शिवाजी
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शिवाजी राजे भोंसले | ||
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छत्रपति | ||
राज का समय | १६७४–१६८० | |
जन्म | १९ फरवरी, १६३० | |
शिवनेरी दुर्ग | ||
मृत्यु | ३ अप्रैल, १६८० | |
रायगढ़ | ||
पूर्वाधिकारी | शाहजी | |
उत्तराधिकारी | सम्भाजी | |
पिता | शाहजी | |
माता | जीजाबाई |
अनुक्रम[छुपाएँ] |
[संपादित करें] आरंभिक जीवन
शाहजी भोंसले की प्रथम पत्नी जीजाबाई की कोख से शिवाजी महाराज का जन्म १९ फरवरी, १६३० को शिवनेरी दुर्ग में हुआ था। शिवनेरी का दुर्ग पूना (पुणे) से उत्तर की तरफ़ जुन्नार नगर के पास था। उनका बचपन राजा राम, गोपाल, संतों की कहानियों और सत्संग मे बीता । वो सभी कलाओ मे माहिर थे, उन्होने बचपन मे राजनीति एवं लडाई की शिक्षा ली थी । उनके पिता अप्रतिम शूरवीर थे और अपनी दूसरी पत्नी तुकाबाई मोहिते थी । जीजाबाई उच्चकुल में उत्पन्न असाधारण प्रतिभाशाली थी । जीजाबाई जाधव वंश की थी और उनके पिता एक शक्तिशाली सामन्त थे । शिवाजी महाराज के चरित्र पर माता-पिता का बहुत प्रभाव पड़ा। बचपन से ही वे उस युग के वातावरण और घटनाओँ को भली प्रकार समझने लगे थे। शासक वर्ग की करतूतों पर वे झल्लाते थे और बेचैन हो जाते थे। उनके बाल-हृदय में स्वाधीनता की लौ प्रज्वलित हो गयी थी। उन्होंने कुछ स्वामिभक्त साथियों का संगठन किया। अवस्था बढ़ने के साथ विदेशी शासन की बेड़ियाँ तोड़ फेंकने का उनका संकल्प प्रबलतर होता गया।शिवाजी महाराज का विवाह सन् १४ मइ १६४० में साइवाईं निम्बालकर के साथ लाल महल,पुना में हुआ था ।
[संपादित करें] सैनिक वर्चस्व का आरंभ
शिवाजी महाराज ने अपने संरक्षक कोणदेव की सलाह पर बीजापुर के सुल्तान की सेवा करना अस्वीकार कर दिया । उस समय बीजापुर का राज्य आपसी संघर्ष तथा विदेशी आक्रमणकाल के दौर से गुजर रहा था । ऐसे साम्राज्य के सुल्तान की सेवा करने के बदले उन्होंने मावलों को बीजापुर के ख़िलाफ संगठित करने लगे । मावल प्रदेश पश्चिम घाट से जुड़ा है और कोई 150 किलोमीटर लम्बा और 30 किमी चौड़ा है । वे संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत करने के कारण कुशल योद्धा माने जाते हैं । इस प्रदेश में मराठा और सभि जाति के लोग रहते हैं । शिवाजी महाराज इन सभि जाति के लोगो को लेकर मावलों (मावळा) नाम देकर सभि को सन्घटित किया और उनसे सम्पर्क कर उनके प्रदेश से परिचित हो गए थे । मावल युवकों को लाकर उन्होंने दुर्ग निर्माण का कार्य आरंभ कर दिया था । मावलों का सहयोग शिवाजी महाराज के लिए बाद में उतना ही महत्वपूर्ण साबित हुआ जितना शेरशाह सूरी के लिए अफ़गानों का साथ ।उस समय बीजापुर आपसी संघर्ष तथा मुगलों के आक्रमण से परेशान था । बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह ने बहुत से दुर्गों से अपनी सेना हटाकर उन्हें स्थानीय शासकों या सामन्तों के हाथ सौंप दिया था । जब आदिलशाह बीमार पड़ा तो बीजापुर में अराजकता फैल गई और शिवाजी महाराज ने अवसर का लाभ उठाकर बीजापुर में प्रवेश का निर्णय लिया । शिवाजी महाराज ने इसके बाद के दिनों में बीजापुर के दुर्गों पर अधिकार करने की नीति अपनाई । सबसे पहला दुर्ग था तोरण का दुर्ग ।
