प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा
एक बार ठाकुर जी की नाव भवसागर के पार जा रही थी। ठाकुर जी ने कहा:- जिस किसी को बैठना हो बैठ जाए।
अब हम बैठ तो गए, परंतु संसार साथ ले लिया, क्योंकि हम संसारिक प्राणी जो ठहरे। सौ पचास किलोमीटर का सफर तय करना हो तो भी सारी सुविधाएं चाहिएं और यहां तो भवसागर पार जाना है।
इधर ठाकुर जी सोच रहे हैं कि रख लो जो भी रखना है, छुड़वा तो मैं अपने आप दूंगा। थोड़ी देर बाद ठाकुर जी ने जानबूझकर नाव को समुद्री तूफान में फंसा दिया और कहा कि नाव में वजन बहुत ज्यादा है, कुछ कम करो तो नैया पार लगे, अन्यथा यह डूब जाएगी।
अब मरता क्या ना करता, खुद को बचाना है तो सामान फेकना ही पड़ेगा। अब हम लगे इन गोपियों की तरह मटका रूपी संसार त्यागने।
यहां एक बात विचार करने वाली है कि यदि संसार त्यागना ही था तो नाव में बैठने से पहले ही क्यों नही त्याग दिया? कम से कम इतना जो सफर तय किया, वो तो आराम से कट जाता। परंतु हमें तो यह बातें तब समझ में आती हैं जब जान पर बन आती है।
एक बात और इस नाव में केवल आप और ठाकुर जी ही सवार हैं। यदि सामान लेकर चलोगे तो बार-बार घ्यान सामान की ओर जाएगा, अर्थात; आपकी एकाग्रता भंग होगी और जो ठाकुर जी को टकटकी लगाकर देखने का सुख है, वह आप वो नहीं मिल पाएगा।
इसलिए यदि भवसागर से पार जाना है, तो संसार को त्यागना ही पड़ेगा।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
*।। जय सियाराम जी।।*
*।। ॐ नमह शिवाय।।*
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