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*प्रस्तुति *रेणु दत्ता / आशा सिन्हा
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मेरे पास न मालूम कितने लोग आते हैं। वे कहते हैं, शांत कैसे हों?
मैं उनसे पूछता हूं कि पहले तुम मुझे बताओ कि तुम अशांत कैसे हुए? क्योंकि जब तक यह पता न चल जाए कि तुम कैसे अशांत हुए, तो शांत कैसे हो सकोगे!
एक आदमी मेरे पास लाया गया। उसने कहा, मैं अरविंद आश्रम से आता हूं। शिवानंद के आश्रम गया हूं। महेश योगी के पास गया हूं। ऋषिकेश हो आया। यहां गया, वहां गया। रमण के आश्रम गया हूं। कहीं शांति नहीं मिलती। तो किसी ने आपका मुझे नाम दिया तो मैं आपके पास आया हूं।
तो मैंने कहा, इसके पहले कि तुम निराश होकर लौट जाओ, तुम लौट जाओ पहले ही। नहीं तो तुम और लोगों से भी जाकर कहोगे कि वहां भी गया और शांति नहीं मिली। तो तुम अभी ही लौट जाओ, इसके आगे बात करनी उचित नहीं है।
उसने कहा, क्या मतलब आपका? मैं तो बड़ी आशा से आया हूं।
तो मैंने उस आदमी को कहा कि अशांति सीखने तुम किस आश्रम में गए थे? किस गुरु से अशांति सीखी? अशांति तुम सीखोगे और शांति मैं न दे पाऊंगा तो अपराधी मैं हो जाऊंगा। मैंने उस आदमी से पूछा, तुम फिकर छोड़ो शांति की, तुम मुझे यह बताओ कि तुम अशांत कैसे हुए? क्योंकि जो अशांत होने का ढंग है उसी में कुंजी छिपी है शांत होने की, और कहीं कोई शांति नहीं खोज सकता।
अशांत होते हैं हम, जिंदगी के साथ जोर से चिपक जाते हैं इसलिए अशांत होते हैं। जिंदगी को बहने नहीं देते, तिनके की तरह आड़े लड़ते हैं जिंदगी से, तो अशांत होते हैं। उस तिनके की तरह सीधे नहीं नदी में बह जाते। नहीं तो फिर अशांति का कोई कारण नहीं है।
अशांत हम होते हैं, हमारा जीवन के प्रति जो ढंग है, उससे। वह जो हमारा वे ऑफ लिविंग है, उससे हम अशांत होते हैं। और शांति हम खोजते हैं कि किसी मंत्र से मिल जाए, किसी माला से मिल जाए। शांति हम खोजते हैं कि किसी के आशीर्वाद से मिल जाए। शांति हम खोजते हैं कि परमात्मा की कृपा से मिल जाए। हम अशांत होने का पूरा इंतजाम करते चले जाते हैं और शांति खोजते रहते हैं। तब यह शांति की खोज सिर्फ एक और नई अशांति बन जाती है, और कुछ भी नहीं होता।
इसलिए साधारण आदमी साधारण रूप से अशांत होता है, धार्मिक आदमी असाधारण रूप से अशांत हो जाता है। क्योंकि वह कहता है, शांति भी चाहिए। और वह जो चाहिए था सब, वह तो चाहिए ही—वह धन भी चाहिए, वह यश भी चाहिए, वह पद भी चाहिए—वह सब तो चाहिए ही, शांति भी चाहिए। उसकी फेहरिस्त में एक आयटम चाह का और बढ़ गया—शांति भी चाहिए। आगे लिखेगा: परमात्मा भी चाहिए। और उसकी अशांति और बढ़ जाएगी। इसलिए किसी घर में एक आदमी तथाकथित धार्मिक हो जाए, तो खुद तो अशांत होता है, बाकी लोगों को भी शांत रहने देने में दिक्कत डालने लगता है। सबको गड़बड़ कर देता है। शांति चाहिए, यह भी उसके लिए अशांति ही बन जाती है।
शांति चाही नहीं जा सकती, सिर्फ अशांति समझी जा सकती है। शांति को चाहा ही नहीं जा सकता, क्योंकि चाह अशांति है। इसलिए शांति को कैसे चाहिएगा? वह तो कंट्राडिक्ट्री हो जाएगी। शांति को कोई नहीं चाह सकता। शांति को डिजायर ऑब्जेक्ट नहीं बनाया जा सकता। क्योंकि सब इच्छाएं अशांति पैदा करती हैं, इसलिए शांति इच्छा नहीं बन सकती। सिर्फ अशांति को कोई समझ ले और अशांत न हो, तो जो शेष रह जाता है उसका नाम शांति है। शांति एब्सेंस है। शांति सिर्फ अभाव है।
स्वास्थ्य क्या है? अगर किसी डाक्टर से पूछें जाकर—स्वास्थ्य क्या है? तो वह कहेगा—बीमारियों का अभाव। इसलिए अगर किसी डाक्टर से कहें कि मुझे स्वास्थ्य का इंजेक्शन लगा दें! तो वह कहेगा, क्षमा करें मुझे। हम बीमारी काटने का इंजेक्शन लगा सकते हैं, स्वास्थ्य का कोई इंजेक्शन नहीं है। डाक्टर से आप कहें कि हमें स्वास्थ्य दे दीजिए! तो वह कहेगा, हम बीमारी छीन सकते हैं, स्वास्थ्य कैसे दे देंगे? हां, बीमारी नहीं बचेगी तो जो बच रहेगा वह स्वास्थ्य है।
