(फ्री हिन्दी अंग्रेजी ओशे प्रवचन और ई-बुक)http://www.oshoba.org/
आनंद प्रसाद
ओशो की किरण जीवन में जिस दिन से प्रवेश किया, वहीं से जीवन का शुक्ल पक्ष शुरू हुआ, कितना धन्य भागी हूं ओशो को पा कर उस के लिए शब्द नहीं है मेरे पास.....अभी जीवन में पूर्णिमा का उदय तो नहीं हुआ है। परन्तु क्या दुज का चाँद कम सुदंर होता है। देखे कोई मेरे जीवन में झांक कर। आस्तित्व में सीधा कुछ भी नहीं है...सब वर्तुलाकार है , फिर जीवन उससे भिन्न कैसे हो सकता है।
कुछ अंबर की बात करे,
कुछ धरती का साथ धरे।
कुछ तारों की गूंथे माला,
नित जीवन का एहसास करे।।
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Wednesday, September 28, 2011
Saturday, September 24, 2011
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मनजी के मोंटेक जंतर मंतर का कमाल
इंटरनेशनल छाप के अपने ग्रेट(ईमानदार) इकोनॅामिस्ट प्राईम मिनिस्टर ने वाकई
कमाल कर दिखाया। अपने लंगोटिया छाप यार मोंटेक अहलूवालिया के साथ मिलकर मनजी ने वह
काम कर दिखाया जिसके लिए नेहरू, श्री मती गांधी कभी सपना देखा करती थी। गरीबी
हटाओं के लिए पंजा ने क्या क्या जतन नहीं किए, मगर होने हवाने को कुछ नहीं हुआ।
मगर कमाल है अपने मनजी साब ने तो ऐसा मोंटेक
बाबा का अहलू पहलू जंतर मंतर फूंका कि रातो रात देश की गरीबी आधी हो गई। गरीबी
अमीरी की परिभाषा ही बदल गयी। हालांकि योजना मंदिर के अहलू मोंटेक बाबा की तमाम
सरकारी आंकड़ेबाजी के बाद भी देश भर में 41 फीसदी गरीब अभी मोटेंक बाबा को मुंह
चिढ़ा रहे है। मनजी साब के इकोनॅामी ने देश की सूरत ही बदल दी कि आज रेहड़ी पटरी
से लेकर कुली कबाडी नौकर नौकरानी का काम करने वाले तमाम लोग भी अब बीपीएल यानी
सरकार की गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे लोग भी इस लक्ष्मण रेखा को पार कर
चुके है। पंजा पार्टी के नेताओं पर गरीबी हटाओ की बजाय गरीब हटाने का आरोप लगता
रहा है, मगर मनजी और मोंटेक बाबा ने तो भारत के शब्दकोष से बीपीएल को ही निकालकर
प्रशांत सागर में डूबोने की कुचेष्टा की है। वाकई आपलोग धन्य हो मनजी और मोंटेक
बाबा ।
सत्ता के लिए मत चूको राहुल
जिस कुर्सी को आप राहुल बाबा यह कहकर ठुकरा रहे है कि अभी संगठन को मजबूत करना
है और 2014 में देश की मनजी से प्रदूषित कुर्सी को सुशोभित करेंगे। वाकई यह आपका
बड़ा भ्रम है बाबा। मनजी तो इतने शरीफ बमभोले और बमशंकर है कि पंजा को शायद ही
2014 में सत्ता में आने का मौका मिले। यह कोई भविष्यवाणी तो नहीं है, मगर मनजी
समेत यूपीए के स्वच्छ सुशासन को देखकर तो शायद आपको भी लग रहा होगा कि मनजी की
फ्लॅाप पारी के बाद शायद कुर्सी की आपकी बारी नहीं आए। लिहाजा जनता को मूर्ख बनाना
भी अब इतना आसान नहीं रह गया ( हालांकि मतदाता अभी भी भावुक तो है ही) है। फिर
अन्ना और रामदेव मामले में तो मनजी ने पार्टी की ऐसी तैसी किरकिरी (बमभोले की अपनी
तो कोई इमेज है नहीं) करा दी है कि लोगों को अब सिव्वल और मनजी से एलर्जी होने लगी
है । उधर गुजरात की गद्दी से बाहरनिकलने को बेताब मोदी भाई को भी कम आंकना आडवाणी
जैसी ही बड़ी भूल हो सकती है। फिर सत्ता तो किसी के बाप की जागीर है नहीं, लिहाजा
जिद छोड़कर बाबा अपनी दीदी के साथ सत्ता की बागडोर थामने का मन बनाइए। वरन, ध्यान
रहे 2014 की ट्रेन अगर निकल गई तो फिर शायद सत्ता सुख दीवास्वप्न बनकर रह जाएगी। फिर
राहुल बाबाजी पूर्व प्रधानमंत्री का तगमा भी चस्पा करने का यह आखिरी मौका और ढाई
साल का समय भी है। जिसको फिलहाल चूक गए तो तो तो तो आगे की हालात के लिए आप खुद जिम्मेदार
होंगे।
मिशन सदभावना बनाम मिशन पीएम
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का मीडिया मैनेजमेंट के सामने दिल्ली के
तमाम नेता और पार्टी इस बार ढेर हो गए। विदेशी अखबारों में 2014 के लिए बतौर पीएम
के रूप में मोदी बनाम राहुल की खबर अभी आई नहीं कि मोदी भाई ने मिशन सद्भावना के
बहाने मिशन पीएम का पहला खेप अपने पाले में कर डाला। जन मन और धन के बूते सरकारी
