# प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा
रावण की मृत्यु के साथ ही ,युद्ध समाप्त हो गया। श्री रामचंद्र के आदेश से विभीषण को राजा घोषित कर राज्याभिषेक कर दिया गया। अभिषेक-विधि के बाद विभीषण ने नगर से बाहर निवास कर रहे ,श्रीराम से आशीर्वाद प्राप्त किया।...
राम ने हनुमान से कहा,"लंकापति विभीषण की आज्ञा लेकर,सीता को अशोक-वाटिका मे खबर सुना आओ।"...
हनुमान तुरंत चल पड़े और विभीषण की आज्ञा लेकर अशोक-वाटिका पहुंचे। माता सीता को उन्होंने सारा वृत्तांत सुनाया। परम आनंद के कारण देवी के मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे।.
जानकी बोलीं, "हे तात ! मेरा गला भरा हुआ है। शब्द नहीं निकल रहे हैं। किस प्रकार में तुम्हें धन्यवाद दूं। तुम्हारे जैसा, विवेकी,वीर, धैर्यवान, विनयशील और मनोबलवाला व्यक्ति, मैंने आज तक नहीं देखा।".वैदेही की आंखों से अविरल अश्रुधारा बहती जा रही थी।.लौटते समय हनुमान ने पूछा, "मां ! श्रीराम के पास क्या संदेशा लेकर जाऊं?"सीता बोलीं, "बस इतना ही कहना कि उनके दर्शन के लिए तरस रही हूं।"...
हनुमान, रामचंद्र के पास लौट आये। श्रीराम विचारमग्न थे। उनकी मुखाकृति कुछ बदली हुई थी।आंखें सजल थीं।उन्होंने हनुमान को आज्ञा दी ,"अच्छी बात है,सीता स्नानादि करके, स्वस्थ हो जाएं और वस्त्राभूषण पहनें, उसके बाद उसे मेरे पास ले आओ।"...
हनुमान,सीताजी को लेने चले। पालकी में सीता को आते देख ,वानर-भालू ,उन्हें देखने का आग्रह करते हुए उछल कूद मचाने लगे।...श्रीराम ने कहा, "सीता ,पैदल ही यहां आयें। वानरों को उन्हें देखकर आनंद होगा। ये सभी मेरे मित्र हैं । इन्हीं की सहायता से मैंने यह युद्ध जीता है।"वानरों और लक्ष्मण को रामचंद्र के व्यवहार में कुछ विचित्रता लगी। उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था।
सीता ने पहुंचकर केवल इतना ही कहा, "आर्यपुत्र!"...
आगे उनसे कुछ बोला न गया और फूट-फूट कर रोने लगीं।
श्रीराम का मुखमंडल अत्यंत गंभीर था। चेहरे का रंग कुछ गहरा हो गया था। उन्होंने कहा,"शत्रु मारा गया। मैंने तुम्हें कारागृह से मुक्त कर दिया। मेरा क्षत्रिय-धर्म पूरा हुआ । मैंने जो प्रण किया था वह भी पूर्ण हुआ।"...उन्होंने फिर कहा,
"मैंने तुम्हारे कारण यह भयंकर युद्ध नहीं किया। मैंने तो अपना कर्तव्य पूरा किया। तुम्हें पाकर मुझे अब खुशी नहीं हो रही है। लोकापवाद के धुयें से तुम घिरी हुई हो। पराये घर में तुम बहुत समय तक रह चुकी हो। ऐसी स्थिति में तुम्हें स्वीकार करना मेरे लिए उचित नहीं । तुम क्या कहती हो?....
सीता ने राम की ओर देखा। उनकी आंखों में अब दीनता नहीं थी। चिंगारियां निकल रही थी। बोलीं,"हे राम! क्या तुम नहीं जानते कि राक्षस मुझे जबरदस्ती उठा लाया था। क्या यह भूल गए कि मैं किस कुल की हूँ। मेरे पिता जनक हैं। उनसे मैंने धर्म सीखा है।... तुम्हारे मुंह से ऐसी बातें सुनने की, मुझे आशा न थी।....
लक्ष्मण सहित ,सारी वानर सेना, विषण्णमुख हो ,श्रीराम को ताक रही थी। उन्हें श्रीराम का व्यवहार समझ में नहीं आ रहा था।.सीता ने लक्ष्मण की ओर देखकर कहा, "अग्नि प्रज्वलित करो।".उनके आग्रह पर लक्ष्मण ने अग्नि प्रज्वलित की। भूमि पर दृष्टि जमाए सीता ने 'पति' की प्रदक्षिणा की। अग्नि में प्रवेश से पूर्व उन्होंने कहा," हे अग्निदेव! तुम्हें तो मेरी पवित्रता पर संदेह नहीं है न? तुम मुझे आश्रय दो।"... इतना कहकर वैदेही, अग्नि में प्रवेश कर गईं।...
तभी एक चमत्कार हुआ। अग्निदेव सशरीर वहां आये और सब प्रकार के वस्त्र और आभूषणों से विभूषित देवी सीता को राम के हाथों में समर्पित कर दिया।... अब श्रीराम ने सीता को बड़े प्यार से दोनों हाथों में स्वीकार किया और बोले--
,"प्रिये! मैं तुम्हें भली-भांति पहचानता हूं। तुम्हारी पवित्रता पर मैंने एक क्षण के लिए भी संदेह नहीं किया। साधारण जनता के मन में कोई शंका नहीं न रह जाये, इसी हेतु, मैंने यह परीक्षा ली।...
तभी देवेंद्र के साथ स्वर्ग से राजा दशरथ उतर आए। उन्होंने राम को अपने अंक में भर कर प्यार किया और सीता से बोले, "बेटी ! मेरे पुत्र को क्षमा करो। धर्म की रक्षा के उद्देश्य से उसने तुम्हारी परीक्षा ली। तुम्हारा सौभाग्य अटल रहे।"...आकाश से देवगण पुष्प-वर्षा करने लगे। देवेंद्र ने भी वरदान दिया कि जितने वानर युद्ध में काम आए थे ,सब के सब पुनर्जीवित हो जायें।...
जय श्रीराम,
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