[संपादित करें] दुर्गों पर नियंत्रण
तोरण का दुर्ग पूना के दक्षिण पश्चिम में 30 किलोमीटर की दूरी पर था । उन्होंने सुल्तान आदिलशाह के पास अपना दूत बेजकर खबर भिजवाई कि वे पहले किलेदार की तुलना में बेहतर रकम देने को तैयार हैं और यह क्षेत्र उन्हें सौप दिया जाय । उन्होने आदिलशाह के दरबारियों को पहले ही रिश्वत देकर अपने पक्ष में कर लिया था और अपने दरबारियों की सलाह के मुताबिक आदिलशाह ने शिवाजी महाराज को उस दुर्ग का अधिपति बना दिया । उस दुर्ग में मिली सम्पत्ति से शिवाजी महाराज ने दुर्ग की सुरक्षात्मक कमियों की मरम्मती का काम करवाया । इससे कोई 10 किलोमीटर दूर राजगढ़ का दुर्ग था और शिवाजी महाराज ने इस दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया ।शिवाजी महाराज की इस साम्राज्य विस्तार की नीति की भनक जब आदिलशाह को मिली तो वह क्षुब्ध हुआ । उसने शाहजी राजे को अपने पुत्र को नियंत्रण में रखने को कहा । शिवाजी महाराज ने अपने पिता की परवाह किये बिना अपने पिता के क्षेत्र का प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया और अतिव्यय का बहाना बनाकर नियमित लगान बन्द कर दिया । राजगढ़ के बाद उन्होने चाकन के दुर्ग पर अधिकार कर लिया और उसके बाद कोंडना के दुर्ग पर । कोंडना (कोन्ढाणा) पर अधिकार करते समय उन्हें घूस देनी पड़ी । कोंडना पर अधिकार करने के बाद उसका नाम सिंहगढ़ रखा गया । शाहजी राजे को पूना और सूपा की जागीरदारी दी गई थी और सूपा का दुर्ग उनके सम्बन्धी बाजी मोहिते के हाथ में थी । शिवाजी महाराज ने रात के समय सूपा के दुर्ग पर आक्रमण करके दुर्ग पर अधिकार कर लिया और बाजी मोहिते को शाहजी राजे के पास कर्नाटक भेज दिया । उसकी सेना का कुछ भाग भी शिवाजी महाराज की सेवा में आ गया । इसी समय पुरन्दर के किलेदार की मृत्यु हो गई और किले के उत्तराधिकार के लिए उसके तीनों बेटों में लड़ाई छिड़ गई । दो भाइयों के निमंत्रण पर शिवाजी महाराज पुरन्दर पहुँचे और कूटनीति का सहारा लेते हुए उन्होंने सभी भाइय़ों के बन्दी बना लिया । इस तरह पुरन्दर के किले पर भी उनका अधिकार स्थआपित हो गया । अब तक की घटना में शिवाजी महाराज को कोई युद्ध या खूनखराबा नहीं करना पड़ा था । 147 इस्वी तक वे चाकन से लेकर नीरा तक के भूभाग के भी अधिपति बन चुके थे । अपनी बढ़ी सैनिक शक्ति के साथ शिवाजी महाराज ने मैदानी इलाकों में प्रवेश करने की योजना बनाई ।
एक अश्वारोही सेना का गठन कर शिवाजी महाराज ने आबाजी सोन्देर के नेतृत्व में कोंकण के विरूद्ध एक सेना भेजी । आबाजी ने कोंकण सहित नौ अन्य दुर्गों पर अधिकार कर लिया । इसके अलावा ताला, मोस्माला और रायटी के दुर्ग भी शिवाजी महाराज के अधीन आ गए थे । लूट की सारी सम्पत्ति रायगढ़ में सुरक्षित रखी गई । कल्याण के गवर्नर को मुक्त कर शिवाजी महाराज ने कोलाबा की ओर रुख किया और यहाँ के प्रमुखों को विदेशियों के खिलाफ़ युद्ध के लिए उकसाया ।Deepak Tyagi