रकम से विज्ञापनों की बौछार लगाकर इसे एक इंटरनेशनल इवेंट्स बना डाला। मिशन की ऐसी
धमक रही कि पीएम का सपना पाल रहे आडवाणी को भी इस रेस से बाहर निकलना पड़ा। अपने
मिशन पीएम के लिए मोदी भाई की तैयारी अभी से शुरू हो गई है और यकीन मानिए कि मोदा
को अपनी पार्टी पर भी भरोसा कम है, क्योंकि इनकी गद्दी के चारो तरफ कांटे बोने
वाले भी कम नहीं है, मगर तमाम दिक्कतों के बाद भी मोदी के पीछे पूरी अपनी बानर
सेना है। जिससे निपटने के लिेए बीजेपी समेत कांग्रेस को भी अभी मशक्कत करनी होगी।
मल्टीकलर के नीतीश कुमार
सुराज, सुशासन और सदभावना के राज काज का नारा बुलंद करके और अपने लालटेन भाई
को कॅामा में करके सत्ता संभाल रहे नीतीश बाबू को पहचानना भी इतना सरल नहीं है।
सांप्रदायिकता के खिलाफ बीजेपी स्टार नरेन्द्र मोदी तक को बिहार में उपेक्षित कर
चुके नीतीश का रंग भी धीरे धीरे उतरने लगा है। फिर भी मल्टीकलर के नीतीश बाबू को
पहचानना काफी कठिन है। एक तरफ दबंगों को जेल में डालने वाले सीएम सिवान से एक
विधायक की मौत के बाद उनके बाहुबलि सुपुत्र की शादी श्राद्ध में करवा कर कन्या को
मुंह दिखाई में उपचुनाव का टिकट थमाते है। मालूम हो कि श्राद्ध में कोई शुभ काम
नहीं होने के बाद भी बाहुबली ने राजा (नीतीश) के आदेश पर अपनी शादी की। उधर
सांप्रदायिकता से दूरी बनाकर चलने वाले नीतीश ने 11 अक्टूबर से आडवाणी की रथयात्रा
को इस शर्त पर हरी झेडी दिखा रहे है कि नरेन्द्र मोदी इस मौके पर नदारद रहेंगे।
धन्य हो नीतीश बाबू कि गुड़ खाने से आपको परहेज भले ही ना हो पर गुलगुले से परहेज करने का ड्रामा ठीक
से कर लेते हो।
थोड़ा कम बोलने का क्या लोगे अन्ना
अन्ना जी राजनीति में ज्यादा बोलना हमेशा नुकसानदेह होता है। ताजा मामला
रामदेव का आप भी नहीं भूले होंगे ? अपनी बोली और धमकियों से सरकार का ब्लडप्रेशर बढ़ाने वाले
रामदेव पर जब सरकारी लाठी चली तो रामदेव जी को महिला कपड़ों में भागना पड़ा। जन लोकपाल बिल पर भारी सफलता
अर्जित करने वाले अन्ना रोजाना कभी राईट टू रिजेक्ट तो कभी राईट टू रिकाल तो कभी
किसी और बातों पर सरकार को धमकी देते नजर आ रहे है। अन्ना जी जब जनता ने आपको सिर
पर बैठाया है तो जरा कम बोलिए हुजूर ताकि सरकार और जनता का आपके प्रति यकीन बना
रहे । ज्यादा बोलने पर समाज में लोग राम जेठमलानी
हो जाते हैं , जिनका काम केवल भौंकना ही रह जाता है। लंबी पारी के लिए जरा अपने
उपर सब्र रखना सीखे महाराज। एक कहावत भी आपको अर्पित कर रहा हूं कि एक साधे सब सधे
सब साधे सब बिसराय ।
महिला लेखन पर एक अनूठा प्रयोग
द संडे इंडियन द्वारा 21 सदी की 111 लेखिकाओं पर एक खास अंक प्रकाशित किया
गया। हालांकि अंक को एक सार्थक प्रयास तो कहना ही होगा, क्योंकि एक साथ बड़े
पैमाने पर लेखिकाओं को लेखन, वरिष्ठता और योगदान के आधार पर रेटिंग दी गई। अलग अलग
ग्रेड में शामिल लेखिकाओं पर कोई टिप्पणी करके इस प्रयास के महत्व को कम करना
बेमानी होगा। मगर, श्रेष्ठ 21 लेखिकाओं में कमसे पांच लेखिकाओं का चयन बहुतों को रास नहीं आया होगा।
कमसे कम रमणिका गुप्ता, डा. सरोजनी प्रीतम, सुषमा बेदी के नाम पर तो शायद हर पाठक
को आपति हो सकती है। रमणिका और बेदी को तो मैं चर्चा के काबिल ही नहीं मानता। जहां
तक बात रही अनामिका और गगन गिल की तो दोनों लेखिकाएं अभी इस लायक क्या लिखा है कि
इन्हें श्रेष्ठ 21 लेखिकाओं में रखा जाए ? कमसे कम 10 लेखिकाए ऐसी है जो नाम काम ख्याति और योगदान के
स्तर पर इन पांचों पर काफी भारी पड़ती है। मगर 111 नामों के चयन में इस तरह की त्रुटियों
का हो जाना या रह जाना एकदम स्वाभाविक है। यहां पर इसकी निंदा करने की बजाय संपादन
मंडल को बधाई देनी चाहिए, क्योंकि नियत में कोई खोट ना होकर पूरी ईमानदारी थी। कुछ
नया करने की ललक थी। महिला लेखन को एक बड़े फलक पर लाने की उत्कंठा थी, जो हर
पन्ने पर झलकती है। यही वजह है कि लेखिकाओं की पूरी फौज को एक बारात की तरह एक
मंड़प में सजाकर रखने में पत्रिका और इसके संपादक को सफलता मिली।
ये किताबें किसके लिए ?
