पत्रकारिता की तरफ खुलती खिडक़ी
: पुस्तक समीक्षा
: पत्रकारिता जन संचार का सबसे सुलभ, सस्ता और सशक्त साधन है। महान
सेनापति नेपोलियन तक मानते थे कि चार विरोधी अखबारों की मारक क्षमता के आगे
हजारों बंदूकों की ताकत भी बेकार है। यही बात मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी
ने यूं कही थी, 'जब तोप मुकाबिल हो अखबार निकालो।' अमेरिका के राष्ट्रपति
रहे जेफरसन का यह कथन भी पत्रकारिता की दुनिया में मंत्र की तरह उच्चारित
होता है कि आजाद प्रेस के बगैर लोकतंत्र एक कदम भी नहीं चल सकता। अपने एक
ऐतिहासिक भाषण में उन्होंने यह भी कहा था कि उन्हें अगर पत्रकारिताविहीन
सरकार और सरकार विहीन पत्रकारिता में से किसी एक को चुनने के लिए कहा जाए,
तो वह सरकार विहीन पत्रकारिता को चुनना पसंद करेंगे। कोई शक नहीं कि
पत्रकारिता लोकतंत्र की ऑक्सीजन है।
पत्रकारिता के मुख्यत: तीन काम हैं -
विभिन्न गतिविधियों की सूचना देना, जनमत को अभिव्यक्त करना और संचित
सूचनाओं के आधार पर जनमत तैयार करना। इसी वजह से उसे राष्ट्र के तीन
स्तम्भों, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बाद चौथा स्तम्भ माना
जाता है। लेकिन पत्रकारिता की कुछ खूबियां ऐसी हैं, जो एक मायने में उसे
सरकार, संसद और न्यायपालिका से भी ज्यादा हैसियत दे देती हैं। मसलन सरकारों
का शासनकाल कुछ साल तक सीमित रहता है, लेकिन पत्रकारिता जनता के
दिलो-दिमाग पर हमेशा हुकूमत करती है। यह ऐसी 'सरकार' है, जिसका तख्ता कभी
नहीं पलटता। संसद का सत्र साल में सीमित मियाद तक चलता है, लेकिन
पत्रकारिता 'अखण्ड संसद' है, जिसका कभी सत्रावसान नहीं होता। वह ऐसी
'अदालत' है, जो कभी पेशी-मुल्तवी नहीं करती। जो भी मामला उसके पेशे- नजर
आता है, वह उस पर फौरन सम्पादकीय या विशेष टिप्पणी लिख कर फैसला सुना देती
है। यह है पत्रकारिता की गरिमा, उसकी हैसियत, उसकी ताकत।
सवाल उठता है कि आज कितने पत्रकार हैं, जो
पत्रकारिता की इस हैसियत और गरिमा से वाकिफ हैं? अधिकारों के प्रति हमेशा
सावधान की मुद्रा में रहने वाले पत्रकार क्या उन कर्तव्यों के प्रति भी
उतने ही सजग हैं, जो उन्हें इसके विकास, उत्थान और स्वरूप को बरकरार रखने
के लिए अदा करने चाहिए। उससे भी बड़ा सवाल यह कि क्या वे 'पत्रकार' और
'पत्रकारिता' के बुनियादी सिद्धांतों की समझ भी रखते हैं? वरिष्ठ पत्रकार
ज्ञानेश उपाध्याय अपनी पुस्तक 'पत्रकारिता - आधार, प्रकार और व्यवहार' में
इन्हीं और इससे जुड़े ऐसे कई सवालों को टटोलते हुए हमें पत्रकारिता की
जटिल, कुछ हद तक रहस्यमय और नीरंध्र दुनिया में प्रवेश कराने की कोशिश करते
हैं। वह 215 पृष्ठों में अपनी विशिष्ट प्रवाह वाली शैली के माध्यम
से इस जटिल, गहरी और विशद दुनिया के बड़े-बड़े 'लैंडस्केप' ही नहीं
दिखाते, बल्कि रोजमर्रा की पत्रकारिता के कई ऐसे 'क्लोज-अप' भी बड़े
