भारतकोश- ज्ञान का हिन्दी-महासागर
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संत कबीर दास हिंदी साहित्य के भक्ति काल के इकलौते ऐसे कवि हैं, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ झलकती है। लोक कल्याण हेतु ही मानो उनका समस्त जीवन था। कबीर को वास्तव में एक सच्चे विश्व - प्रेमी का अनुभव था। कबीर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी प्रतिभा में अबाध गति और अदम्य प्रखरता। समाज में कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है।डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि साधना के क्षेत्र में वे युग - युग के गुरु थे, उन्होंने संत काव्य का पथ प्रदर्शन कर साहित्य क्षेत्र में नव निर्माण किया था।
[सम्पादन] जीवन परिचय
मुख्य लेख : कबीर का जीवन परिचय
[सम्पादन] जन्म
- कबीरदास के जन्म के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर का जन्म काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुआ। कुछ लोगों का कहना है कि वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानंद के प्रभाव से उन्हें हिन्दू धर्म की बातें मालूम हुईं। एक दिन, एक पहर रात रहते ही कबीर पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े। रामानन्द जी गंगा स्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल `राम-राम' शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। कबीर के ही शब्दों में-
हम कासी में प्रकट भये हैं,
रामानन्द चेताये।
- कबीरपंथियों में इनके जन्म के विषय में यह पद्य प्रसिद्ध है-
चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ ठए।
जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासी तिथि प्रगट भए॥
घन गरजें दामिनि दमके बूँदे बरषें झर लाग गए।
लहर तलाब में कमल खिले तहँ कबीर भानु प्रगट भए॥[1]
[सम्पादन] मृत्यु
कबीर ने काशी के पास मगहर में देह त्याग दी। ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया था। हिन्दू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से। इसी विवाद के चलते जब उनके शव पर से चादर हट गई, तब लोगों ने वहाँ फूलों का ढेर पड़ा देखा। बाद में वहाँ से आधे फूल हिन्दुओं ने ले लिए और आधे मुसलमानों ने। मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिंदुओं ने हिंदू रीति से उन फूलों का अंतिम संस्कार किया। मगहर में कबीर की समाधि है। जन्म की भाँति इनकी मृत्यु तिथि एवं घटना को लेकर भी मतभेद हैं किन्तु अधिकतर विद्वान उनकी मृत्यु संवत 1575 विक्रमी (सन 1518 ई.) मानते हैं, लेकिन बाद के कुछ इतिहासकार उनकी मृत्यु 1448 को मानते हैं।[2][सम्पादन] समकालीन सामाजिक परिस्थिति
मुख्य लेख : कबीर का समकालीन समाज
महात्मा कबीरदास के जन्म के समय में भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक दशा शोचनीय थी। एक तरफ मुसलमान शासकों की धर्मांन्धता से जनता परेशान थी और दूसरी तरफ हिन्दू धर्म के कर्मकांड, विधान और पाखंड से धर्म
का ह्रास हो रहा था। जनता में भक्ति- भावनाओं का सर्वथा अभाव था। पंडितों
के पाखंडपूर्ण वचन समाज में फैले थे। ऐसे संघर्ष के समय में, कबीरदास का
प्रार्दुभाव हुआ। जिस युग में कबीर आविर्भूत हुए थे, उसके कुछ ही पूर्व भारतवर्ष के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना घट चुकी थी। यह घटना इस्लाम
जैसे एक सुसंगठित सम्प्रदाय का आगमन था। इस घटना ने भारतीय धर्म–मत और
समाज व्यवस्था को बुरी तरह से झकझोर दिया था। उसकी अपरिवर्तनीय समझी जाने
वाली जाति–व्यवस्था को पहली बार ज़बर्दस्त ठोकर लगी थी। सारा भारतीय
वातावरण संक्षुब्ध था। बहुत–से पंडितजन इस संक्षोभ का कारण खोजने में
व्यस्त थे और अपने–अपने ढंग पर भारतीय समाज और धर्म–मत को सम्भालने का
प्रयत्न कर रहे थे।
- इन्हें भी देखें: कबीरपंथ, सूफ़ी आन्दोलन एवं भक्ति आन्दोलन