दिल्ली यमुनापार .के एक प्रकाशक नें मेरे संपादन में प्रेमचंद की पत्रकारिता
नामक एक किताब को तीन खंड़ों में प्रकाशित किया है। करीब 1200 पेजी इस किताब का
मूल्य रखा है तीन हजार रूपए। जाहिर है कि मैं क्या शायद ही कोई पाठक इसे खरीदकर
पढ़ने का साहस कर सकता है। मेरी तो खरीदकर पढ़ने की हिम्मत ही नहीं है। प्रकाशक
राघव से मैने पूछा कि यार इसे किसके लिए छापे हो? मेरे सवाल पर वो खिलखिला पड़ा और अपनी मजबूरियां गिनाते हुए
खरीद के पीछे के करप्शन का हवाला देकर उसने कहा कि मैं आपको 600 रूपए में तीनों
खंड उपलब्ध करवा दूंगा। इसका अभी लोकार्पण नहीं करवाया है, और प्रकाशक को भी इसमें
कोई रूचि नहीं है। बेवजह के झमेले में 8-10 प्रतियां फ्री में बांटनी होगी। फिर
मेरा मन भी विमोचन कराने या प्रचार का नहीं हो रहा है कि जब मेरी बर्षो की मेहनत
ही अगर मूषकों के लिए थी तो फिर जनता के बीच रिलीज की औपचारिकता क्यों ? वाकई धन्य हो प्रकाशक
और तेरी लीला अपरम्पार। लेखक सब बेकार बेहाल और मूषको को ताजा मोटा बनाकर तू रहे मालामाल।
राजेन्द्र यादव पर पांखी का हाथी अंक
आमतौर साहित्यिक पत्रिकाओं के मालिक संपादक लोग जब कभी विशेषांक निकालते हैं
तो उसका दाम इतना रख देते है कि बड़े मनोरथ से प्रस्तुत अंक की महत्ता ही चौपट दो
जाती है। किसी पत्रिका को कितना मोटा माटा निकालना है, यह पूरी तरह प्रबंधकों पर
निर्भर करता है। मगर पाठकों की जेब का ख्याल किए बगैर ज्यादा दाम रखना तो उन
पाठकों के साथ बेईमानी है जो एक एक पैसा जोड़कर किसी पत्रिका को खरीदते हैं। पांखी
का महाविशेषांक 350 पन्नों(इसे 250 पेजी बनाकर ज्यादा पठनीय बनाया जा सकता था) का
है। जिसमें हंस के महामहिम संपादक राजेन्द्र यादव को महिमा मंड़ित किया गया है।
संपादक प्रेम भारद्वाज ने यादव को मल्टीएंगल से देखने और पाठकों को दिखाने की
कोशिश की है। मगर भारी भरकम अंक में यादव के लेखन को नजरअंदाज कर दिया गया। संपादक
महोदय यादव पर लेखों और संस्मरणों की झड़ी लगाने की बजाय यादव के 10-12 विवादास्पद
संपादकीय, कुछ विवादास्पद आलेख और कालजयी कहानियों को पाठकों के लिए प्रस्तुत करते
तो इस हाथी अंक की गरिमा कुछ और बढ़ जाती, मगर यादव की आवारागर्दी, चूतियापा,
लफंगई, हरामखोरी, नारीप्रेम बेवफाई, और हरामखोरी को ही हर तरह से ग्लैमराईज्ड करके
यादव की यह कैसी इमेज (?) सामने परोस दी गई ?
यही वजह है कि 350 पन्नों के इस महा अंक में रचनाकार संपादक राजेन्द्र यादव की
बजाय एक दूसरा लफंगा यादव (आ टपका) है। जिसके बारे में करीब वाले लोग ही जानते थे। फिर
आप किसी अंक को जब बाजार में देते हैं तो यह ख्याल रखना भी परम आवश्यक हो जाता है
कि उसका कालजयी मूल्याकंन हो, ना कि 70 रूपए में खरीदकर इसे पढ़ने के बाद कूड़े
में फेंकना ही उपयोगी लगे।
...
तुस्सी ग्रेट हो गुनाहों के (देवता नहीं) पुतला उर्फ राजेन्द्र यादव..
हिन्दी के कथित विवाद पसंद और अंग्रेजी के अश्लील प्रधान लेखक खुशवंत सिंह से
तुलना करने पर भीतर से खुश होने वाले परम आदरणीय प्रात: स्मरणीय हिन्दी के महामहिम
संपादक राजेन्द्र यादव जी तुस्सी ग्रेट हो? आपसे इस 45 साला उम्र में 5-6 दफा मिलने और दो बार चाय पीने
का संयोग मिला है। इस कारण यह मेरा दावा सरासर गलत होगा कि आप मुझे भी जानते
होंगे, पर मैं आपको जानता हूं। आपकी साफगोई का तो मैं भी कायल (एक बार तो घायल भी)
हूं। तमाम शिकायतों के बाद भी आपके प्रति मेरे मन में कोई खटास नहीं है। सबसे पहले
तो आपने हंस को लगातार 25 साल चलाकर वह काम कर दिखाया है जिसकी तुलना केवल सचिन
तेंदुलकर के 99 शतक (सौंवे शतक के लिए फिलहाल मास्टर ब्लास्टर तरस रहे हैं) से ही
की जा सकती है। काश. अगर मेरा वश चलता तो यकीन मानिए यादव जी अब तक मैं आपको भारत
रत्न की उपाधि से जरूर नवाज चुका होता( यह बात मैं अपने दिल की कह रहा हूं) ।
हिन्दुस्तान में हिन्दी और खासकर साहित्य के लिए किए गए इस अथक प्रयास को कभी
नकारा नहीं जा सकता। सच तो यह भी है यादव जी कि हंस ने ही आपको नवजीवन भी दिया है
वरन सोचों कि अपने मित्रों के साथ इस समय तक आप परलोक धाम ( नर्क सा स्वर्ग की
कल्पना आप खुद करें) में यमराज से लेकर लक्ष्मी, सरस्वती समेत पार्वती के रंग रूप
औप यौवन के खिलाफ साजिश कर रहे होते। मगर धन्य हो यादव जी कि प्रेमचंद के
रिश्तेदारों से हंस को लेकर अपनी नाक रगड़ने की बजाय हंसराज कालेज की वार्षिक
पत्रिका हंस को ही बड़ी चालाकी से हथियाकर उसे शातिराना तरीके से प्रेमचंद का हंस
बना दिया। प्रेमचंद की विरासत थामने का गरूर और उसी परम्परा को आगे ले जाने का
अभिमान तो आपके काले काले चश्मे वाले गोरे गोरे मुखड़े पर चमकता और दमकता भी है।
हंस को 25 साला बनाकर आपने साबित कर दिया कि आप किस मिट्टी के बने हुए हो। फिर अब किसी
