शुक्रवार, 20 जनवरी 2012
आज़ादी
के 64 सालों बाद धुर जंगली इलाके बस्तर में अब जाकर शायद विकास की नई
कहानी लिखी जाए| घोर नक्सल प्रभावित दंतेवाडा जिले को दो फाड़ करके सुकमा
को नया जिला बनाया गया है| इसमें क्या नई बात है ये कोई भी कह सकता है,
जिला बनाना कोई ऐसी खबर या मुद्दा तो नही है जिस पर बड़ा लेख लिखा जाए|
आपको बता दें दंतेवाडा वो इलाका है जहां नक्सली हुकूमत के आगे सरकार भी पस्त हो जाती है और सदियों से बस्तर की तरक्की की राह में नश्तर जैसे चुभने वाले सघन वन क्षेत्र में आज भी बड़े पत्तों वाले साल वन से ढंके ऐसे इलाके हैं, जहां जमीन तक सूरज की रोशनी नहीं पहुंचती।
बेशकीमती खनिज से लबालब इस धरती के लोगों के लब गर्मी में पानी को तरस जाते हैं| आज आदिवासियों वाला बस्तर हिंसा से तप्त है|
मुम्बई की हिंसा में बीस लोग मारे जाते हैं तो बवाल मच जता है मगर बस्तर मे कभी पुलिस पार्टी पर हमले तो कभी आदिवासियों पर हमले और कभी नक्सलियों से मुठभेड़ में औसतन इतनी मौतें रोज़ हो रही हैं जितनी नार्थ ईस्ट और जम्मू कश्मीर में भी नही होती तो ऐसा लगता है किसी को कोई रंज नही होता मानो ये इलाके भारत में हैं ही नहीं|
करीब चार हजार वर्ग किलोमीटर इलाके में फैले सुकमा में अबूझमाड़ की कंदराएं हैं जहां सूरज भी घुसने से घबराता है और नंग- धड़ंग आदिवासी यहाँ आदिम युगीन सभ्यता में जी रहे हैं| इलाके का राजस्व सर्वे तक नही हो पाया क्योंकि अमला जा नही सका. आपको बता दें यहाँ कई सड़कें सम्राट अकबर के ज़माने में बनी हुई जस की तस हैं. बस्तर का मतलब मीलों तक फैला डरावना जंगल ..सन्नाटा और बीच-बीच में पक्षियों का कलरव-गान या अब बन्दूकों की गूंज..
विकास की किरण छूने को तरसते इस इलाके में केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश भी जा पहुचे और नया जिला बनने के मौके पर उमड़ी आदिवासियों की भीड़ के बीच उन्होंने ऐलान किया कि केंद्र सरकार इलाके के विकास के लिए 30 करोड़ रूपये सालाना देगी और इलाके में एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम चलाया जाएगा| अब देखा ये जाएगा कि सरकार कितना देती है और कितना विकास किसका होता है. नए जिले सुकमा और कोंडागांव नक्सल प्रभावित क्षेत्र हैं। घने जंगलों वाला आदिवासी बाहूल्य ये इलाक़ा इतना पिछड़ा हुआ है कि अगर आप अपने वाहन से एक बार इलाके में घुस जाएं तो पानी की एक बोतल खरीदने और बिस्कुट का एक पैकेट खरीदने के लिए मीलों दूर तक भटकना पड़ सकता है|
इसी दंतेवाडा का सुकमा (अब जिला) इलाक़ा भारत के सबसे संवेदनशील क्षेत्रों में से एक माना जाता रहा है| यहां नक्सलियों के पक्के शिविर चलते हैं-जैसे पीओके में हिजबुल के| यहां नक्सली हिंसा की बड़ी वारदातें होती रही हैं.
वर्ष अप्रैल 2010 में चिंतलनार में केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल यानी सीआरपीएफ़ के 75 जवानों की नक्सली हमले में मौत समेत कई बड़ी घटनाएं दंतेवाड़ा -सुकमा अनुमंडल में ही हुई हैं|
सच यह है कि इलाके में पुलिस घुसने से आज भी डरती है| नए जिले बनाने के पीछे तर्क है कि आदिवासियों को जिला मुख्यालय जाने के लिए ज्यादा चलना नही पडेगा|
मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने बीते सोमवार नवगठित सुकमा जिले का शुभारंभ किया। सिंह ने कहा कि इससे राज्य में विकास की प्रक्रिया में तेजी आएगी और यकीनन जब जिला बन गया तो अफसर जाएंगे ही. अफसर जाएंगे तो अमला भी होगा. सब जाएंगे तो काम करना ही पड़ेगा . काम होगा तो नजर भी आएगा. कुछ तथ्य हैं कि छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित सात जिलों में केवल 526 टीचर काम कर रहे हैं जबकि इन जिलों में 2,558 टीचर होने चाहिए। इसी तरह नक्सलियों की नई पसंदगाह बने उड़ीसा में नक्सल प्रभावित पांच जिलों में 6,003 टीचर होने चाहिए जबकि वहां केवल 3,566 टीचर हैं।यह आंकड़े कुछ पुराने हैं मगर हालात को बयां करने के लिए काफी हैं.
