हिंदी फ़ल्मों में रोमांस उतना ही पुराना है, उतना ही शाश्वत और चिरंतन है जितना कि हिंदी फ़िल्म है, जितना कि हमारा जीवन है, जितना कि यह ब्रह्मांड है। सोचिए कि बिना प्रेम के यह दुनिया होती तो भला कैसी होती? और फिर फ़िल्म और वह भी बिना प्रेम के? शायद सांस भी नहीं ले पाती। और मामला फिर वहीं आ कर सिमट जाता कि 'जब दिल ही टूट गया तो जी के क्या करेंगे?' और फिर जो 'दिल दा मामला' न होता तो 'तू गंगा की मौज मैं जमुना की धारा' भी भला कहां होती और भला कैसे बहती?
हम कैसे गाते भला 'बचपन की मुहब्बत को दिल
से न जुदा करना! जब याद मेरी आए मिलने की दुआ करना!' कैसे सुनते 'जब तुम
ही चले परदेस/छुड़ा कर देस/ तो प्रीतम प्यारा/ दुनिया में कौन हमारा!' कहां
से सुनते 'ओ दुनिया के रखवाले/ सुन दर्द भरे मेरे नाले! मंदिर गिरिजा फिर
बन जाता/ दिल को कौन संभाले?' दरअसल हिंदी फ़िल्मों में प्रेम का पाग इतना
गहरा, इतना रसीला, इतना मधुर और इतना चटक है कि उसकी महक और उस की चहक झूले
में पवन के आई बहार भी प्यार बन के ही छलकती है। इतना कि कोयल कूकने लगती
है, मोर नाचने लगता है और मन मल्हार गाने ही लगता है। प्यार की चादर हिंदी
फ़िल्मों में इतनी तरह से बीनी गई कि उसे किसी एक रंग, एक पन और एक गंध में
नहीं बांध सकते हैं, न जान सकते हैं। परदे पर यों तो प्रेम के जाने कितने
पाग हैं पर राजकपूर ने जो चाव, जो चमक और जो धमक प्रेम का उपस्थित किया है
वह अविरल है। आवारा हालां कि एक सामाजिक फ़िल्म थी पर चाशनी उस में प्रेम
की ही गाढ़ी थी। शायद तभी से प्यार को आवारगी का जामा भी पहना दिया गया।
आवारा हूं गाने ने इस की चमक को और धमक दी। हर दिल जो प्यार करेगा वो गाना
गाएगा, दीवाना सैकड़ों में पहचाना जाएगा जैसे गीतों के मार्फ़त राज कपूर ने
इस आवारगी के जामे को और परवान चढ़ाया।
बाबी में तो वह साफ कहते ही हैं- देती है
दिल दे, बदले में दिल ले। संगम, हिना, राम तेरी गंगा मैली हो गई जैसी उन की
फ़िल्में प्रेम के ही बखान में पगी हैं तो प्रेम रोग, श्री चार सौ बीस,
जिस देस में गंगा बहती है का कथ्य अलग-अलग है, बावजूद इस के बिना प्यार के
यह फ़िल्में भी सांस नहीं ले पातीं। प्रेम रोग है तो विधवा जीवन की त्रासदी
पर लेकिन उस की बुनियाद और अंजाम प्रेम की मज़बूत नींव पर टिकी है। इसी
तरह जिस देस में गंगा बहती है है तो डाकू समस्या पर लेकिन इस की नाव भी
प्रेम की नदी में ही तैरती मिलती है। मेरा नाम जोकर तो जैसे राजकपूर के
प्रेम की व्याख्या ही में ही, उस की स्थापना में ही रची-बसी है। जाने कहां
गए वो दिन कहते थे तेरी याद में नज़रों को हम बिछाएंगे जैसे गीत राजकपूर के
प्यार की समुंदर जैसी गहराई का पता देते हैं। प्यार कि जिस विकलता और उस
की विफलता को सूत्र दिया है मेरा नाम जोकर में वह अविरल ही नहीं अनूठा और
अंतहीन है।
राजकपूर के बाद अगर किसी ने प्यार को उसी
बेकली को विभोर हो कर बांचा है तो वह हैं यश चोपड़ा। उन की भी लगभग सभी
फ़िल्में प्यार की ही पुलक में पगी पड़ी हैं। वह जैसे प्यार को ही स्वर
