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हिंदी की दशा और दिशा
यह वक्तव्य उतना ही प्रामाणिक सत्य है
जितना कि यह कथन कि भाषा अपनी बात सामने रखने का माध्यम मात्र नहीं होती,
बल्कि वह किसी भी समाज, संस्कृति तथा राष्ट्र का संस्कार भी होती है। आज
हिंदी भाषा किसी प्रचार का मोहताज नहीं। राजभाषा का सम्मान पाने वाली इस
भाषा का अध्ययन और अध्यापन विश्व के तमाम बड़े देशों में सुचारु रुप से हो
रहा है। हिंदी भाषा स्वाभिमान का ही प्रतीक नहीं है अपनी वैज्ञानिक लिपि और
पारिभाषिक शब्दावली के कारण वह आज बेहद प्रासंगिक और सारगर्भित भी है।
हिंदी में सभी प्रकार के तकनीकी विषयों पर
लाखों शब्द बन चुके हैं जिनका संग्रह विषयनुसार भारत सरकार के केंद्रीय
हिंदी निदेशालय द्वारा प्रकाशित किया जा चुका है। प्रत्यय औऱ उपसर्ग नाम के
दो हथियार हिंदी भाषा को निरंतर समृद्ध बनाने में जुटे हुए हैं। हिंदी
भाषा में यह अदभूत क्षमता है कि वह जीवन जगत के विभिन्न क्षेत्रों के
विभिन्न प्रयोजनों को पूर्णता: सिद्ध करती है।
जिस भाषा में अभिव्यक्ति को सक्षम बनाने
एवं शब्द भंडार को समृद्ध करने के लिए अन्य भाषाओं के शब्दों को आत्मसात
करने की क्षमता होती है उसकी प्रयोगात्मक उपयोगिता सदैव बनी रहती है। फिर
चाहे वह प्रशासन हो, संचार माध्यम हों, शिक्षण संस्थान हों या विज्ञान-सभी
क्षेत्रों में उसकी उपादेयता सिद्ध होती है। जो समाज जितना विकसित होगा उस
समाज की भाषा भी उतनी समृद्ध होगी। वह भाषा शिक्षा का माध्यम होगी,
प्रशासन की भाषा बनेगी तथा उस भाषा के माध्यम से आधुनिक यांत्रिक उपकरणों
पर कार्य संभव हो सकेगा।
प्रशासनिक क्षेत्र में हिंदी से हमारा
अभिप्राय है सरकारी तथा गैर सरकारी (सार्वजनिक क्षेत्रों में) विभिन्न
भाग-अनुभाग कार्यालयों में प्रयुक्त हिंदी से। आज़ादी के बाद जो पहली पहल
भाषा को लेकर हुई थी उसी का परिणाम है कि स्वाधीन भारत की राजभाषा का गौरव
हिंदी को प्राप्त हुआ। कामकाज की पद्धति चूंकि अंग्रेजीमय रही इसलिए
कार्यालयों में हिंदी के प्रयोग के लिए अनुवाद पद्धति को भी अपनाया गया।
चूंकि प्रशासन में प्रयुक्त होने वाली तकनीकी शब्दावली मौजूद है अत: एक
विशेष प्रकार की वाक्य संरचना जो व्यवहार जगत से थोड़ी भिन्न है प्रशासन के
क्षेत्र में दिखाई पड़ी। उदाहरण—इस विशेष कार्य के लिए निदेश प्राप्त हुआ
–पावती प्राप्त हुई
–उचित कार्यवाई विचाराधीन है
इन तकनीकी शब्दों को आम बोलचाल में प्राय: नहीं देखा जाता। जैसे निदेश, पावती, कार्यवाई, विचाराधीन इत्यादी।
संचार माध्यमों में विशेष रुप से अखबार,
रेडियो औऱ टेलीविजन में भी हिंदी भाषा के प्रयोजनमूलक रुप का पर्याप्त
योगदान मिलता है। विज्ञान की तरक्की के साथ-साथ सूचना और संचार जगत में भी
अभूतपूर्व क्रांति आई है। वस्तुत: आज के युग को संचार युग भी कह लें तो कोई
अतिशयोक्ति नहीं होगी। चूंकि संचार ही जीवन है। लोगों से आपसी
आदान-प्रदान, क्रिया-प्रतिक्रिया का एकमात्र सुलभ साधन है अत: लोक प्रचलन
की दृष्टि से संचार माध्यमों की हिंदी भाषा और उसके व्यवहार पर भी खूब
चर्चा होती रही है।
पत्र-पत्रिकाओं की भाषा सैद्धांतिक और
व्याकरणिक रुप से शुद्ध और सर्व स्वीकृत होती है। अत: क्लिष्ट होने का भय
बना रहता है। जबकि रेडियो, टेलीविजन की भाषा आम बोलचाल के अधिक समीप,
व्यावहारिक या कह लें ग्लोबल होती है। अत: जन सामान्य के सहज औऱ सरल भी।
प्रिंट औऱ इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों की व्यवहार शैली में भिन्नता होने
के कारण भी भाषाई रंग-रूप में पर्याप्त भिन्नता दिखलाई पड़ती है। जहां
पत्र-पत्रिकाओं में लंबे-लंबे वाक्य अपनी जटिल व्याकरणिक संरचना में दिखाई
देते हैं वहीं रेडियो टेलीविजन में छोटे-छोटे चुटीले सरल अर्थ व्यंजक
पारदर्शी शब्दों से काम चलाना पड़ता है। कहने का भाव यह है कि संचार
माध्यमों की भाषा में माध्यम के स्वरुप की वजह से परिवर्तन आ जाता है।
शिक्षण जगत में हिंदी का सैद्धांतिक और
