महात्मा
गाँधी (2 अक्तूबर, 1869 – 30 जनवरी, 1948) को ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का नेता और राष्ट्रपिता माना जाता है। इनका पूरा
नाम मोहनदास करमचंद गाँधी था। राजनीतिक और सामाजिक प्रगति की प्राप्ति हेतु
अपने अहिंसक विरोध के सिद्धांत के लिए उन्हें अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त
हुई। मोहनदास करमचंद गांधी भारत एवं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक
प्रमुख राजनीतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे।
जीवन परिचय महात्मा गांधी का जन्म 2
अक्तूबर 1869 ई. को गुजरात के पोरबंदर नामक स्थान पर हुआ था। उनके
माता-पिता कट्टर हिन्दू थे। इनके पिता का नाम करमचंद गाँधी था। मोहनदास की
माता का नाम पुतलीबाई था जो करमचंद गांधी जी की चौथी पत्नी थीं। मोहनदास
अपने पिता की चौथी पत्नी की अन्तिम संतान थे। उनके पिता करमचंद (कबा गांधी)
पहले ब्रिटिश शासन के तहत पश्चिमी भारत के गुजरात राज्य में एक छोटी-सी
रियासत की राजधानी पोरबंदर के दीवान थे और बाद में क्रमशः राजकोट
(कठियावाड़) और वांकानेर में दीवान रहे। करमचंद गांधी ने बहुत अधिक औपचारिक
शिक्षा तो प्राप्त नहीं की थी, लेकिन वह एक कुशल प्रशासक थे और उन्हें
सनकी राजकुमारों, उनकी दुःखी प्रजा तथा सत्तासीन कट्टर ब्रिटिश राजनीतिक
अधिकारियों के बीच अपना रास्ता निकालना आता था।
बाल्यावस्था
महात्मा गाँधीगांधी की माँ पुतलीबाई
अत्यधिक धार्मिक थीं और भोग-विलास में उनकी ज़्यादा रुचि नहीं थी। उनकी
दिनचर्या घर और मन्दिर में बंटी हुई थी। वह नियमित रूप से उपवास रखती थीं
और परिवार में किसी के बीमार पड़ने पर उसकी सेवा सुश्रुषा में दिन-रात एक
कर देती थीं। मोहनदास का लालन-पालन वैष्णव मत में रमे परिवार में हुआ और उन
पर कठिन नीतियों वाले भारतीय धर्म जैन धर्म का गहरा प्रभाव पड़ा। जिसके
मुख्य सिद्धांत, अहिंसा एवं विश्व की सभी वस्तुओं को शाश्वत मानना है। इस
प्रकार, उन्होंने स्वाभाविक रूप से अहिंसा, शाकाहार, आत्मशुद्धि के लिए
उपवास और विभिन्न पंथों को मानने वालों के बीच परस्पर सहिष्णुता को अपनाया।
युवावस्था
मोहनदास एक औसत विद्यार्थी थे, हालाँकि
उन्होंने यदा-कदा पुरस्कार और छात्रवृत्तियाँ भी जीतीं। एक सत्रांत-परीक्षा
में उनके परिणाम में – अंग्रेज़ी में अच्छा, अंकगणित में ठीक-ठाक भूगोल
में ख़राब, चाल-चलन बहुत अच्छा, लिखावट ख़राब की टिप्पणी की गई थी। वह
पढ़ाई व खेल, दोनों में ही प्रखर नहीं थे। बीमार पिता की सेवा करना और
घरेलू कामों में माँ का हाथ बंटाना और समय मिलने पर दूर तक अकेले सैर पर
निकलना उन्हें पसंद था। उन्हीं के शब्दों में उन्होंने ‘बड़ों की आज्ञा का
पालन करना सीखा, उनमें मीनमेख निकालना नहीं।’ वह किशोरावस्था के विद्रोही
दौर से भी गुज़रे, जिसमें गुप्त नास्तिकवाद, छोटी-मोटी चोरियाँ, छिपकर
धूम्रपान और वैष्णव परिवार में जन्मे किसी लड़के के लिए सबसे ज़्यादा
चौंकाने वाली बात – माँस खाना शामिल था। उनकी किशोरावस्था उनकी आयु और वर्ग
के अधिकांश बच्चों से अधिक हलचल भरी नहीं थी। उनकी युवावस्था की नादानियों
का अन्तिम बिन्दु असाधारण था। हर ऐसी नादानी के बाद वह स्वयं वादा करते
‘फिर कभी ऐसा नहीं करूँगा’ और अपने वादे पर अटल रहते। उनमें आत्मसुधार की
लौ जलती रहती थी, जिसके कारण उन्होंने सच्चाई और बलिदान के प्रतीक प्रह्लाद
और हरिश्चंद्र जैसे पौराणिक हिन्दू नायकों को सजीव आदर्श के रूप में ग्रहण
किया।
शिक्षा
महात्मा गाँधी1887 में मोहनदास ने
जैसे-तैसे बंबई यूनिवर्सिटी की मैट्रिक की परीक्षा पास की और भावनगर स्थित
सामलदास कॉलेज में दाख़िला लिया। अचानक गुजराती से अंग्रेज़ी भाषा में जाने
से उन्हें व्याख्यानों को समझने में कुछ दिक्कत होने लगी। इस बीच उनके
परिवार में उनके भविष्य को लेकर चर्चा चल रही थी। अगर निर्णय उन पर छोड़ा
जाता, तो वह डॉक्टर बनना चाहते थे। लेकिन वैष्णव परिवार में चीरफ़ाड़ के
ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह के अलावा यह भी स्पष्ट था कि यदि उन्हें गुजरात के किसी
राजघराने में उच्च पद प्राप्त करने की पारिवारिक परम्परा निभानी है, तो
उन्हें बैरिस्टर बनना पड़ेगा। इसका अर्थ था इंग्लैंड यात्रा और गांधी ने,
जिनका सामलदास कॉलेज में ख़ास मन नहीं लग रहा था, इस प्रस्ताव को सहर्ष ही
स्वीकार कर लिया। उनके युवा मन में इंग्लैंड की छवि ‘दार्शनिकों और कवियों
की भूमि, सम्पूर्ण सभ्यता के केन्द्र’ के रूप में थी। सितंबर 1888 में वह
पानी के जहाज़ पर सवार हुए। वहाँ पहुँचने के 10 दिन बाद वह लंदन के चार
क़ानून महाविद्यालय में से एक ‘इनर टेंपल’ में दाख़िल हो गए।
परिवार
मोहनदास करमचंद जब केवल तेरह वर्ष के थे
और स्कूल में पढ़ते थे, पोरबंदर के एक व्यापारी की पुत्री कस्तूरबाई
(कस्तूरबा) से उनका विवाह कर दिया गया। वर-वधु की अवस्था लगभग समान थी।
दोनों ने 62 वर्ष तक वैवाहिक जीवन बिताया। 1944 ई. में पूना की ब्रिटिश जेल
में कस्तूरबा का स्वर्गवास हुआ। गांधीजी अठारह वर्ष की आयु में ही एक