देने के लिए फ़िल्में बनाते रहे हैं। कभी-कभी से लगायत वीर जारा तक वह एक
से एक प्रेम कथाएं परोसते हैं। चांदनी, लम्हे, कुछ कुछ होता है, दिल वाले
दुल्हनिया ले जाएंगे भी उन की इसी राह का पता देती हैं। लम्हे तो
अविस्मरणीय है। प्यार की बनी बनाई लीक से कोसों दूर ही नहीं, पलट कर भी है।
गुरुदत्त की कागज के फूल और चौदवीं की रात या फिर साहब बीवी और गुलाम और
प्यासा भी प्यार की अकथ कहानी ही कहती हैं। गुरुदत्त की फ़िल्मों में प्यार
का जो ठहराव और बुनाव है वह अन्यत्र दुर्लभ है। दिलीप कुमार, देवानंद और
राजकपूर जब प्रेम को ग्लैमर में बांध रहे थे तब गुरुदत्त प्यार को सादगी की
चांदनी में चटक कर रहे थे। यह आसान नहीं था। दिलीप कुमार अभिनीत और विमल
राय द्वारा निर्देशित देवदास हिंदी फ़िल्म में रोमांस का मानक बन कर उभरी
तो गुरुदत्त की कागज के फूल रोमांस का एक नया क्राफ़्ट ले कर हमारे सामने
उपस्थित है। देवानंद की गाइड प्रेम का एक नया ही बिरवा रचती है। प्रेम
पुजारी, तेरे मेरे सपने में प्रेम की दूसरी इबारत वह भले लिखते हैं पर गाइड
को वह छू भी नहीं पाते।
प्यार की बात चले और पाकीज़ा को हम भूल
जाएं? भला कैसे संभव है। एक सादी सी फ़िल्म हो कर भी अपने गीतों और संवादों
के चलते पाकीज़ा प्रेम की एक नई डगर पर हिंदी सिनेमा को ले जाती है। फिरते
हैं हम अकेले/ बाहों में कोई ले ले/ आखिर कोई कहां तक तनहाइयों से खेले की
जो स्वीकारोक्ति है वह आसान नहीं है। पांव ज़मीन पर मत रखिएगा, नहीं मैले
हो जाएंगे या फिर अफ़सोस कि लोग दूध से भी जल जाते हैं जैसे मोहक और मारक
संवाद और इस के दिलकश गाने पाकीज़ा को उस की पाकीज़गी तक इस आसानी से ले
जाते हैं कि फिर कोई और फ़िल्म इस को छू नहीं पाती। तो कमाल अमरोही के
समर्पण और उन के संवादों की ही यह तासीर है कुछ और नहीं। लेकिन जो कहते हैं
कि मुहब्बत में बगावत वह पहली बार अपने दाहक रुप में अगर उपस्थित हुआ तो
मुगले-आज़म में ही। कमाल अमरोही की ही कलम का यह कमाल है कि मुगले-आज़म में
प्यार का जो अंदाज़ पेश किया के आसिफ़ ने उसे अभी तक कोई लांघना या साधना
तो बहुत दूर की बात है कोई छू भी नहीं सका है। 'जब प्यार किया तो डरना
क्या' का मानक अभी भी सिर चढ़ कर बोलता है। प्रेम कहानी पर इतनी मेहनत,
इतना समर्पण, इतनी निष्ठा कभी फिर देखी नहीं गई किसी फ़िल्म में। सोचिए भला
कोई निर्देशक फ़िल्म पर इतना आसक्त हो जाए कि फ़िल्म स्टूडियो में ही चटाई
बिछा कर रोज-ब-रोज सोने लगे? पर के. आसिफ़ तो सोते थे। इस फ़िल्म को ले कर
जाने कितनी कहानियां, किताबें लिखी और सुनाई गई हैं कि पूछिए मत। दो तीन
वाकए यहां हम भी सुनाए देते हैं। बल्कि दुहराए देते हैं। सुनाए तो और लोगों
ने हैं।
कभी नौशाद साहब यह वाकया सुनाते थे। एक
दिन के आसिफ़ ने उन से पूछा कि ये तानसेन वाला गाना किस से गवाया जाए! तो
नौशाद साहब ने फ़र्माया कि आज के तानसेन तो बडे़ गुलाम अली साहब हैं।
उन्हीं से गवाना चाहिए। पर एक दिक्कत यह है कि वह गाएंगे नहीं। क्यों कि वह
