वैविध्यपूर्ण सांस्कृतिक स्थलों, विशिष्ट पुरातात्विक धरोहरों की नगरी होने के बावजूद उत्तर प्रदेश पुरातत्व विभाग एवं राज्य सरकार के अड़ियल और उदासीन रवैये के कारण अपनी विरासत को ज़मींदोज़ होते देख रहा है. सतयुग से लेकर कलयुग तक के इतिहास के साक्षी अनेक स्थलों की हालत दिनोंदिन बिगड़ती जा रही है. इन ऐतिहासिक धरोहरों पर अतिक्रमण की भरमार है. दरवाजे, परकोटे और क़ीमती पत्थर हजम किए जा चुके हैं. दास्तान-ए-बदहाली राजधानी लखनऊ से ललितपुर तक एक जैसी है. लखनऊ का ऐतिहासिक सतखंडा भवन अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है. बिठूर के गुप्तकालीन भीतरगांव मंदिर पर लगातार ख़तरा मंडरा रहा है. अयोध्या में हनुमान गढ़ी सहित अनेक ऐतिहासिक मंदिर और इमारतें लम्हा-लम्हा क्षरण की शिकार हो रही हैं. फैज़ाबाद में बहू बेगम के मकबरे का ऐतिहासिक द्वार क़ब्ज़े का शिकार हो गया है. मिर्ज़ापुर में चुनार का किला चंद्रकांता के रहस्यमय घटनाक्रम का साझी है. इस किले पर तस्करों की नज़र लगी हुई है. वाराणसी शक्ति नगर मार्ग पर अहेरोरा से 7 किलोमीटर दक्षिण में स्थित विंध्य पर्वत घाटी के लखनीयादरी नामक स्थान पर हज़ारों वर्ष पूर्व के भित्तिचित्र रखरखाव के अभाव में नष्ट हो रहे हैं. लखीमपुर खीरी जनपद की मोहम्मदी तहसील में राजा विराट के समय की धरोहरों एवं पुराअवशेषों को संजोने की फिक्र न सरकार को है और न पुरातत्व विभाग को.
एक जमाने में सभी दरवाजों के ऊपर एक ताम्रपात लगा रहता था, जिसमें पूरा विवरण होता था यह ताम्रपात तीन इंच मोटा और एक फुट लंबा हुआ करता था. बड़ागांव दरवाजे पर लगे ताम्रपात के प्रत्यक्षदर्शी आज भी जीवित हैं, लेकिन यह ताम्रपात कुछ वर्षों पहले रातोरात चोरी हो गया.
हमीरपुर जनपद के मौदहा क़स्बे में स्थित तेरहवीं शताब्दी की दरगाह रखरखाव के अभाव में नष्ट होने की कगार पर है. श्रावस्ती में बौद्ध धर्म के भग्नावशेष खंडहर में तब्दील हो रहे हैं. मसूद गाजी का जंजीरी गेट, प्राचीन जैन मंदिर, लखीमपुर खीरी में 10वीं शताब्दी का खैरीगढ़ किला, तांत्रिक विधि से बना ओपल मेढ़क मंदिर, शाहजहांपुर में जमदग्नि ऋृषि का आश्रम एवं राजधानी से लगा बख्शी का तालाब मुगल-भारतीय स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने हैं. कन्नौज में 13वीं सदी का अन्नपूर्णा मंदिर, आजमगढ़ में भैरव जी, दुर्वासा ऋषि का आश्रम, वाराह रूप मंदिर, आंवक ग्राम में मिले भग्नावशेष, जौनपुर का शाही किला, अटाला मस्जिद, चंदौली का रामनगर किला, बलिया का भृगु मंदिर, सोनभद्र का विजयगढ़ किला, सीतापुर के बोहरबीरम का प्राचीन मंदिर, जालौन के रामपुरा की गढ़ी, कालपी की लंका एवं चौरासी गुंबद, मेरठ का लाक्षागृह, वाराणसी के अनेक प्राचीन मंदिर, कौशांबी और इलाहाबाद के अनेक ऐतिहासिक स्थल घोर उपेक्षा के शिकार हैं. हज़ारों साल का इतिहास ख़ुद में समेटे कालिंजर के किले, ललितपुर के दस्ताऔतार मंदिर, बरुवा सागर किला, महोबा, लखनऊ के रूमी दरवाजे और भूलभुलइया जैसे कुछ स्थलों के संरक्षण हेतु एएसआई की अनूठी पहल सदैव याद की जाती रहेगी. लेकिन जितनी ऐतिहासिक विरासत प्रदेश की सरजमीं पर मौजूद है, उसके संरक्षण के लिए एएसआई के प्रयास अपर्याप्त हैं.