माना जा रहा है कि जिला बनने से इलके में सरकारी आमद-रफ्त बढ़ेगी और विकास के काम होने से नक्सलियों के पांव उखड़ेंगे जो पिछड़ेपन को ढाल बनाते आए है| शबरी नदी के तट पर स्थित सुकमा जिला न केवल बस्तर संभाग बल्कि छत्तीसगढ़ के भी दक्षिणी छोर का आखिरी जिला है। इसकी सीमा ओड़िशा और आन्ध्रप्रदेश से लगी हुई है। इलाके में नक्सलवाद शुरू हुआ तो कहा गया कि वह आदिवासी के लिए बन्दूक चला रहा है मगर यह सच भी सामने आने लगा कि नक्सली नेता दूरबैठे किसी और ठिकाने से से संचालन करने लगे और बस्तर में गुरिल्ला स्क्वाड के नाम पर अब आदिवासी ही आदिवासी पर बंदूक चलाने लगा | आदिवासी के हाथ में चीन की बनी हुई रायफलें पहुचने लगी .
बस्तर का ही कोंडागांव दूसरा ऐसा संवेदनशील इलाक़ा है जो सुरक्षा बलों और माओवादी हिंसा से लहुलुहान हुआ पड़ा है| यह भी जिला बन गया है| छत्तीसगढ़ में इस तरह नौ में से पांच नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में नए जिलों का गठन हुआ है| छत्तीसगढ़ में पिछले लगभग दस सालों में ही ज़िलों की संख्या 16 से बढ़ते कर 27 पहुंच गई है| सुकमा और कोंडागांव के अलावा जिन इलाक़ों को ज़िलों का दर्ज़ा दिया गया है, उनमें बालौद, गरियाबंद, मुंगेली, बेमेतरा, सूरजपुर, बलौदाबाज़ार और बलरामपुर शामिल हैं| बस्तर में पदस्थ सीआरपीएफ़ के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक सुरजीत सिंह की भी राय है कि छोटे जिलों से अभियान को बल मिलेगा|
सरकार चला रहे रमन सिंह का यह कदम बताता है कि अब यह भी माना जा रहा है कि हिंसा की बजाय किसी और रास्ते से लोगों का जीवन बदला जाए. अब बस्तर का हल गोली नही बोली है और बंदूकों से हो रहे विनाश की जगह विकास से ही है. अबूझमाड़ में सभी आदिवासी इलाकों में अस्पताल, स्कूल और सड़क की दिक्कतों को दूर किया जाए और औद्योगिकरण की स्थिति में विस्थापन औऱ रोजगार की कारगर योजना के साथ वनोपज संग्रह-विपणन में भी आदिवासियों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए| सारी बंदूकों को वहां से रुखसत करा के आदिवासियों को उनकी संस्कृति के हाल पे ही छोड़ दे तो बस्तर की मैना फिर से चहक सकती है.
आपको बता दें दंतेवाडा वो इलाका है जहां नक्सली हुकूमत के आगे सरकार भी पस्त हो जाती है और सदियों से बस्तर की तरक्की की राह में नश्तर जैसे चुभने वाले सघन वन क्षेत्र में आज भी बड़े पत्तों वाले साल वन से ढंके ऐसे इलाके हैं, जहां जमीन तक सूरज की रोशनी नहीं पहुंचती।
बेशकीमती खनिज से लबालब इस धरती के लोगों के लब गर्मी में पानी को तरस जाते हैं| आज आदिवासियों वाला बस्तर हिंसा से तप्त है|
मुम्बई की हिंसा में बीस लोग मारे जाते हैं तो बवाल मच जता है मगर बस्तर मे कभी पुलिस पार्टी पर हमले तो कभी आदिवासियों पर हमले और कभी नक्सलियों से मुठभेड़ में औसतन इतनी मौतें रोज़ हो रही हैं जितनी नार्थ ईस्ट और जम्मू कश्मीर में भी नही होती तो ऐसा लगता है किसी को कोई रंज नही होता मानो ये इलाके भारत में हैं ही नहीं|
करीब चार हजार वर्ग किलोमीटर इलाके में फैले सुकमा में अबूझमाड़ की कंदराएं हैं जहां सूरज भी घुसने से घबराता है और नंग- धड़ंग आदिवासी यहाँ आदिम युगीन सभ्यता में जी रहे हैं| इलाके का राजस्व सर्वे तक नही हो पाया क्योंकि अमला जा नही सका. आपको बता दें यहाँ कई सड़कें सम्राट अकबर के ज़माने में बनी हुई जस की तस हैं. बस्तर का मतलब मीलों तक फैला डरावना जंगल ..सन्नाटा और बीच-बीच में पक्षियों का कलरव-गान या अब बन्दूकों की गूंज..