खुशवंत से अपनी तुलना पर आपको गौरवान्वित होने की बजाय अब आपको शर्मसार होना
चाहिए। सार्थकता के मामले में आप तो खुशवंत के भी बाप (माफ करना यादव जी खुशवंत सिंह का बाप सर शोभा
सिंह तो देशद्रोही और गद्दार था, लिहाजा मैं तो बतौर उदाहरण आपके लिए केवल इस
मुहाबरे का प्रयोग कर रहा हूं) होकर कर कोसों आगे निकल गए है। देश में महंगाई चाहे
जितनी हो जाए, मगर सलाह हमेशा फ्री में ही मिलता और बिकता है। एक सलाह मेरी तरफ से
भी हज्म करे कि जब हंस को 25 साल का जवान बना ही दिया है तो उसको दीर्घायु बनाने
यानी 50 साला जीवित रखने पर भी कुछ विचार करे। मुझे पता है कि यमराज भले ही आपके
दोस्त (होंगे) हैं पर वे भी आपकी तरह कर्तव्यनिष्ठ हैं, लिहाजा थोड़ी बहुत बेईमानी
के बाद भी शायद ही वे आपको शतायु होने का सौभाग्य प्रदान करे। भगवान आपको लंबी आयु
और जवां मन दुरूस्त तन दे। लिहाजा यादव के बाद भी हंस दीवित रहे इस पर अब आपको
ज्यादा ध्यान देना चाहिए। हालांकि अंत में बता दूं कि हंस में छपी एक कहानी कोरा
कैनवस के उपर आपने संपादकीय में विदेशी पांच सात लेखकों का उदाहरण देते हुए बेमेल
शादियों की निंदा की थी।, मगर ठीक अपनी नाक के नीचे रह रहे कुछ बुढ़े दोस्तों (अब
दिवगंत भी हो गए) की बेमेल शादियों को आप बड़ी शातिराना अंदाज में भूल गए। अपनों
को बचाकर दूसरों को गाली देने की शर्मनाक हरकतों को बंद करके सबको एक ही चश्मे से
देखना बेहतर होगा। वैसे भी आपको गाली देने वालों की कोई कमी नहीं है, मगर लंबी
पारी के लिेए ईमानदारी तो झलकनी चाहिए। अंत में इसी कामना के साथ कबाड़खाने में
घुट रहे हंस और प्रेमचंद को गरिमामय बनाने में आपके योगदान को कभी भी नकारा नहीं
जा सकता।
Thursday, September 22, 2011
अल्लाह के इश्क में दीवानी संत राबिया
वह
संत तो महान दार्शनिक और प्रचारक थे। लेकिन एक महिला के सामने अपने होने
को साबित करना अचानक उनके जेहन में उतर आया। महिला के सामने खुद का
बड़प्पन साबित करने के लिए वे बोले :- चलो, ऐसा करते हैं कि नदी पर अपनी
चटाई बिछाकर ईश्वर की आराधना की जाए। महिला ने इस संत की बात को ताड़
लिया। तपाक से जवाब दिया :- नहीं, हम लोग अपनी चादर को हवा में बिछाकर
ईश्वर की उपासना करें तो बेहतर होगा। संत स्तब्ध। यह कैसे हो सकता है :-
सवाल उछला। महिला ने जवाब दिया :- पानी में तो यह काम मछली का है, जबकि
हवा में करामात तो मक्खी दिखाती है। ऐसी बाजीगरी वाले काम में क्या दम।
असली काम तो ईश्वर की उपासना है और यही असली काम इन जादुई करामातों के
करने के अहंकार से लाखों दर्जा ऊपर है। कहने की जरूरत नहीं कि संत का सिर
शर्म से झुक गया।
ईश्वर से प्रेम और उस पर अगाध श्रद्धा
केवल हिन्दुस्तान की मीरा बाई और बाई परमेश्वरी सिद्धा तक ही सीमित नहीं
है। इस्लाम में भी मीरा और परमेश्वरी जैसी सिद्ध महिलाएं हुईं हैं,
जिन्होंने अपने अकेले दम पर पूरी इंसानियत और उसकी रूहानियत को एक नया
अंदाज और आयाम दिया। इस महिला का नाम था राबिया। प्रेम और विश्वास की
जीती-जागती और हमेशा के लिए अमर हो चुकी राबिया। इतने गरीब परिवार में
जन्मी थीं राबिया कि उनकी नाभि पर तेल लगाने तक के लिए जुगाड़ नहीं था।
कुछ बड़ी हुईं तो माता-पिता का साया उठ गया। कुछ ही दिन बाद गुलाम बना ली
गयीं। क्या-क्या जहर नहीं पीना पड़ा लेकिन अल्लाह के प्रति मोहब्बत
लगातार बढ़ती ही रही। अपने मालिक के घर का सारा काम निपटाने के बाद अपने
कमरे में वे अल्लाह की याद में रोती रहती थीं।
मालिक ने एक दिन सुना कि राबिया नमाज में
रो-रोकर कह रही थीं :- मैं तो तुम्हारी गुलाम हूं, मगर या अल्लाह, तूने
तो मुझे किसी और की मिल्कियत बना डाला। मालिक पर घड़ों पानी पड़ गया और इस
तरह राबिया रिहा हो गयीं। लेकिन केवल मालिक की कैद से, अल्लाह के लिए तो
वे पहले की ही तरह गुलाम बनी रहीं। बियावान जंगल मे रह कर तपस्या करती
रहीं। आसपास खूंखार जंगली जानवर और परिंदे उनकी हिफाजत करते थे। कहा तो
यहां तक जाता है कि एक दिन बुजुर्ग संत इब्राहीम बिन अदहम चौदह साल की
यात्रा कर रक्अत करते हुए काबा पहुंचे तो काबा दिखायी ही न पड़ा। कहते हैं
कि अल्लाह ने खुद ही काबा को राबिया के इस्तकबाल के लिए रवाना कर दिया
था। हालांकि बाद में अल्लाह के इस अहसान का बदला चुकाने के लिए राबिया ने
केवल लेटते हुए काबा की यात्रा सात साल में पूरी की।
हां, इस बीच शायद उन्हें कुछ घमंड हो
गया, सो अल्लाह से सिजदे में बोल पड़ी :- मैं तो मुट्ठी भर खाक हूं और
काबा सिर्फ पत्थर का मकान ही है। यह सब करने की क्या जरूरत है अल्लाह।
मुझे खुद में समा ले। लेकिन अचानक ही उन्हें इस बात का अहसास हो गया कि
अगर इस तरह अल्लाह ने उनकी बात मान ली तो गजब हो जाएगा। अल्लाह का जलाल
जाहिर हुआ, तो कहर हो जाएगा और उसका सारा पाप उनके कर्मों पर हावी हो
जाएगा। सो अपने स्वार्थ को त्याग कर वे फौरन चैतन्य हुईं और वापस बसरा