संस्कृति विभाग के तहत आने वाले बांदा के छत्रसाल एवं देवगढ़ संग्रहालय में ताला जड़ा है. फैज़ाबाद में तो हद हो गई है. अवधकालीन धरोहर बहू बेगम के मकबरे के रूप-रंग को मनमाने ढंग से बदला जा रहा है. मकबरे का ऐतिहासिक द्वार बंद कर दिया गया है. उसके बाहर स्थित जगह को किराए पर उठाकर मुतबल्ली मज़े कर रहे हैं. अभी तक मकबरे से होने वाली आय को बैंक में रखने के लिए खाता नहीं खोला जा सका. ग़ौरतलब है कि नवाब शुजाउद्दौला की पत्नी इम्मतुल जोहरा (बहू बेगम) के मकबरे का निर्माण 1825 में किया गया था. मकबरे तक पहुंचने के लिए तीन भव्य प्रवेश द्वार बनाए गए थे. उत्तरी दिशा में निर्मित प्रवेश द्वार को क़ब्ज़ेदारों ने अवैध निर्माण करके बंद कर दिया है. उत्तर-पूर्व और पश्चिम के मकबरे की भूमि पर अवैध निर्माण जारी है.
रानी लक्ष्मीबाई के किले और महाराजा गंगाधर राव की समाधि को छोड़ दूसरे सभी स्थल दयनीय हालत में हैं. चाहे वह हाथीखाना, आंतिया तालाब हो या लक्ष्मी ताल, सबके सब उपेक्षित पड़े हैं. पर्यटक जब झांसी पहुंचते हैं तो उन्हें रानी झांसी के किले की दीवारों और रानी महल को देखकर ही संतोष करना पड़ता है. रानी की अन्य कोई भी वस्तु या उनके शासन से संबंधित दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं है. रानी की तलवार, ध्वज और राजमुद्रा जैसी कोई वस्तु अथवा साहित्य तक झांसी में नहीं है. आज हालत यह है कि सभी परकोटों पर अतिक्रमण हो चुका है, ऐतिहासिक महत्व के मोटे-मोटे दरवाजे लोग टुकड़े-टुकड़े करके उठा ले गए. उनका लोहा और लकड़ी लाखों रुपये में बेच दिया गया और पुरातत्व विभाग को ख़बर तक नहीं हुई.