[संपादित करें] शाहजी की बन्दी और युद्धविराम
बीजापुर का सुल्तान शिवाजी महाराज की हरकतों से पहले ही आक्रोश में था । उसने शिवाजी महाराज के पिता को बन्दी बनाने का आदेश दे दिया । शाहजी राजे उस समय कर्नाटक में थे और एक विश्वासघाती सहायक बाजी घोरपड़े द्वारा बन्दी बनाकर बीजापुर लाए गए । उनपर यह भी आरोप लगाया गया कि उन्होंने कुतुबशाह की सेवा प्राप्त करने की कोशिश की थी जो गोलकोंडा का शासक था और इस कारण आदिलशाह का शत्रु । बीजापुर के दो सरदारों की मध्यस्थता के बाद शाहाजी महाराज को इस शर्त पर मुक्त किया गया कि वे शिवाजी महाराज पर लगाम कसेंगे । अगले चार वर्षों तक शिवाजी महाराज ने बीजीपुर के ख़िलाफ कई आक्रमण नहीं किया । इस दौरान उन्होंने अपनी सेना संगठित की एक्।[संपादित करें] प्रभुता का विस्तार
[संपादित करें] मुगलों से पहली मुठभेड़
शिवाजी के बीजीपुर तथा मुगल दोनों शत्रु थे । उस समय शहज़ादा औरंगजेब दक्कन का सूबेदार था । इसी समय 1 नवम्बर, 1656 को बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह की मृत्यु हो गई जिसके बाद बीजापुर में आराजकता का माहौल पैदा हो गया । इस स्थिति का लाभ उठाकर औरंगजेब ने बीजापुर पर आक्रमण कर दिया । और् शिवाजी ने औरंगजेब का साथ देने की बजाय उसपर धावा बोल दिया । उनकी सेना ने जुन्नार नगर पर आक्रमण कर ढेर सारी सम्पत्ति के साथ 200 घोड़े लूट लिये । अहमदनगर से 700 घोड़े, चार हाथी के अलावा उन्होंने गुण्डा तथा रेसिन के दुर्ग पर भी लूटपाट मचाई । इसके परिणामस्वरूप औरंगजेव शिवाजी से खफ़ा हो गया और मैत्री वार्ता समाप्त हो गई । शाहजहाँ के आदेश पर औरंगजेब ने बीजापुर के साथ संधि कर ली और इसी समय शाहजहाँ बीमार पड़ गया । उसके व्याधिग्रस्त होते ही औरंगजेब उत्तरभारत चला गया और वहाँ शाहजहाँ को केद कर के बाद मुगल साम्राज्य का शाह बन गया ।[संपादित करें] कोंकण पर अधिकार
दक्षिण भारत में औरंगजेब की अनुपस्थिति और बीजापुर की डवाँडोल राजनैतिक स्थित को जान् कर शिवाजी ने समरजी को जंजीरा पर आक्रमण करने को कहा । पर जंजीरा के सिद्दियों के सथ उनकि लडाइ कए दिनो तक चलि । इसके बाद शिवाजी ने खुद जंजीरा पर आक्रमण किया और दक्षिण कोंकण पर अधिकार कर लिया और दमन के पुर्तगालियों से वार्षिक कर एकत्र किया । कल्य़ाण तथा भिवण्डी पर अधिकार करने के बाद वहाँ नौसैनिक अड्डा बना लिया । इस समय तक शिवाजी 40 दुर्गों के मालिक बन चुके थे ।[संपादित करें] बीजापुर से संघर्ष