प्लेबैक नहीं देते। पर के आसिफ़ ने नौशाद से कहा कि वह गाएंगे। आप चलिए उन
के पास। नौशाद ने बहुत ना-नुकुर की। पर के आसिफ़ माने नहीं। पहुंचे नौशाद
को ले कर बडे़ गुलाम अली खां साहब के घर। नौशाद ने जैसा कि वह बताते थे
बडे़ गुलाम अली साहब से सब कुछ बता दिया यह बताते हुए कि मैं ने इन्हें बता
दिया है कि आप प्लेबैक नहीं देते हैं फिर भी यह आ गए हैं हम को ले कर। तो
बडे़ गुलाम अली खां ने नौशाद से कहा कि ऐसा करते हैं कि इन से इतना ज़्यादा
पैसा मांग लेते हैं कि यह खुद ही भाग जाएंगे। तो नौशाद साहब ने उन से कहा
कि इस पर आप को पूरा अख्तियार है। नौशाद साहब बताते थे कि उन दिनों सब से
महंगी गायिका थीं लता मंगेशकर। वह एक गाने का तब पांच सौ रुपए लेती थीं। और
बडे़ गुलाम अली खां साहब ने के आसिफ़ से तब एक गाने का पचीस हज़ार रुपए
मांग लिया। के आसिफ़ तब सिगरेट पी रहे थे। पचीस हज़ार सुनते ही उन्हों ने
सिगरेट से राख झाड़ी और बोले, 'डन !' फिर अपनी जेब से दस हज़ार रुपए बडे़
गुलाम अली साहब को देते हुए बोले, 'अभी इसे रखिए बाकी भिजवाता हूं।'
अब जब गाना रिकार्ड होने लगा तो जो चाहते
थे नौशाद वह नहीं मिल पा रहा था। अंतत: बडे़ गुलाम अली खां नाराज हो गए। और
बोले कि पहले फ़िल्म शूट करो फिर मैं गाऊंगा। अब देखिए रातोंरात दिलीप
कुमार और मधुबाला को बुला कर फ़िल्म शूट की गई और फिर गाना रिकार्ड किया
गया। नतीज़ा देखिए कि क्या राग आलापा खां सहब ने! ऐसे ही एक दृश्य में तपती
रेत पर पृथ्वीराज कपूर को चलवाया के आसिफ़ ने। किसी ने कहा कि तपती रेत पर
चलाते या ठंडी रेत पर चलाते कैमरा तो सिर्फ़ रेत ही दिखाएगा। तो के आसिफ़
बोले कि तपती रेत पर जो चेहरे पर तकलीफ़ चाहता था पृथ्वीराज कपूर से वह
सिर्फ़ अभिनय से नहीं मिल पाता। इसी तरह एक दृश्य में उन्हों ने दिलीप
कुमार को सोने के जूते पहनाए। जूते बनने के जब आर्डर के आसिफ़ दे रहे थे तब
कैमरामैन ने उन से कहा कि ब्लैक एंड ह्वाइट में तो हमारा कैमरा वहां जूते
को ठीक से दिखा भी नहीं पाएगा कि सोने का है तो क्या फ़ायदा? तो के आसिफ़
ने कहा कि सोने के जूते पहने कर हमारे हीरो के चेहरे पर जो भाव आएगा, जो
चमक आएगी वह तो कैमरे में दिखेगा न? तो इतने समर्पण, इतनी निष्ठा से बनाई
गई यह फ़िल्म मुगले आज़म रोमेंटिक फ़िल्मों का मानक और मक्का मदीना बन गई।
जिस की मिसाल हाल फ़िलहाल तक कोई और नहीं है। एक एक दृश्य, एक एक संवाद और
एक एक गाने आज भी उस के सलमे सितारे की तरह टंके हुए हैं।
बाद के दिनों में भी रोमेंटिक फ़िल्में
बनीं आज भी बन रही हैं लेकिन मुगले आज़म के एक गाने में ही जो कहें कि पायल
के गमों का इल्म नहीं झंकार की बातें करते हैं वाली बात हो कर रह गईं। और
जो उस में एक संवाद है न कि दिल वालों का साथ देना दौलत वालों का नहीं। वह
बात भी, वह तासीर भी बावजूद तमाम कोशिशों के नहीं बन पाई, नहीं आ पाई। हां
प्यार के ट्रेंड ज़रूर बदलते रहे हैं, मिजाज और मूड बदलता रहा है। राजकपूर
का अपना तेवर था, उन के प्यार में एक अजब ठहराव था। तो दिलीप कुमार के
