Saturday, October 8, 2011

 प्रजातंत्र के नाम पर चीरहरण




भारत ने पिछले दो दशकों में जिस ऊर्जा के साथ विकास किया है, सराहनीय है. लेकिन इस विकास का एक काला पक्ष भी है, जिसे न तो मीडिया देखना चाहता है और न ही देश का मध्यम वर्ग. इस विकास यात्रा के दौरान ग़रीबों की संख्या बढ़ती चली गई. भारत में विश्व के 25 फीसदी ग़रीब लोग थे और आज यह प्रतिशत 39 हो गया है. विकास तो हुआ, लेकिन एक बहुत छोटे तबके का और जनता ग़रीब होती चली गई. दूसरे देशों ने भी तरक्की की, लेकिन वहां कहानी इतनी दु:खद नहीं है. चीन और ब्राज़ील में ग़रीबी घटी और विकास के साथ आम जनता को भी फायदा हुआ. भारत की ग़रीबी रेखा यदि 1770 कैलोरी मान ली जाए (जो पहले शहरों के लिए 2100 और गांवों के लिए 2400 कैलोरी थी) तो भी तेंदुलकर कमीशन के अनुसार, भारत की ग़रीबी दर 37 फीसदी आंकी जा सकती है. एन सी सक्सेना की रिपोर्ट इस संख्या को और भी अधिक आंकती है. उसके अनुसार, भारत की 50 फीसदी जनता अति ग़रीब है. लगातार बढ़ती ग़रीबी ने भारत के राज्य तंत्र पर सवालिया निशान लगा दिया है.
भारत में रोज़गार बस एक फ़ीसदी की दर से बढ़ा है और उत्पादन सात से आठ फ़ीसदी की दर से. सार्वजनिक क्षेत्र में तंत्र सुधार के नाम पर बड़े पैमाने पर मजदूरों की छंटनी हुई, उसे निजी क्षेत्र में व्यवस्थित नहीं किया जा सका. संगठित क्षेत्र में नियमित रोज़गार न होने की वजह से अधिकतर कामगार असंगठित क्षेत्र में चले गए, जहां आय बहुत कम है. भारत ने अपनी आर्थिक नीतियों को गरीब विरोधी आईएमएफ और डब्लूटीओ के अनुरूप ढाल दिया.
जब यूरोप में दूसरे विश्व युद्ध के बाद प्रजातंत्र की लहर आई तो वहां के लोगों की प्रति व्यक्ति आय 2 हज़ार डॉलर थी (1991 की कीमत के पैमाने पर). भारत ने जब लोकतंत्र की अपनी यात्रा शुरू की तो देश के लोगों की प्रति व्यक्ति आय यूरोप के आंकड़े का पांचवां हिस्सा थी. भारत की यात्रा लंबी रही और बहुत अलग भी, लेकिन भारतीय राज्य तंत्र की सबसे बड़ी नाकामी रही देश से भुखमरी और ग़रीबी न हटा पाना. ऐसा नहीं कि देश के संविधान रचने वालों को इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि ऐसा हो सकता है. इसीलिए उन्होंने समाजवाद को संविधान में जगह दी और कहा कि देश को इसके लिए काम करना होगा, लेकिन आज प्रजातांत्रिक तरीक़े से चुनी हुई सरकारों ने अपने राजनीतिक कर्तव्यों को छोड़कर देशवासियों को बाज़ार के हवाले करने का फैसला कर लिया है. एक मरीचिका फैलाई गई कि जो काम सरकार ग़रीबों के प्रति नहीं कर पाई, वह काम बाज़ारवाद करेगा और चुनिंदा पूंजीवादियों की बदौलत जो अर्थव्यवस्था फल-फूल रही है, उसका फायदा ग़रीबों तक भी पहुंचेगा, लेकिन ऐसा तो होना ही नहीं था.