इधर औरंगजेब के आगरा (उत्तर की ओर) लौट जाने के बाद बीजापुर के सुल्तान ने भी राहत की सांस ली । अब शिवाजी ही बीजापुर के सबसे प्रबल शत्रु रह गए थे । शाहजी को पहले ही अपने पुत्र को नियंत्रण में रखने को कहा गया था पर शाहजी ने इसमे अपनी असमर्थता जाहिर की । शिवाजी से निपटने के लिए बीजापुर के सुल्तान ने अब्दुल्लाह भटारी (अफ़ज़ल खाँ) को शिवाजी के विरूद्ध भेजा । अफ़जल ने 120000 सैनिकों के साथ 1659 में कूच किया । तुलजापुर के मन्दिरों को नष्ट करता हुआ वो सतारा के 30 किलोमीटर उत्तर वाई, शिरवल के नजदिक नामक स्थान तक आ गया । पर शिवाजी प्रतापगढ़ के दुर्ग पर हि रहे । अफजल खाँ ने अपने दूत कृष्णजी भास्कर को सन्धि-वार्ता के लिए भेजा । उसने उसके मार्फत ये संदेश भिजवाया कि अगर शिवाजी बीजापुर की अधीनता स्वीकार कर ले तों सुल्तान उसे उन सभी क्षेत्रों का अधिकार दे देंगे जो शिवाजी के नियंत्रण में हैं । साथ ही शिवाजी को बीजापुर के दरबार में एक सम्मानित पद प्राप्त होगा । हँलांकि शिवाजी के मंत्री और सलाहकार अस संधि के पक्ष मे थे पर शिवाजी को ये वार्ता रास नहीं आई । उन्होंने कृष्णजी भास्कर को उचित सम्मान देकर अपने दरबार में रख लिया और अपने दूत गोपीनीथ को वस्तुस्थिति का जायजा लेने अफजल खाँ के पास भेजा । गोपीनाथ और कृष्णजी भास्कर से शिवाजी को ऐसा लगा कि सन्धि का षडयंत्र रचकर अफजल खाँ शिवाजी को बन्दी बनाना चाहता है । अतः उन्होंने युद्ध को बदले अफजल खाँ को एक बहुमूल्य उपहार भेजा और इस तरह अफजल खाँ को सन्धि वार्ता के लिए राजी किया । सन्धि स्थल पर दोनों ने अपने सैनिक घात लगाकर रखे थे मिलने के स्तन पर जब दोनो मिले तब अफजल खन ने अपने कट्यार से शिवजि पे वार किया बचाव मे शिवाजी ने अफजल खाँ को अपने वस्त्रो वाघनखो से मार दिया [१० नवमबर १६५९]|अफजल खाँ की मृत्यु के बाद शिवाजी ने पन्हाला के दुर्ग पर अधिकार कर लिया । इसके बाद पवनगढ़ और वसंतगढ़ के दुर्गों पर अधिकार करने के साथ ही साथ उन्होंने रूस्तम खाँ के आक्रमण को विफल भी किया । इससे राजापुर तथा दावुल पर भी उनका कब्जा हो गया । अब बीजापुर में आतंक का माहैल पैदा हो गया और वहाँ के सामन्तों ने आपसी मतभेद भुलाकर शिवाजी पर आक्रमण करने का निश्चय किया । 2 अक्टूबर, 1665 को बीजापुरी सेना ने पन्हाला दुर्ग पर अधिकार कर लिया । शिवाजी संकट में फंस चुके थे पर रात्रि के अंधकार का लाभ उठाकर वे भागने में सफल रहे । बीजापुर के सुल्तान ने स्वयं कमान सम्हालकर पन्हाला, पवनगढ़ पर अपना अधिकार वापस ले लिया, राजापुर को लूट लिया और श्रृंगारगढ़ के प्रधान को मार डाला । इसी समय कर्नाटक में सिद्दीजौहर के विद्रोह के कारण बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी के साथ समझौता कर लिया । इस संधि में शिवाजी के पिता शाहजी ने मध्यस्थता का काम किया । सन् 1662 में हुई इस सन्धि के अनुसार शिवाजी को बीजापुर के सुल्तान द्वारा स्वतंत्र शासक की मान्यता मिली । इसी संधि के अनुसार उत्तर में कल्याण से लेकर दक्षिण में पोण्डा तक (250 किलोमीटर) का और पूर्व में इन्दापुर से लेकर पश्चिम में दावुल तक (150 किलोमीटर) का भूभाग शिवाजी के नियंत्रण में आ गया । शिवाजी की सेना में इस समय तक 30000 पैदल और 1000 घुड़सवार हो गए थे ।
[संपादित करें] मुगलों के साथ संघर्ष