लौट आयीं। खुदा की इबादत के लिए।
किंवदंतियों के मुताबिक एक बार बसरा के ही
एक प्रश्यात संत हसन बसरी उनसे मिलने पहुंचे तो वे जंगली जानवरों और
परिंदों के साथ घूम रही थीं। हसन को आता देखकर जानवर और परिंदे घबरा कर
उधर-उधर भागने लगे। हसन चौंक उठे। पूछा तो राबिया ने सवाल उछाला :- आपने आज
क्या खाया। गोश्त :- हसन का जवाब था। राबिया बोलीं :- जब आप उन्हें खा
जाते हैं, तभी तो वे आपको देखकर घबराते हैं। सच्चे इंसान उन्हें कैसे खा
सकते हैं जो उनके दोस्त हों। यह सब मेरे दोस्त ही तो हैं। जाहिर है कि
राबिया गोश्त नहीं खाती थीं।
राबिया को लेकर खूब कहानियां हैं। मसलन,
एक बार सपने में हजरत मोहम्मद ने राबिया से पूछा :- राबिया, तुम मुझसे
दोस्ती रखती हो। ऐ रसूल अल्लाह। ऐसा कौन है जो आपसे दोस्ती न रखना चाहता
हो। लेकिन खुदा का मुझ पर इस कदर प्रेम है कि उनके सिवा मुझे किसी से
दोस्ती करने की फुरसत ही नहीं मिलती है। ईश्वर तो उनसे ही मोहब्बत और
दोस्ती करता है जो उससे मोहब्बत और दोस्ती करते हैं। और मेरे दिल में
ईश्वर के अलावा कभी कुछ आ ही नहीं सकता। शैतान से नफरत के सवाल पर भी
राबिया एक बार बोली थीं :- पहले खुदा की इबादत से तो मैं निजात पा जाऊं, जो
कि मुमकिन ही नहीं। फिर किसी से दोस्ती या दुश्मनी की बात का कोई सवाल
ही नहीं।
बुरे कामों पर पश्चाताप यानी तौबा करने
के सवाल पर राबिया का कहना था कि ईश्वर तब तक पश्चाताप की इजाजत नहीं
देता, तब तक कोई भी अपराधी पश्चाताप कर ही नहीं सकता। और जब इसकी इजाजत
मिलती है तो तौबा कुबूल होती ही है। यानी, गुनाहों से तौबा करने के लिए
आंतरिक यानी दिल से ताकत जुटानी पड़ती है, जुबानी तौबा तो हराम है जो कैसे
कुबूल किया जा सकता है। अल्लाह की राह पर पैदल नहीं, दिल और उपासना से ही
चला जा सकता है।
राबिया ने तो मर्द शब्द की अनोखी ही
व्याख्या कर दी। एक सवाल पर बोलीं :- अगर संतोष रखना मर्द होता तो
बाकायदा करीम बन गया होता। संतोष से बढ़कर कुछ नहीं। जो संतोष रख सकता है,
वही मर्द है। जिसे संतोष है, वही मर्द है और वह ही ज्ञानी भी। ऐसा इंसान
ईश्वर से अपना ईमान और आत्मा साफ-सुधरी और पवित्र ही चाहता है और फिर उसे
ईश्वर को ही सौंप देता है। इस तरह वह हर हाल में दुनिया के नशे से हमेशा
के लिए दूर हो जाता है और अल्लाह में समाहित होता है। भारी सिरदर्द से
तड़पते हुए माथे पर पट्टी बांधे एक शख्स जब उनके पास राहत के लिए आया, तो
उन्होंने उसे जमकर डांटा। बोली कि तीस साल तक जब उसने तुमको स्वस्थ रखा,
तब तो तुमने शुक्राने में एक बार भी सिर पर पट्टी नहीं बांधी, और आज जरा
सा दर्द उठा तो लगे तमाशा करने। इसे भी अल्लाह की नेमत मान मूर्ख।
अपने अंतिम वक्त में आठ दिनों तक खाना ही
न खाया, पानी भी नहीं। आखिरी दिन सबको हटा कर दरवाजा बंद कर लिया। भीतर से
आती राबिया की आवाज सुनी गयी :- चल मेरी निर्दोष आत्मा, चल अल्लाह के
पास चल। काफी देर बाद लोगों ने देखा कि राबिया ईश्वर यानी ब्रह्म में
विलीन हो चुकी हैं। राबिया कहा करती थीं कि अल्लाह अपने दुश्मनों को दोजख
में रखे और अपने उपासकों को बहिश्त में। मुझे इन दोंनों में से कुछ भी न
चाहिए। मैं तो बस उसके ही करीब रहना चाहती हूं, जिसे जिन्दगी भर मोहब्बत
करती रही। एक किंवदंती यह भी है कि उन्हें लेने आये मुन्कर और नकीर नाम
फरिश्तों ने जब उनसे पूछा कि तेरा रब कौन है, तो राबिया ने उन्हें जमकर
लताड़ा। साथ में अल्लाह को भी। बोलीं :- जब अल्लाह ने मुझे कभी नहीं
भुलाया तो मैं, जिसे दुनिया से कोई वास्ता कभी न रहा, उसे कैसे भूल सकती
थी। फिर वह अल्लाह यह सवाल फरिश्तों के जरिये मुझसे क्यों पुछवा रहा है।
गरीबी की लक्ष्मण रेखा
- एल.आर. गाँधी
भारत से गरीब और गरीबी को मिटाने के भागीरथ परियास पिछले छह दशकों से जारी हैं … मगर गरीबी रेखा के साथ साथ ..गरीब हैं कि बढ़ते ही जा रहे हैं.अब हमारे मोहन प्यारे जी ने अपने अर्थ शास्त्रों के विशाल अनुभव के बल पर अंतिम घोषणा कर दी है कि शहरों में ३२/- और ग्रामीण क्षत्रों में २६/- हर रोज़ खर्च करने वाले भारतीय नर-नारि अपने आप को गरीब कहना बंद कर दें ! सरकार के साथ और धोखा नहीं चलेगा … यूँ ही नकली गरीब बन कर सस्ते भाव राशन लूट कर सरकार को चूना लगाए जा रहे हैं. भला यह भी कोई बात हुई … एक गरीब को दो जून की रोटी के सिवा और चाहिए क्या ..६ रोटी , एक कटोरी दाल/ सब्जी… महज़ दो वक्त … मनमोहन जी के मनटेक सिंह जी ने बंगाली बाबू के साथ बैठ कर अपने पावर फुल आटा मंत्री से परामर्श कर एक भारतीय को जीने के लिए ज़रूरी दाल -रोटी का हिसाब लगा लिया है. वही ३२/- और २६/- … लो खींच दी … गरीब की गरीबी की ‘लक्ष्मण ‘ रेखा … अब इस रेखा के नीचे वालों को मिलेगा ‘सोनिया’ जी का अंग्रेजी में बोले तो ‘ राईट टू फ़ूड’ का उपहार.