राज्य बाज़ार के नियम कि अमीर ग़रीब से ज्यादा बलवान होता है, और प्रजातंत्र के नियम कि हर व्यक्ति एक वोट होता है, के बीच मध्यस्थ होता है. लेकिन भारतीय प्रजातंत्र ने अपनी इस ज़िम्मेदारी को छोड़ दिया है. बड़ी-बड़ी कंपनियां आज मशीनीकरण को बढ़ावा देती हैं, ताकि मजदूरों और कामगारों को उत्पादन तंत्र से कम किया या हटाया जा सके. इस वजह से बेरोज़गारी फैलती जा रही है. इस बात का सबसे बड़ा सबूत है कि भारत में रोज़गार बस एक फ़ीसदी की दर से बढ़ा है और उत्पादन सात से आठ फ़ीसदी की दर से. सार्वजनिक क्षेत्र में तंत्र सुधार के नाम पर बड़े पैमाने पर मजदूरों की छंटनी हुई, उसे निजी क्षेत्र में व्यवस्थित नहीं किया जा सका. संगठित क्षेत्र में नियमित रोज़गार न होने की वजह से अधिकतर कामगार असंगठित क्षेत्र में चले गए, जहां आय बहुत कम है. भारत ने अपनी आर्थिक नीतियों को गरीब विरोधी आईएमएफ और डब्लूटीओ के अनुरूप ढाल दिया. हम एक ऐसे प्रजातंत्र में रहते हैं, जो यह सोचता है कि जो काम राज्य नहीं कर पाता, उसे निजी हाथों में दे दिया जाए. वह अपनी राजनीतिक अक्षमता और विफलता को छुपाना चाहता है और चाहता है कि जनता यह मान ले कि बाज़ार की आर्थिक सफलता देश की समस्याओं से निपट लेगी.
पूंजीवादी व्यवस्था ने ग़रीबों और देश के संसाधनों के दोहन का एक नया रास्ता खोला, जिसे एसईजेड और खनन का नाम दिया गया. इसका सबसे बड़ा पहलू है भूमि अधिग्रहण. आदिवासियों और किसानों की ज़मीन ज़बरदस्ती छीनी जा रही है. उड़ीसा में 84.5 फीसदी लोग ग़रीब हैं, जो भारतीय औसत से कहीं अधिक है. इसके विपरीत 1993-1994 से लेकर 2004-05 के बीच उत्खनन किए गए लोहे की कीमत में दस गुना, बाक्साइट और क्रोमाइट की कीमत में दो गुना और कोयले की कीमत में तीन गुना इजा़फा हुआ. देश की प्राकृतिक और खनिज संपदा में सबसे संपन्न तीन राज्यों में 86 फीसदी ज़िले झारखंड में, 90 फीसदी ज़िले उड़ीसा और 94 फीसदी जिले छत्तीसगढ़ में हैं, जो देश के सबसे ग़रीब ज़िलों में आते हैं. मधु कोड़ा ने दो साल से भी कम समय में 4 हज़ार करोड़ रुपये कमा लिए. कर्नाटक में रेड्डी बंधुओं ने सोचा कि बिचौलियों का काम करने से क्या फायदा, इसलिए वे खुद लोहे के खनन में लग गए. उद्योगपतियों को नाना प्रकार की सुविधाए दी जाती हैं. उन्हें देश की प्राकृतिक धरोहर से लैस ज़मीनें दी जाती हैं और उन पर यह दायित्व नहीं डाला जाता कि वे अपने उत्पादन को भारत में बेचें. एसईजेड देश के भीतर एक ऐसे देश के रूप में उभरा है कि उसे घरेलू उद्योगों की सीमा से बाहर  रख दिया गया है. उपनिवेशवाद को परंपरागत ढंग से प्राकृतिक संपदा और संसाधनों की लड़ाई माना जाता है, लेकिन यह परिभाषा भारत के भीतर बदल सी गई है. अब देश में आंतरिक उपनिवेशवाद चल रहा है.
(लेखक जेएनयू के अवकाशप्राप्त प्रोफेसर हैं)

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