उत्तर भारत में बादशाह बनने की होड़ खतम होने के बाद औरंगजेब का ध्यान दक्षिण की तरफ गया । वो शिवाजी की बढ़ती प्रभुता से परिचित था और उसने शिवाजी पर नियंत्रण रखने के उद्येश्य से अपने मामा शाइस्ता खाँ को दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया । शाइस्का खाँ अपने १,५०,००० फोज लेकर सूपन और चाकन के दुर्ग पर अधिकार कर पूना पहुँच गया । उसने ३ साल तक मावल मे लुटमार कि । एक रात शिवाजी ने अपने ३५० मवलो के साथ उनपर हमला कर दिया । शाइस्ता तो खिड़की के रास्ते बचनिकलने में कामयाब रहा पर उसे इसी क्रम में अपनी चार अंगुलियों से हाथ धोना पड़ा । शाइस्ता खाँ के पुत्र, तथा चालीस रक्षकों और अन्गिनत फोज का कत्ल कर दिया गया । इस घटना के बाद औरंगजेब ने शाइस्ता को दक्कन के बदले बंगाल का सूबेदार बना दिया और शाहजादा मुअज्जम शाइस्ता की जगह लेने भेजा गया ।[संपादित करें] सूरत में लूट
इस जीत से शिवाजी की प्रतिष्ठा में इजाफ़ा हुआ । 6 साल शास्ताखान ने अपनी १५०००० फोउज लेकर राजा शिवाजी का पुरा मुलुख जलाकर तबाह कर दिया था। ईस् लिए उस् का हर्जाना वसूल करने के लिये शिवाजी ने मुगल क्षेत्रों में लूटपाट मचाना आरंभ किया । सूरत उस समय पश्चिमी व्यापारियों का गढ़ था और हिन्दुस्तानी मुसलमानों के लिए हज पर जाने का द्वार । यह एक समृद्ध नगर था और इसका बंदरगाह बहुत महत्वपूर्ण था । शिवाजी ने चार हजार की सेना के साथ छः दिनों तक सूरत को के धनड्य व्यापारि को लूटा आम आदमि को नहि लुटा और फिर लौट गए । इस घटना का जिक्र डच तथा अंग्रेजों ने अपने लेखों में किया है । उस समय तक यूरोपीय व्यापारियों ने भारत तथा अऩ्य एशियाई देशों में बस गये थे । नादिर शाह के भारत पर आक्रमण करने तक (1739) किसी भी य़ूरोपीय शक्ति ने भारतीय मुगल साम्राज्य पर आक्रमण करने की नहीं सोची थी ।सूरत में शिवाजी की लूट से खिन्न होकर औरंगजेब ने इनायत खाँ के स्थान पर गयासुद्दीन खां को सूरत का फौजदार नियुक्त किया । और शहजादा मुअज्जम तथा उपसेनापति राजा जसवंत सिंह की जगह दिलेर खाँ और राजा जयसिंह की नियुक्ति की गई । राजा जयसिंह ने बीजापुर के सुल्तान, यूरोपीय शक्तियाँ तथा छोटे सामन्तों का सहयोग लेकर शिवाजी पर आक्रमण कर दिया । इस युद्ध में शिवाजी को हानि होने लगी और हार कीसम्भावना को देखते हुए शिवाजी ने सन्धि का प्रस्ताव भेजा । जून 1665 में हुई इस सन्धि के मुताबिक शिवाजी 23 दुर्ग मुगलों को दे देंगे और इस तरह उनके पास केवल 12 दुर्ग बच जाएंगे । इन 23 दुर्गों से होने वाली आमदनी 4 लाख हूण सालाना थी । बालाघाट और कोंकण के क्षेत्र शिवाजी को मिलेंगे पर उन्हें इसके बदले में 13 किस्तों में 40 लाख हूण अदा करने होंगे । इसके अलावा प्रतिवर्ष 5 लाख हूण का राजस्व भी वे देंगे । शिवाजी स्वयं औरंगजेब के दरबार में होने से मुक्त रहेंगे पर उनके पुत्र शम्भाजी को मुगल दरबार में खिदमत करनी होगी । बीजापुर के खिलाफ शिवाजी मुगलों का साथ देंगे ।
[संपादित करें] आगरा में आमंत्रण और पलायन
