ। वह मित्र बोले कि मैं झंझट में नहीं पड़ता। कोई देख ले कि साधु को लाया हूं तो मैं झंझट में पड़ जाऊँगा। अंग्रेजी फिल्म दिखाने जरूर ले जा सकता हूं इनको। क्योंकि वह मिलिट्री एरिया में है। और उधर साधुओं को मानने वाले भक्त भी न होंगे। वहां मैं इनको ले जा सकता हूं। पर वे साधु अंग्रेजी नहीं जानते थे। फिर भी कहने लगे, कि कोई हर्ज नहीं कम से कम देख तो लेंगे कि क्या मामला है।
यह चित है और यहीं चित वहां गाली देगा। मंदिर में बैठकर कि नर्क जाओगे। अगर अश्लील पोस्टर देखोगें। यह बदला ले रहा है। वह तिरछा देखकर निकल गया आदमी बदला ले रहा है। जिसने सीधा देखा उनसे बदला ले रहा है। लेकिन सीधा देखने वाले मुक्त भी हो सकते है। तिरछा देखने वाले मुक्त कभी नहीं होते। अश्लील पोस्टर इस लिए लग रहे है। अश्लील किताबें इसलिए छप रही है। लड़के-बूढे-नौजवान अशलील गालियां बक रहे है। अशलील कपड़े इसलिए पहने जा रहे है। क्योंकि तुमने जो मौलिक था और स्वाभाविक था उसे अस्वीकार कर दिया है। उसकी अस्वीकृति के परिणाम में यह सब गलत रास्ते खोज जा रहे है।
क्रमश: अगले लेख में…………
–ओशो
संभोग से समाधि की ओर,
प्रवचन—6
युवक और यौन,
बड़ौदा,विश्वविद्यालय, बड़ौदा।
This entry was posted in संभोग से समाधि की और. Bookmark the permalink.
3 Responses to संभोग से समाधि की और—25