अंदाज़ में ट्रेजडी वाला ट्रेंड था। इतना कि उन्हें ट्रेजडी किंग कहा जाने
लगा। तो वहीं शम्मी कपूर उछल कूद करते हुए याहू ट्रेंड सेटर हो गए। राजेश
खन्ना अपनी फ़िल्मों में एक नया अंदाज़ ले कर एक नए तरह के प्रेमी बन कर
उपस्थित हुए और एक नया स्टारडम रचा। बीच में अनिल धवन दोराहा और हवस के
प्रेमी बन कर चल रहे थे। विजय अरोडा भी थे। हां धर्मेंद्र, जितेंद्र सरीखे
नायक भी थे। ठीक वैसे ही जैसे पहले विश्वजीत, जाय मुखर्जी जैसे नायक भी थे।
लेकिन राजेश खन्ना की फ़िल्मों का प्रेमी एक साथ प्रेम की कई इबारते बांच
रहा था। प्रेम की एक नई पुलक की आंच में वह जो पाग पका रहे थे, उस में एक
टटकापन और मस्ती भी थी। सिर्फ़ रोना धोना ही नहीं। अमिताभ बच्चन अभिनीत
फ़िल्मों ने प्यार को भी गुस्से में बदलने की फ़ितरत परोसी। मतलब एंग्री
यंगमैन अब प्यार कर रहा था। जो कभी अभिमान में गायक था, कभी-कभी में शायर
था या एक नज़र में जुनून की हद से गुज़र जाने वाला प्रेमी अब तस्कर था
दीवार में और प्यार कर रहा था। उसी तस्करी वाले अंदाज़ में। कि पिता पहले
बनता है शादी की बात बाद में सोचता है। यह अनायास नहीं है कि चंदन सा बदन
चंचल चितवन जैसा मादक गीत लिखने वाले इंदीवर बाद में सरकाय लेव खटिया जाड़ा
लगे लिखने लगे। और अब तो सब कुछ शार्ट में बतलाओ ना, सीधे प्वाइंट पर आओ
ना! या फिर इश्क के नाम पर अब सब रचाते रासलीला है मैं करुं तो साला
करेक्टर ढीला है! जैसे गानों से हिंदी फ़िल्मों में रोमांस की बरसात हो रही
है।
खैर अस्सी के दशक में जब मैंने प्यार किया
आई तो सलमान खान प्यार के नए नायक बन गए। प्यार का एक नया ट्रेंड हिंदी
फ़िल्मों मे आया। एक नई बयार बहने लगी। एंग्री यंगमैन के अंदाज़ से अब टीन
एज अंदाज़ का रोमांस हिंदी फ़िल्मों में सांस लेने लगा। कयामत से कयामत तक
की बात आ गई। बात फिर चूडी मजा न देगी, कंगन मजा न देगा से होने लगी। लगा
कि रोमांस लौट आया है। लेकिन ओ जो मुकेश ने एक गाना गाया है न कि तुम अगर
मुझ को न चाहो तो कोई बात नहीं, गैर के दिल को सराहोगी तो मुश्किल होगी
वाले अंदाज़ में हिंदी फ़िल्में सांस लेने लगीं। जिस्म जैसी फ़िल्में आने
लगीं जो बिपाशा जैसी खुली तबीयत वाली अभिनेत्रियों के मार्फ़त प्यार के
बहाने देह की खिड़की खोल रही थीं और बता रही थीं कि प्यार अब पवित्र ही
नहीं रहा सेक्स भी हो गया है। फिर तो प्यार के रंग में सेक्स का रंग सिर
चढ़ कर बोलने लगा। और अब फ़सल सामने है। एक से एक चुंबन, एक से एक बोल्ड और
न्यूड दृश्य अब आम बात हो चली है। मुन्नी बदनाम और शीला जवान हो गई तो
जलेबी बाई भी भला काहे पीछे रहतीं? इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों
हैं या आप की याद आती रही रात भर अब बिसर कर अब बारह महीने में बारह तरीके
से प्यार की इबारत बांचने लगा हिंदी सिनेमा का रोमांस।
एक समय था जब मधुबाला, मीना कुमारी,
वैजयंती माला, आशा पारिख, वहीदा रहमान की बाहों और आहों में हिंदी सिनेमा
रोमांस की गलबहियां करता था, रोमांस की चादर बीनता था। शोला जो भड़के, दिल