शिवाजी को आगरा बुलाया गया जहाँ उन्हें लगा कि उन्हें उचित सम्मान नहीं मिल रहा है । इसके खिलाफ उन्होने अपना रोश भरे दरबार में दिखाया और औरंगजेब पर विश्वासघात का आरोप लगाया । औरंगजेब इससे क्षुब्ध हुआ और उसने शिवाजी को नज़रकैद कर दिया और उनपर ५००० सेनिको के पहरे लगा दीय॥ कुछ ही दिनो बाद[१८ अगस्त १६६६ को] राजा शिवाजी को मार डालने का इरादा ओंरन्ग्जेब का था । लेकिन अपने अजोड साहस ओर युक्ति के साथ शिवाजी और सम्भाजी दोनों इससे भागने में सफल रहे[१७ अगस्त १६६६] । सम्भाजी को मथुरा में एक विश्वासी ब्राह्मण के यहाँ छोड़ शिवाजी बनारस, गया, पुरी होते हुए सकुशल राजगढ़ पहुँच गए [२ सप्टेम्बर १६६६] । इससे मराठों को नवजीवन सा मिल गया । औरंगजेब ने जयसिंह पर शक करके उसकी हत्या विष देकर करवा डाली । जसवंत सिंह के द्वारा पहल करने के बाद सन् 1668 में शिवाजी ने मुगलों के साथ दूसरी बार संधि की । औरंगजेब ने शिवाजी को राजा की मान्यता दी । शिवाजी के पुत्र शम्भाजी को 5000 की मनसबदारी मिली और शिवाजी को पूना, चाकन और सूपा का जिला लौटा दिया गया । पर, सिंहगढ़ और पुरन्दर पर मुगलों का अधिपत्य बना रहा ।सन् 1670 में सूरत नगर को दूसरी बार शिवाजी ने लूटा । नगर से 132 लाख की सम्पत्ति शिवाजी के हाथ लगी और लौटते वक्त उन्होंने मुगल सेना को सूरत के पास फिर से हराया ।
[संपादित करें] राज्याभिषेक
सन् १६७४ तक शिवाजी ने उन सारे प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था जो पुरन्दर की संधि के अन्तर्गत उन्हें मुगलों को देने पड़े थे ।६ जून १६७४ को शिवाजी ने शास्त्रानुसार अपना राज्याभिषेक करवाया । विभिन्न राज्यों के दूतों, प्रतिनिधियों के अलावा विदेशी व्यापारियों को भी इस समारोह में आमंत्रित किया गया । शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि ग्रहण की । काशी के पण्डित विशेश्वर जी भट्ट को इसमें विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था । पर उनके राज्याभिषेक के 12 दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया । इस कारण से 4 अक्टूबर 1674 को दूसरी बार उनका राज्याभिषेक हुआ । दो बार हुए इस समारोह में लघभग 50 लाख रुपये खर्च हुए । इस समारोह में हिन्दू स्वराज की स्थापना का उद्घोष किया गया था । विजयनगर के पतन के बाद दक्षिण में यह पहला हिन्दू साम्राज्य था । एक स्वतंत्र शासक की तरह उस्ने अपने नामका सिक्का चलवाया ।इसके बाद बीजापुर के सुल्तान ने कोंकण विजय के लिए अपने दो सेनाधीशों को शिवाजी के विरूद्ध भेजा पर वे असफल रहे ।
[संपादित करें] दक्षिण में दिग्विजय
सन् 1677-78 में शिवाजी का ध्यान कर्नाटक की ओर गया । बम्बई के दक्षिण मे कोंकण, तुङभद्रा नदी के पश्चिम में बेलगाँव तथा धारवाड़ का क्षेत्र, मैसूर, वैलारी, त्रिचूर तथा जिंजी पर अधिकार करने के बाद 4 अप्रैल, 1680 को शिवाजी का देहांत हो गया ।[संपादित करें] मृत्यु और उत्तराधिकार