पुत्र के पिता हो गये थे। गाँधी जी के चार पुत्र हुए जिनके नाम थे:-हरिलाल,
मनिलाल, रामदास, देवदास।
इंग्लैंड
गांधी ने अपनी पढ़ाई को गम्भीरता से लिया
और लंदन यूनिवर्सिटी मैट्रिकुलेशन परीक्षा में बैठकर अंग्रेज़ी तथा लैटिन
को सुधारने का प्रयास किया। राजकोट के अर्द्ध ग्रामीण माहौल से लंदन के
महानगरीय जीवन में परिवर्तन उनके लिए आसान नहीं था। जब वह पश्चिमी खान-पान,
तहज़ीब और पहनावे को अपनाने के लिए जूझते, उन्हें अटपटा लगता। उनका
शाकाहारी होना उनके लिए लगातार शर्मिंदगी का कारण बन जाता। उनके मित्रों ने
उन्हें चेतावनी दी कि इसका दुष्प्रभाव उनके अध्ययन और स्वास्थ्य, दोनों पर
पड़ेगा। सौभाग्यवश उन्हें एक शाकाहारी रेस्तरां के साथ-साथ एक पुस्तक मिल
गई, जिसमें शाकाहार के पक्ष में तर्क दिए गए थे। वह लंदन वेजीटेरियन
सोसाइटी के कार्यकारी सदस्य भी बन गए और उसके सम्मेलनों में भाग लेने लगे
तथा उसकी पत्रिका में भी लिखने लगे। यहाँ तीन वर्षों (1888-91) तक रहकर
उन्होंने बैरिस्टरी पास की। जैसे छोटा-सा तिनका हवा का रुख बताता है वैसे
ही मामूली घटनाएँ मनुष्य के हृदय की वृत्ति को बताती हैं। महात्मा गांधी
इंग्लैंड के शाकाहारी रेस्तरां और आवास – गृहों में गांधी की मुलाक़ात न
सिर्फ़ भोजन के मामले में कट्टर लोगों से हुई, बल्कि उन्हें कुछ गम्भीर
स्त्री-पुरुष भी मिले। जिन्हें बाइबिल और भगवदगीता से परिचय कराने का श्रेय
दिया। भगवदगीता को उन्होंने सबसे पहले सर एडविन आर्नोल्ड के अंग्रेज़ी
अनुवाद में पढ़ा। परिचित शाकाहारी अंग्रेज़ों में एडवर्ड कारपेंटर जैसे
समाजवादी और मानवतावादी थे, जो कि ब्रिटिश थोरो कहलाते थे। जॉर्ज बर्नाड शॉ
जैसे फ़ेबियन, और एनी बेसेंट सरीखे धर्मशास्त्री शामिल थे। उनमें से
अधिकांश आदर्शवादी थे। कुछ विद्रोही तेवर के भी थे। जो उत्तरवर्ती
विक्टोरियाई व्यवस्था के तत्कालीन मूल्यों को नहीं जानते थे। वे सादा जीवन
के मुक़ाबले सहयोग को अधिक महत्त्व देते थे। इन विचारों ने गांधी के
व्यक्तित्व और बाद में उनकी राजनीति को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका
निभाई। आपका कोई भी काम महत्त्वहीन हो सकता है पर महत्त्वपूर्ण यह है कि आप
कुछ करें।
महात्मा गांधी जुलाई 1891 में जब गांधी
भारत लौटे, तो अनुपस्थिति में उनकी माता का देहान्त हो चुका था और उन्हें
यह जानकर बहुत निराशा हुई कि बैरिस्टर की डिग्री से अच्छे पेशेवर जीवन की
गारंटी नहीं मिल सकती। वकालत के पेशे में पहले ही काफ़ी भीड़ हो चुकी थी और
गांधी उनमें अपनी जगह बनाने के मामले में बहुत संकोची थे। बंबई (वर्तमान
मुंबई) न्यायालय में पहली ही बहस में वह नाकाम रहे। यहाँ तक की बंबई उच्च
न्यायालय में अल्पकालिक शिक्षक के पद के लिए भी उन्हें अस्वीकार कर दिया
गया। इसलिए वह राजकोट लौटकर मुक़दमा करने वालों के लिए अर्ज़ी लिखने जैसे
छोटे कामों के ज़रिये रोज़ी-रोटी कमाने लगे। एक स्थानीय ब्रिटिश अधिकारी को
नाराज़ कर देने के कारण उनका यह काम भी बन्द हो गया। इसलिए उन्होंने
दक्षिण अफ़्रीका में नटाल स्थित एक भारतीय कम्पनी से एक साल के अनुबंध को
स्वीकार करके राहत की साँस ली।
दक्षिण अफ़्रीका
मुख्य लेख : अफ़्रीका में गाँधी डरबन
न्यायालय में यूरोपीय मजिस्ट्रेट ने उन्हें पगड़ी उतारने के लिए कहा,
उन्होंने इन्कार कर दिया और न्यायालय से बाहर चले गए। कुछ दिनों के बाद
प्रिटोरिया जाते समय उन्हें रेलवे के प्रथम श्रेणी के डिब्बे से बाहर फेंक
दिया गया और उन्होंने स्टेशन पर ठिठुरते हुए रात बिताई। यात्रा के अगले चरण
में उन्हें एक घोड़ागाड़ी के चालक से पिटना पड़ा, क्योंकि यूरोपीय यात्री
को जगह देकर पायदान पर यात्रा करने से उन्होंने इन्कार कर दिया था, और
अन्ततः ‘सिर्फ़ यूरोपीय लोगों के लिए’ सुरक्षित होटलों में उनके जाने पर
रोक लगा दी गई।
सत्याग्रह आन्दोलन, महात्मा गाँधीनटाल
में भारतीय व्यापारियों और श्रमिकों के लिए ये अपमान दैनिक जीवन का हिस्सा
था। जो नया था, वह गांधी का अनुभव न होकर उनकी प्रतिक्रिया थी। अब तक वह
हठधर्मिता और उग्रता के पक्ष में नहीं थे, लेकिन जब उन्हें अनपेक्षित
अपमानों से गुज़रना पड़ा, तो उनमें कुछ बदलाव आया। बाद में देखने पर उन्हें
लगा कि डरबन से प्रिटोरिया तक की यात्रा उनके जीवन के महानतम रचनात्मक
अनुभवों में से एक थी। यह उनके सत्य का क्षण था।
प्रतिरोध और परिणाम
गांधी मनमुटाव पालने वाले व्यक्ति नहीं
थे। 1899 में दक्षिण अफ़्रीका (बोअर) युद्ध छिड़ने पर उन्होंने नटाल के
ब्रिटिश उपनिवेश में नागरिकता के सम्पूर्ण अधिकारों का दावा करने वाले
भारतीयों से कहा कि उपनिवेश की रक्षा करना उनका कर्तव्य है। उन्होंने 1100
स्वयं सेवकों की एंबुलेन्स कोर की स्थापना की, जिसमें 300 स्वतंत्र भारतीय
और बाक़ी बंधुआ मज़दूर थे। यह एक पंचमेल समूह था– बैरिस्टर और लेखाकार,
कारीगर और मज़दूर। युद्ध की समाप्ति से दक्षिण अफ़्रीका के भारतीयों को
शायद ही कोई राहत मिली। गांधी ने देखा कि कुछ ईसाई मिशनरियों और युवा
आदर्शवादियों के अलावा दक्षिण अफ़्रीका में रहने वाले यूरोपियों पर
