दुर्गाष्टमी को यहां जारी है बलि प्रथा
नवमीं को निकले जबारे में भजन मण्डली |
- महिसासुर के लिए देवीपूजा में बलि का रिवाज
- झांसी से 350 साल पहले आया था समाज
- औरंगजेब की फौज के साथ आए थे चौधरी
- औरंगाबाद में बुंदेली रीति-रिवाजों का पालन
नवमीं की यात्रा के लिए देवी के त्रिशूल से गला छेदते पुजारी |
ये वो युवा हैं जो आधुनिकता के साथ इस रंग में भी रगे हैं |
रोहिदासपुरा में जबारे निकलने से पहले का दृश्य |
चौक पर गायक बुंदेली भक्ते गाते हुए सभी फोटो ; शकील खान |
लगभग 350 साल पहले झांसी से औरंगजेब की फौज के साथ आए चौधरी समाज में अब भी बुंदेली रीति-रिवाजों की झलक देखने को मिलती है, नवरात्र में यह समाज नौ दिन देवी का विशेष पूजन पाठ, हवन, जोगवा और गाल सहित कंठ छेदने, बकरे की बलि, आरती खेलने जैसे तरीकों से आराधना करता है। प्रत्येक घर में बने पुश्तैनी पूजाघरों में घटस्थापना से पूजा आरंभ होती है और रोजाना भजन, आरती सहित विविध आयोजन होते हैं। इसमें विशेष रूप से सप्तमी को आरती खेलना, दुर्गाष्टमी को बकरे की बलि, नवमी को भंडारा और रोजाना होने वाला जोगवा शामिल है।
पुरखों के रीति-रिवाजों का पालन : पुराना मोंढा के उत्तम हीरामन गोरमे झांसी से 350 साल पहले आए उसी चौधरी समाज के हैं, जो औरंगजेब की फौज के लिए जूते-चप्पल सहित हाथी-घोंड़ों के लिए काठी बनाने का काम करने आए थे। उन्होंने आज भी अपना पुश्तैनी काम (जूते बनाना) और रिवाज नहीं छोड़ा है। इस समाज के लगभग 1000 लोग इस क्षेत्र में एक साथ रहते हैं, जो नवरात्र पर सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी उसी पूजा-पाठ के रिवाज को करते चले आ रहे हैं। उन्होंने बताया कि दुर्गाष्टमी को माता की पूजा एक मिथक के अनुसार महिसासुर के लिए बलि के बिना अधूरी मानी जाती है, जिसमें महिसासुर के लिए बकरे की बलि दिए जाने का रिवाज है।
सदियों से जारी हैं बुंदेली जबारे : लगभग 350 साल पहले झांसी से औरंगजेब की फौज के साथ आए में आए बुंदेली चौधरी समाज में अब भी उन्हीं रीति-रिवाजों से दुर्गापूजा होती है, जिसमें बैठकी से नवमी तक विविध आयोजन होते हंै। इसमें विशेष रूप से सप्तमी, दुर्गाष्टमी को आरती खेलना और नवमी को ‘जबारे’ (घट स्थापना में बोए गए जौ के अंकुर) विसर्जन शामिल है। इस दौरान जीभ और गले को छेदकर ‘भक्तें’ (माता के लिए गाए जाने वाले विशेष भजन) आकर्षण का केंद्र होते हैं।
बैठकी से नवमीं तक उत्सव : रोहीदासपुरा में लगभग 100 घरों वाली इस जाति की एक पूरी बस्ती है, जहां यह बुंदेली चौधरी समाज अपने पुश्तैनी घरों में घट स्थापना कर जवारे बोता है। उस दिन से दोनों समय पूजा-आरती नौ दिन तक चलती है। पुश्तैनी पूजा घर वाले घरों से रोजाना माता की पालकी निकालकर जोगवा मांगा जाता है, जिससे भंडारा होता है। सप्तमी को आरती खेलना, दुर्गाष्टमी को विशेष पूजा, नवमी को जबारे विसर्जन और दशहरा बाद भंडारा किया जाता है।
पुरखों के रीति-रिवाजों का पालन : रोहीदासपुरा के उत्तम हीरामन गोरमे झांसी से 350 साल पहले आए उसी चौधरी समाज के वंशज हैं, जो औरंगजेब के समय यहां आए थे। उन्होंने आज भी अपना पुश्तैनी काम (जूते बनाना) और दुर्गा पूजा का बुंदेली रिवाज नहीं छोड़ा है। उन्होंने बताया कि ‘जबारे’ विसर्जन में जीभ और गला छेदकर ‘भक्तें’ गाते हुए भक्त विसर्जन यात्रा करते हैं, जिसमें माता की पालकी भी होती है। विशेष बात यह कि त्रिशूल से जीभ और गला छेदे जाने के बाद भी न किसी को खून निकलता है, न ही दर्द होता है। इसके लिए पूजा-पाठ और औषधीय तरीकों का भी प्रयोग किया जाता है।
जबान से टपकती है मीठी बुुंदेली: यह देखना और समझना अपने आप में आश्चर्य प्रद है कि इनके घरों में बुंदेली रीतिरिवाज ही नहीं बल्कि मीठी बुंदेली जबान भी आपको सुनने को मिलती है. सदियां गुजर गर्इं मगर पूरी तरह से भिन्न इस भौगोलिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में भी इन्होंने अपनी जड़ों को खोने नहीं दिया है। जब मैने इस समाज के बीच घूमकर गहरे तक जानने की कोशिश की तो पता चला कि रोहीदासपुरा नाम की इस बस्ती में उस समाज के लगभग 100 से 200 घर एक ही जगह हैं, जो इनकी सांस्कृतिक विविधता के बचे रहने का मूल कारण है। दरअसल यह पूरी बस्ती मुगल शासकों विशेष रूप से निजाम के दौर में औरंगाबाद के परकोटे के पास बसाई गई थी, ताकि जरूरत पड़ने पर इस चौधरी समाज की गोरमे, सरोने, चिपोले, उणे, कस्तूरे, खरे, टेरके आदि जातियों की सेवाएं ली जा सकें।
आधुनिकता और संस्कृति का मेल : इस समाज के लोगों ने मराठी, हिंदी और बुंदेली तीनों बोलियों को अपने में रचा-बसा रखा है, लेकिन पूरे समाज के लोग आपस में बातचीत के लिए हमेशा बुंदेली का ही प्रयोग करते हैं। मौजूदा दौर में कम ही लोग अपने पुश्तैनी कार्य में हैं। अब नई पीढ़ी के लोग पढ़लिखकर वकील, जज, डाक्टर, इंजीनियर और अन्य दूसरे पेशों को अपना रहे हैं। इन्हीं में से कुछ लोग अपनी सांस्कृतिक विरासत को आगे ले जाने का भी काम कर रहे हैं।
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