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*_“एक दिन के लिए- "धर्मराज की गद्दी "_*
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_एक हाथी था,वह मर गया तो धर्मराज के यहाँ पहुँचा। धर्मराज ने उससे पूछा- ‘अरे! तुझे इतना बड़ा शरीर दिया, फिर भी तू मनुष्य के वश में हो गया! तेरे एक पैर जितना था मनुष्य,उसके वश में तू हो गया!’_
_वह हाथी बोला- ‘महाराज! यह मनुष्य ऐसा ही है।_
_बड़े-बड़े इसके वश में हो जाते हैं!_
_धर्मराज ने कहा-‘हमारे यहाँ तो अनगिनत आदमी आते हैं!’_
_हाथी ने जवाब दिया-‘आपके यहाँ मुर्दे आते हैं, जो जीवित आदमी आये तो पता लगे!_
_धर्मराज ने दूतों से कहा- *‘अरे! एक जीवित आदमी ले आओ!* दूतों ने कहा-‘ठीक है’।_
_दूत घूमते ही रहते थे। गर्मी के दिनों में उन्होंने देखा कि छत के ऊपर एक आदमी सोया हुआ है। दूतों ने उसकी खाट उठा ली,और ले चले।_
_उस आदमीं की नींद खुली तो देखा कि क्या बात है! वह कायस्थ था। ग्रन्थ लिखा करता था। ग्रंथो में धर्मराज के दूतों के लक्षण आते हैं। उसने जेब से कागज और कलम निकली। कागज पर कुछ लिखा और जेब में रख लिया। उसने सोचा कि हम कुछ चीं-चपड़ करेंगे तो गिर जायेंगें, हड्डियाँ बिखर जायँगी! वह बेचारा खाट पर पड़ा रहा कि जो होगा, देखा जायगा।_
_सुबह होते ही दूत पहुँच गये। धर्मराज की सभा लगी हुई थी। दूतों ने खाट नीचे रखी। उस कायस्थ ने तुरन्त जेब से कागज निकाला और दूतों को दे दिया कि धर्मराज को दे दो-उस पर विष्णु भगवान् का नाम लिखा था। दूतों ने यह कागज धर्मराज को दे दिया। धर्मराज ने पत्र पढ़ा- उसमें लिखा था- ‘धर्मराज जी से नारायण की यथायोग्य! यह हमारा मुनीम आपके पास आता है इसके द्वारा ही सब काम कराना- दस्तखत।_
*_नारायण, वैकुण्ठपुरी_*
_*पत्र पढ़कर- धर्मराज ने अपनी गद्दी छोड़ दी और बोले:* ‘आइये महाराज! गद्दी पर बैठो। धर्मराज ने कायस्थ को गद्दी पर बैठा दिया-कि भगवान् का हुक्म है।_
_अब दूत दूसरे आदमी को लाये। कायस्थ बोला- ‘यह कौन है.....?’ दूत-महाराज! यह डाका डालने वाला है बहुतों को लूट लिया,बहुतों को मार दिया| इसको क्या दण्ड दिया जाय?’_ _*कायस्थ:-‘* इसको वैकुण्ठ में भेजो।_
*_‘यह कौन है,,,,?’_*
_‘महाराज! यह दूध बेचने वाली है। इसने पानी मिलाकर दूध बेचा जिससे बच्चों के पेट बढ़ गये,वे बीमार हो गये| इसका क्या करें?’_
_‘इसको भी वैकुण्ठ में भेजो।’ ‘यह कौन है?_
_‘इसने झूठी गवाही देकर बेचारे लोगों को फँसा दिया। इसका क्या किया जाय?’_
_‘अरे, पूछते क्या हो? वैकुण्ठ में भेजो।_
_*अब तो व्यभिचारी आये,पापी आये,हिंसा करने वाला आये, कोई भी आये,उसके लिए एक ही आज्ञा कि ‘वैकुण्ठ में भेजो।’* अब धर्मराज क्या करें? गद्दी पर बैठा मालिक जो कह रहा है,वही ठीक! उधर वैकुण्ठ में जाने वालों की कतार लग गयी।_
_भगवान् ने देखा कि अरे......! इतने लोग यहाँ कैसे आ रहे हैं...? कहीं मृत्युलोक में कोई महात्मा प्रकट हो गये क्या....?_
_बात क्या है,जो सभी को बैकुण्ठ में भेज रहे हैं? कहाँ से आ रहे हैं? देखा कि ये तो धर्मराज के यहाँ से आ रहे हैं।_
_भगवान् धर्मराज के यहाँ पहुँचे। भगवान् को देखकर सब खड़े हो गये।_
_धर्मराज भी खड़े हो गये।_
_वह कायस्थ भी खड़ा हो गया।_
_*भगवान् ने पूछा:* धर्मराज! आपने सबको वैकुण्ठ भेज दिया,बात क्या है? क्या इतने लोग भक्त हो गये?’_
_*धर्मराज बोले:* -‘प्रभो! मेरा काम नहीं है। आपने जो *मुनीम* भेजा है,उसका काम है।’_
_*भगवान् ने कायस्थ से पूछा-‘* तुम्हें किसने भेजा यहाँ. ....?’_
_*कायस्थ:-‘* आपने महाराज!’_
_*‘हमने कैसे भेजा?’*_
_‘क्या मेरे बाप के हाथ की बात है- जो मैं यहाँ आता? आपने ही तो भेजा है। *आपकी मर्जी के बिना कोई काम होता है भला?* क्या यह मेरे तपोबल से हुआ है..... ?’_
_‘ठीक है!,पर तूने यह क्या किया?’_
_‘मैंने क्या किया महाराज?’_
_‘तूने सबको वैकुण्ठ में भेज दिया!’_