आशानुरूप छाप छोड़ने में वह असफल रहे हैं। 1906 में टांसवाल सरकार ने वहाँ
की भारतीय जनता के पंजीकरण के लिए विशेष रूप से अपमानजनक अध्यादेश जारी
किया। भारतीयों ने सितंबर 1906 में जोहेन्सबर्ग में गांधी के नेतृत्व में
एक विरोध जनसभा का आयोजन किया और इस अध्यादेश के उल्लंघन तथा इसके
परिणामस्वरूप दंड भुगतने की शपथ ली। इस प्रकार सत्याग्रह का जन्म हुआ, जो
वेदना पहुँचाने के बजाय उन्हें झेलने, विद्वेषहीन प्रतिरोध करने और बिना
हिंसा के उससे लड़ने की नई तकनीक थी। हिन्दी लिपी और भाषा जानना हर भारतीय
का कर्तव्य है। उस भाषा का स्वरूप जानने के लिए ‘रामायण’ जैसी दूसरी पुस्तक
शायद ही मिलेगी। महात्मा गांधी दक्षिण अफ़्रीका में सात वर्ष से अधिक समय
तक संघर्ष चला। इसमें उतार-चढ़ाव आते रहे, लेकिन गांधी के नेतृत्व में
भारतीय अल्पसंख्यकों के छोटे से समुदाय ने अपने शक्तिशाली प्रतिपक्षियों के
ख़िलाफ़ संघर्ष जारी रखा। सैकड़ों भारतीयों ने अपने अंतःकरण और स्वाभिमान
को चोट पहुँचाने वाले क़ानून के सामने झुकने के बजाय अपनी आजीविका तथा
स्वतंत्रता की बलि चढ़ाना ज़्यादा पसंद किया। 1913 में आंदोलन के अन्तिम
चरण में महिलाओं समेत सैकड़ों भारतीयों ने कारावास की सज़ा भुगती तथा
खदानों में काम बन्द करके हड़ताल कर रहे हज़ारों भारतीय मज़दूरों ने कोड़ों
की मार, जेल की सज़ा और यहाँ तक की गोली मारने के आदेश का भी साहसपूर्ण
सामना किया। भारतीयों के लिए यह घोर यंत्रणा थी। लेकिन दक्षिण अफ़्रीकी
सरकार के लिय यह सबसे ख़राब प्रचार सिद्ध हुआ और उसने भारत व ब्रिटिश सरकार
के दबाव के तहत एक समझौते को स्वीकार किया। जिस पर एक ओर से गांधी तथा
दूसरी ओर से दक्षिण अफ़्रीकी सरकार के प्रतिनिधि जनरल जॉन क्रिश्चियन
स्मट्स ने बातचीत की थी। भारत की सभ्यता की रक्षा करने में तुलसीदास ने
बहुत अधिक भाग लिया है। तुलसीदास के चेतनमय रामचरितमानस के अभाव में
किसानों का जीवन जड़वत और शुष्क बन जाता है – पता नहीं कैसे क्या हुआ,
परन्तु यह निर्विवाद है कि तुलसीदास जी भाषा में जो प्राणप्रद शक्ति है वह
दूसरों की भाषा में नहीं पाई जाती। रामचरितमानस विचार-रत्नों का भण्डार है।
महात्मा गांधी जुलाई 1914 में दक्षिण अफ़्रीका से गांधी के भारत प्रस्थान
के बाद स्मट्स ने एक मित्र को लिखा था, ‘संत ने हमारी भूमि से विदा ले ली
है, आशा है सदा के लिए’ ; 25 वर्ष के बाद उन्होंने लिखा, ‘ऐसे व्यक्ति का
विरोधी होना मेरी नियति थी, जिनके लिए तब भी मेरे मन में बहुत सम्मान था’ ,
अपनी अनेक जेल यात्राओं के दौरान एक बार गांधी ने स्मट्स के लिए एक जोड़ी
चप्पल बनाई थी। स्मट्स का संस्मरण है कि उनके बीच कोई घृणा या व्यक्तिगत
दुर्भाव नहीं था और जब लड़ाई खत्म हो गई तो ‘माहौल ऐसा था, जिसमें एक
सम्मानजनक समझौते को अंजाम दिया जा सकता था।’ धार्मिक खोज गांधी की धार्मिक
खोज उनकी माता, पोरबंदर तथा राजकोट स्थित घर के प्रभाव से बचपन में ही
शुरू हो गई थी। लेकिन दक्षिण अफ़्रीका पहुँचने पर इसे काफ़ी बल मिला। वह
ईसाई धर्म पर टॉल्सटाय के लेखन पर मुग्ध थे। उन्होंने क़ुरान के अनुवाद का
अध्ययन किया और हिन्दू अभिलेखों तथा दर्शन में डुबकियाँ लगाईं। सापेक्षिक
कर्म के अध्ययन, विद्वानों के साथ बातचीत और धर्मशास्त्रीय कृतियों के निजी
अध्ययन से वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सभी धर्म सत्य हैं और फिर भी हर एक
धर्म अपूर्ण है। क्योंकि उनकी व्याख्या स्तरहीन बृद्धि, कभी-कभी संकीर्ण
हृदय से की गई है और अक्सर दुर्व्याख्या हुई है। भगवदगीता, जिसका गांधी ने
पहली बार इंग्लैंड में अध्ययन किया था, उनका ‘आध्यात्मिक शब्दकोश’ बन गया
और सम्भवतः उनके जीवन पर इसी का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा। गीता में उल्लिखित
संस्कृत के दो शब्दों ने उन्हें सबसे ज़्यादा आकर्षित किया। एक था अपरिग्रह
(त्याग), जिसका अर्थ है, मनुष्य को अपने आध्यात्मिक जीवन को बाधित करने
वाली भौतिक वस्तुओं का त्याग कर देना चाहिए और उसे धन-सम्पत्ति के बंधनों
से मुक्त हो जाना चाहिए। दूसरा शब्द है समभाव (समान भाव), जिसने उन्हें
दुःख या सुख, जीत या हार, सबमें अडिग रहना तथा सफलता की आशा या असफलता के
भय के बिना काम करना सिखाया। ये सिर्फ़ पूर्णता के समोपदेश नहीं थे। जिस
दीवानी मुक़दमें के कारण वह 1893 में दक्षिण अफ़्रीका आए थे, उसमें
उन्होंने दोनों विरोधियों को न्यायालय से बाहर ही समझौता करने पर राज़ी कर
लिया था। उनके अनुसार, एक सच्चे वकील का काम ‘विरोधी पक्षों को एकजुट करना
था। जल्दी ही वह मुवक्किलों को अपनी सेवा के ख़रीदार के बजाय मित्र समझने
लगे, जो न सिर्फ़ क़ानूनी मामलों में उनकी सलाह लेते थे, बल्कि बच्चे से
माँ का दूध छुड़ाने और परिवार के बजट में संतुलन जैसे मामलों पर भी राय
लेते थे। जब एक सहयोगी ने रविवार को भी मुवक्किलों के आने पर विरोध किया,
तो गांधी का जवाब था ‘विपत्ति में फँसे आदमी के पास रविवार का आराम नहीं
होता’। प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू ने राष्ट्र को महात्मा जी की
