Friday, January 6, 2023

पिता के नाम से नहीं , माँ के नाम से चलती है उपनिषद्-परम्परा ~~~~~~~~~~~~~~ सब जानते हैं कि उपनिषदों में सत्यकाम की पहचान उसकी माँ जाबाल से है, और इसीलिये वे सत्यकाम जाबाल कहलाए। मैंने अभी बृहदारण्यकोपनिषद् का पारायण करते हुए यह पाया, कि उपनिषदों में केवल सत्यकाम ही नहीं, प्राय: वैदिक ऋषियों की पहचान उनकी माँ से ही बताई गई है। बृहदारण्यकोपनिषद के अंतिम अध्याय के अंतिम ब्राह्मण में जहाँ ऋषियों के वंश का वर्णन है, वहाँ स्पष्ट रूप से पौतिमाषीपुत्र, कात्यायनीपुत्र, गौतमीपुत्र, भारद्वाजीपुत्र, औपस्वतीपुत्र, पाराशरीपुत्र कौशिकीपुत्र, आलम्बीपुत्र, वैयाघ्रपदीपुत्र।कापीपुत्र, वात्सीपुत्र, जायन्तीपुत्र, कार्कशेयीपुत्र, शाण्डिलीपुत्र इत्यादि ऋषियों की विस्तृत शृंखला की पहचान माँ के द्वारा बताई गई है, पिता के द्वारा नहीं। शांकरभाष्य में आचार्य शंकर लिखते हैं 'स्त्रीप्राधान्याद्गुणवान् पुत्रो भवतीति प्रस्तुतम्। अत: स्त्रीविशेषेणेनैव पुत्रविशेषणादाचार्यपरम्परा कीर्त्यते।' अर्थात् स्त्री की प्रधानता होने से गुणवान् पुत्र होता है -ऐसा प्रसंग है।अतः स्त्रीविशेषण से ही पुत्र का विशेषण देकरआचार्य-परम्परा का उल्लेख किया जाता है। ✍🏻मुरलीधर चाँदनीवाला विदेशी इतिहास की तुलना में अगर भारतीय मंदिर स्थापत्य को देखें तो एक अनोखी सी चीज़ आपको ना चाहते हुए भी नजर आ जायेगी | आप जिस भी प्रसिद्ध मंदिर का नाम लेंगे, पूरी संभावना है की उसका पुनःनिर्माण रानी अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया होगा | दिल्ली के कालकाजी मंदिर से काशी के ज्ञानवापी तक कई इस्लामिक आक्रमणकारियों के तुड़वाए मंदिरों के जीर्णोद्धार का श्रेय उन्हें ही जाता है | इसी क्रम को थोड़ा और आगे बढ़ा कर अगर ये ढूँढने निकलें की जीर्णोद्धार तो चलो रानी ने करवाया, बनवाया किसने था ? तो हुज़ूर आपको आसानी से राजवंश का नाम मिलेगा | थोड़ा और अड़ जायेंगे तो पता चलेगा कि ज्यादातर को बनवाया भी रानियों ने ही था | कईयों के शिलालेख बताते हैं कि किस रानी ने बनवाया | धूर्तता की अपनी परंपरा को कायम रखते हुए इतिहासकार का वेष धरे उपन्यासकार ये तथ्य छुपा ले जाते हैं | काफी लम्बे समय तक भारत मे परिचय के लिए माँ का नाम ही इस्तेमाल होता रहा है | उत्तर भारत से ये पहले हटा, दक्षिण में अब भी कहीं कहीं दिखता है | पिता के नाम से परिचय देने की ये नयी परिपाटी शायद इस्लामिक हमलों के बाद शुरू हुई होगी | अक्सर बचपन में जो लोग “नंदन” पढ़ते रहे हैं उसका “नंदन” भी अर्थ के हिसाब से यही है | नामों मे “यशोदा नंदन”, “देवकीनंदन”, भारतीय संस्कृति मे कभी अजीब नहीं लगा | हाँ इसमें कुछ कपटी कॉमरेड आपत्ति जताएंगे कि ये तो पौराणिक नाम हैं, सामाजिक व्यवस्था से इनका कोई लेना देना नहीं | ये भी छल का एक अच्छा तरीका है | ये आसान तरीका इस्तेमाल इसलिए हो पाता है क्योंकि भारत का इतिहास हजारों साल लम्बा है | दो सौ- चार सौ, या हज़ार साल वालों के लिए जहाँ हर राजा का नाम लेना, याद रखना आसान हो जाता है वहीँ भारत ज्यादा से ज्यादा एक राजवंश को याद रखता है, हर राजा का नाम याद रखना मुमकिन ही नहीं होता | भारत के