[सम्पादन] साहित्यिक परिचय
कबीर सन्त कवि और समाज सुधारक थे। उनकी कविता का एक-एक शब्द पाखंडियों के पाखंडवाद और धर्म के नाम पर ढोंग व स्वार्थपूर्ति की निजी दुकानदारियों को ललकारता हुआ आया और असत्य व अन्याय की पोल खोल धज्जियाँ उड़ाता चला गया। कबीर का अनुभूत सत्य अंधविश्वासों पर बारूदी पलीता था। सत्य भी ऐसा जो आज तक के परिवेश पर सवालिया निशान बन चोट भी करता है और खोट भी निकालता है।[सम्पादन] कबीरदास की भाषा और शैली
मुख्य लेख : कबीर की भाषा शैली
कबीरदास ने बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग किया है। भाषा पर कबीर का
जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप
में प्रकट करना चाहा है, उसे उसी रूप में कहलवा लिया– बन गया है तो
सीधे–सीधे, नहीं दरेरा देकर। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार–सी नज़र आती है।
उसमें मानो ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवाह फक्कड़ की किसी फ़रमाइश
को नाहीं कर सके। और अकह कहानी को रूप देकर मनोग्राही बना देने की तो
जैसी ताकत कबीर की भाषा में है वैसी बहुत ही कम लेखकों में पाई जाती है।
असीम–अनंत ब्रह्मानन्द में आत्मा
का साक्षीभूत होकर मिलना कुछ वाणी के अगोचर, पकड़ में न आ सकने वाली ही
बात है। पर 'बेहद्दी मैदान में रहा कबीरा' में न केवल उस गम्भीर निगूढ़
तत्त्व को मूर्तिमान कर दिया गया है, बल्कि अपनी फ़क्कड़ाना प्रकृति की
मुहर भी मार दी गई है। वाणी के ऐसे बादशाह को साहित्य–रसिक काव्यानंद का
आस्वादन कराने वाला समझें तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। फिर व्यंग्य
करने में और चुटकी लेने में भी कबीर अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं जानते। पंडित
और क़ाज़ी, अवधु और जोगिया, मुल्ला और मौलवी सभी उनके व्यंग्य से तिलमिला
जाते थे। अत्यन्त सीधी भाषा में वे ऐसी चोट करते हैं कि खानेवाला केवल धूल
झाड़ के चल देने के सिवा और कोई रास्ता नहीं पाता।
[सम्पादन] पंचमेल खिचड़ी भाषा
कबीर की रचनाओं में अनेक भाषाओं के शब्द मिलते हैं यथा - अरबी, फ़ारसी, पंजाबी, बुन्देलखंडी, ब्रजभाषा, खड़ीबोली आदि के शब्द मिलते हैं इसलिए इनकी भाषा को 'पंचमेल खिचड़ी' या 'सधुक्कड़ी' भाषा कहा जाता है। प्रसंग क्रम से इसमें कबीरदास की भाषा और शैली समझाने के कार्य से कभी–कभी आगे बढ़ने का साहस किया गया है। जो वाणी के अगोचर हैं, उसे वाणी के द्वारा अभिव्यक्त करने की चेष्टा की गई है; जो मन और बुद्धि की पहुँच से परे हैं; उसे बुद्धि के बल पर समझने की कोशिश की गई है; जो देश और काल की सीमा के परे हैं, उसे दो–चार–दस पृष्ठों में बाँध डालने की साहसिकता दिखाई गई है। कहते हैं, समस्त पुराण और महाभारतीय संहिता लिखने के बाद व्यासदेव में अत्यन्त अनुताप के साथ कहा था कि 'हे अधिल विश्व के गुरुदेव, आपका कोई रूप नहीं है, फिर भी मैंने ध्यान के द्वारा इन ग्रन्थों में रूप की कल्पना की है; आप अनिर्वचनीय हैं, व्याख्या करके आपके स्वरूप को समझा सकना सम्भव नहीं है, फिर भी मैंने स्तुति के द्वारा व्याख्या करने की कोशिश की है। वाणी के द्वारा प्रकाश करने का प्रयास किया है। तुम समस्त–भुवन–व्याप्त हो, इस ब्रह्मांण्ड के प्रत्येक अणु–परमाणु में तुम भिने हुए हो, तथापि तीर्थ–यात्रादि विधान से उस व्यापित्व को खंडित किया है।[सम्पादन] व्यक्तित्व
मुख्य लेख : कबीर का व्यक्तित्व
हिन्दी साहित्य
के हज़ार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक
उत्पन्न नहीं हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वन्द्वी
जानता है, तुलसीदास।
परन्तु तुलसीदास और कबीर के व्यक्तित्व में बड़ा अन्तर था। यद्यपि दोनों
ही भक्त थे, परन्तु दोनों स्वभाव, संस्कार और दृष्टिकोण में एकदम भिन्न थे।
मस्ती, फ़क्कड़ाना स्वभाव और सबकुछ को झाड़–फटकार कर चल देने वाले तेज़ ने