प्रभावशाली ढंग से पेश करते हैं, जिनकी तरफ अमूमन नए तो क्या, पत्रकारिता
के मठों में लम्बे समय से जमे हुए 'पंडितों' का ध्यान भी शायद ही कभी गया
हो।
भारतीय पत्रकारिता आक्टोपस जैसी है। अपने
आठ नहीं, जाने कितने पांवों से वह पाठकों की वैचारिक चेतना को जकड़े बैठी
है। इसके स्वरूप और विकृतियों को बड़े पंडिताऊ ढंग से बखानते हुए
अच्छी-खासी ग्रंथ श्रृंखला तैयार हो सकती थी। 'पत्रकारिता - आधार, प्रकार
और व्यवहार' पढ़ जाने के बाद लेखक के बारे में यह इत्मीनान हो जाता है कि
वह ऐसी श्रृंखला तैयार कर सकते थे (और भविष्य में कर भी सकते हैं), लेकिन
फिलहाल उन्होंने दूसरा रास्ता चुना है। ऐसा रास्ता जो न सिर्फ पत्रकारिता
के मैदान में नए-नए खिलाडिय़ों को आसान लगेगा, बल्कि पहले से यहां सक्रिय
पत्रकारों के लिए भी ज्ञान और विवेक की नई खिड़कियां खोलेगा।
ज्ञानेश उपाध्याय वाग्गेयकार नहीं हैं और न
ही पत्रकारिता के व्याकरणाचार्य, लेकिन पत्रकारिता में उनकी गहरी पैठ है
और समझ है, जो सभी के पास नहीं होती। यह पैठ और समझ उन्होंने विभिन्न
अखबारों में काम करने के लम्बे अनुभव से हासिल की है। पत्रकारिता में
क्या-क्या हो रहा है और क्या-क्या और होने की संभावनाएं हैं, यह पुस्तक में
उन्होंने सीढ़ी-दर-सीढ़ी निहायत सहज शैली में प्रस्तुत किया है। पुस्तक
में पत्रकारिता के कई ऐसे रचनात्मक पहलुओं का विवेचन है, जो उसकी व्यापकता
की असीमता को उजागर करते हैं। दूसरी तरफ, उन कमजोरियों की भी गहन पड़ताल की
गई है, जिनसे आज पत्रकारिता जूझ रही है और जिनकी वजह से संचार क्रांति के
बावजूद वह पाठकों की नब्का, उनकी दिलचस्पी और उनकी अपेक्षाओं से अलग-थलग
खड़ी नजर आती है। सबसे बड़ी बात यह कि 'पत्रकारिता - आधार, प्रकार और
व्यवहार' का मकसद किसी तरह की बहस को उकसाना नहीं है। पुस्तक का मूल
लक्ष्य हर आम और खास को पत्रकारिता की दुनिया को समझने के लिए प्रेरित करना
है। मौजूदा पत्रकारिता, खास तौर पर हिंदी पत्रकारिता में जो विकृतियां आ
रही हैं, उनके बारे में आपको आगाह करना है और कुल मिलाकर इससे जुड़े लोगों
की रुचि को परिष्कृत करना है।
ज्ञानेश उपाध्याय को इस सच से को लेकर कोई
भ्रम नहीं है कि पत्रकारिता, जो कभी मिशन थी, आज विशुद्ध व्यवसाय में
तब्दील हो चुकी है। अपनी इस पुस्तक में उन्होंने जगह-जगह यह संकेत भी
प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से दे दिए हैं कि व्यवसाय के साथ कुछ अच्छाइयां आती
हैं, तो कुछ बुराइयाँ भी। पहले के मुकाबले आज के पत्रकार के पास संसाधन,
सुविधाएं और ऐशो-आराम ज्यादा है, लेकिन अपने काम के प्रति निष्ठा कम होती
जा रही है। 'रचने' के बदले अब उसका का जोर जैसे-तैसे खाली जगह को 'भर देने'
पर ज्यादा रहता है। पत्रकार ने खुद ही अपनी हैसियत सरकारी दफ्तरों के
बाबुओं जैसी बना ली है। सुविधाएं मिलें, बेहतर जीवन बिताने के अवसर मिलें,