हत्या की सूचना इन शब्दों में दी, ‘हमारे जीवन से प्रकाश चला गया और आज
चारों तरफ़ अंधकार छा गया है। मैं नहीं जानता कि मैं आपको क्या बताऊँ और
कैसे बताऊँ। हमारे प्यारे नेता, राष्ट्रपिता बापू अब नहीं रहे।’ महात्मा
गांधी वास्तव में भारत के राष्ट्रपिता थे। 27 वर्षों के अल्पकाल में
उन्होंने भारत को सदियों की दासता के अंधेरे से निकालकर आज़ादी के उज़ाले
में पहुँचा दिया। किन्तु गांधीजी का योगदान सिर्फ़ भारत की सीमाओं तक सीमित
नहीं था। उनका प्रभाव सम्पूर्ण मानव जाति पर पड़ा क़ानून के पेशे में
गांधी की अधिकतम आय 5,000 रुपये प्रतिवर्ष पहुँच गई थी लेकिन पैसा कमाने
में उनकी अधिक रुचि नहीं थी और उनकी बचत अक्सर सार्वजनिक गतिविधियों पर
खर्च हो जाती थी। डरबन में और फिर जोहेन्सबर्ग में, उन्होंने सदाव्रत खोल
रखा था। उनका घर युवा सहकर्मियों तथा राजनीतिक सहयोगियों का ठिकाना बन गया
था। यह सब उनकी पत्नी को परेशान करता था। जिनके असाधारण धैर्य, सहनशीलता और
आत्मबलिदान के बिना गांधी सार्वजनिक सरोकार के प्रति शायद ही स्वयं को
समर्पित कर पाते। जैसे-जैसे वे दोनों परिवार और सम्पत्ति के पारम्परिक
बंधनों से मुक्त होते गए, उनके निजी व सामुदायिक जीवन का अंतर सिमटता गया।
गांधी सादा जीवन, शारीरिक श्रम और संयम के प्रति अत्यधिक आकर्षण महसूस करते
थे। 1904 में पूँजीवाद के आलोचक जॉन रस्किन के ‘अनटू दिस लास्ट’ पढ़ने के
बाद उन्होंने डरबन के पास फ़ीनिक्स में एक फ़ार्म की स्थापना की, जहाँ वह
अपने मित्रों के साथ केवल अपने श्रम के बूते पर जी सकते थे। छः वर्ष के बाद
गांधी की देखरेख में जोहेन्सबर्ग के पास एक नई बस्ती विकसित हुई। रूसी
लेखक और नीतिज्ञ के नाम पर इसे ‘टॉल्सटाय फ़ार्म’ का नाम दिया गया। गांधी
टॉल्सटाय के प्रशंसक थे और उनसे पत्र व्यवहार करते थे। ये दो बस्तियाँ,
भारत में अहमदाबाद के पास साबरमती और वर्धा के पास सेवाग्राम में बनीं, जो
अधिक प्रसिद्ध आश्रमों की पूर्ववर्ती थीं। राम-शब्द के उच्चारण से
लाखों—करोड़ों हिन्दुओं पर फ़ौरन असर होगा। और ‘गॉड’ शब्द का अर्थ समझने पर
भी उसका उन पर कोई असर न होगा। चिरकाल के प्रयोग से और उनके उपयोग के साथ
संयोजित पवित्रता से शब्दों को शक्ति प्राप्त होती है। महात्मा गांधी
राष्ट्रवादी भारत के नेता के रूप में उदय सन् 1914 में गांधीजी भारत लौट
आये। देशवासियों ने उनका भव्य स्वागत किया और उन्हें महात्मा पुकारना शुरू
कर दिया। उन्होंने अगले चार वर्ष भारतीय स्थिति का अध्ययन करने तथा स्वयं
को उन लोगों को तैयार करने में बिताये जो सत्याग्रह के द्वारा भारत में
प्रचलित सामाजिक व राजनीतिक बुराइयों को हटाने में उनका अनुगमन करना चाहते
थे। इस दौरान गांधीजी मूक पर्यवेक्षक नहीं रहे। 1915 से 1918 तक के काल में
गांधी भारतीय राजनीति की परिधि पर अनिश्चितता से मंडराते रहे। इस काल में
उन्होंने किसी भी राजनीतिक आंदोलन में शामिल होने से इन्कार कर दिया तथा
प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन के प्रयासों, यहाँ तक की भारत की ब्रिटिश
फ़ौज में सिपाहियों की भर्ती का भी समर्थन किया। साथ ही वह ब्रिटिश
अधिकारियों की उद्दंडता भरी हरकतों की आलोचना भी करते थे तथा उन्होंने
बिहार व गुजरात के किसानों के उत्पीड़न का मामला भी उठाया। फ़रवरी 1919 में
रॉलेक्ट एक्ट पर, जिसके तहत किसी भी व्यक्ति को बिना मुक़दमा चलाए जेल
भेजने का प्रावधान था, उन्होंने अंग्रेज़ों का विरोध किया।
गांधी ने सत्याग्रह आन्दोलन की घोषणा की।
इसके परिणामस्वरूप एक ऐसा राजनीतिक भूचाल आया, जिसने 1919 के बसंत में
समूचे उपमहाद्वीप को झकझोर दिया। हिंसा भड़क उठी, जिसके बाद ब्रिटिश
नेतृत्व में सैनिकों ने अमृतसर में जलियांवाला बाग़ की एक सभा में शामिल
लोगों पर गोलियाँ बरसाकर लगभग 400 भारतीयों का मार डाला और मार्शल लॉ लगा
दिया गया। इसने गांधी को अपना रुख बदलने के लिए प्रेरित किया, लेकिन एक साल
के भीतर ही वह एक बार फिर उग्र तेवर में आ गए। ब्रिटिश अदालतों तथा स्कूल
और कॉलेजों का बहिष्कार करें तथा सरकार के साथ असहयोग करके उसे पूरी तरह
अपंग बना दें। भारत में सत्याग्रह 30 जनवरी मार्ग, दिल्ली, जहाँ गाँधी जी
को गोली मारी गईगांधी जी ने वर्ष 1917-18 के दौरान बिहार के चम्पा़रण नामक
स्थामन के खेतों में पहली बार भारत में सत्याजग्रह का प्रयोग किया। यहाँ
अकाल के समय ग़रीब किसानों को अपने जीवित रहने के लिए जरुरी खाद्य फ़सलें
उगाने के स्थाान पर नील की खेती करने के लिए ज़ोर डाला जा रहा था। उन्हें
अपनी पैदावार का कम मूल्य दिया जा रहा था और उन पर भारी करों का दबाव था।
गांधी जी ने उस गांव का विस्तृंत अध्य यन किया और जमींदारों के विरुद्ध
विरोध का आयोजन किया, जिसके परिणाम स्व रूप उन्हेंभ गिरफ्तार कर लिया गया।
उनके कारावास में डाले जाने के बाद और अधिक प्रदर्शन किए गए। जल्दीक ही
गांधी जी को छोड़ दिया गया और जमींदारों ने किसानों के पक्ष में एक
करारनामे पर हस्तािक्षर किए, जिससे उनकी स्थिति में सुधार आया। मैं तो एक
ऐसे राष्ट्रपति की कल्पना करता हूँ जो नाई या मोची का धन्धा करके अपना
