रा धा/ध: स्व आ मी
बचन के अनुसार सार यह है कि रा धा/ध:स्व आ मी मत के सभी सत्संगी निज देश को प्राप्त अवश्य ही होंगे अपितु किसी और कोई अटक भटक मन में धरी हो तो वह अपने जहन से निकल डालें क्योंकि एक तरह से सभी को सब मिल जायेगा रास्ते में ये उनके लिए है जो यह विचार प्रगट करते हैं कि सभी धर्म एक ही तो हैं..
सारबचन (नसर), भाग-1
ख़ुलासा उपदेश हुज़ूर रा धा/धः स्व आ मी साहब का
53- जो सच्चा खोजी है उसको चाहिये कि अपने वक़्त के पूरे संत या पूरे साध का खोज करे, यानी पूरे सतगुरु ('जयघोषित' वर्तमान/वक्त़ संत सतगुरु)जहाँ मिलें उनका संग करे और उन्हीं में सब देवता और औतार और महात्मा और संत और साध पिछलों को मौजूद समझ कर तन मन से सेवा और प्रीति और प्रतीति करके अपना काम उनसे बनवावे। जैसे कि पिछले बादशाह, चाहे बड़े मुंसिफ़ और दाता हुए, पर उनके हाल सुनने से या उनके नाम लेने से हमको दौलत और हुकूमत और ओहदा नहीं मिल सकता है। जो हमको उसकी चाह है तो चाहिये कि अपने वक़्त के बादशाह से मिलें, तब अलबत्ता काम हमारा बनेगा, नहीं तो ख़राबी और हैरानी के सिवाय और कुछ हासिल नहीं होगा। मौलवी रूम कहते हैं-
"चूँकि करदी ज़ाते मुर्शिद रा क़बूल।
हम ख़ुदा दर ज़ातश आमद हम रसूल।।"
यानी पूरे सतगुरु ('जयघोषित' वर्तमान/वक्त़ संत सतगुरु) और मालिक में भेद नहीं है और मुर्शिद में और सतगुरु में मालिक और औतार सब आ गये, यानी जो मालिक से मिलना चाहते हो तो फ़ुक़रा यानी संतों में सतगुरु का खोज करना चाहिये। और यह ज़रूर नहीं कि संत कपड़े रँगे हुये को कहते होवें। संत उनको कहते हैं जो सच्चे मालिक से सत्तलोक में पहुँच कर मिल गये, चाहे वह गृहस्थ में होवें या विरक्त, चाहे ब्राह्मण होवें या और कोई ज़ात में होवें। मालिक का दीदार दुनियाँ में और कहीं नहीं है, या तो अपने अंतर में या पूरे साध और पूरे संत में जो कि कुल जगत के क़ुदरती गुरू हैं। और खोजने वालों को इन्हीं दो स्थान पर दर्शन मालिक का प्राप्त होगा और मूरत, तीर्थ, ब्रत और चार धाम और मंदिरों में कहीं पता और निशान उसका नहीं मिलेगा। मौलवी रूम कहते हैं-
मस्जिदे हस्त अंदरूने औलिया।
सिजदागाहे जुम्ला हस्त आँजा ख़ुदा।।
यानी महात्माओं के अंतर में मंदिर और मसजिद है और वहीं जो कोई मालिक और ख़ुदा को सिजदा करना चाहे, मत्था टेके। और यह भी कहा है कि-
गुफ़्त पैग़म्बर कि हक़ फ़रमूदह अस्त।
मन न गुंजम हेच दर बाला वो पस्त।।
दर दिले मोमिन बिगुंजम ईं अजब।
गर मरा ख़्वाही अजाँ दिलहा तलब।।
यानी ख़ुदा ने पैग़म्बर साहब से कहा कि मैं कहीं नहीं रहता हूँ , न आसमान में और न जमीन में, पर अपने प्रेमी भक्तों के हृदय में रहता हूँ। जो मुझको चाहे, वहाँ जाकर उनसे माँगे। इस वास्ते हर एक सच्चे चाहने वाले मालिक के, को मुनासिब है कि अपने वक़्त का सतगुरु ('जयघोषित' वर्तमान/वक्त़ संत सतगुरु) खोज कर उनसे उपदेश लेवे और उन्हीं के चरनों में तन मन धन से सेवा और प्रीति और प्रतीति करे। थोड़े ही अरसे में उसका काम बन जावेगा। संस्कृत में भी कहा है-
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुगुर्रुदेवो महेश्वरः।
गुरुरेव परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
श्रीकृष्ण महाराज ने भी भागवत और गीता में लिखा है कि जो कोई मुझसे मिला चाहे और मेरी सेवा और प्रीति करना चाहे,तो मेरे जो प्रेमीजन साध और भक्त हैं, उनकी जो सेवा करेगा वह मेरी सेवा है और मैं उससे प्रसन्न होऊँगा, और वही मेरा प्यारा है जो मेरे सच्चे भक्तों से प्रीति करता है। और न मैं आकाश में रहता हूँ और न पाताल में और न मैं स्वर्ग में रहता हूँ और न बैकुंठ में। जो साध और भक्त जन मेरे प्रेमी हैं उनके हृदय में मेरा निवास है। (क्रमशः)
स्मारिका
परम पुरुष पूरन धनी हुज़ूर स्वामीजी महाराज
(पिछले दिन का शेष)
21. जब अनुयायियों की संख्या बढ़ गई और साधुओं ने बड़ी संख्या में प्रायः पन्नी गली में आना आरम्भ कर दिया तो स्वामीजी महाराज ने निर्णय किया कि वे शहर के शोर गुल से दूर शान्त वातावरण में चले जाएँ। स्वामीजी महाराज स्वयं पालकी में बैठकर शहर के बाहर भिन्न-भिन्न दिशाओं में मुनासिब जगह चुनने के उद्देश्य से गए। अंत में शहर के बाहर लगभग 3 मील दूर जगह चुनी और रा धा/धः स्व आ मी बाग़ की, जो अब स्वामीबाग़ के नाम से प्रसिद्ध है, नींव डाली। पहले स्वामीजी महाराज प्रतिदिन प्रातः काल स्वामीबाग़ आते और शाम को पन्नी गली वापिस जाते। बाद में जब कुछ कमरे साधुओं के लिए और एक भजन घर (एक कमरा आध्यात्मिक साधन के लिए) बन गया और एक बाग़ भी लग गया तब स्वामीजी महाराज शहर के बजाए इस स्थान पर निवास करने लगे। जब वे यहाँ रहते तो हाजत रफ़ा के लिए प्रतिदिन प्रातः काल बाहर जाते और वापिसी पर कुल्ला दातुन करने के लिए एक मुग़ल कुआँ की जगत पर आकर बैठते। स्वामीजी महाराज स्वामीबाग़ में जिस जगह रहते थे वहाँ से यह कुआँ कुछ दूरी पर था और इन अवसरों पर हुज़ूर महाराज स्वामीजी महाराज के इस्तेमाल के लिए उसी कुएँ से पानी खींच कर लाते थे। यह कुआँ अब दयालबाग़ के अन्दर है। यह कहा जाता है कि एक बार स्वामीजी महाराज ने दया करके फ़रमाया कि सतसंग कम्युनिटी का एक बड़ा शहर इस कुएँ के इर्द-गिर्द बन जाएगा।
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