व्यावहारिक रुप देखने को मिलता है। साहित्य, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र,
अर्थशास्त्र, इतिहास, भूगोल आदि वे विषय हैं जिनकी शब्दावलियों, संकल्पनाओं
और विचारधाराओं में पर्याप्त भिन्नता होने के कारण हिंदी भाषा भिन्न-भिन्न
रुपों में अपने भीतर विशिष्ट अर्थ समाहित किए होती है। जैसे—
राष्ट्र शब्द जब राष्ट्रीय बनता है तो
अच्छे अर्थ में प्रयुक्त होकर साहित्य की शोभा बढ़ाता है। जिसका तात्पर्य
देश प्रेम, निर्माणकारी, राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत विकासपरक है। किंतु
उसी राष्ट्र शब्द को यदि वाद से जोड़ दिया जाए तो राष्ट्रवाद बनकर वह अंध
राष्ट्रभक्ति, अन्य राष्ट्र को अपने राष्ट्र से हेय मानने की प्रवृत्ति का
सूचक बन जाता है।
राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र के शिक्षण
में भी हिंदी भाषा अपने अपेक्षितद संकेतों, प्रतीकों और पारिभाषिक
शब्दावलियों की सहायता से भूमिका निभाती है। विभिन्न समाजशास्त्री विषयों
में प्राय: सामान्य हिंदी का ही प्रयोग दिखाई देता है। वस्तुत: भाषा का
अर्थबोध और अभिव्यक्ति शैली किसी क्षेत्र विशेष की जरूरतों की देन है। अत:
उसमें परिवर्तन और नई संभावनाओं के लिए भी गुंजाइश रहती है।
विशिष्ट ज्ञान की दिशा में भारत की पैठ
बहुत पुरानी है। प्राचीन काल में आध्यात्मिक रुप से ऋषि-मनीषी प्रकृति की
सत्ता की तह में प्रवेश कर के उसके मूल रुप का साक्षात करने कराने का
प्रयत्न करते थे। यह ‘विज्ञान’ का भौतिक रुप था जो धीरे-धीरे आयुर्वेद
इंजीनियरिंग, वस्तुकला, मूर्ति कला से विकसित होता हुआ रसायन, भौतिकी,
वनस्पति, चिकित्सा विज्ञान औऱ कंप्युटर विज्ञान में बंटता गया। चूंकि
वैज्ञानिक भाषा का स्वरुप आमतौर पर विवरणात्मक होता है। इसमें प्रत्येक
व्यक्ति, वस्तु और विषय के बारे में पर्याप्त सूचना एकत्रित करना, उसकी
जांच पड़ताल और एक निश्चित उदेश्य तक पहुंचाना होता है।
आधुनिक युग में तकनीकी भाषा के माध्यम से
वैज्ञानिक हिंदी की वाक्य संरचना का विकास हुआ। चूंकि हिंदी में वैज्ञानिक
ज्ञान अनुवाद के द्वारा आया है अत: वैज्ञानिक हिंदी की वाक्य संरचना पर
अंग्रेजी वाक्य रचना का प्रभाव स्पष्टत: दिखलाई पड़ता है। भाषा और विज्ञान
का संबंध अटूट है। जहां विज्ञान तथ्य की खोज करता है भाषा उस तथ्य की
अभिव्यक्ति करती है। अत: वैज्ञानिक उपलब्धियों को सामान्य जन तक पहुंचाने
के लिए उसका हिंदी भाषा में अनुवाद आवश्यक है। केवल शब्दानुवाद से काम नहीं
चलेगा। विज्ञान के विकास के साथ-साथ शब्दों का विकास भी करना होगा। विश्व
से जुड़ने के लिए अभी कई नए वैज्ञानिक शब्द भी गढ़ने पड़ेंगे।
हिंदी भाषा की प्रयोगात्मक उपयोगिता बनी
रही, इसके लिए अंतराष्ट्रीय शब्दावली के अतिरिक्त साहित्य में उपलब्ध
शब्दों को ग्रहण करके विभिन्न भारतीय भाषाओं और बोलियों में पाए जाने वाले
उपयुक्त शब्दों को स्वीकारना होगा। चूंकि हिंदी उदार और समृद्ध भाषा है अत:
विदेशी शब्दावली को ज्यों का त्यों आत्मसात करने में कोई बुराई नहीं है।
जैसे हमने यूरेनियम और रेडियम को अपना लिया है।
उदाहरण—ऑक्सीजन और हाईड्रोजन को नियत अनुपात में मिलाने से पानी बनता है।
चूंकि तकनीकी वैज्ञानिक शब्दावली
पारिभाषिक शब्दावली की सहायता से निर्मित है अत: हिंदी की जननी संस्कृत
विज्ञान की वाक्य संरचना में परिनिष्ठित रुप में दिखाई देती है।
जैसे—विखंडन, उत्सर्जन, ऊर्जा, विद्युतदर्शी, श्रृंखला, अभिक्रिया आदि। हम
कह सकते हैं कि विज्ञान के क्षेत्र में हिंदी का अभिधात्मक रुप उसे
सार्वभौमिक और एकार्थी बनाता है। साथ ही साथ विशिष्ट भाषा का स्वरुप भी
अपने संकेतों, चिन्हों में दिखाई देता है। तमाम उठा-पटक से यही सिद्ध होता
है कि हिंदी की संभावना अपरिमित है तथा इसकी शब्द संपदा और वैज्ञानिक
तकनीकी शब्दावली पर्याप्त संपन्न है। अपने सतत प्रयासों से हिंदी अनंत शब्द
भंडार अर्जित करने में सफल हो इसी शुभेच्छा के साथ——–
सुधा उपाध्याय
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