निर्वाह करता हो और साथ ही राष्ट्र की बागडोर भी अपने हाथों में थामे हुए
हो। महात्मा गांधी इस सफलता से प्रेरणा लेकर महात्माो गांधी ने भारतीय
स्वंतंत्रता के लिए किए जाने वाले अन्यी अभियानों में सत्यालग्रह और अहिंसा
के विरोध जारी रखे, जैसे कि ‘असहयोग आंदोलन’, ‘नागरिक अवज्ञा आंदोलन’,
‘दांडी यात्रा’ तथा ‘भारत छोड़ो आंदोलन’, गांधी जी के प्रयासों से अंत में
भारत को 15 अगस्त, 1947 को स्व तंत्रता मिली। रॉलेक्ट एक्ट क़ानून गांधीजी
के इस आह्वान पर रॉलेक्ट एक्ट क़ानून के विरोध में बम्बई तथा देश के सभी
प्रमुख नगरों में 30 मार्च 1919 को और 6 अप्रैल 1919 को हड़ताल हुई। हड़ताल
के दिन सभी शहरों का जीवन ठप्प हो गया। व्यापार बंद रहा और अंग्रेज़ अफ़सर
असहाय से देखते रहे। इस हड़ताल ने असहयोग के हथियार की शक्ति पूरी तरह
प्रकट कर दी। सन् 1920 में गांधीजी कांग्रेस के नेता बन गये और उनके निर्दश
और उनकी प्रेरणा से हज़ारों भारतीयों ने ब्रिटिश सरकार के साथ पूर्ण
सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया। हज़ारों असहयोगियों को ब्रिटिश जेलों में ठूँस
दिया गया और लाखों लोगों पर सरकारी अधिकारियों ने बर्बर अत्याचार किये।
ब्रिटिश सरकार के इस दमनचक्र के कारण लोग अहिंसक न रह सके और कई स्थानों पर
हिंसा भड़क उठी। हिंसा का इस तरह भड़क उठना गांधीजी को अच्छा नहीं लगा।
उन्होंने स्वीकार किया कि अहिंसा के अनुशासन में बाँधे बिना लोगों को
असहयोग आंदोलन के लिए प्रेरित कर उन्होंने ‘हिमालय जैसी भूल की है’ और यह
सोचकर उन्होंने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। अहिंसक असहयोग आंदोलन के
फलस्वरूप जिस स्वराज्य को गांधीजी ने एक वर्ष के अंदर लाने का वादा किया था
वह नहीं आ सका। फिर भी लोग आंदोलन की विफलता की ओर ध्यान नहीं देना चाहते
थे, क्योंकि असलियत में देखा जाए तो इस अहिंसक असहयोग आंदोलन को जबरदस्त
सफलता हासिल हुई। उसने भारतीयों के मन से ब्रिटिश तोपों, संगीनों और जेलों
का ख़ौफ़ निकालकर उन्हें निडर बना दिया। जिससे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य
की नींव हिल गयी। भारत में ब्रिटिश शासन के दिन अब इने-गिने रह गये। फिर भी
अभी संघर्ष कठिन और लम्बा था। सन् 1922 में गांधीजी को राजद्रोह के अभियोग
में गिरफ़्तार कर लिया गया। उन पर मुक़दमा चलाया गया और एक मधुरभाषी
ब्रिटिश जज ने उन्हें छः वर्ष की क़ैद की सज़ा दी। सन् 1924 में
अपेंडिसाइटिस की बीमारी की वजह से उन्हें रिहा कर दिया गया। असहयोग आन्दोलन
मुख्य लेख : असहयोग आन्दोलन महात्मा गाँधी 1920 के पतझड़ तक गांधी
राजनीतिक मंच पर छा गए थे और भारत या शायद किसी भी देश में, किसी
राजनीतिज्ञ का इतना प्रभाव कभी भी नहीं रहा था। उन्होंने 35 वर्ष पुरानी
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को भारतीय राष्ट्रवाद के प्रभावशाली राजनीतिक
हथियार में बदल दिया। गांधी का संदेश बहुत सरल था। अंग्रेज़ों की बंदूकों
ने नहीं, बल्कि भारतवासियों की अपनी कमियों ने भारत को ग़ुलाम बनाया हुआ
है। ब्रिटिश सरकार के साथ उनके अहिंसक असहयोग में न सिर्फ़ वस्तुओं, बल्कि
भारत में अंग्रेज़ों द्वारा संचालित या उनकी मदद से चल रहे संस्थानों—जैसे
विधायिका, न्यायालय, कार्यालय या स्कूल – का बहिष्कार भी शामिल था। इस
कार्यक्रम ने देश में जोश फूँक दिया, विदेशी शासन के भय का फंदा काट दिया
और इसके फलस्वरूप क़ानून तोड़कर ख़ुशी-ख़ुशी जेल जाने को तैयार हज़ारों
सत्याग्रहियों को गिरफ़्तार कर लिया गया। मानस का प्रत्येक पृष्ठ भक्ति से
भरपूर है। मानस अनुभवजन्य ज्ञान का भण्डार है। महात्मा गांधी फ़रवरी 1922
में यह आन्दोलन ज़ोर पकड़ता प्रतीत हुआ, लेकिन पूर्वी भारत के दूरदराज़ के
एक गाँव चौरी चौरा में हिंसा भड़कने से चिन्तित गांधी ने सविनय अवज्ञा
आन्दोलन वापस ले लिया। 10 मार्च 1922 को गांधी को गिरफ़्तार कर लिया गया और
उन्हें छः वर्षों के कारावास की सज़ा हुई। अपेंडिसाइटिस के आपरेशन के बाद
फ़रवरी 1924 में उन्हें रिहा कर दिया गया। उनकी अनुपस्थिति में राजनीतिक
परिदृश्य बदल चुका था। कांग्रेस पार्टी दो भागों में विभक्त हो चुकी थी। एक
चित्तरंजन दास और मोतीलाल नेहरू (भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल
नेहरू के पिता) के नेतृत्व में था। जो विधायिकाओं में पार्टी के प्रवेश के
समर्थक थे और दूसरा सी. राजगोपालाचारी और वल्लभभाई झवेरभाई पटेल का था, जो
इसके विरोधी थे। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह हुई कि 1920-22 के दौरान
असहयोग आन्दोलन में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच मौजूद एकता ख़त्म हो चुकी
थी। गांधी ने दोनों समुदायों का समझा-बुझाकर उन्हें शंकाओं तथा कट्टरवाद
के घेरे से बाहर निकालने का प्रयास किया। अंततः एक गम्भीर साम्प्रदायिक
हिंसा के बाद 1924 के पतझड़ में उन्होंने तीन सप्ताह का उपवास किया, ताकि
लोगों को अहिंसा के मार्ग पर चलने को प्रेरित किया जा सके। रचनात्मक
कार्यक्रमसन् 1925 में जब अधिकांश कांग्रेस जनों ने 1919 के भारतीय शासन