तीन सप्ताह की बीमारी के बाद शिवाजी की मृत्यु अप्रैल 1680 में हुई । उस समय शिवाजी के उत्तराधिकार शम्भाजी को मिले। शिवाजी के ज्येष्ठ पुत्र शम्भाजी थे और दूसी पत्नी से राजाराम नाम एक दूसरा पुत्र था । उस समय राजाराम की उम्र मात्र 10 वर्ष थी अतः मराठों ने शम्भाजी को राजा मान लिया । उसि समय औरंगजेब राजा शिवजि का देहान्त देखकर अपनी पुरे भारत पर राज्य करने कि अभिलाशा से अपनी ५,००,००० सेना सागर लेकर दक्शिन भारत जीतने निकला । औरंगजेबने दक्शिन मे आतेही अदिल्शाहि २ दिनो मे ओर कुतुबशहि १ हि दिनो मे खतम कर दी । पर राजा सम्भाजी के नेत्रुत्व मे मराठाओने ९ साल युद्ध करते हुये अपनी स्वतन्त्रता बरकरार रखी । औरंगजेब के पुत्र शहजादा अकबर ने औरंगजेब के खिलाफ विद्रोह कर दिया । शम्भाजी ने उसको अपने यहाँ शरण दी । औरंगजेब ने अब फिर जोरदार तरिकेसे शम्भाजी के खिलाफ आक्रमण करना शुरु किया । उसने अंततः 1689 में फितुरी से शम्बाजी को मुकरव खाँ द्वारा बन्दी बना लिया । औरंगजेब ने राजा सम्भाजी को बदसुलुकि ओउर बुरी हाल कर के मार दिया । अपनी राजा को औरंगजेब ने बदसुलुकि ओउर बुरी हाल मारा हुआ देखकर सबी मराठा स्वराज्य क्रोधीत हुआ । उन्होने अपनी पुरी ताकद से तीसरा राजा राम के नेत्रुत्व मे मुगलों से संघर्ष जारी रखा ।1700 इस्वी में राजाराम की मृत्यु हो गई । उसके बाद राजाराम की पत्नी ताराबाई ने 4 वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय की संरक्षिका बनकर राज करती रही । आखिरकार २५ साल मराठा स्वराज्य के यूदध लडके थके हुये औरंगजेब की उसी छ्त्रपती शिवाजी के स्वराज्य मे दफन हुये ।[संपादित करें] शासन और व्यक्तित्व
शिवाजी को एक कुशल और प्रबुद्ध सम्राट के रूप में जाना जाता है हँलांकि उसे अपने बचपन में पारम्परिक शिक्षा कुछ खास नहीं मिली थी । पर वह् भारतीय इतिहास और राजनीति से वाकिफ़ था । उस्ने शुक्राचार्य तथा कौटिल्य को आदर्श मानकर कूटनीति का सहारा लेना कई बार उचित समझा था । अपने समकालीन मुगलों की तरह वह् भी निरंकुश शासक थ, अर्थात शासन की समूची बागडोर राजा के हाथ में ही थी । पर उस्के प्रशासकीय कार्यों में मदद के लिए आठ मंत्रियों की एक परिषद थी जिन्हें अष्टप्रधान कहा जाता था । इसमें मंत्रियों के प्रधान को पेशवा कहते थे जो राजा के बाद सबसे प्रमुख हस्ती था । अमात्य वित्त और राजस्व के कार्यों को देखता था तो मंत्री राजा की व्यक्तिगत दैनन्दिनी का खयाल रखाता था । सचिव दफ़ातरी काम करते थे जिसमे शाही मुहर लगाना और सन्धि पत्रों का आलेख तैयार करना शामिल होते थे । सुमन्त विदेश मंत्री था । सेना के प्रधान को सेनापति कहते थे । दान और धार्मिक मामलों के प्रमुख को पण्डितराव कहते थे । न्यायाधीश न्यायिक मामलों का प्रधान था ।मराठा साम्राज्य तीन या चार विभागों में विभक्त था । प्रत्येक प्रान्त में एक सूबेदार था जिसे प्रान्तपति कहा जाता था । हरेक सूबेदार के पास भी एक अष्टप्रधान समिति होती थी । कुछ प्रान्त केवल करदाता थे और प्रसासन के मामले में स्वतंत्र । न्यायव्यवस्था प्राचीन पद्धति पर आधारित थी । शुक्राचार्य, कौटिल्य और हिन्दू धर्म शास्त्रों को आधार मानकर निर्णय दिया जाता था । गाँव के पटेल फौजदारी मुकदमों की जाँच करते थे । राज्य की आय का साधन भूमिकर था पर चौथ और सरदेशमुखी से भी राजस्व वसूला जाता था । चौथ पड़ोसी राज्यों की सुरक्षा की गारंटी के लिया वसूलेजाने वाला कर था । शिवाजी अपने को मराठों का सरदेशमुख कहता थ और इसी हैसियत से सरदेशमुखी कर वसूला जाता था ।