आंध्र प्रदेश पर दो हज़ार साल पहले सातवाहन राजवंश का शासन था | इनके राजाओं के नामों मे ये परंपरा बड़ी आसानी से दिखती है | सातवाहन राजवंश का नाम सुना हुआ होता है, और इसके राजा शतकर्णी का नाम भी यदा कदा सुनाई दे जाता है | कभी पता कीजिये शतकर्णी का पूरा नाम क्या था ? अब मालूम होगा कि शतकर्णी नामधारी एक से ज्यादा थे | अलग अलग के परिचय के लिए “कोचिपुत्र शतकर्णी”, “गौतमीपुत्र शतकर्णी” जैसे नाम सिक्कों पर मिलते हैं | एक “वाशिष्ठीपुत्र शतकर्णी” भी मिलते हैं | ये लोग लगभग पूरे महाराष्ट्र के इलाके पर राज करते थे जो कि व्यापारिक मार्ग था | इसलिए इन नामों से जारी उनके सिक्के भारी मात्रा मे मिलते हैं | कण्व वंश के कमजोर पड़ने पर कभी सतवाहनों का उदय हुआ था | भरूच और सोपोर के रास्ते इनका रोमन साम्राज्य से व्यापारिक सम्बन्ध था | पहली शताब्दी के इनके सिक्के एक दुसरे कारण से भी महत्वपूर्ण होते हैं | शक्तिशाली हो रहे पहले शतकर्णी ने “महारथी” राजकुमारी नागनिका से विवाह किया था | नानेघाट पर एक गुफा के लेख मे इसपर लम्बी चर्चा है | महारथी नागनिका और शतकर्णी के करीब पूरे महाराष्ट्र पर शासन का जिक्र भी आता है | दुनियां मे पहली रानी, जिनका अपना सिक्का चलता था वो यही महारथी नागनिका थीं | ईसा पूर्व से कभी पहली शताब्दी के बीच के उनके सिक्कों पर ब्राह्मी लिपि में, सिक्कों के बीचो बीच “नागनिका” लिखा हुआ होता है | उनके पति को विभिन्न शिलालेख “दक्षिण-प्रजापति” बताते हैं | चूँकि शिलालेख, गुफाओं के लेख कई हैं, इसलिए इस साक्ष्य को नकारना बिलकुल नामुमकिन भी हो जाता है | मर्दवादी सोच होने की वजह से शायद “महारथी” नागनिका का नाम लिखते तथाकथित इतिहासकारों को शर्म आई होगी | बाकी अगर पूछने निकलें कि विश्व मे सबसे पहली सिक्कों पर नाम वाली रानी का नाम आपने किताबों मे क्यों नहीं डाला ? तो एक बार किराये की कलमों की जेब भी टटोल लीजियेगा, संभावना है कि “विक्टोरिया” के सिक्के निकाल आयें ! ✍🏻आनन्द कुमार ऋग्वेद मे ही कई महिला विद्वानो, शिक्षिकाओ का जिक्र है इनके लिखे मंत्र है। लोपामुद्रा, गार्गी, घोषा, मैत्रेय आदि इनमे मुख्य है। आनन्दी गोपाल जोशी 1865 मे पैदा हुई MD डाक्टर थी। कादम्बनी गांगुली 1861 मे पैदा हुई MBBS डाक्टर थी। चंद्रमुखी वसु को 1882 मे ग्रेजुएट डिग्री मिली थी। सरोजनी (चटोपाध्याय) नायडू born 1879 सुप्रसिद्ध कवित्री थी। 1947 मे सयुक्त प्रांत ( अब UP) की गवर्नर थी। आजादी की लडाई मे भाग लेने वानी अनोको अनगिनत पढी लिखी महिलाये है जिनमे भीखाजी कामा रूस्तम, प्रितिला वाड्डेदार, विजयालक्ष्मी पंडित, राजकुमारी अमृत कौर, अरूणा आसिफ अली, सुचेता कृपलानी, मुत्थुलक्ष्मी रेड्डी, दुर्गाबाई देशमुख, कैप्टिन लक्ष्मी सहगल आदि और जाने कितनी ही अनगिनत है। सरला (शर्मा) ठकराल 1936 मे विमान पायलेट का थी। जाॅन बेथुन ने 1849 मे कोलकाता मे पहले केवल महिलाओ के लिये कालेज की स्थापना की थी। 1916 मे मुम्बई मे पहली महिला यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई थी जिसके तीन कैम्पस थे। और अनेक महिला कालेज इससे सम्बधित भी हुई। पंडिता रमाबाई को शिक्षा और समाज सेवा के क्षेत्र मे योगदान के लिये ब्रिटिश सरकार द्वारा 1919 मे केसरी ए हिन्दी मेडल दिया गया था। 