यूं तो देश आज़ाद होते ही हमारे बापू के चहेते चाचा नेहरूजी ने देश से गरीबी, भुखमरी,असमानता,छूतछात ,भाई-भतीजाबाद और न जाने क्या क्या ख़तम करने की कसमें खाई थीं. पूरे १७ वर्ष अपनी इन कसमों – वादों को पूरा करने में गुज़ार दिए. मगर वह वादा ही क्या जो वफ़ा हो जाए ? फिर उनकी पुत्री प्रियदर्शनी इंदिरा जी देश के राज सिंघासन पर आरूढ़ हुई… १९७० में इंदिरा जी ने तो वादा नहीं ‘अहद’ ही कर लिया कि देश से गरीबी हटा कर ही दम लेंगीं … गरीबी रेखा का निर्धारण किया गया .. गरीबी हटाने के लिए गरीबी रेखा से नीचे जी रहे ‘जीव-जंतुओं ‘ की पहचान भी तो ज़रूरी है भई. सो फैसला किया गया कि गाँव में एक ‘जीव’ के जिन्दा रहने लिए २४०० और शहरी ‘जीव’ को २१०० कैलोरी बहुत है. इसके लिए गाँव वासी को ६२/- और शहरी बाबु को ७१/- की दरकार है. जिसको हर रोज़ ६ रोटी, १ दाल/सब्जी दो वक्त नसीब हो जाए , वह गरीबी रेखा से नीचे भला कैसे गिना जा सकता है. फिर भी ३२ करोड़ भारतीय गरीबी रेखा के नीच न मालूम कहाँ से निकल आये .
अब राज परिवार द्वारा निर्धारित ‘ दो जून की रोटी’ के आधार पर हमारे राज भक्त कांग्रेसी हुक्मरान गरीबी रेखा खींचते चले आ रहे हैं. सन २००० में ग्रामीणों के लिए ३२८/- प्रति माह और शहरियों के लिए ४५४/- प्रतिमाह निर्धारित हुए और २००४ आते आते विकराल महंगाई को विचारते हुए इसे क्रमशय: ४५४ और ५४० कर दिया गया .
मनमोहन जी ने आज इसे जब प्रति दिन २६/- -३२/- कर दिया तो हमारे मिडिया वाले मंहगाई का रोना रो रहे हैं … और अपना भूल गए जब हुक्मरानों के साथ संसद की कैंटीन में १/- का चाए का कप, २/- में खाना, १/- में चपाती और वह भी ‘पवार’ की भांति फूली हुई , डेढ़ रूपए में दाल की कटोरी ,५.५० /- में सूप का प्याला , ४/- में चिदम्बरम शाही डोसा ,८/- में अब्दुल्लाह शाही बिरियानी , २४.५० /- मनमोहन शाही पंजाबी मुर्गा और १३/- में राजा शाही फिश प्लेट …मज़े ले ले कर खाते हैं.
जब देश पर राज करने वाले हमारे सांसद जिनकी अपनी तनखाह मात्र ८००००/- प्रति माह है और बिना टैक्स के लाखों की अन्य सुविधाएं सो अलग , इतने सस्ते भोजन को पूरे प्यार और सत्कार से चुप चाप खा लेते हैं तो फिर इन गरीबी रेखा से नीचे वालों को २६/- और ३२/- रूपए में गुज़र बसर करने में क्या तकलीफ है. फिर हमारी महारानी उनके लिए एक और बिल लाने जा रहीं हैं ‘राईट टू फ़ूड ‘ ताकि खाने पर सबका हक़ हो – हमारे सांसदों की भांति … फिर भी यदि कोई गरीबी रेखा से नीचे ही जीने का शौक पाले बैठा हो तो हमारे अमूल बेबी … ‘राजकुमार’ क्या कर सकते हैं. बकौल ग़ालिब ….
वह रे ग़ालिब तेरी फाका मस्तियाँ
वो खाना सूखे टुकड़े भिगो कर शराब में
Tuesday, September 20, 2011
संभोग से समाधि -ओशो
यदि मैं शरीर छोड़ भी दू तो भी मैं अपने संन्यायों को छोड़ने वाला नहीं हूं।–ओशो
संभोग से समाधि की और—25
युवक और यौन— आदमी के मन का नियम उलटा है। इस नियमों का उलटा नहीं हो सकता है। हां कुछ जो बहुत ही कमजोर होंगे, वह शायद नहीं आ पायेंगे तो रात सपने में उनको भी वहां आना पड़ेगा। मन में उपवाद नहीं मानते है। जगत के किसी नियम में कोई अपवाद नहीं होता। जगत के नियम अत्यंत वैज्ञानिक है। मन के नियम भी उतने ही वैज्ञानिक हे।
यह जो सेक्स इतना महत्वपूर्ण हो गया है वर्जना के कारण। वर्जना की तख्ती लगी है। उस वर्जना के कारण यह इतना महत्वपूर्ण हो गया है। इसने सारे मन को घेर लिया है। सारा मन सेक्स के इर्द-गिर्द घूमने लगाता है।
फ्रायड ठीक कहता है कि मनुष्य का मन सेक्स के आस पास ही घूमता है। लेकिन वह यह गलत कहता है कि सेक्स महत्वपूर्ण है, इसलिए घूमता है।
नहीं, घूमने का कारण है, वर्जना इनकार, विरोध, निषेध। घूमने का कारण है हजारों साल की परम्परा। सेक्स को वर्जिन, गर्हित,निंदित सिद्ध करने वाली परम्परा इसके लिए जिम्मेदार है। सेक्स को इतना महत्वपूर्ण बनाने वालों में साधु, महात्माओं का हाथ है। जिन्होंने तख्ती लटकाई है वर्जना की।
यह बड़ा उलटा मालूम पड़ेगा। लेकिन यह सत्य है। और कहना जरूरी हे कि मनुष्यजाति को सेक्सुअलिटी की, कामुकता की तरफ ले जाने का काम महात्माओं ने ही किया है। जितने जोर से वर्जना लगाई है उन्होंने, आदमी उतने जोर से आतुर होकर भागने लगा है। इधर वर्जना लगा दी। उधर उसका परिणाम यह हुआ कि सेक्स आदमी की रग-रग से फूट कर निकल पड़ा है। थोड़ी खोजबीन करो, उपर की राख हटाओं, भीतर सेक्स मिलेगा। उपन्यास, कहानी, महान से महान साहित्यकार की जरा राख झाड़ों। भीतर सेक्स मिलेगा। चित्र देखो मूर्ति देखो सिनेमा देखो, सब वही।
और साधु संत इस वक्त सिनेमा के बहुत खिलाफ है। शायद उन्हें पता नहीं कि सिनेमा नहीं था तो भी आदमी यही सब करता था। कालिदास के ग्रंथ पढ़ो,कोई फिल्म इतनी अश्लील नहीं बन सकती। जितने कालिदास के वचन है। उठाकर देखें पुराने साहित्य को, पुरानी मूर्तियों को, पुराने मंदिरों को। जो फिल्म में है। वह पत्थरों में खुदा मिलेगा। लेकिन उनसे आंखे नहीं खुलती हमारी। हम अंधे की तरह पीछे चले जाते है। उन्हीं लकीरों पर।