[संपादित करें] धार्मिक नीति
शिवाजी एक समर्पित कत्तर हिन्दु था पर वह् धार्मिक सहिष्णुता के पक्षपाती भी थे । उस्के साम्राज्य में मुसलमानों को धार्मिक स्वतंत्रता थी और मुसलमानों को धर्मपरिवर्तन के लिेए विवश नहीं किया जाता था । कई मस्जिदों के निर्माण के लिए शिवाजी ने अनुदान दिया । हिन्दू पण्डितों की तरह मुसलमान सन्तों और फ़कीरों को भी सम्मान प्राप्त था । उस्कि सेना में मुसलमानों की संख्या अधिक थी । पर वह् हिन्दू धर्म का संरक्षक था । पारम्परिक हिन्दू मूल्यों तथा शिक्षा पर बल दिया जाता था । वह् अपने अभियानों का आरंभ भी अक्सर दशहरा के मौके पर करते थे[संपादित करें] चरित्र
शिवाजी महाराज को अपने पिता से स्वराज कि शिक्शा ही मिली जब बीजापुर के सुल्तान ने शाहजी राजे को बन्दी बना लिया तो एक आदर्श पुत्र ती तरह उस्ने बीजापुर के शाह से सन्धि कर शाहजी राजे को छुड़वा लिया । इससे उनके चरित्र में एक उदार अवयव ऩजर आता है । उसेक बाद उन्होने पिता की हत्या नहीं करवाई जैसाकि अन्य सम्राट किया करते थे । शाहजी राजे के मरने के बाद ही उन्होने अपना राज्याभिषेक करवाया हँलांकि वो उस समय तक अपने पिता से स्वतंत्र होकर एक बड़े साम्राज्य के अधिपति हो गये थे । उनके नेतृत्व को सब लोग स्वीकार करते थे यही कारण है कि उनके शासनकाल में कोई आन्तरिक विद्रोह जैसी प्रमुख घटना नहीं हुई थी ।वह् एक अच्छे सेनानायक के साथ एक अछा कूटनीतिज्ञ भी था । कई जगहों पर उन्होने सीधे युद्ध लड़ने की बजाय भग लिया था । लेकिन येही उनकी कुट निती थी, जो हर बार बडेसे बडे शत्रुको मात देनेमे उनका साथ देती रही।
शिवाजी महाराज की "गनिमी कावा" नामक कुट निती, जिसमे शत्रुपर अचानक आक्रमण करके उसे हराया जाता है, विलोभनियतासे और आदरसहित याद किया जाता है।
शिवाजी महाराज के गौरव मे ये पन्क्तियान लिख गई है :-
"शिवरायांचे आठवावे स्वरुप । शिवरायांचा आठवावा साक्षेप । शिवरायांचा आठवावा प्रताप । भूमंडळी ॥"
[संपादित करें] वाह्य सूत्र
- छत्रपति शिवाजी
- छत्रपति शिवाजी महाराज
- A blog dedicated to Shivashahir Babasaheb Purandare's Shivacharitra.
- Some forts captured and ruled by Shivaji
- Mouni Maharaj Guru of Raje Shivaji
- छत्रपति शिवाजी
- Marathi Powade-Shivaji's Life Instances Drama online
- शिवाजी की नौसैनिक परम्परा
- आधुनिक भारत का एक नायक -फ्रांसुआ गौशिये (May 05, 2008)
- राष्ट्रहित में थीं शिवाजी की नीतियाँ (वेबदुनिया)
- छत्रपति शिवाजी पर जालस्थल
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