6 फरवरी 1932 को बीना दास ने कन्वोकेशन मे डिग्री लेते समय ही गवर्नर को गोली मारी थी। इसके अलावा अंग्रेजी समय और मध्य काल मे भी विभिन्न रियसतो और राज्यो की शासक महिलाये हुई है। जिन्होने सेना की कमान भी सभाली और विभिन्न युद्धो मे भाग भी लिया। संविधान बनने के समय मे संविधान सभा मे भी अनेको पढी लिखी महिला मेम्बर भी थी। जिनमे कि हंसा मेहता ने हिन्दू कोड बिल सदन मे रखते ही अम्बेडकर को महिलाओ के प्रति दुराग्रह और बिल मे कमियो को लेकर लताड भी लगाई थी। फिर भी कुछ आधे पढे लिखे विद्वान इस तरह का दावा करते फिरते है मानो 1950 से पहले इस देश मे कोई पढी लिखी स्त्री नही थी। । जबकि 1951 की जनगणना मे इस देश मे साक्षर लोगो की संख्या ही 15% थी। मतलब की पढे लिखे लोग 1951 तक 4-5% से अधिक नही थे। महिलाये ही नही पूरे देश मे पढे लिखे लोगो की कुल संख्या ही बहुत कम थी। इन लोगो ने हर जगह गलत जानकारी का भरमार लगाया हुआ है ✍🏻अजातशत्रु अब कुछ वैदिक ऋषिकाओं के बारे में बात करते हैं - सुलभा वैदिक काल की एक ब्रह्मवादिनी ऋषिका जो महाभारत के अनुसार संन्यासिनी कुमारी थीं और योगधर्म के अनुष्ठान द्वारा सिद्धि प्राप्त कर अकेली ही पृथ्वी पर विचरती थीं। शांतिपर्व में उल्लेख है। इन्होंने त्रिदण्डी संन्यासियों के मुख से मोक्षतत्त्व के ज्ञान के विषय में मिथिला के राजा जनक की प्रशंसा सुनी और उनके दर्शनों के लिए संकल्प लिया। योगबल से अपना पहला शरीर त्याग कर दूसरा परम सुन्दर रूप धारण किया और पल भर में मिथिला पहुँच गईं। वहाँ भिक्षाटन के बहाने जनक के दर्शन किये। जनक ने स्वागत-सत्कार के साथ प्रचुर अन्न देकर इनकी अभ्यर्थना की। ये योगबल से राजा की बुद्धि में प्रविष्ट हो गईं और उनके मन को बाँध लिया। फिर एक ही शरीर में रहकर राजा और सुलभा का संवाद प्रारम्भ हुआ। राजा ने अनुचित वचनों से तिरस्कार किया पर विचलित न होकर सुलभा ने विद्वत्तापूर्ण भाषण द्वारा राजा को समुचित उत्तर देते हुए बताया कि वे राजर्षिप्रधान कुल में उत्पन्न हुईं क्षत्रिय कन्या हैं और अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करती हुईं सदा धर्म में स्थित रहती हैं। विश्ववारा अत्रि गोत्र की एक ऋषिका, जिन्होंने ऋग्वेद के पाँचवे मण्डल की कुछ ऋचाओं का प्रणयन किया। इनके संबंध में अन्य कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती । वे ऋचाएँ ही परिचय हैं। सुमंगली ऋग्वेद के दसवें मण्डल का 85 वाँ सूक्त ऋषिका कवयित्री सूर्या द्वारा रचित कहा गया है। त्रिष्टुप् छन्द में रचित इस सूक्त में अनेक ऋचाएँ हैं, कुछ सोम को लेकर गूढ़ प्रतीकात्मक भाषा में, कुछ विवाह- दाम्पत्य गार्हस्थ्य को लेकर सरल और भावपूर्ण भाषा में भी। गार्गी वाचक्नवी ये प्रसिद्ध ऋषिका थीं। वचक्नु ऋषि की कन्या होने के कारण वाचक्नवी यह उपाधि नाम के साथ जुड़ी। बृहदा. में इनके प्रसंग आते हैं। अत्यंत ब्रह्मनिष्ठ थीं और परमहंस की तरह विचरण किया करती थीं। देवराति जनक की सभा में इनका याज्ञवल्क्य से वाद हुआ था। ऋग्वेदियों के ब्रह्मयज्ञांग तर्पण में इनका नाम आता है। ✍🏻भृगुनन्दन

