ctment of the cultural heritage
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सांस्कृतिक विरासत है लखीमपुर की रामलीला
शहर में डेढ़ सदी पुरानी ऐतिहासिक रामलीला जिले की एक महान� सांस्कृतिक विरासत है। इस साल इसका 151वां वार्षिक समारोह मनाया जा रहा है।� इस रामलीला के शुरू होने का इतिहास जितना रोचक है, उससे ज्यादा इसकी� परंपराएं। डेढ सौ साल से यह रामलीला एक ही तरह से होती चली आ रही है। रामलीला के तौर तरीकों और परंपराओं में आज तक कोई बदलाव नहीं आया। यही इस रामलीला� की विरासत और बड़ी विशेषता है। समय के साथ विकसित हुई भौतिकवादी संस्कृति और� मनोरंजन के इलेक्ट्रानिक साधनों के विकास के चलते रामलीला दर्शकों में जरूर कमी आई है।
डेढ़ सौ साल पहले तक जिले में इक्का-दुक्का जगहों पर� धार्मिक भावना के साथ रामलीला होती थी। वर्ष 1863 में बनारस से तबादला होकर� एक अंग्रेज जिलाधीश लखीमपुर आए। उनकी पत्नी भारतीय संस्कृति और रीति� रिवाजों से काफी प्रभावित थीं। उन्होंने बनारस के रामनगर की अनूठी रामलीला� देखी थी। वह उन्हें काफी पसंद आई थी। उन्होंने वैसी ही रामलीला यहां शुरू� कराने के लिए शहर के संभ्रांत लोगों और धनाड्यों की बैठक बुलाकर यहां हर� साल रामलीला कराने की इच्छा जताई। सेठ मथुरा प्रसाद को इसकी जिम्मदारी सौंपी गई। वर्ष 1864 से यहां रामलीला की शुरुआत हो गई तबसे यहां ये रामलीला� अनवरत होती आ रही है।� �
लाल किताब में दर्ज नियमों के अनुसार होती है रामलीला
रामलीला� कमेटी ने रामलीला के कुछ नियम बनाए। यह नियम एक लाल किताब में दर्ज है। आज� भी उन्हीं नियमों के अनुसार रामलीला होती है। इस लाल किताब में यह भी दर्ज� है कि रामलीला में कितने पात्र होंगे। उनका अभिनय करने के लिए कैसे लोगों� का चयन किया जाएगा। किस तिथि को कौन सी लीला होगी। कैसे होगी रामलीला की� व्यवस्था। यूं कहें कि यह लाल किताब रामलीला का पूरा संविधान है तो गलत न होगा।
यहां 12 दिन चलती है रामलीला
रामलीला शारदीय नवरात्र के पहले दिन श्री गणेश पूजा और शिव विवाह से शुरू होकर 12वें दिन भगवान राम के राज्याभिषेक के साथ समाप्त होती है। दिन की रामलीला मेला मैदान पर होती है तो रात में राम विवाह जैसी लीलाओं का मंचन मथुरा भवन में होता है।� पुष्प वाटिका गुड़ मंडी में तो भरत मिलाप की लीला पुरानी गल्ला मंडी में होती है। रामलीला के दौरान प्रतिदिन मथुरा भवन से भगवान की सवारियां� निकलतीं है जो शहर के प्रमुख मार्गों पर भ्रमण करने के बाद रामलीला मैदान पहुंचती हैं और वहां रामलीला होती हैं।
सांस्कृतिक कार्यक्रमों में दिखती है अवध की संस्कृति
रामलीला खत्म होने के बाद नगर पालिका की ओर से भव्य सांस्कृतिक कार्यक्रम होते है। इनमें रामायण संगोष्ठी, अवधी सम्मेलन, भोजपुरी सम्मेलन, अखिल भारतीय कवि सम्मेलन, ऑल इंडिया मुशायरा, कव्वाली, अखिल भारतीय संगीत� सम्मेलन और बच्चों के सांस्कृतिक कार्यक्रम शामिल हैं। इन सांस्कृतिक� कार्यक्रमों में अवध संस्कृति की झलक मिलती है। यह एक तरह का अवध महोत्सव� होता है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों का समापन धनतेरस को भव्य आतिशबाजी के साथ होता है।
एक माह तक चलता है दशहरा मेला
दशहरा मेला नवरात्र के पहले दिन से शुरू होकर धनतेरस तक पूरे एक माह चलता है। यह मेला� काफी बड़े मैदान में लगता है। यहां पूरे उत्तर प्रदेश से खेल तमाशे, सर्कस और तरह-तरह के उत्पादों की दुकानें आती हैं। पहले यहां लकड़ी से बनी� कलात्मक वस्तुओं की खूब बिक्री होती थी लेकिन समय के साथ मेले के स्वरूप� में बदलाव आया है। इसके बावजूद अब तक मेला जिले की एक अनमोल सांस्कृतिक� विरासत बनी हुई है।
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