विधान द्वारा स्थापित कौंसिल में प्रवेश करने की इच्दा प्रकट की तो गांधीजी
ने कुछ समय के लिए सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया और उन्होंने अपने
आगामी तीन वर्ष ग्रामोंत्थान कार्यों में लगाय। उन्होंने गाँवों की भयंकर
निर्धनता को दूर करने के लिए चरखे पर सूत कातने का प्रचार किया और हिन्दुओं
में व्याप्त छुआछूत को मिटाने की कोशिश की। अपने इस कार्यक्रम को गांधीजी
‘रचनात्मक कार्यक्रम’ कहते थे। जुलुस की तैयारी टाउन होल – पोरबंदर 1915इस
कार्यक्रम के ज़रिये वे अन्य भारतीय नेताओं के मुक़ाबले, गाँवों में निवास
करने वाली देश की 90 प्रतिशत जनता के बहुत अधिक निकट आ गये। उन्होंने सारे
देश में गाँव-गाँव की यात्रा की, गाँव वालों की पोशाक अपना ली और उनकी भाषा
में उनसे बातचीत की। इस प्रकार उन्होंने गाँवों में रहने वाली करोड़ों की
आबादी में राजनीतिक जागृति पैदा कर दी और स्वराज्य की माँग को मध्यमवर्गीय
आंदोलन के स्तर से उठाकर देशव्यापी अदम्य जन-आंदोलन का रूप दे दिया। गोलमेज
सम्मेलन करेंगे या मरेंगे. नोट इस प्रकार है- ‘हर व्यक्ति को इस बात की
खुली छूट है कि वह अहिंसा पर आचरण करते हुए अपना पूरा ज़ोर लगाए। हड़तालों
और दूसरे अहिंसक तरीकों से पूरा गतिरोध (पैदा कर दीजिए)। सत्याग्रहियों को
मरने के लिए न कि जीवित रहने के लिए, घरों से निकलना होगा। उन्हें मौत की
तलाश में फिरना चाहिए और मौत का सामना करना चाहिए। जब लोग मरने के लिए घर
से निकलेंगे तभी कौम बचेगी, करेंगे या मरेंगे।’ 9 अगस्त 1942 को अपनी
गिरफ्तारी से पूर्व सुबह पांच बजे:- महात्मा गाँधी 1920 के दशक के मध्य में
सक्रिय राजनीति में गांधी ने अधिक रुचि नहीं दिखाई। लेकिन 1927 में
ब्रिटिश सरकार ने सर जॉन साइमन के नेतृत्व में एक संविधान सुधार आयोग का
गठन किया, जिसमें किसी भी भारतीय को शामिल नहीं किया गया था। कांग्रेस और
अन्य पार्टियों के द्वारा आयोग का बहिष्कार किए जाने से राजनीतिक घटनाक्रम
तेज़ हुआ। दिसम्बर 1928 में कोलकाता कांग्रेस की बैठक के बाद, जिसमें गांधी
ने पूर्ण स्वराज्य के लिए देशव्यापी अहिंसक आंदोलन की धमकी देकर ब्रिटिश
सरकार से एक साल के भीतर भारत को अधिराज्य का दर्जा दिए जाने की
महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव रखा। कांग्रेस पार्टी पर फिर से गांधी का नियंत्रण
हो गया। समाज के निर्धन वर्ग को प्रभावित करने वाले नमक-कर के ख़िलाफ़
उन्होंने मार्च 1930 में सत्याग्रह शुरू किया। ब्रिटिश राज्य के ख़िलाफ़
गांधी के अहिंसक युद्ध में यह सबसे विशाल और सफल आंदोलन था और इसके
फलस्वरूप 60 हज़ार से अधिक लोग गिरफ़्तार किए गए। एक साल बाद भारत के
ब्रिटिश वाइसराय लॉर्ड इरविन के साथ बातचीत के बाद गांधी ने एक समझौता
स्वीकार कर लिया। सविनय अवज्ञा आन्दोलन वापस ले लिया और लंदन में गोलमेज
सम्मेलन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में
शामिल होने के लिए सहमत हो गए। गांधीजी वहाँ पर एक सामान्य ग्रामीण भारतीय
की तरह धोती पहने और चादर ओढ़े उपस्थित हुए, जिसका विस्टन चर्चिल ने खूब
मज़ाक़ उड़ाया और उन्हें ‘भारतीय फ़क़ीर’ की संज्ञा दी। अंग्रेज़ों से
सत्ता के हस्तांतरण के बजाय भारतीय अल्पसंख्यकों की समस्या पर केन्द्रित यह
सम्मेलन भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए घोर निराशाजनक था। इसके अलावा, जब
दिसम्बर 1931 में गांधी स्वदेश लौटे तो उन्होंने पाया कि उनकी पार्टी को
लॉर्ड विलिंगडन का चौतरफ़ा आक्रमण झेलना पड़ रहा है। महात्मा गाँधी गांधी
को एक बार फिर जेल भेज दिया गया और सरकार ने उन्हें बाहरी दुनिया से
अलग-थलग करने तथा उनके प्रभाव को समाप्त करने का प्रयास किया। यह आसान
कार्य नहीं था। सितंबर 1932 में बंदी अवस्था में ही गांधी ने ब्रिटिश सरकार
के द्वारा नए संविधान में अछूतों (दलित हिन्दू) को अलग मतदाता सूची में
शामिल करके उन्हें अलग करने के निर्णय के ख़िलाफ़ अनशन शुरू कर दिया। इसके
फलस्वरूप देश भर में भावनात्मक आवेग उमड पड़ा। हिन्दू समुदाय और दलित
नेताओं ने मिल-जुलकर तेजी से एक वैकल्पिक मतदाता सूची की व्यवस्था की
रूपरेखा बनाई और ब्रिटिश सरकार ने इसे मंजूरी दे दी। यह अनशन अछूतों के
ख़िलाफ़ भेदभाव दूर करने के ज़ोरदार आन्दोलन का आरम्भ था। गांधी ने इन्हें
‘हरिजन’ नाम दिया और ‘अखिल भारतीय हरिजन संघ’ की स्थापना की। जिसका अर्थ
होता है, ‘ईश्वर की संतान’। विकारी विचार से बचने का एक अमोघ उपाय राम-नाम
है। नाम कंठ से नहीं, किन्तु हृदय से निकलना चाहिए। महात्मा गांधी 1934 में
गांधी ने न सिर्फ़ कांग्रेस के नेता के पद से, बल्कि पार्टी की सदस्यता से
भी इस्तीफ़ा दे दिया। उनका मानना था कि पार्टी के अग्रणी सदस्यों ने
सिर्फ़ राजनीतिक कारणों से अहिंसा को अपनाया है। राजनीतिक गतिविधियों के
स्थान पर अब उन्होंने ‘रचनात्मक कार्यक्रमों’ के ज़रिये ‘सबसे निचले स्तर
से’ राष्ट्र के निर्माण पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। उन्होंने ग्रामीण
भारत को, जो देश की आबादी का 85 प्रतिशत था, शिक्षित करने, छुआछूत के