कबीर को हिन्दी–साहित्य का अद्वितीय व्यक्ति बना दिया है। [सम्पादन] आकर्षक वक्ता
कबीर की वाणियों में सबकुछ को छाकर उनका सर्वजयी व्यक्तित्व विराजता रहता है। उसी ने कबीर की वाणियों में अनन्य–असाधारण जीवन रस भर दिया है। कबीर की वाणी का अनुकरण नहीं हो सकता। अनुकरण करने की सभी चेष्टाएँ व्यर्थ सिद्ध हुई हैं। इसी व्यक्तित्व के कारण कबीर की उक्तियाँ श्रोता को बलपूर्वक आकृष्ट करती हैं। इसी व्यक्तित्व के आकर्षण को सहृदय समालोचक सम्भाल नहीं पाता और रीझकर कबीर को 'कवि' कहने में संतोष पाता है। ऐसे आकर्षक वक्ता को 'कवि' न कहा जाए तो और क्या कहा जाए? परन्तु यह भूल नहीं जाना चाहिए कि यह कविरूप घलुए में मिली हुई वस्तु है। कबीर ने कविता लिखने की प्रतिज्ञा करके अपनी बातें नहीं कही थीं। उनकी छंदोयोजना, उचित–वैचित्र्य और अलंकार विधान पूर्ण–रूप से स्वाभाविक और अयत्नसाधित हैं। काव्यगत रूढ़ियों के न तो वे जानकार थे और न ही क़ायल। अपने अनन्य–साधारण व्यक्तित्व के कारण ही वे सहृदय को आकृष्ट करते हैं। उनमें एक और बड़ा भारी गुण है, जो उन्हें अन्यान्य संतों से विशेष बना देता है।[सम्पादन] रचनाएँ
मुख्य लेख : कबीर की रचनाएँ
कबीरदास ने हिन्दू-मुसलमान
का भेद मिटा कर हिन्दू-भक्तों तथा मुसलमान फ़कीरों का सत्संग किया और
दोनों की अच्छी बातों को हृदयांगम कर लिया। संत कबीर ने स्वयं ग्रंथ नहीं
लिखे, मुँह से बोले और उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया। कबीरदास अनपढ़ थे।
कबीरदास के समस्त विचारों में राम-नाम की महिमा प्रतिध्वनित होती है। वे एक
ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्त्ति,
रोज़ा, ईद,
मस्जिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे। कबीर के नाम से मिले ग्रंथों की
संख्या भिन्न-भिन्न लेखों के अनुसार भिन्न-भिन्न है। कबीर की वाणी का
संग्रह `बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं-
[सम्पादन] बीजक
हिन्दी साहित्य
के हज़ार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक
उत्पन्न नहीं हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वन्द्वी
जानता है, तुलसीदास।
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मुख्य लेख : बीजक
'बीजक' कबीरदास के मतों का पुराना और प्रामाणिक संग्रह है, इसमें संदेह
नहीं। एक ध्यान देने योग्य बात इसमें यह है कि 'बीजक' में 84 रमैनियाँ हैं।
रमैनियाँ चौपाई छंद
में लिखी गई हैं। इनमें कुछ रमैनियाँ ऐसी हैं। जिनके अंत में एक-एक साखी
उद्धृत की गई है। साखी उद्धृत करने का अर्थ यह होता है कि कोई दूसरा आदमी
मानों इन रमैनियों को लिख रहा है और इस रमैनी-रूप व्याख्या के प्रमाण में
कबीर की साखी या गवाही पेश कर रहा है। जालंधरनाथ के शिष्य कुण्णपाद (कानपा)
ने कहा है: 'साखि करब जालंधरि पाए', अस्तु बहुत थोड़ी-सी रमैनियाँ (नं.
3,28 32, 42, 56, 62, 70, 80) ऐसी हैं जिनके अंत में साखियाँ नहीं हैं।
परंतु इस प्रकार उद्धृत करने का क्या अर्थ हो सकता है? इस पुस्तक में मैंने
'बीजक' को निस्संकोच प्रमाण-रूप में व्यवहृत है, पर स्वय 'बीजक' ही इस बात
का प्रमाण है कि साखियों को सबसे अधिक प्रामाणिक समझना चाहिए, क्योंकि
स्वंय 'बीजक' ने ही रमैनियों की प्रामाणिकता के लिए साखियों का हवाला दिया
है। इसीलिए कबीरदास के सिद्धांतों की जानकारी का सबसे उत्तम साधन साखियाँ
है।[3]
[सम्पादन] अवधू और अवधूत
भारतीय साहित्य में यह 'अवधू' शब्द कई संप्रदायों के सिद्ध आचार्यों के अर्थ में व्यवहुत हुआ है। साधारणत: जागातिक द्वंद्वों से अतीत, मानापमान-विवर्जित, पहुँचे हुए योगी को अवधूत कहा जाता है। यह शब्द मुख्यतया तांत्रिकों, सहजयानियों और योगियों का है। सहजयान और वज्रयान नामक बौद्ध तांत्रिक मतों में 'अवधूती वृत्ति' नामक एक विशेष प्रकार की यौगिक वृत्ति का उल्लेख मिलता है।[4] ...और पढ़ें[सम्पादन] निरंजन कौन है?