एक जमाने में सभी दरवाजों के ऊपर एक ताम्रपात लगा रहता था, जिसमें पूरा विवरण होता था यह ताम्रपात तीन इंच मोटा और एक फुट लंबा हुआ करता था. बड़ागांव दरवाजे पर लगे ताम्रपात के प्रत्यक्षदर्शी आज भी जीवित हैं, लेकिन यह ताम्रपात कुछ वर्षों पहले रातोरात चोरी हो गया. कुछ ऐसी ही स्थिति बड़ागांव दरवाजे की भी है, जहां का परकोटा अब पता ही नहीं चलता कि कहां से कहां को गया था. बड़ागांव दरवाजे से गोपाल की बगिया की ओर काफी लंबा-चौड़ा परकोटा था, जिसे एक भूमा़फिया ने लोगों को बेच दिया. लक्ष्मी तालाब एवं भूतनाथ का काफी हिस्सा भूमाफिया पचा गए. हालत यह है कि न बड़ागांव गेट में दरवाजा है और न ही किसी खिड़की में. दतिया गेट से सत्तार बाबा की मीनार की ओर जाने वाले मार्ग पर कभी 12 इंच मोटा परकोटा हुआ करता था, लेकिन अतिक्रमणकारियों ने परकोटे को तोड़कर अपना मकान बना लिया. यदि झांसी के ऐतिहासिक महत्व के स्मारकों के दस्तावेज़ निकलवाए जाएं तो कई स्मारक वर्तमान में अपनी जगह से ग़ायब मिलेंगे. दोषी पुरातत्व विभाग है, जो इनके रखरखाव के लिए ज़िम्मेदार है. विभाग का ही नियम है कि किसी भी पुरातत्व स्मारक के 200 मीटर के दायरे में नया निर्माण वर्जित है, लेकिन इसे देखने वाला कौन है. अतुल्य भारत का नारा बदहाल बुंदेलखंड में बेमानी हो चला है. यहां के 176 संरक्षित स्मारकों के लिए पुरातत्व विभाग के पास न तो पूरे कर्मचारी हैं और न ही धरोहरों के रखरखाव के लिए पैसा. हालत यह है कि पौने दो सौ स्मारक संरक्षित करने का दावा करने वाले विभाग के पास कुल 69 कर्मचारी हैं. 29,000 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैले इन 176 संरक्षित स्मारकों में से 149 में कर्मचारी ही नहीं हैं और पुरातत्व विभाग के लोग लखनऊ, झांसी एवं इलाहाबाद में बैठकर काग़ज़ी खानापूरी कर रहे हैं. काग़ज़ी आंकड़ों के अनुसार, गत वर्ष इन स्मारकों पर 1.53 करोड़ रुपये ख़र्च हुए.
बुंदेलखंड प्राचीन धरोहरों के लिए प्रसिद्ध और समृद्ध रहा है. यहां के कण-कण में इतिहास समाहित है. इन स्थलों की पहचान के बाद संरक्षण की ज़िम्मेदारी उत्तर प्रदेश पुरातत्व विभाग की बनती हैं, लेकिन शासन एवं पुरातत्व निदेशालय की अनदेखी से यहां के पुरातात्विक महत्व के 50 से ज़्यादा स्थल लावारिस हालत में हैं और असुरक्षित एवं असंरक्षित होने के कारण अपना अस्तित्व खो देने की कगार पर पहुंच गए हैं. पुरातनकाल की उक्त गौरव गाथाएं ब्रिटिश शासनकाल में भी उपेक्षित रहीं. बावजूद इसके यदि प्राचीन स्थल, मंदिर, किले और स्मारक अपनी संप्रभुता बचाए है तो यह इनका अपना सौभाग्य है, किसी का एहसान नहीं. कालांतर में कुछ स्मारक ज़मींदोज़ हो गए. इतिहास को साक्षी मानकर ऐसे तमाम स्थलों की खोज की गई. आज़ादी के बाद जहां-तहां हुई खुदाई में तमाम अवशेष और स्मारक भी मिले. इनके रखरखाव की ज़िम्मेदारी प्रदेश के पुरातत्व विभाग को दी गई. उसने सैकड़ों स्थलों की खुदाई कर चिन्हित भी किया है. इनमें से 35 स्थलों को विभाग ने संरक्षित घोषित किया है, जबकि 16 स्थल प्रतीक्षा सूची में हैं. इन स्थलों के संरक्षण के नाम पर विभाग स़िर्फ साइन बोर्ड एवं पत्थर लगाने तक सीमित रहा. इन स्थलों की देखरेख के लिए पर्याप्त अमला नहीं है. विभाग के पास स़िर्फ चार चौकीदार हैं, जिनमें से दो बरुवा सागर किले, एक-एक झांसी मंदिर एवं पनवाड़ी के शांतिनाथ मंदिर में तैनात हैं. बाक़ी बचे स्थल लावारिस हालत में हैं. पुरातत्व विभाग के अधिकारियों की मानें तो संरक्षण के नाम पर मात्र ढाई लाख रुपये का बजट जारी होता है, जिसमें बिजली-पानी के बिल के अलावा सर्वे पर जाने वाली टीम का ख़र्चा भी शामिल है. पर्याप्त बजट न मिलने से इन महत्वपूर्ण स्थलों की सही तरीक़े से देखभाल नहीं हो पा रही है. विभाग के पास न तो इंजीनियर हैं और न कर्मचारी. अर्से से इन सभी के पद रिक्त पड़े हैं.