ख़िलाफ़ लड़ाई जारी रखने, हाथ से कातने, बुनने और अन्य कुटीर उद्योगों के
अर्द्ध बेरोज़गार किसानों की आय में इज़ाफ़ा करने के लिए बढ़ावा देने और
लोगों की आवश्यकताओं के अनुकूल शिक्षा प्रणाली बनाने का काम शुरू किया।
स्वयं गांधी मध्य भारत के एक गाँव सेवाग्राम में रहने चले गए, जो सामाजिक
और आर्थिक विकास के उनके कार्यक्रमों का केन्द्र बना। महात्मा गाँधी और
विश्व मुख्य लेख : महात्मा गाँधी और विश्व विश्व पटल पर महात्मा गाँधी
सिर्फ़ एक नाम नहीं अपितु शान्ति और अहिंसा का प्रतीक है। महात्मा गाँधी के
पूर्व भी शान्ति और अहिंसा की अवधारणा फलित थी, परन्तु उन्होंने जिस
प्रकार सत्याग्रह एवं शान्ति व अहिंसा के रास्तों पर चलते हुये अंग्रेजों
को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया, उसका कोई दूसरा उदाहरण विश्व इतिहास में
देखने को नहीं मिलता। तभी तो प्रख्यात वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा था कि
-‘‘हज़ार साल बाद आने वाली नस्लें इस बात पर मुश्किल से विश्वास करेंगी कि
हाड़-मांस से बना ऐसा कोई इन्सान धरती पर कभी आया था।’’ संयुक्त राष्ट्र
संघ ने भी वर्ष 2007 से गाँधी जयन्ती को ‘विश्व अहिंसा दिवस’ के रूप में
मनाये जाने की घोषणा की। सम्मान में जारी डाक टिकट मुख्य लेख : डाक टिकटों
में महात्मा गाँधी एशिया महाद्वीप के रूस (रशिया), तजाकिस्तान,
अफ़गानिस्तान, वियतनाम, बर्मा, ईरान, भूटान, श्रीलंका, कजाकिस्तान,
तुर्कमेनिस्तान, किरगीजिस्तान, यमन, सीरिया और साइप्रस जैसे देश इनमें
प्रमुख हैं। यूरोपीय देशों में बेल्जियम हंगरी, चेकोस्लोवाकिया, जर्मनी,
जिब्राल्टर, ब्रिटेन, यूनान, माल्टा, पोलेंड, रोमानिया, आयरलैंड,
लक्जमबर्ग, ईजडेल द्वीप समूह, मैकोडोनिया, सैन मरीनो और स्टाफ़ा स्काटलैंड
के नाम प्रमुख हैं। अमरीकी देशों में संयुक्त राज्य अमरीका (यूनाइटेड
स्टेट), ब्राजील, चिली, कोस्टा रीका, क्यूबा, ग्रेनाडा, गुयाना, मेक्सिको,
मोंटेसेरेट, पनामा, सूरीनाम, उरुग्वे, वेनेजुएला, ट्रिनिनाड व टोबैगो,
निकारागुआ, नेविस, डोमिनिका, एँटीगुआ एवं बारबूडा के नाम उल्लेखनीय हैं।
अफ्रीकी देशों में बुर्कीना फासो कैमरून, चाडक़ामरूज, कांगो, मिश्र, गैबन,
गांबिया, घाना, लाइबेरिया, मैडागास्कर, माली, मारिटैनिया, मॉरिशस, मोरक्को,
मोजांबिक, नाइजर, सेनेगल, सिएरा लियोन, सोमालिया, दक्षिण अफ्रीका,
तंजानिया, टोगो, यूगांडा, और जांबिया के नाम प्रमुख हैं। आस्ट्रेलियाई
देशों में ऑस्ट्रेलिया, पलाऊ, माइक्रोनेशिया और मार्शल द्वीप प्रमुख हैं।
अतिरिक्त देशो में साईबेरिया, ग्रेनेडा, सन मेरिनो, रोम, कोस्टारिका हैं।
प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पहल करते हुए चार डाक टिकट पर बापू
को डिजाइन का हिस्सा बनाया। लेकिन जनवरी में ही बापू की गोली मारकर हत्या
कर दी गई। बापू श्रृंखला के यह चारों डाक टिकट जो 2 अक्टूबर 1948 को जारी
किया जाना था, उसे 15 अगस्त 1948 को ही जारी कर दिया गया। ख़ास बात यह है
कि इन चारों डाक टिकटों को स्विट्जरलैंड में छपवाया गया था। इनके मूल्य
डेढ़ आना, साढ़े तीन आना और 12 आना रखा गया था। गांधीजी के साथ ‘बा’ यानी
कस्तूरबा गांधी को भी उन डाक टिकटों में जगह दी गई है। 1979 में जारी किया
गया डाक-टिकट में बापू को बच्चे से स्नेह करते हुए दर्शाया गया है। यह
चित्र महात्मा गांधी का बच्चों के प्रति प्रेम को दर्शाता है। अन्तिम चरण
दूसरा विश्व युद्ध शुरू होने के साथ ही भारत का राष्ट्रवादी संघर्ष अपने
अन्तिम महत्त्वपूर्ण चरण में प्रवेश कर गया। भारतीय स्वशासन का आश्वासन दिए
जाने की शर्त पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस युद्ध में अंग्रेज़ों का साथ
देने को तैयार थी। एक बार फिर गांधी राजनीतिक रूप से सक्रिय हो गए। 1942 के
ग्रीष्म में गांधी ने अंग्रेज़ों से तत्काल भारत छोड़ने की माँग की।
फ़ासीवादी शक्तियों (एक्सिस), विशेषकर जापान के ख़िलाफ़ युद्ध महत्त्वपूर्ण
चरण में था। अंग्रेज़ों ने तुरन्त ही प्रतिक्रिया दिखाई और कांग्रेस के
समूचे नेतृत्व को गिरफ़्तार कर लिया और पार्टी को हमेशा के लिए कुचल देने
का प्रयास किया। इसके फलस्वरूप हिंसा भड़क उठी, जिसे सख़्ती से दबा दिया
गया। भारत और ब्रिटेन के बीच की दूरी पहले से भी कहीं अधिक बढ़ गई। 1945
में लेबर पार्टी की जीत के साथ ही भारत-ब्रिटेन के सम्बन्धों में एक नए
अध्याय की शुरुआत हुई। अगले दो वर्ष के दौरान ब्रिटिश सरकार मुस्लिम लीग के
नेता एम. ए. जिन्ना और कांग्रेस पार्टी के नेताओं के बीच लम्बी त्रिपक्षीय
वार्ताएँ हुईं, जिसके फलस्वरूप 3 जून, 1947 को माउंटबेटन योजना तैयार हुई
और 15 अगस्त 1947 को दो नए राष्टों, भारत व पाकिस्तान का निर्माण हुआ।
राष्ट्रों की प्रगति क्रमिक विकास और क्रान्ति दोनों तरीक़ों से हुई है।
क्रमिक विकास और क्रान्ति दोनों ही समान रूप से ज़रूरी हैं। महात्मा गांधी
भारत की अखण्डता के बिना देश का स्वतंत्र होना गांधी के जीवन की सबसे बड़ी
निराशाओं में से एक था। जब गांधी तथा उनके सहयोगी जेल में थे, तो मुस्लिम