 पिता के नाम से नहीं , 

माँ के नाम से चलती है

 उपनिषद्-परम्परा

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सब जानते हैं कि उपनिषदों में सत्यकाम की पहचान उसकी माँ जाबाल से है, और इसीलिये वे  सत्यकाम जाबाल कहलाए। मैंने अभी बृहदारण्यकोपनिषद् का पारायण करते हुए यह पाया, कि उपनिषदों में केवल सत्यकाम ही नहीं, प्राय: वैदिक ऋषियों  की पहचान उनकी माँ से ही बताई गई है। बृहदारण्यकोपनिषद के अंतिम अध्याय के अंतिम ब्राह्मण में जहाँ ऋषियों  के वंश का वर्णन है, वहाँ स्पष्ट रूप से पौतिमाषीपुत्र, कात्यायनीपुत्र, गौतमीपुत्र, भारद्वाजीपुत्र, औपस्वतीपुत्र, पाराशरीपुत्र कौशिकीपुत्र, आलम्बीपुत्र, वैयाघ्रपदीपुत्र।कापीपुत्र, वात्सीपुत्र, जायन्तीपुत्र, कार्कशेयीपुत्र, शाण्डिलीपुत्र इत्यादि ऋषियों की विस्तृत शृंखला की पहचान माँ के द्वारा बताई गई है, पिता के द्वारा नहीं।


शांकरभाष्य में आचार्य शंकर लिखते हैं 'स्त्रीप्राधान्याद्गुणवान् पुत्रो भवतीति प्रस्तुतम्। अत: स्त्रीविशेषेणेनैव पुत्रविशेषणादाचार्यपरम्परा कीर्त्यते।' अर्थात् स्त्री की प्रधानता होने से गुणवान् पुत्र होता है -ऐसा प्रसंग है।अतः स्त्रीविशेषण से ही पुत्र का विशेषण देकरआचार्य-परम्परा का उल्लेख किया जाता है।