क्षेत्रीय पुरातत्व अधिकारी ए के दुबे ने बताया कि निदेशालय एवं शासन का कई बार ध्यान आकृष्ट किया गया, लेकिन हमारी बात को गंभीरता से नहीं लिया गया. विभाग के पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं. यदि शासन एवं निदेशालय जल्द ही इन स्थलों पर ग़ौर नहीं करेगा तो इनके धूल में मिलने के बाद दोबारा खोज पाना नामुमकिन हो जाएगा.
संरक्षित स्थल एक नज़र में
कुल संख्या-34.
झांसी में तीन, बरुवासागर में एक, पनवाड़ी में एक, तालबेहट में आठ, महरौनी में छह, ललितपुर में नौ, मडावरा में तीन एवं चरखारी में तीन.
संरक्षण के लिए प्रस्तावित-16.
चरखारी में एक, कुलपहाड़ में दो, महोबा में पांच, कुपनवाड़ी में एक, मऊरानीपुर में एक, बामौर में एक, बंगरा में दो, मऊ में तीन. बुंदेलखंड 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की 150वीं वर्षगांठ मनाने की जोरदार तैयारी कर रहा है. वहीं किले के बाहर संग्राम की झलक दिखाती रणबांकुरों की प्रतिकृतियां एवं स्थल देखरेख न होने से बदहाली की कगार पर हैं. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में महारानी लक्ष्मीबाई और अंग्रेजों के बीच लड़े गए भीषण युद्ध का चित्रण मूर्तियों के माध्यम से किया गया है. इसका निर्माण बीएचईएल और पुरातत्व विभाग द्वारा कराया गया था. इस स्थल का लोकार्पण तत्कालीन राज्यपाल सत्य नारायण रेड्डी ने 21 फरवरी 1993 में किया था. इसका उद्देश्य युद्ध के दौरान अंग्रेजों की कूटनीतिक चालों और उनसे लोहा लेती झांसी की सेना एवं महारानी लक्ष्मीबाई के रण कौशल को दिखाना है, ताकि आने वाली पीढ़ियां सीख ले सकें. एक अनुमान के मुताबिक़, तीन-चार सौ देशी-विदेशी सैलानी प्रतिदिन किला देखने आते हैं, जो इस स्थल को भी देखते हैं. प्रतिकृतियों के बारे में जानकारी देने के लिए लगाई गईं पट्टिकाएं उखड़ चुकी हैं. प्रतिकृतियों का पेंट भी उखड़ने लगा है. हमीरपुर जनपद के कुरारा ब्लॉक के अंतर्गत आने वाले झलोखर गांव में भुवनेश्वरी देवी का अत्यंत प्राचीन मंदिर है. ललितपुर के पाली-बालाबेहट मार्ग पर बीहड़ में लगभग एक हज़ार वर्ष पुरानी भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार की एक ऐसी विशाल प्रतिमा दम तोड़ रही है, जिसके मुक़ाबले की कोई कृति उत्तर प्रदेश ही नहीं, देश में कहीं नहीं है. पाली-बालाबेहट मार्ग के ग्राम दुधई के बीहड़ में सैंड स्टोन की चट्टान काटकर बनाई गई लगभग 56 फीट की यह विशाल प्रतिमा कुछ वर्षों से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के संरक्षण में है. दशकों से लगातार वर्षा का पानी गिरने, काई, हवा और धूप की मार से इसका मूल स्वरूप क्षतिग्रस्त होता जा रहा है. देवगढ़ के दशावतार मंदिर, तालबेहट किले, सीरोन एवं सिरसी की गढ़ी की हालत भी काफी ख़राब है.
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