इससे किसी का विरोध क्यों होगा, लेकिन अगर बौद्धिक प्रखरता, लेखन के प्रति
ईमानदारी और अध्यव्यवसाय जैसे गुण घटते चले जाएं, तो फिर पत्रकारिता
राम-भरोसे ही चलेगी। पत्र-पत्रिकाओं की साज-सज्जा में काफी सुधार हुआ है।
संपादन से छपाई तक कम्प्यूटर से लैस हो गई है। कलम की जगह की-बोर्ड ने ले
ली है। कायाकल्प ही हो चुका है। लेकिन पत्रकार बंधे-बंधाए घंटों में काम
करने के आदी हो गए हैं।
एक दौर था, जब पत्रकार साहित्य और
पत्रकारिता के बीच सेतु का किरदार अदा करते थे। कई संपादक तो खुद अच्छे
साहित्यकार भी थे। आज वह सेतु जैसे टूट ही गया है। पत्रकारों की भीड़ जिस
तेजी से बढ़ती जा रही है, उनमें साहित्यकार को खोजना चारे के ढेर में सूई
को खोजने जैसा हो गया है। नए पत्रकार साहित्य से दूर तो हैं ही, उनमें
पढऩे-लिखने की आदत भी कम ही देखने को मिलती है। किसी दौर में पत्रकार होने
का मतलब 'ऑल राउंडर' होना था। यानी वह विभिन्न क्षेत्र की सूचनाओं से बखूबी
लैस होगा, लेकिन 'बीट' में बंधा आज का पत्रकार 'कूप मंडूक' हो गया है।
राजनीति की बीट वाले से आप यह नहीं पूछ सकते कि धर्मवीर भारती, रघुवीर
सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, महादेवी वर्मा, कमलेश्वर या नागार्जुन का इस
देश को क्या योगदान है, तो आंकड़ों में उलझे खेल पत्रकार से अमर्त्य सेन,
अरुंधति राय, मेधा पाटकर या लक्ष्मी निवास मित्तल के बारे में सवाल करना
बेकार है। यह पीड़ा ज्ञानेश उपाध्याय की पुस्तक में कई जगह मुखर हुई है।
पुस्तक में एक जगह 'दिमाग पैराशूट की तरह
होता है, तभी काम करता है, जब खुला होता है' टिप्पणी का हवाला देकर
उन्होंने लिखा है, 'अगर रिपोर्टर पत्रकारिता रूपी रथ है, तो सम्पादन से
जुड़े पत्रकार लगाम और सारथी। रिपोर्टर आंख, कान और नाक हैं, जबकि सम्पादन
से जुड़े पत्रकार दिल और दिमाग। सम्पादन में प्रवाह होना चाहिए, ताकि खबर,
लेख और फीचर में सुधार की प्रक्रिया सतत चलती रहे। सम्पादन का काम
धीरे-धीरे मुश्किल होता जाएगा, क्योंकि गुणवत्ता का विकास तेजी से हो रहा
है। लोगों की रुचियां इतनी तरह की हो गई हैं कि खबर परोसने से पहले कई बार
सोचना पड़ता है। ज्यादा से ज्यादा रुचियों को संतुष्ट करने की कोशिश हो रही
है और होनी भी चाहिए। कोई भी मुख्यधारा का अखबार बिना अच्छे सम्पादन के
टिक नहीं सकता।' एक दूसरी जगह उनकी पीड़ा रेखांकित करने के काबिल है।
उन्होंने लिखा है, ' प्रशिक्षित लेखकों की कमी है। भारत में ज्यादातर
लेखकों को कोई प्रशिक्षण नहीं मिला है। भारत में किसी जमाने में गुरु या
उस्ताद रखने की परंपरा हुआ करती थी, लेकिन आज हर दूसरा कलम चलाने वाला खुद
को गुरु मान बैठा है। ज्यादातर लेखों में रायता इतना फैला हुआ होता है कि
पाठक को भी समेटने में जोर आता है। देश में पत्रकारिता प्रशिक्षण संस्थान
चल रहे हैं, उन्होंने भी बढिय़ा लिखने के प्रशिक्षण पर अभी तक ज्यादा ध्यान