✍🏻मुरलीधर चाँदनीवाला 


विदेशी इतिहास की तुलना में अगर भारतीय मंदिर स्थापत्य को देखें तो एक अनोखी सी चीज़ आपको ना चाहते हुए भी नजर आ जायेगी | आप जिस भी प्रसिद्ध मंदिर का नाम लेंगे, पूरी संभावना है की उसका पुनःनिर्माण रानी अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया होगा | दिल्ली के कालकाजी मंदिर से काशी के ज्ञानवापी तक कई इस्लामिक आक्रमणकारियों के तुड़वाए मंदिरों के जीर्णोद्धार का श्रेय उन्हें ही जाता है |


इसी क्रम को थोड़ा और आगे बढ़ा कर अगर ये ढूँढने निकलें की जीर्णोद्धार तो चलो रानी ने करवाया, बनवाया किसने था ? तो हुज़ूर आपको आसानी से राजवंश का नाम मिलेगा | थोड़ा और अड़ जायेंगे तो पता चलेगा कि ज्यादातर को बनवाया भी रानियों ने ही था | कईयों के शिलालेख बताते हैं कि किस रानी ने बनवाया | धूर्तता की अपनी परंपरा को कायम रखते हुए इतिहासकार का वेष धरे उपन्यासकार ये तथ्य छुपा ले जाते हैं |


काफी लम्बे समय तक भारत मे परिचय के लिए माँ का नाम ही इस्तेमाल होता रहा है | उत्तर भारत से ये पहले हटा, दक्षिण में अब भी कहीं कहीं दिखता है | पिता के नाम से परिचय देने की ये नयी परिपाटी शायद इस्लामिक हमलों के बाद शुरू हुई होगी | अक्सर बचपन में जो लोग “नंदन” पढ़ते रहे हैं उसका “नंदन” भी अर्थ के हिसाब से यही है | नामों मे “यशोदा नंदन”, “देवकीनंदन”, भारतीय संस्कृति मे कभी अजीब नहीं लगा | हाँ इसमें कुछ कपटी कॉमरेड आपत्ति जताएंगे कि ये तो पौराणिक नाम हैं, सामाजिक व्यवस्था से इनका कोई लेना देना नहीं |


ये भी छल का एक अच्छा तरीका है | ये आसान तरीका इस्तेमाल इसलिए हो पाता है क्योंकि भारत का इतिहास हजारों साल लम्बा है | दो सौ- चार सौ, या हज़ार साल वालों के लिए जहाँ हर राजा का नाम लेना, याद रखना आसान हो जाता है वहीँ भारत ज्यादा से ज्यादा एक राजवंश को याद रखता है, हर राजा का नाम याद रखना मुमकिन ही नहीं होता | भारत के आंध्र प्रदेश पर दो हज़ार साल पहले सातवाहन राजवंश का शासन था | इनके राजाओं के नामों मे ये परंपरा बड़ी आसानी से दिखती है |


सातवाहन राजवंश का नाम सुना हुआ होता है, और इसके राजा शतकर्णी का नाम भी यदा कदा सुनाई दे जाता है | कभी पता कीजिये शतकर्णी का पूरा नाम क्या था ? अOब मालूम होगा कि शतकर्णी नामधारी एक से ज्यादा थे | अलग अलग के परिचय के लिए “कोचिपुत्र शतकर्णी”, “गौतमीपुत्र शतकर्णी” जैसे नाम सिक्कों पर मिलते हैं | एक “वाशिष्ठीपुत्र शतकर्णी” भी मिलते हैं | ये लोग लगभग पूरे महाराष्ट्र के इलाके पर राज करते थे जो कि व्यापारिक मार्ग था | इसलिए इन नामों से जारी उनके सिक्के भारी मात्रा मे मिलते हैं |