सेक्स जब तक दमन किया जायेगा और जब तक स्वस्थ खुले आकाश में उसकी बात न होगी और जबतक एक-एक बच्चे के मन में वर्जना की तख्ती नही हटेगी। तब तक दुनिया सेक्स के औब्सैशन से मुक्त नहीं हो सकती। तब तक सेक्स एक रोग की तरह आदमी को पकड़े रहेगा। वह कपड़े पहनेगा तो नजर सेक्स पर होगी। खाना खायेगा तो नजर सेक्स पर होगी। किताब पढ़ेगा तो नजर सेक्स पर होगी। गीत गायेगा तो नजर सेक्स पर होगी। संगीत सुनेगा तो नजर सेक्स पर होगी। नाच देखेगा तो नजर सेक्स पर होगी। सारी जिंदगी उसकी सेक्स के आसपास घूमेगा।
अनातोली फ्रांस मर रहा था। मरते वक्त एक मित्र उसके पास गया और अनातोली जैसे अदभुत साहित्यकार से उसने पूछा कि मरते वक्त तुमसे पूछता हूं, अनातोली जिंदगी में सबसे महत्वपूर्ण क्या है? अनातोली ने कहा, जरा पास आ जाओ, कान में ही बता सकता हूं। आस पास और भी लोग बैठे थे। मित्र पास आ गया। वह हैरान हुआ कि अनातोली जैसा आदमी, जो मकानों की चोटियों पर चढ़कर चिल्लाने का आदमी है। जो उसे ठीक लगा हमेशा कहता रहा। वह आज भी मरते वक्त इतना कमजोर हो गया है कि जीवन की सबसे महत्वपूर्ण बात बताने को कहता है कि पास आ जाओ। कान में कहूंगा। सुनो धीरे से कान में, मित्र पास सरक आया। अनातोली कान के पास होंठ ले गया। लेकिन कुछ बोला नहीं। मित्र ने कहा, बोलते क्यों नहीं? अनातोली कहां तुम समझ गये। अब बोलने की कोई जरूरत नहीं है।
ऐसा मजा है। और मित्र समझ गये और तुम भी समझ गये होगें। लेकिन हंसने की बात नहीं है। क्या ये पागल पन है? ये कैसे मनुष्य को पागलपन की और ले जा रहा है। दुनियां को पागलखाना बनाने की कोशिश की जा रही है।
इसका बुनियादी कारण यह है कि सेक्स को आज तक स्वीकार नहीं किया गया है। जिससे जीवन का जन्म होता है, जिससे जीवन के बीज फूटते है। जिससे जीवन में फूल आते है। जिससे जीवन की सारी सुगंध है, सारा रंग है। जिससे जीवन का सारा नृत्य है, जिसके आधार पर जीवन का पहिया घूमता है। उसको स्वीकार नहीं किया गया। जीवन के मौलिक आधार को अस्वीकार किया गया है। जीवन में जो केंद्रीय है परमात्मा जिसको सृष्टि का आधार बनाये हुए है—चाहे फूल हो, चाहे पक्षी हो, चाहे बीज हो, चाहे पौधे हो, चाहे मनुष्य हो—सेक्स जो कि जीवन के जीवन के जन्म का मार्ग है, उसको ही अस्वीकार कर दिया गया है।
उस अस्वीकृति को दो परिणाम हुए। अस्वीकार करते ही वह सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया। अस्वीकार करते ही वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो गया और मनुष्य के चित को उसने सब तरफ से पकड़ लिया है। अस्वीकार करते ही उसे सीधा जानने का कोई उपाय नहीं रहा। इसलिए तिरछे जानने के उपाय खोजने पड़े, जिनसे मनुष्य का चित विकृत और बीमार हो गया है। जिस चीज को सीधा जानने के उपाय न रह जायें और मन जानना चाहता हो,तो वह फिर गलत उपाय खोजने लग जाता है।
मनुष्य को अनैतिक बनाने में तथा कथित नैतिक लोगों का हाथ है। जिन लोगों ने आदमी को नैतिक बनाने की चेष्टा की है, दमन के द्वारा,वर्जना के द्वारा, उन लोगों ने सारी मनुष्य जाति को अनैतिक बना दिया है।
और जितना आदमी अनैतिक होता जा रहा है। उतनी ही वर्जना सख्त होती चली जाती है। वे कहते है। कि फिल्मों में नंगी तस्वीरें नहीं होनी चाहिए। वे कहते है, पोस्टरों पर नंगी तस्वीरे नहीं होनी चाहिए। वे कहते है किताब ऐसी होनी चाहिए। वे कहते है फिल्म में चुंबन लेते वक्त कितने इंच का फासला होना चाहिए। यह भी गवर्नमेंट तय करें। वे यह सब कहते है। बड़े अच्छे लोग हैं वे, इसलिए वे कहते है कि आदमी अनैतिक न हो जाये।
और उनकी ये सब चेष्टायें फिल्मों को और गंदा करती चली जाती है। पोस्टर और अश्लील होते चले जाते है। किताबें और गंदी होती चली जा रही है। हां, एक फर्क पड़ता है। किताब के भीतर कुछ रहता है, उपर कवर पर कुछ और रहता है। और अगर ऐसा नहीं रहता तो लड़का गीता खोल लेता है और गीता के अंदर दूसरी किताब रख लेता है। उसको पढ़ता है। बाइबिल पढ़ता है, अगर बाइबिल पढ़ता हो तो समझना भीतर कोई दूसरी किताब है। यह सब धोखा यह डिसेप्शन पैदा होता है वर्जना से।
विनोबा कहते है, तुलसी कहते है, अश्लील पोस्टर नहीं चाहिए। पुरूषोतम दास टंडन तो यहां तक कहते थे कि खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों पर मिट्टी पोतकर उनकी प्रतिमाओं को ढंक देना चाहिए। कहीं आदमी इनको देखकर गंदा न हो जाये। और बड़े मजे की बात यह है कि तुम ढँकते चले जाओ इनको,हजार साल से ढाँक ही रहे हो। लेकिन इनसे आदमी गंदगी से मुक्त नहीं होता। गंदगी रोज-रोज बढ़ती चली जाती है।
मैं यह पूछना चाहता हूं, कि अश्लील किताब, अश्लील सिनेमा के कारण आदमी कामुक होता है या कि आदमी कामुक है, इसलिए अश्लील तस्वीर और पोस्टर चिपकाये जा रहा है। कौन है बुनियादी?