विकास की किरण छूने को तरसते इस इलाके में केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश भी जा पहुचे और नया जिला बनने के मौके पर उमड़ी आदिवासियों की भीड़ के बीच उन्होंने ऐलान किया कि केंद्र सरकार इलाके के विकास के लिए 30 करोड़ रूपये सालाना देगी और इलाके में एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम चलाया जाएगा| अब देखा ये जाएगा कि सरकार कितना देती है और कितना विकास किसका होता है. नए जिले सुकमा और कोंडागांव नक्सल प्रभावित क्षेत्र हैं। घने जंगलों वाला आदिवासी बाहूल्य ये इलाक़ा इतना पिछड़ा हुआ है कि अगर आप अपने वाहन से एक बार इलाके में घुस जाएं तो पानी की एक बोतल खरीदने और बिस्कुट का एक पैकेट खरीदने के लिए मीलों दूर तक भटकना पड़ सकता है|
इसी दंतेवाडा का सुकमा (अब जिला) इलाक़ा भारत के सबसे संवेदनशील क्षेत्रों में से एक माना जाता रहा है| यहां नक्सलियों के पक्के शिविर चलते हैं-जैसे पीओके में हिजबुल के| यहां नक्सली हिंसा की बड़ी वारदातें होती रही हैं.
वर्ष अप्रैल 2010 में चिंतलनार में केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल यानी सीआरपीएफ़ के 75 जवानों की नक्सली हमले में मौत समेत कई बड़ी घटनाएं दंतेवाड़ा -सुकमा अनुमंडल में ही हुई हैं|
सच यह है कि इलाके में पुलिस घुसने से आज भी डरती है| नए जिले बनाने के पीछे तर्क है कि आदिवासियों को जिला मुख्यालय जाने के लिए ज्यादा चलना नही पडेगा|
मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने बीते सोमवार नवगठित सुकमा जिले का शुभारंभ किया। सिंह ने कहा कि इससे राज्य में विकास की प्रक्रिया में तेजी आएगी और यकीनन जब जिला बन गया तो अफसर जाएंगे ही. अफसर जाएंगे तो अमला भी होगा. सब जाएंगे तो काम करना ही पड़ेगा . काम होगा तो नजर भी आएगा. कुछ तथ्य हैं कि छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित सात जिलों में केवल 526 टीचर काम कर रहे हैं जबकि इन जिलों में 2,558 टीचर होने चाहिए। इसी तरह नक्सलियों की नई पसंदगाह बने उड़ीसा में नक्सल प्रभावित पांच जिलों में 6,003 टीचर होने चाहिए जबकि वहां केवल 3,566 टीचर हैं।यह आंकड़े कुछ पुराने हैं मगर हालात को बयां करने के लिए काफी हैं.
माना जा रहा है कि जिला बनने से इलके में सरकारी आमद-रफ्त बढ़ेगी और विकास के काम होने से नक्सलियों के पांव उखड़ेंगे जो पिछड़ेपन को ढाल बनाते आए है| शबरी नदी के तट पर स्थित सुकमा जिला न केवल बस्तर संभाग बल्कि छत्तीसगढ़ के भी दक्षिणी छोर का आखिरी जिला है। इसकी सीमा ओड़िशा और आन्ध्रप्रदेश से लगी हुई है। इलाके में नक्सलवाद शुरू हुआ तो कहा गया कि वह आदिवासी के लिए बन्दूक चला रहा है मगर यह सच भी सामने आने लगा कि नक्सली नेता दूरबैठे किसी और ठिकाने से से संचालन करने लगे और बस्तर में गुरिल्ला स्क्वाड के नाम पर अब आदिवासी ही आदिवासी पर बंदूक चलाने लगा | आदिवासी के हाथ में चीन की बनी हुई रायफलें पहुचने लगी .