नहीं दिया है। समाज या हमारी शिक्षा का ढांचा ऐसा बन गया है कि हमें अच्छे
लेखकों की जरूरत ही नहीं है। मां-बाप भी बच्चों को अच्छा लिखने के लिए
प्रेरित नहीं करते। बस, अभिव्यक्ति भर की भाषा लिखनी आ जाए, तो बच्चों या
दूसरे लोगों का काम चलजाता है।'
पुस्तक में ज्ञानेश उपाध्याय काफी हद तक
आज की पत्रकारिता के माहौल, उसकी जरूरतों, उसकी समस्याओं और उसकी विराट
सम्भावनाओं की तस्वीर पेश करने में कामयाब रहे हैं। जैसा कि नाम से ही
जाहिर है, पुस्तक को पत्रकारिता के आधार, प्रकार और व्यवहार के आधार पर
अलग-अगल खंडों में रखकर इनके तहत पत्रकारिता का परिचय, भाषाई ताकत,
प्रशिक्षण, प्रारम्भ, पत्रकारों के कर्तव्य समाचार बोध का विकास, शब्दों
से सामना, अच्छा कैसे लिखा जाए, रिपोर्टिंग, सम्पादन, राजनीतिक पत्रकारिता,
वाणिज्य पत्रकारिता, खेल पत्रकारिता, सांस्कृतिक पत्रकारिता, सिने
पत्रकारिता, टीवीकारिता, वेब पत्रकारिता, सम्पादकीय पृष्ठ, प्रथम पृष्ठ,
विशेष पृष्ठ, पुल आउट जर्नलिज्म, विजुअल, कुछ और पत्रकारिता, नागरिक
पत्रकारिता और न्यू मीडिया, सम्पादकीय प्रबंधन, पत्रकारिता बनाम
पैसाकारिता, पाठकों का पक्ष तथा व्यवहार-संगठन से लेकर तनाव से मुकाबले तक
की विस्तृत पड़ताल की गई है। इन पहलुओं को पेश करते हुए कहीं ज्ञानेश
उपाध्याय पत्रकार की हैसियत से मुखर होते हैं, कहीं वह 'आउटसाइडर' की तरह
माहौल का जायजा लेते हैं, तो कहीं संवेदनशील इंसान की तरह उन मुश्किल हालात
की फिल्म-सी आंखों में घुमाते चलते हैं, जिनसे आज का पत्रकार कदम-कदम पर
दो-चार होने के लिए मजबूर है।
पुस्तक में एक जगह हिंदी पत्रकारिता में
सितारा हैसियत रखने वाले संपादक राजेन्द्र माथुर की टिप्पणी दी गई है,
'पत्रकारिता के नियम-कानून किसी किताब में नहीं मिलेंगे। वह तो आपको खुद
बनाने होंगे। लक्ष्मण रेखा घर के लोग ही खींच सकते हैं। बाहर वाला या तो
रेखा गलत खींचेगा या फिर अपहरण करके ले जाएगा।' ज्ञानेश उपाध्याय चूंकि
पत्रकारिता में 'बाहर वाले' नहीं हैं, इसलिए अपनी पुस्तक में उन्होंने
अनुभवों के आधार पर बड़ी सहजता से ऐसी रेखाएं खींची हैं, जो पत्रकारिता को
संजीदा तथा व्यावहारिक बनाने के साथ-साथ उसके स्वरूप को और व्यापक बनाने के
प्रति आग्रहशील हैं। कोई शक नहीं कि इस पुस्तक को पढऩे के बाद आप
पत्रकारिता के बारे में पहले से ज्यादा संस्कार-संपन्न होकर बाहर निकलेंगे।
इससे पहले ऐसी कोशिश हिंदी में बहुत कम किताबें कर पायी हैं।
लेखक दिनेश ठाकुर करीब 28 साल से
सक्रिय पत्रकारिता में हैं. एसपी सिंह के दौर में नवभारत टाइम्स के समाचार
संपादक रह चुके हैं. आजकल राजस्थान पत्रिका में वरिष्ठ समाचार संपादक
हैं. ये पत्रकार होने के साथ शायर भी हैं. इनका पहला गजल संग्रह 'हम लोग
भले हैं कागज पर' सन 2000 में आ चुका है और दूसरा 'परछाइयों के शहर में'
जल्द आने वाला है.
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