कण्व वंश के कमजोर पड़ने पर कभी सतवाहनों का उदय हुआ था | भरूच और सोपोर के रास्ते इनका रोमन साम्राज्य से व्यापारिक सम्बन्ध था | पहली शताब्दी के इनके सिक्के एक दुसरे कारण से भी महत्वपूर्ण होते हैं | शक्तिशाली हो रहे पहले शतकर्णी ने “महारथी” राजकुमारी नागनिका से विवाह किया था | नानेघाट पर एक गुफा के लेख मे इसपर लम्बी चर्चा है | महारथी नागनिका और शतकर्णी के करीब पूरे महाराष्ट्र पर शासन का जिक्र भी आता है |


दुनियां मे पहली रानी, जिनका अपना सिक्का चलता था वो यही महारथी नागनिका थीं | ईसा पूर्व से कभी पहली शताब्दी के बीच के उनके सिक्कों पर ब्राह्मी लिपि में, सिक्कों के बीचो बीच “नागनिका” लिखा हुआ होता है | उनके पति को विभिन्न शिलालेख “दक्षिण-प्रजापति” बताते हैं | चूँकि शिलालेख, गुफाओं के लेख कई हैं, इसलिए इस साक्ष्य को नकारना बिलकुल नामुमकिन भी हो जाता है | मर्दवादी सोच होने की वजह से शायद “महारथी” नागनिका का नाम लिखते तथाकथित इतिहासकारों को शर्म आई होगी |


बाकी अगर पूछने निकलें कि विश्व मे सबसे पहली सिक्कों पर नाम वाली रानी का नाम आपने किताबों मे क्यों नहीं डाला ? तो एक बार किराये की कलमों की जेब भी टटोल लीजियेगा, संभावना है कि “विक्टोरिया” के सिक्के निकाल आयें !

✍🏻आनन्द कुमार 


ऋग्वेद मे ही कई महिला विद्वानो, शिक्षिकाओ का जिक्र है इनके लिखे मंत्र है। 


लोपामुद्रा, गार्गी,  घोषा, मैत्रेय  आदि इनमे मुख्य है। 


आनन्दी गोपाल जोशी 1865 मे पैदा हुई MD डाक्टर थी।


कादम्बनी गांगुली 1861 मे पैदा हुई MBBS डाक्टर थी।


चंद्रमुखी वसु को 1882 मे ग्रेजुएट डिग्री मिली थी। 


सरोजनी (चटोपाध्याय) नायडू born 1879 सुप्रसिद्ध कवित्री थी। 1947 मे सयुक्त प्रांत ( अब UP) की गवर्नर थी।


आजादी की लडाई मे भाग लेने वानी अनोको अनगिनत पढी लिखी महिलाये है जिनमे भीखाजी कामा रूस्तम,  प्रितिला वाड्डेदार, विजयालक्ष्मी पंडित, राजकुमारी अमृत कौर,  अरूणा आसिफ अली,  सुचेता कृपलानी, मुत्थुलक्ष्मी रेड्डी, दुर्गाबाई देशमुख, कैप्टिन लक्ष्मी सहगल आदि और जाने कितनी ही अनगिनत है। 


सरला (शर्मा) ठकराल  1936 मे विमान पायलेट का थी।


जाॅन बेथुन ने 1849 मे कोलकाता मे पहले केवल महिलाओ के लिये कालेज की स्थापना की थी।


1916 मे मुम्बई मे पहली महिला यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई थी जिसके तीन कैम्पस थे। और अनेक महिला कालेज इससे सम्बधित भी हुई।


पंडिता रमाबाई को शिक्षा और समाज सेवा के क्षेत्र मे योगदान के लिये ब्रिटिश सरकार द्वारा 1919 मे केसरी ए हिन्दी मेडल दिया गया था। 


6 फरवरी 1932 को  बीना दास ने कन्वोकेशन मे डिग्री लेते समय ही गवर्नर को गोली मारी थी।


इसके अलावा अंग्रेजी समय और मध्य काल मे भी विभिन्न रियसतो और राज्यो की शासक महिलाये हुई है। जिन्होने सेना की कमान भी सभाली और विभिन्न युद्धो मे भाग भी लिया। 