बस्तर का ही कोंडागांव दूसरा ऐसा संवेदनशील इलाक़ा है जो सुरक्षा बलों और माओवादी हिंसा से लहुलुहान हुआ पड़ा है| यह भी जिला बन गया है| छत्तीसगढ़ में इस तरह नौ में से पांच नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में नए जिलों का गठन हुआ है| छत्तीसगढ़ में पिछले लगभग दस सालों में ही ज़िलों की संख्या 16 से बढ़ते कर 27 पहुंच गई है| सुकमा और कोंडागांव के अलावा जिन इलाक़ों को ज़िलों का दर्ज़ा दिया गया है, उनमें बालौद, गरियाबंद, मुंगेली, बेमेतरा, सूरजपुर, बलौदाबाज़ार और बलरामपुर शामिल हैं| बस्तर में पदस्थ सीआरपीएफ़ के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक सुरजीत सिंह की भी राय है कि छोटे जिलों से अभियान को बल मिलेगा|
सरकार चला रहे रमन सिंह का यह कदम बताता है कि अब यह भी माना जा रहा है कि हिंसा की बजाय किसी और रास्ते से लोगों का जीवन बदला जाए. अब बस्तर का हल गोली नही बोली है और बंदूकों से हो रहे विनाश की जगह विकास से ही है. अबूझमाड़ में सभी आदिवासी इलाकों में अस्पताल, स्कूल और सड़क की दिक्कतों को दूर किया जाए और औद्योगिकरण की स्थिति में विस्थापन औऱ रोजगार की कारगर योजना के साथ वनोपज संग्रह-विपणन में भी आदिवासियों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए| सारी बंदूकों को वहां से रुखसत करा के आदिवासियों को उनकी संस्कृति के हाल पे ही छोड़ दे तो बस्तर की मैना फिर से चहक सकती है.
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छत्तीसगढ़ की अभिव्यक्ति,
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- रमेश शर्मा
- रायपुर, छत्तीसगढ़, India
- कालाहांडी (उड़ीसा) में जन्म, छत्तीसगढ़ में पला-बढ़ा। पूरे 16 साल दिल्ली में रह कर आत्मनिर्भरता की सीख हासिल हुई | 1986 में बैचलर आफ जर्नलिज्म(प्रावीण्य-सूची)रायपुर से करने से पहले ही 1980 के दशक में कविताएँ लिखते हुए पत्रकारिता का भूत सवार हुआ और आखिरकार 'युगधर्म' रायपुर से शुरुआत हो गयी| सपनो ने उड़ान भरी और रायपुर का आकाश छोटा लगने लगा|किसी तरह दो साल देशबंधु व नवभारत में भी गुजार कर 1986 में दिल्ली प्रस्थान, दिल्ली प्रेस (प्रभारी 'सुमन सौरभ' पत्रिका), यूनीवार्ता, नभाटा, जनसत्ता, हिन्दुस्तान,दिनमान, वामा इत्यादि में स्वतंत्र लेखन करते इंद्रधनुष वीडियो मैगजीन इत्यादि ठिकानों पर भटकते हुए 1991 में Rashtriya Sahara में निर्भीक अपनत्व और सच बोल सकने लायक हौसला मिला मिला। 1986 से 2003 तक दिल्ली, कुछ अरसा देवभूमि देहरादून (उत्तराखंड) में गुजार लौट के बुद्धू घर को आए| परिचय में फिलहाल इतना ही कि 'राष्ट्रीय सहारा' के ब्यूरो प्रमुख छत्तीसगढ़ के रूप में लगातार पत्रकारिता जारी। लीक से हट कर कुछ करने की जन्मजात तमन्ना में वेब जर्नालिज्म के इरादे से इस ब्लॉग की शुरुआत| "यायावर" का कोई ठिकाना नहीं होता फिलहाल अपना ठिकाना अब तक तो रायपुर है। संपर्क ईमेल-cgexpress2009@gmail.com/HELLO-09826900659 ©2011
कबाड़घर
संपर्क
Email-cgexpress2009@gmail.com
9 comments:
thanx aapkne mere blog par sadsytali sda hi svagat hae.
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
आजादी के इतने सालों बाद भी हालात सुधरे नहीं बल्कि बिगडे अधिक हैं। छोटे स्वार्थों के लिये देश का बडा अहित करने में परहेज नहीं है।
संवेदना जगानेवाली पोस्ट।
डॉ रमन सिंह को ढेर सारी शुभकामनाएं
अच्छी पोस्ट