पत्रकारिता को एक आदर्श कॅरियर विकल्प के रुप में क्यों नहीं जाना जाता? कोई मां-बाप अपने बेटे-बेटियों को मीडिया में क्यों नहीं देखना चाहता? वजह साफ है कि लोकतंत्र के इस चौथे खंभे को भ्रष्टाचार रूपी दीमक ने यूं खोखला कर दिया है कि पत्रकारिता जगत (खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया) अपनी बाल्यावस्था में ही वृद्धावस्था का दंश झेल रहा है.
हाल - फिलहाल की घटनाओं पर नजर डालें तो पुलिस व नेता के बाद अगर कोई नफरत का पर्याय बना है तो वो पत्रकार धड़ा ही है. क्रिकेटर क्रिस गेल द्वारा अभी हाल ही में एक टीवी रिपोर्टर से की गई बदसुलूकी इसका ताजा उदाहरण है. एक तरफ ये पत्रकार अपने संस्थान के लिए रिपोर्टिंग करते हैं तो दूसरी तरफ पुलिस के लिए दलाली! ऐसे भ्रष्ट पत्रकारों की जितनी आमद वेतन व भत्तों से नहीं होती उससे तीन गुना इनकी'साइड इनकम' होती है. पत्रकारिता को ऐसा नकारा कॅरियर समझ लिया गया है कि अच्छे लोग इसमें आते नहीं. इसमें अब वे ही अयोग्य लोग आते हैं जो बाकि जगहों से रिजेक्ट हो चुके होते हैं. इन्हें लगता है चलो और कुछ नहीं हासिल नहीं हुआ तो पत्रकारिता को ही आज़मा लेते हैं. यही कारण है कि देश में पत्रकार तैयार करने वाले जितने भी मीडिया इंस्टीच्यूट्स हैं, वहां ढंग के विद्यार्थी नहीं आ पाते हैं. जो लोग आते हैं उनकी मंशा न्यूज़ एंकर बनने की होती है, क्योंकि वे टीवी का 'मेन फेस' बनना चाहते हैं.
इंस्टीच्यूट तो इतने सारे हो गए हैं कि एक ओर से पत्रकारों की फौज क्या, बेरोजगारों का रैला निकल रहा है. कहां-कहां खपेंगे ये? टॉप के दस-बारह पास आउट्स नामी- गिरामी चैनलों या अखबारों में सैटल हो जाते हैं, बाकि का स्ट्रगल जारी रहता है.
हमारे पड़ोस में एक सज्जन रहते हैं. टिस्को कंपनी में मामूली कर्मचारी हैं. उनकी शादी योग्य बेटी को देखने उस दिन लड़के वाले आए थे. लड़का किसी लोकल न्यूज़ चैनल का रिपोर्टर था, यह बात पता चलने पर उन्होंनें रिश्ता लगाने से साफ इंकार कर दिया. जब मैंने उनसे इसकी वजह जाननी तो तल्ख स्वरों में उन्होंनें मुझसे ही सवाल कर डाला-
'आज कल के ई प्रेसवन वला के कोई भैलू हौ मार्किट में?
रोड पर निकलऽऽऽ हय त
दस गो गाली सुनऽऽऽ
हय...!'
इस तरह के लोक विचारों से साबित होता है कि पत्रकारिता अब एक प्रतिष्ठित कॅरियर नहीं रह गया है. निःसंदेह पत्रकारिता के इस अवमूल्यन के असली जिम्मेवार राष्ट्रीय फलक के वे भ्रष्ट पत्रकार हैं जो कभी पत्रकारिता के छात्रो के लिए आइकॉन हुआ करते थे. कारगिल लड़ाई के दौरान बेखौफ पत्रकारिता करने वाली बरखा दत्त हों या सीधी बात (अब सच्ची बात) करने वाले प्रभु चावला. एक समय में पत्रकारिता के छात्रों के आदर्श थे, आज करप्शन की कालिख में काले होकर एक बदनाम चेहरा बन चुके हैं.
पत्रकारिता के पेशे का मान गिराने में मझोले पत्रकारों का भी कम हाथ नहीं है. जिला व ब्लॉक स्तर के अधिकांश पत्रकार संवाददाता कम ब्लैकमेलर अधिक दिखते हैं, जो दिनभर मुंह में पान या गुटखे की जुगाली करते हुए यहां-वहां 'पच्च पुच्च' करते रहते हैं. ऐसे रिपोर्टर मुलाजिम व पुलिस के बीच मध्यःस्थ का काम करते हैं. ऐसा भी नहीं है कि सारे -के- सारे पत्रकार भ्रष्टाचार के रंग में रंगे हुए हैं. अभी भी ऐसे कई पत्रकार हैं जो ईमानदारीपूर्वक निर्भीक होकर अपना काम कर रहें हैं. शायद ऐसे लोगों की बदौलत ही पत्रकारिता थोड़ी बहुत सांसे ले रहा है. फिर भी इनमें वो बात कहां जो गुजरे दौर के राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, माखनलाल चतुर्वेदी, पं. दीनदयाल उपाध्याय, गणेश शंकर विद्यार्थी सरीखे उच्च कोटि के पत्रकारों में थी!
तिमिर अभी बुझा नहीं है, वक्त है कि पत्रकार बिरादरी एक सशक्त आचार संहिता बनाए ताकि खबरनवीसी की ये रोशनी हमेशा जलती रहे. (लेखक हजारीबाग,झारखंड से ताल्लुक रखते हैं. पढाई के साथ - साथ पत्र - पत्रिकाओं में लेखन जारी. संपर्क : karmuprasad@gmail.com ) अगर आप स्कूल या कॉलेज के बच्चों से उनके कॅरियर गोल को लेकर सवाल करें तो आप ये जानकर हैरान व दुखी रह जायेंगे कि कोई भी बच्चा पत्रकार नहीं बनना चाहता. कोई बच्चा ये नहीं कहेगा कि वो एक पत्रकार बनने का सपना देख रहा है. कोई छात्र ये कहने का साहस नहीं जुटा पाएगा कि वो मीडिया लाइन में आना चाहता है. अगर कोई कुछ बनना चाहता है तो पत्रकार व नेता को छोड़कर. वह इंजीनियर बनना चाहता है, वह डॉक्टर बनना चाहता है, वह बैंक में बाबू बनना चाहता है, वह आईएएस बनना चाहता है, वह शिक्षक बनना चाहता है, पर एक पत्रकार? कभी नहीं! आखिर क्या वजहें हैं इसकी?