इसलिए किसी मेडिकल साइंस की किसी किताब में—चाहे आयुर्वेद हो, और चाहे एलोपैथी हो, और चाहे होमियोपैथी हो—स्वास्थ्य की कोई परिभाषा नहीं है, कोई डेफिनीशन नहीं है कि स्वास्थ्य क्या है। सिर्फ बीमारियों की परिभाषाएं हैं कि बीमारी क्या है। और जहां बीमारी नहीं होती, वहां जो शेष रह जाता है, वह स्वास्थ्य है। इसलिए स्वास्थ्य की सब परिभाषाएं निगेटिव हैं, सब नकारात्मक हैं। बीमारी जहां नहीं है, वहां स्वास्थ्य है। अशांति के कारण जहां नहीं हैं, वहां शांति है।
और ध्यान रहे, अगर आप सोचते हों कि परमात्मा हमें शांति दे दे, तो आप बड़ी गलती में पड़ेंगे। परमात्मा से आपका संबंध ही तब होगा जब आप शांत होंगे। इसलिए परमात्मा कोई शांति नहीं दे सकता। अगर आप सोचते हों कि परमात्मा हमें शांति दे दे, तो आप बड़ी गलत कंडीशन लगा रहे हैं। परमात्मा से संबंध ही तब होता है जब आप शांत हों। और जिससे संबंध ही नहीं है, उसकी तरफ की गई प्रार्थना अंधेरे में फिंक जाती है, कहीं नहीं पहुंचती। जिससे संबंध नहीं, कम्युनिकेशन नहीं, उसके साथ प्रार्थना का संबंध नहीं बन पाता। शांत आदमी ही प्रार्थना कर सकता है।
लेकिन अब तक अशांत आदमी प्रार्थना करता रहता है। और अशांत आदमी सोचता है—हमारी प्रार्थना सुनी नहीं जा रही। वह ऐसा ही है कि टेलीफोन बिना उठाए आदमी बोले चला जा रहा है और सोचता है—दूसरी तरफ कोई सुन नहीं रहा!
मैंने सुना है कि एक आदमी ने अपने घर की कॉलबेल सुधरवाने के लिए एक मेकेनिक को बुलाया हुआ था। बाहर जो घंटी लगी है घर के भीतर बुलाने की। दो दिन बीत गए, तीन दिन बीत गए, वह मेकेनिक नहीं आया। तो उसने फिर उसे फोन किया कि तुम आए नहीं, मैं तीन दिन से रास्ता देख रहा हूं।
उसने कहा, मैं आया था, मैंने कॉलबेल बजाई थी, लेकिन किसी ने दरवाजा नहीं खोला। अब उसको कॉलबेल सुधरवाने के लिए बुलाया हुआ था। वह सज्जन ने कॉलबेल बजाई, किसी ने नहीं सुनी इसलिए वापस लौट गए।
अधिक लोगों की प्रार्थनाएं इसी तरह की कॉलबेल पर हाथ रखना है, जो बिगड़ी पड़ी है, जो कहीं नहीं बजेगी। वे जिंदगी भर प्रार्थना करते रहें, कहीं नहीं सुनी जाएगी। फिर नाराज परमात्मा पर होंगे आप।
नाराज अपने पर हों, परमात्मा का इसमें कोई कसूर नहीं है। परमात्मा के साथ कम्युनिकेशन का, संवाद का जो पहला सूत्र है, वह शांति है। शांति के ही द्वार से हम उससे संबंधित होते हैं। या इससे उलटा कहें तो ज्यादा अच्छा होगा। अशांति के कारण हम उससे डिसकनेक्ट हो जाते हैं, अशांति के कारण हम असंबंधित हो जाते हैं। शांति के कारण हम संबंधित हो जाते हैं। शांति संबंध है, अशांति असंबंध है। बीच का तार कट गया, टूट गया।
इसलिए परमात्मा से शांति मत मांगना, शांति आप लेकर जाना उसके द्वार पर। आनंद उससे मिल सकता है, शांति आपको बनानी पड़ेगी।
इसे थोड़ा समझ लेना उचित होगा। शांति हमारी पात्रता है, आनंद उसका प्रसाद है। शांत हमें होना होगा, आनंद से वह हमें भर देगा। शांति हमारी पात्रता है, आनंद उसकी वर्षा है। तो आनंद तो प्रसाद है। आप आनंदित नहीं हो सकते, आप सिर्फ शांत हो सकते हैं। आनंद बरसेगा। ऐसा समझें, शांति हमारा पात्र है और आनंद उसकी नदी है, जिससे हम अपने पात्र में पानी को भर लाते हैं।
लेकिन आप बिना ही पात्र के नदी के पास चले गए हैं और चिल्ला रहे हैं, और नदी से ही कह रहे हैं कि पात्र दे दे!
नदी पानी दे सकती है, पात्र आपके पास होना चाहिए। परमात्मा से लोग पात्र मांग रहे हैं। पात्र तो आपको होना है।
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