अलगाववाद को काफ़ी बढ़ावा मिला और 1946-47 में, जब संवैधानिक व्यवस्थाओं पर
अन्तिम दौर की बातचीत चल रही थी, हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच भड़की
साम्प्रदायिक हिंसा ने ऐसा अप्रिय माहौल बना दिया कि जिसमें गांधी की तर्क
और न्याय, सहिष्णुता और विश्वास सम्बन्धी अपीलों के लिए कोई स्थान नहीं था।
जब उनकी राय के ख़िलाफ़ उपमहाद्वीप के विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार कर
लिया गया, तो वह साम्प्रदायिक संघर्ष से समाज पर लगे ज़ख़्मों को भरने में
तन मन से जुट गए। उन्होंने बंगाल व बिहार के दंगाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा
किया। इसके शिकार हुए लोगों को दिलासा दिया और शरणार्थियों के पुनर्वास का
प्रयास किया। शंका और घृणा से भरे माहौल में यह एक मुश्किल और हृदय विदारक
कार्य था। गांधी पर दोनों समुदायों ने आरोप लगाए। जब उनकी बातों का कोई असर
नहीं हुआ तो वह अनशन पर बैठ गए। उन्हें कम से कम दो महत्त्वपूर्ण सफलताएँ
मिलीं। सितंबर 1947 में उनके उपवास ने कलकत्ता में दंगे बंद करवा दिए और
जनवरी 1948 में उन्होंने दिल्ली में साम्प्रदायिक शान्ति क़ायम कर दी। निधन
30 जनवरी 1948 की शाम को जब वह एक प्रार्थना सभा में भाग लेने जा रहे थे,
तब एक युवा हिन्दू कट्टरपंथी नाथूराम गोडसे ने गोली मारकर उनकी हत्या कर
दी। शोकाकुल सूचना अपने महान नेता की मृत्यु का समाचार सुनकर सारा देश
शोकाकुल हो उठा। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू ने राष्ट्र को
महात्मा जी की हत्या की सूचना इन शब्दों में दी, ‘हमारे जीवन से प्रकाश
चला गया और आज चारों तरफ़ अंधकार छा गया है। मैं नहीं जानता कि मैं आपको
क्या बताऊँ और कैसे बताऊँ। हमारे प्यारे नेता, राष्ट्रपिता बापू अब नहीं
रहे।’ महात्मा गांधी वास्तव में भारत के राष्ट्रपिता थे। 27 वर्षों के
अल्पकाल में उन्होंने भारत को सदियों की दासता के अंधेरे से निकालकर आज़ादी
के उज़ाले में पहुँचा दिया। किन्तु गांधीजी का योगदान सिर्फ़ भारत की
सीमाओं तक सीमित नहीं था। उनका प्रभाव सम्पूर्ण मानव जाति पर पड़ा, जैसा की
अर्नाल्ड टायनबीन ने लिखा है–’हमने जिस पीढ़ी में जन्म लिया है, वह न केवल
पश्चिम में हिटलर और रूस में स्टालिन की पीढ़ी है, वरन वह भारत में
गांधीजी की पीढ़ी भी है और यह भविष्यवाणी बड़े विश्वास के साथ की जा सकती
है कि मानव इतिहास पर गांधीजी का प्रभाव स्टालिन या हिटलर से कहीं ज़्यादा
और स्थायी होगा। इतिहास में स्थान गांधी के प्रति अंग्रेज़ो का रुख
प्रशंसा, कौतुक, हैरानी, शंका और आक्रोश का मिला-जुला रूप था। गांधी के
अपने ही देश में, उनकी अपनी ही पार्टी में, उनके आलोचक थे। नरमपंथी नेता यह
कहते हुए विरोध करते थे कि वह बहुत तेज़ी से बढ़ रहे हैं। युवा गरमपंथियों
की शिकायत यह थी कि वे तेज़ी से नहीं हैं। वामपंथी नेता आरोप लगाते थे कि
वह अंग्रेज़ों को बाहर निकालने या रजवाड़ों और सामंतों का समाप्त करने के
प्रति गम्भीर नहीं हैं। दलितों के नेता समाज सुधारक के रूप में उनके सदभाव
पर शंका करते थे और मुसलमान नेता उन पर अपने समुदाय के साथ भेदभाव का आरोप
लगाते थे। मेरी मान्यता है कि कोई भी राष्ट्र धर्म के बिना वास्तविक प्रगति
नहीं कर सकता। महात्मा गांधी हाल में हुए शोध ने गांधी की भूमिका महान
मध्यस्थ और संधि कराने वाले के रूप में स्थापित की है। यह तो होना ही था कि
जनमानस में उनकी राजनेता-छवि अधिक विशाल हो, किन्तु उनके जीवन का मूल
राजनीति नहीं, धर्म में निहित था और उनके लिए धर्म का अर्थ औपचारिकता,
रूढ़ि, रस्म-रिवाज़ और साम्प्रदायिकता नहीं था। उन्होंने अपनी आत्मकथा में
लिखा है–’मैं इन तीस वर्षों में ईश्वर को आमने-सामने देखने का प्रयत्न और
प्रार्थना करता हूँ’, उनके महानतम प्रयास आध्यात्मिक थे। लेकिन अपने अनेक
ऐसे ही इच्छुक देशवासियों के समान उन्होंने ध्यान लगाने के लिए हिमालय की
गुफ़ाओं में शरण नहीं ली। उनकी राय में वह अपनी गुफ़ा अपने भीतर ही साथ लिए
चलते थे। उनके लिए सच्चाई ऐसी वस्तु नहीं थी, जिसे निजी जीवन के एकांत में
ढूँढा जा सके। वह सामजिक और राजनीतिक जीवन के चुनौतीपूर्ण क्षणों में
क़ायम रखने की चीज़ थी। अपने लाखों देशवासियों की नज़रों में वह ‘महात्मा’
थे। उनके आने-जाने के मार्ग पर उन्हें देखने के लिए एकत्र भीड़ द्वारा
अंधश्रद्धा से उनकी यात्राएँ कठिन हो जाती थीं। वह मुश्किल से दिन में काम
कर पाते थे या रात को विश्राम। उन्होंने लिखा है कि महात्माओं के कष्ट
सिर्फ़ महात्मा ही जानते हैं। गांधी के सबसे बड़े प्रशसकों में अलबर्ट
आइंस्टाइन भी थे, जिन्होंने गांधी के अहिंसा के सिद्धांत को अणु के विखण्डन
से पैदा होने वाली दानवाकार हिंसा की प्रतिकारी औषधि के रूप में देखा।
स्वीडन के अर्थशास्त्री गुन्नार मिर्डल ने अविकसित विश्व खंड की समस्याओं
के सामाजिक, आर्थिक सर्वेक्षण के बाद गांधी को लगभग सभी क्षेत्रों में एक
ज्ञानवार उदार व्यक्ति की संज्ञा दी।
साभार भारतकोश
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