Saturday, June 25, 2011

कलम को डराने की कोशिश

कलम को डराने की कोशिश


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पंकज शुक्ल, क्षेत्रीय संपादक, ‘नईदुनिया’, मुंबई
सोमवार की दोपहर तेज उमस और बारिश की बौछारों के बीच डेढ़ दो सौ पत्रकार मुंबई के प्रेस क्लब से मंत्रालय की तरफ निकल पड़े। मंत्रालय की सीढ़ियों पर धरना देने वाले इन पत्रकारों के चेहरे पर डे की हत्या से ज्यादा गुस्सा इस बात को लेकर दिखा कि आखिर चव्हाण को उनके बीच आने में क्या दिक्कत है। कोई घंटा भर से ज्यादा लग गया चव्हाण को मंत्रालय के पांचवे तल से भूतल पर आने में।
शनिवार को भी ज्योतिर्मय डे की हत्या के बाद चव्हाण को पांच घंटे लगे थे, इस बारे में अपना बयान जारी करने में। प्रधानमंत्री से लेकर कांग्रेस अध्यक्ष तक जिस हत्या पर नाराजगी और शोक जाहिर कर चुके हैं, उस हत्या का कोई सुराग भी सूबे की पुलिस हत्या के दो दिन बाद तक नहीं लगा सकी। चव्हाण अब कह रहे हैं कि उनकी सरकार मॉनसून सत्र में पत्रकारों की सुरक्षा के लिए एक खास विधेयक लाएगी। ये वही चव्हाण हैं जिन्होंने इसी साल गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर जिंदा जला दिए गए सूबे के एक अफसर यशवंत सोनावणे की हत्या के बाद भी यही बात कही थी।
नकली डीजल बनाने के इस मामले में मकोका लगाए जाने के बाद भी सोनावणे के हत्यारे कानून की कैद से आजाद हैं, वजह? चव्हाण की बात उनकी अपनी पुलिस नहीं सुनती। मुंबई के पुलिस कमिश्नर अपने मातहत काम करने वाले दो दबंग पुलिस अफसरों की अदावत से परेशान हैं। डीजीपी की जिले के पुलिस कप्तान नहीं सुनते। सोनावणे मामले में पुलिस ने 70 दिन बिता दिए थे, बिना कोई जांच-पड़ताल किए। अगले बीस दिन सीबीआई के पास थे, लेकिन वो क्या करे, जब मामला सियासी दांव-पेंचों में उलझा हो।
एसोचैम की रिपोर्ट बताती है कि नकली डीजल का कारोबार 10 हजार करोड़ से ऊपर का है। और, डे की रिपोर्ट बताती है कि इस कारोबार में नीचे से लेकर ऊपर तक सबका हिस्सा बंधा हुआ है। अब किसी सरकारी अफसर को जिंदा जला देने वाले जब फिर उसी इलाके में खुलेआम घूमेंगे तो भला कौन सा ऐसा स्ट्रिंगर या अंशकालिक संवाददाता होगा, जो उनके खिलाफ खबर लिखने की हिम्मत भी जुटा पाएगा। डे हिम्मत वाले थे और उनकी हिम्मत को पस्त करने के लिए ही उन्हें खामोश कर दिया गया।
धमकियां उन सारे रिपोर्टरों को मिलती है, अपराध की ख़बरों में जिनकी दिलचस्पी होती है। ऐसा कोई रिपोर्टर शायद ही हो, जो मौत की धमकी मिलने के बाद डरता ना हो।
‘ज़ी न्यूज़’ में था तो हाजी मस्तान के दत्तक पुत्र सुंदर शेखर का फोन आने के बाद मुझे भी लगा था, लेकिन भीतर से आवाज आई कि काम रुकना नहीं चाहिए। और डे का काम भी धमकियों के बाद कभी रुका नहीं। और ऐसा कोई काम कोई रिपोर्टर निजी दुश्मनी पालने के लिए नहीं करता।
अंडरवर्ल्ड का उसूल है दुश्मन के घर में किसी महिला को और सिर्फ खबर से मतलब रखने वाले पत्रकार को कभी नहीं मारना। डे की हत्या का मामला पुलिस सुलझा लेगी, इसकी उम्मीद सब को है। लेकिन, वाकई इस हत्या के पीछे के असली चेहरे लोगों के सामने आएंगे इसकी आशंका भी काफी लोगों को है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब पाकिस्तान में सैयद सलीम शहजाद को मार दिया गया था। उसने भी सरकारी प्रतिष्ठान में घुसे भेदियों पर रिपोर्ट लिखी थी।
शहजाद और डे को मारने के पीछे मकसद एक है, पत्रकारों में दहशत पैदा करना। डे भी सरकारी प्रतिष्ठानों में घुसे भेदियों पर नजर रख रहे थे। लेकिन, उन्हें क्या पता कि कोई और भी उन पर नजर रखे हुए था। अपने सहारे ठीक से चलने को मजबूर फफक-फफक कर रोती डे की बुजुर्ग मां और सूखी आंखों से अपनी सास को संभालती डे की बीवी को जिसने भी रविवार को देखा, उसे खुद को संभालना भारी था।
सोमवार को पत्रकारों के बीच पृथ्वीराज चव्हाण ने कहा कि पत्रकार लोकतंत्र के चौथे स्तंभ हैं, लेकिन ज्यादा दिन नहीं हुए जब उन्हीं के डिप्टी अजित पवार ने अपने एक कार्यक्रम में से पत्रकारों को पुलिस की लाठियों के सहारे बाहर करवाया था। महाराष्ट्र देश को सबसे ज्यादा दौलत देता है और अपराध के पनपने की सबसे ज्यादा सहूलियत भी यहीं है। ये सरकारी आंकड़े कहते हैं। पुलिस के पास जितने भी मामले इस राज्य में दर्ज होते हैं, उसमें से 20 फीसदी मामलों में भी किसी को सजा नहीं हो पाती। क्यूं भला? क्या इसीलिए इस सूबे की सरकार पुलिस थानों को ये फरमान देती है कि किसी नेता का फोन थाने के रोजानामचे में न दर्ज किया जाए?

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