*घास और बाँस*
प्रस्तुति - उषा रानी / राजेंद्र प्रसाद सिन्हा
ये कहानी एक ऐसे व्यक्ति की है जो एक व्यापारी था लेकिन उसका व्यापार डूब गया और वो पूरी तरह निराश हो गया। अपनी जिंदगी से बुरी तरह थक चुका था। अपनी जिंदगी से तंग आ चुका था।
एक दिन परेशान होकर वो जंगल में गया और जंगल में काफी देर अकेले बैठा रहा। कुछ सोचकर भगवान से बोला – *मैं हार चुका हूँ, मुझे कोई एक वजह बताइये कि मैं क्यों ना हताश होऊं, मेरा सब कुछ खत्म हो चुका है।*
*मैं क्यों ना व्यथित होऊं?"*
*भगवान मेरी सहायता किजिए"*
भगवान का जवाब
*तुम जंगल में इस घास और बांस के पेड़ को देखो- जब मैंने घास और इस बांस के बीज को लगाया। मैंने इन दोनों की ही बहुत अच्छे से देखभाल की। इनको बराबर पानी दिया, बराबर रोशनी दी।*
*घास बहुत जल्दी बड़ी होने लगी और इसने धरती को हरा भरा कर दिया लेकिन बांस का बीज बड़ा नहीं हुआ। लेकिन मैंने बांस के लिए अपनी हिम्मत नहीं हारी।*
*दूसरी साल, घास और घनी हो गयी उसपर झाड़ियाँ भी आने लगी लेकिन बांस के बीज में कोई वृद्धि नहीं हुई। लेकिन मैंने फिर भी बांस के बीज के लिए हिम्मत नहीं हारी।*
*तीसरी साल भी बांस के बीज में कोई वृद्धि नहीं हुई, लेकिन मित्र मैंने फिर भी हिम्मत नहीं हारी।*
*चौथे साल भी बांस के बीज में कोई वृद्धि नहीं हुई लेकिन मैं फिर भी लगा रहा।*
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