मध्ययुग के योग, मंत्र और भक्ति के साहित्य में 'निरंजन' शब्द का बारम्बार उल्लेख मिलता है। नाथपंथ में भी 'निरंजन' शब्द खूब परिचित है। साधारण रूप में 'निरंजन' शब्द निर्गुण ब्रह्म का और विशेष रूप से शिव का वाचक है। नाथपंथ की भाँति एक और प्राचीन पंथ भी था, जो निरंजन पद को परमपद मानता था। जिस प्रकार नाथपंथी नाथ को परमाराध्य मानते थे, उसी प्रकार ये लोग 'निरंजन' को। आजकल निरंजनी साधुओं का एक सम्प्रदाय राजपूताने में वर्तमान है। कहते हैं, इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक स्वामी निरानंद निरंजन भगवान (निर्गुण) के उपासक थे। ...और पढ़ें[सम्पादन] कबीर के दोहे
मुख्य लेख : कबीर के दोहे
यहाँ कबीरदास के कुछ दोहे दिये गये हैं।
(1) साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं।
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं ॥
व्याख्या:- कबीर दास जी कहते हैं कि संतजन तो भाव के भूखे होते
हैं, और धन का लोभ उनको नहीं होता। जो धन का भूखा बनकर घूमता है वह तो साधू
हो ही नहीं सकता।
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं ॥
(2) जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय।।
व्याख्या:- संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे,
वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात
शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी
प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय।।
गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागूँ पाय।
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।। |
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोये ।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ।। |
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥ |
बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर ।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ।। |
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ।
जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय ।। |
तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥ |
दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय ।। |
माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ।। |
मांगन मरण सामान है, मत मांगो कोई भीख,।
मांगन से मरना भला, ये सतगुरु की सीख ॥ |
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये ।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए ।। |
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब ।। |
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥ |
जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप ।
जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप ।। |
जो घट प्रेम न संचारे, जो घट जान सामान ।
जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण ।। |
कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये।
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये॥ |
कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी।
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ॥ |
कबीर खडा बाज़ार में, सबकी मांगे खैर ।
ना काहूँ से दोस्ती, ना काहूँ से बैर ॥ |
उठा बगुला प्रेम का, तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला, तिन का तिन के पास॥ |
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।। |
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय ।
जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय ॥ |
साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥ |
साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब समाये।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाए ।। |
सुमिरन सूरत लगाईं के, मुख से कछु न बोल ।
बाहर का पट बंद कर, अन्दर का पट खोल ।। |
कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोई सुरमा, जाती बरन कुल खोए ।। |
[सम्पादन] टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कबीर ग्रंथावली (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) हिंदी समय डॉट कॉम। अभिगमन तिथि: 2 अगस्त, 2011।
- ↑ संत कवि कबीर (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) वेब दुनिया। अभिगमन तिथि: 4 अगस्त, 2011।
- ↑ साखी आँखी ज्ञान की, समुझि देखु मन माहि। विन साखी संसार कौ, झगरा छूटत नाहि॥ साखी, 369
- ↑ चयपिद, 27-2;17-। देखिए; पृष्ठ 124 का दोहा भी देखिए।
- अनिल चौधरी द्वारा निर्देशित दूरदर्शन पर बना धारावाहिक "कबीर" एक उत्कृष्ट रचना है।
- हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की रचना "कबीर" संत कबीर पर सबसे उत्कृष्ट रचना है।
[सम्पादन] बाहरी कड़ियाँ
- यू-ट्यूब लिंक
- मगहर का विडियो (यू ट्यूब पर)
- झीनी चदरिया (आवाज- पं. कुमार गंधर्व)
- सुनता है गुरु ज्ञानी (आवाज- पं. कुमार गंधर्व)
- निर्भय निर्गुण गुन रे गाऊंगा (आवाज- पं. कुमार गंधर्व और विदुषी वसुंधरा कोमकली)
- उड़ जायेगा हंस अकेला (आवाज- पं. कुमार गंधर्व)
[सम्पादन] संबंधित लेख
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संदर्भ ग्रंथ सूची |
वर्णमाला क्रमानुसार पन्ने की खोज कर सकते हैं
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