_‘यदि वैकुण्ठ में भेजना खराब काम है! तो जितने *संत-महात्मा हैं,उनको दण्ड* दिया जाय! यदि यह *खराब* काम नहीं है- तो फिर *उलाहना* किस बात की?_
_इस पर भी आपको यह पसंद न हो तो सब को वापस भेज दो।_
_परन्तु भगवद्गीता में लिखा यह श्लोक आपको निकालना पड़ेगा- *‘यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परम मम’* अर्थात एक बार ‘मेरे धाम में आकर , फिर पीछे लौटकर कोई नहीं आता।_
_‘बात तो ठीक है। कितना ही बड़ा पापी हो,यदि वह वैकुण्ठ में चला जाए-तो पीछे लौटकर थोड़े ही आयेगा! उसके पाप तो सब नष्ट हो गये। पर यह काम तूने क्यों किया?’_
_‘मैंने क्या किया महाराज..? मेरे हाथ में जब कोई अधिकार आयेगा- तो मैं यही करूँगा,सबको वैकुण्ठ भेजूँगा। मैं किसी को दण्ड क्यों दूँ? मै जानता हूँ- कि थोड़ी देर देने के लिए गद्दी मिली है,तो फिर अच्छा काम क्यों न करूँ? लोगों का उद्धार करना खराब काम है क्या प्रभु....!?’_
_भगवान् ने धर्मराज से पूछा-‘धर्मराज! तुमने इसको गद्दी कैसे दे दी?_
_*धर्मराज बोले:* -‘महाराज! देखिये,आपका कागज आया है। नीचे साफ-साफ *आपके दस्तखत* हैं।_
_*भगवान् ने कायस्थ से पूछा-‘* क्यों रे....!, ये कागज मैंने कब दिया तेरे को....?’_
_*कायस्थ बोला:‘* आपने गीता में कहा है:~ *‘'सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः’‘* मै सबके हृदय में रहता हूँ। अतः हृदय से आज्ञा आयी कि कागज लिख दे- तो मैंने लिख दिया। हुक्म तो आपका ही हुआ ना....? यदि आप इसको मेरा मानते हैं: तो गीता में से *उपर्युक्त बात निकाल दीजिये!’*_
_*भगवान् ने कहा-‘* ठीक है!’ और फिर धर्मराज से पूछा- *‘अरे धर्मराज!* बात क्या है? यह मनुष्य जीवित कैसे आया?’_
_*धर्मराज बोले:-‘* महाराज! कैसे क्या आया, आपका पुत्र ले आया!’ दूतों से पूछा-‘यह जीवित मनुष्य ऊपर कैसे आया?’_
_*दूत बोले:-‘* महाराज! आपने ही तो एक दिन कहा था- कि प्रथ्वी-लोक से,एक जीवित आदमी लाना है।_
_*धर्मराज:*-‘तो वह यही है क्या? अरे,परिचय तो कराते!’_
_*दूत:-‘* हम क्या परिचय कराते महाराज! आपने तो कागज लिया-और इसको सीधे गद्दी पर बैठा दिया। हमने सोचा कि इनसे आपका पहले से-परिचय होगा। फिर भला हमारी हिम्मत कैसे होती आपसे बोलने की?’_
_हाथी वहाँ खड़ा सब देख रहा था,वो यमराज जी से बोला: *‘जै रामजी की!* आपने कहा था- कि तू कैसे आदमी के वश में हो गया....?_
_मैं क्या वश में हो गया?यहाँ तो वश में धर्मराज जी क्या....? साक्षात भगवान नारायण भी आदमी के वश में हो गए!_
_यह काले माथेवाला आदमी ना बड़ा विचित्र है- महाराज! यह चाहे तो बड़ी उथल-पुथल कर दे! यह तो खुद ही संसार में फँस गया।_
_*'तभी अचानक भगवान् ने कहा:'* अच्छा, जो हुआ सो हुआ,अब तो नीचे चला जा।_
_*कायस्थ बोला:-‘* गीता में आपने कहा है- *‘मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते’* ‘मेरे को प्राप्त होकर पुनः जन्म नहीं लेता’ तो बतायें, मैं आपको प्राप्त हुआ कि नहीं?_
*_भगवान्-‘अछ भाई, तू चल मेरे साथ।’_*
_*पुनः कायस्थ बोला:‘* महाराज! केवल मैं ही चलूँ.....? हाथी पीछे रहेगा बेचारा....? इसकी कृपा से ही तो मैं यहाँ आया। इसको भी तो लो! साथ में!’_
_*हाथी बोला: ‘* मेरे बहुत-से भाई यहीं नरकों में बैठे हैं, उनको भी साथ ले लो।_
_*भगवान् बोले-‘* चलो भाई, सबको ले लो!’ भगवान् के आने से हाथी का भी कल्याण हो गया, कायस्थ का भी कल्याण हो गया और अन्य जीवों का भी कल्याण हो गया!_
_यह कहानी तो *कल्पित* है, पर इसका *सिद्धांत* पक्का है-कि अपने हाथ में कोई अधिकार आये- तो सबका भला करो। जितना कर सको,उतना भला करो। अपनी तरफ से किसी का बुरा मत करो,किसी को दुःख मत दो- गीता का सिद्धांत है- *‘सर्वभूतहिते रताः’* अर्थात ‘प्राणिमात्र के हित में प्रीति हो"।अधिकार हो,या पद-प्रतिष्ठा हो,थोड़े ही दिन रहने वाला है। सदा रहने वाला नहीं है। इसलिये सबके साथ अच्छे- से- अच्छा बर्ताव करो।_
*_🌸🌷 जय श्री राधे 🌷🌸_*
*_🪴🌷।।सीताराम।। 🌷🪴_*
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