मेरा धड़के या फिर जवानी बीत जाएगी ये रात फिर ना आएगी गा कर मन को प्यार
के हिडोले पर बैठाता था। अशोक कुमार, राजकुमार, राजेंद्र कुमार, सुनील दत्त
के साथ देविका रानी,साधना, नूतन, तनूजा हेमा मालिनी, रेखा, श्रीदेवी,
जयाप्रदा, तब्बू के तेवर में प्यार के तराने गाने वाला हिंदी सिनेमा अब
इमरान हाशमी और मलिका शेरावत के चुंबनों में चूर होने लगा। रोमांस की यह एक
नई धरती एक नया आकाश हिदी सिनेमा के दिल में धड़कना और बसना शुरु हुआ।
पहले फ़िल्मी गानों में पेड़ों की डालियां हिलती थीं अब देह हिलने लगी।
हिलने क्या लगी उछले कूदने और दौड़ने लगी। रोमांस का एक नया रंग था। आनंद
बख्शी कभी लिखते थे देवानंद के लिए बैठ जा बैठ गई और गाते थे किशोर कुमार
पर अब तो लिरिक के नाम पर खड़ा का खड़ा गद्य और संगीत के नाम पर शोर सुनाई
देने लगा है रोमेंटिक गानों में। गाने अब गाने नहीं डांस नंबर बन चले हैं।
लिखते थे कभी चित्रलेखा सरीखी फ़िल्म के लिए साहिर लुधियानवी कि सखी रे
मेरा मन उलझे, तन डोले! अब तो यह है कि तन ही तन है मन तो किसी भयानक खोह
में समा गया है। शोखियों में घोला जाए थोड़ा सा शबाब उस में फिर मिलाई जाए
थोड़ी सी शराब होगा यूं नशा जो तैयार वो प्यार है प्यार! जैसे मादक और दाहक
गीत लिखने वाले नीरज और उस को संगीत देने वाले सचिन देव वर्मन को जिस को
याद करना हो करे अब तो डेल्ही बेली का गाना सुन रहे हैं लोग भाग बोस डी के।
अब इस के उच्चारण में लोगों के मुह से गालियां निकलती हैं तो उन की बला
से। यह एक नया रोमांस है।
भारत भूषण और मीना कुमारी का वह दौर नहीं
है कि आप तू गंगा की मौज मैं जमुना की धारा के संगीत में आप गोते मारें। एक
दूजे के लिए में गाती रही होंगी कभी लता मंगेशकर सोलह बरस की बाली उमर को
सलाम ऐ प्यार तेरी पहली नज़र को सलाम! अब तो आप सुनिए ज़रा शार्ट में समझाओ
ना सीधे प्वाइंट पर आओ ना! अब सब कुछ हाइटेक है तो रोमांस भी कब तक भला और
कैसे भला पीछे रहता? अब उस रोमांस का ज़माना बीत और रीत गया जिस को कभी
सहगल, बेगम अख्तर, लता मंगेशकर, मुबारक बेगम,मुहम्मद रफ़ी, मुकेश किशोर,
मन्ना डॆ या तलत महमूद, सुमन कल्यानपुर, मनहर हेमलता की गायकी में निर्माता
निर्देशक और संगीतकार हिंदी फ़िल्मों मे परोसते थे। कभी लिखते रहे होंगे
भरत व्यास, राजा मेंहदी अली खां, शकील बदांयूनी, साहिर लुधियानवी, नरेंद्र
शर्मा, शैलेंद्र, नीरज, मज़रूह सुल्तानपुरी, गुलज़ार, जावेद अखतर प्रेम
गीत। एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा या फिर चांदनी रात में
एक बार तुझे देखा है, या मोरा गोरा अंग लई ले, मोहि श्याम रंग दई दे! भूल
जाइए पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है और मत सोचिए कि ये दुनिया
अगर मिल भी जाए तो क्या है! आप तो बस सीधे प्वाइंट पर आइए ना! और गाइए भाग
बोस डी के !। आज की हिंदी फ़िल्म में रोमांस की यही कैफ़ियत है। आगे और
बदलेगी।
लेखक दयानंद पांडेय व
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