संविधान बनने के समय मे संविधान सभा मे भी अनेको पढी लिखी महिला मेम्बर भी थी। जिनमे कि हंसा मेहता ने हिन्दू कोड बिल सदन मे रखते ही अम्बेडकर को महिलाओ के प्रति दुराग्रह और बिल मे कमियो को लेकर लताड भी लगाई थी। 


फिर भी कुछ आधे पढे लिखे विद्वान इस तरह का  दावा करते फिरते है मानो 1950 से पहले इस देश मे कोई पढी लिखी स्त्री नही थी। । 


जबकि 1951 की जनगणना मे इस देश मे साक्षर लोगो की संख्या ही 15% थी। मतलब की पढे लिखे लोग  1951 तक 4-5% से अधिक नही थे।  महिलाये  ही नही पूरे देश मे पढे लिखे लोगो की कुल संख्या ही बहुत कम थी। इन लोगो ने हर जगह गलत जानकारी का भरमार लगाया हुआ है

✍🏻अजातशत्रु


अब कुछ वैदिक ऋषिकाओं के बारे में बात करते हैं - 


सुलभा


वैदिक काल की एक ब्रह्मवादिनी ऋषिका जो महाभारत के अनुसार संन्यासिनी कुमारी थीं और योगधर्म के अनुष्ठान द्वारा सिद्धि प्राप्त कर अकेली ही पृथ्वी पर विचरती थीं। शांतिपर्व में उल्लेख है। इन्होंने त्रिदण्डी संन्यासियों के मुख से मोक्षतत्त्व के ज्ञान के विषय में मिथिला के राजा जनक की प्रशंसा सुनी और उनके दर्शनों के लिए संकल्प लिया। योगबल से अपना पहला शरीर त्याग कर दूसरा परम सुन्दर रूप धारण किया और पल भर में मिथिला पहुँच गईं। वहाँ भिक्षाटन के बहाने जनक के दर्शन किये। जनक ने स्वागत-सत्कार के साथ प्रचुर अन्न देकर इनकी

अभ्यर्थना की। ये योगबल से राजा की बुद्धि में प्रविष्ट हो गईं और उनके मन को बाँध लिया। फिर एक ही शरीर में रहकर राजा और सुलभा का संवाद प्रारम्भ हुआ। राजा ने अनुचित वचनों से तिरस्कार किया पर विचलित न होकर सुलभा ने विद्वत्तापूर्ण भाषण द्वारा राजा को समुचित उत्तर देते हुए बताया कि वे राजर्षिप्रधान कुल में उत्पन्न हुईं क्षत्रिय कन्या हैं और अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करती हुईं सदा धर्म में स्थित रहती हैं।


विश्ववारा


अत्रि गोत्र की एक ऋषिका, जिन्होंने ऋग्वेद के पाँचवे मण्डल  की कुछ ऋचाओं का प्रणयन  किया। इनके संबंध में अन्य कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती । वे ऋचाएँ ही परिचय हैं।


सुमंगली


ऋग्वेद के दसवें मण्डल का 85 वाँ सूक्त ऋषिका कवयित्री सूर्या द्वारा रचित कहा गया है। त्रिष्टुप् छन्द में रचित इस सूक्त में अनेक ऋचाएँ हैं, कुछ सोम को लेकर गूढ़ प्रतीकात्मक भाषा में, कुछ विवाह- दाम्पत्य गार्हस्थ्य को लेकर सरल और भावपूर्ण भाषा में भी। 


 गार्गी वाचक्नवी


ये प्रसिद्ध ऋषिका थीं। वचक्नु ऋषि की कन्या होने के कारण वाचक्नवी यह उपाधि नाम के साथ जुड़ी। बृहदा. में इनके प्रसंग आते हैं। अत्यंत ब्रह्मनिष्ठ थीं और परमहंस की तरह विचरण किया करती थीं। देवराति जनक की सभा में इनका याज्ञवल्क्य से वाद हुआ था। ऋग्वेदियों के ब्रह्मयज्ञांग तर्पण में इनका नाम आता है।

✍🏻भृगुनन्दन

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