बुनियाद में आदमी की मांग है, अश्लील पोस्टर के लिए, इसलिए अश्लील पोस्टर लगता है और देखा जाता है। साधु संन्यासी भी देखते है। लेकिन देखने में एक फर्क रहता है। आप उसको देखते है और अगर आप पकड़ लिए जायेंगे देखते हुए तो समझा जायेगा कि यह आदमी गंदा है। और अगर कोई साधु संन्यासी मिल जाये, और आप उससे कहें कह आप क्यों देख रहे है। तो वह कहेगा कि हम तो निरीक्षण कर रहे है, स्टडी कर रहे है, कि किस तरह लोगों को अनैतिकता से बचाया जाये। इसलिए अध्यन कर रहे है। इतना फर्क पड़ेगा। बाकी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। बल्कि आप बिना देखे निकल भी जायें। साधु संन्यासी बिना देखे कभी नहीं निकल सकते थे। क्योंकि उनकी वर्जना और भी ज्यादा है, उनका चित और भी वर्जित है।
एक संन्यासी मेरे पास आये। वे नौ वर्ष के थे, तब दुष्टों ने उनको दीक्षा दे दी। नौ वर्ष के बच्चे को दीक्षा देना कोई भले आदमी का काम हो सकता है। नौ वर्ष का बच्चा, बाप मर गया है उसका। संन्यासी को मौका मिल गया। उन्होंने उसको दीक्षा दे दी। अनाथ बच्चे के साथ कोई भी दुर्व्यवहार किया जा सकता था। उनको दीक्षा दे दी गई। वह आदमी नौ वर्ष की उम्र से बेचारा संन्यासी है। अब उनकी उम्र कोई पचास साल है। वह मेरे पास रुके थे। मेरी बात सुन कर उनकी हिम्मत जगी कि मुझे सच्ची बात कही जा सकती है। इस मुल्क में सच्ची बातें किसी से भी नहीं कहीं जा सकती है। सच्ची बातें कहना मत, नहीं तो फंस जाओगे। उन्होंने एक रात मुझसे कहा कि मैं बहुत परेशान हूं,सिनेमा के पास से निकलता हूं तो मुझे लगता है, अंदर पता नहीं क्या होता होगा? इतने लोग तो अंदर जाते है। इतनी क्यू लगाये खड़े रहते है। जरूर कुछ न कुछ बात तो होगी ही। हालांकि मंदिर में जब मैं बोलता हूं तो मैं कहता हूं कि सिनेमा जाने वाले नर्क में जायेंगे। लेकिन जिनको मैं कहता हूं नर्क जाओगे,वे नर्क की धमकी से भी नहीं डरते। और सिनेमा जाते है। मुझे लगता है जरूर कुछ बात होगी।
नौ साल का बच्चा था, तब साधु हो गया। नौ साल के बाद ही उनकी बुद्धि अटकी रह गयी। उसके आगे विकसित नहीं हुई। क्योंकि जीवन के अनुभव से उन्हें तोड़ दिया गया था। नौ साल के बच्चे के भीतर जैसे भाव उठे कि सिनेमा के भीतर क्या हो रहा है। ऐसा उनके मन में उठता है लेकिन किससे कहें? मुझसे कहा, तो मैंने उनसे कहा कि सिनेमा दिखला दूँ आपको? वे बोले कि अगर दिखला दें तो बड़ी कृपा होगी। झंझट छूट जाये,यह प्रश्न मिट जाये। कि क्या होता है? एक मित्र को मैंने बुलवाया कि इनको ले जाओ। वह मित्र बोले कि मैं झंझट में नहीं पड़ता। कोई देख ले कि साधु को लाया हूं तो मैं झंझट में पड़ जाऊँगा। अंग्रेजी फिल्म दिखाने जरूर ले जा सकता हूं इनको। क्योंकि वह मिलिट्री एरिया में है। और उधर साधुओं को मानने वाले भक्त भी न होंगे। वहां मैं इनको ले जा सकता हूं। पर वे साधु अंग्रेजी नहीं जानते थे। फिर भी कहने लगे, कि कोई हर्ज नहीं कम से कम देख तो लेंगे कि क्या मामला है।
यह चित है और यहीं चित वहां गाली देगा। मंदिर में बैठकर कि नर्क जाओगे। अगर अश्लील पोस्टर देखोगें। यह बदला ले रहा है। वह तिरछा देखकर निकल गया आदमी बदला ले रहा है। जिसने सीधा देखा उनसे बदला ले रहा है। लेकिन सीधा देखने वाले मुक्त भी हो सकते है। तिरछा देखने वाले मुक्त कभी नहीं होते। अश्लील पोस्टर इस लिए लग रहे है। अश्लील किताबें इसलिए छप रही है। लड़के-बूढे-नौजवान अशलील गालियां बक रहे है। अशलील कपड़े इसलिए पहने जा रहे है। क्योंकि तुमने जो मौलिक था और स्वाभाविक था उसे अस्वीकार कर दिया है। उसकी अस्वीकृति के परिणाम में यह सब गलत रास्ते खोज जा रहे है।
क्रमश: अगले लेख में…………
–ओशो
संभोग से समाधि की ओर,
प्रवचन—6
युवक और यौन,
बड़ौदा,विश्वविद्यालय, बड़ौदा।
About sw anand prashad
ओशो की किरण जीवन में जिस दिन से प्रवेश किया, वहीं से जीवन का शुक्ल पक्ष शुरू हुआ, कितना धन्य भागी हूं ओशो को पा कर उस के लिए शब्द नहीं है मेरे पास.....अभी जीवन में पूर्णिमा का उदय तो नहीं हुआ है। परन्तु क्या दुज का चाँद कम सुदंर होता है। देखे कोई मेरे जीवन में झांक कर। आस्तित्व में सीधा कुछ भी नहीं है...सब वर्तुलाकार है , फिर जीवन उससे भिन्न कैसे हो सकता है। कुछ अंबर की बात करे, कुछ धरती का साथ धरे। कुछ तारों की गूंथे माला, नित जीवन का एहसास करे।।
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