हिन्दी गजल की परंपरा ः उदासियों से घिरा चाँद कुँवरपाल सिंह
१९७२
ई. में दुष्यन्त कुमार ने हिन्दी काव्य को एक नया आयाम दिया। उन्होंने
उर्दू गष्जष्ल को हिन्दी काव्य परंपरा में जोड कर एक ऐतिहासिक कार्य किया।
जब उनका कविता संग्रह ’साये में धूप‘ सन् ७४-७५ में छपा तो हिन्दी के
पाठकों ने इसका जिस दीवानगी से स्वागत किया वह स्वयं दुष्यन्त को भी नहीं
पता था। ऐसा लगा था कि हिन्दी कविता की उलटबाँसी तथा अराजकता से पाठक ऊब गए
हैं। तब कविता में ज्ञान का आतंक तो था, नये शब्द भी थे किन्तु इसमें
कविता की संवेदना नहीं थी। बिना संवेदना के कविता हो ही नहीं सकती है। यह
सही है कि यह युग कथा-साहित्य का है, इसमें मनुष्य का भरा-पूरा संसार है।
जीवन के विविध प्रसंग हैं। नये सामाजिक संबंधों का उद्घाटन ही यह आज के
मानव जीवन का गद्य है। किन्तु उपन्यास कविता का उत्तर नहीं है। उपन्यास
मस्तिष्क को आंदोलित करता है, मानव-जीवन और समाज के संबंध में समझ का
विस्तार करता है किन्तु कविता मनुष्य के हृदय को छूती है, उसकी संवेदनाओं
को सहलाती है, उसे दुलार करती है तथा उसकी संवेदनाओं को और अधिक गहरा करके
मनुष्य को गरिमा प्रदान करती है। जितना मानव जीवन पुराना है, उतनी ही कविता
पुरानी है कविता मनुष्य के सामाजिक जीवन तथा उत्थान-पतन की साक्षी रही है।
उसने सभ्यता और संस्कृतियों का उत्थान-पतन देखने के साथ-साथ उसे झेला है।
लेकिन कविता मनुष्य को निरन्तर एक आशा की प्रेरणा देती है। वह अंधेरे में
चिराग की भांति है और मानव जीवन के लक्ष्य का प्रकाश स्तम्भ भी है। कविता
ने हमेशा जनपक्षधरता का समर्थन किया है। उसे महन्तों और दरबारों में कैद
करने की हजषरों कोशिशें हुई किन्तु फिर से अपने मूल स्थान लोक जीवन में आ
जाती है। कविता राजकीय ठाठ-वाट में रहने की आदी नहीं रही है। वह सदैव
निरन्तर संघर्ष करने वाले तथा एक बेहतर दुनिया बनाने वाले स्वप्न द्रष्टा
के साथ रही है। उसने सिद्ध कर दिया कि धन-दौलत सत्ता और धर्म के धुरंधर
किसी व्यक्ति को सभी कुछ बना सकते हैं। किन्तु अच्छा कवि और साहित्यकार
नहीं बना सकते हैं। सुरेश कुमार हिन्दी गष्जष्ल की परंपरा का विकास कर रहे
हैं। उनके साथ दूसरा नाम जो लिया जा सकता है वह है राम मेश्राम। दोनों के
यहां परंपरा और प्रगति का अद्भुत सामंजस्य है। नये बनते-बिगडते सामाजिक तथा
राजनीतिक संबंधों को अपनी धारदार शै में कहने में सक्षम हैं। राम मेश्राम
केवल गष्जष्लें लिखते हैं जब कि कवि सुरेश का व्यक्तित्व बहुआयामी है।
उन्होंने गष्जष्लों के अतिरिक्त गीत कविताएं, हाइकू के अलावा एक नया प्रयोग
किया है-’त्रिावेणी‘ लेकिन मेरी राय में सुरेश जी मूलतः गष्जष्लकार है।
उनकी गष्जष्लों में हिन्दी-उर्दू की साझी विरासत है। उन्होंने गष्जष्ल के
क्षेत्रा को और अधिक विस्तार दिया है। बहुत से लोगों के लिए राजनीति अछूत
की तरह है लेकिन सुरेश जी मानते हैं कि राजनीति के बिना आज कोई भी आर्थिक
एवं सामाजिक परिवर्तन संभव नहीं है। हमारी समकालीन राजनीति यथा स्थितिवाद
की वस्तु है। भाजपा अतीतजीवी है तो कांग्रेस, समाजवादी दल तथा अन्य
क्षेत्राीय दल बडे पूँजीपतियों, व्यापारियों तथा भू-स्वामियों के आर्थिक
तथा राजनीतिक हितों की रक्षा करते हैं। उनकी करनी और कथनी में हमेशा द्वैत
रहा है। सुरेश कुमार का शेर है- ’’क्यूं खडा है अपनी मजबूरी बता। मील तो
पत्थर है तो दूरी बता।‘‘ वर्तमान व्यवस्था कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं चाहती
है। इस व्यवस्था को संघर्ष से परहेज है, समझौता करने में सिद्धस्त है-
’’दारोमदार जिस पे है कशगष्ज की नाव है राजा सवार जिस पे है कशगष्ज की नाव
है उन पे तो बंदोबस्त है तूफान का मगर मौसम की मार जिस पे है कशगष्ज की नाव
है। फस्ले बहार जिस पर है कशगष्ज की नाव है।‘‘ हमारे समय ने साधारण जन के
प्रति जो विश्वासघात किया, उनकी इच्छाओं और आकांक्षाओं के साथ खिलवाड किया
है एक गष्जष्ल में सुरेश कुमार ने इस स्थिति का सजीव चित्राांकन किया है-
’’जिसमें पानी था वे बादल आग बरसाते रहे। लोग नावाकिफ हवाओं की सियासत से
रहे कैसा मेला था कि सारा शहर जिसमें खो गया घर, गली, बस्ती, मोहल्ले आज तक
सूने रहे उस पराये शख्स से कैसा अजब रिश्ता रहा आँख नम उसकी हुई, हम देर
तक भीगे रहे कबीर ने भी कभी कहा था- अपने चित्त न आवहिं जिनका आदि न
अन्त।‘‘ मनुष्य अपने दंभ में प्रकृति को भी अपना अनुयायी और दास समझता है।
कवि सुरेश कुमार का रास्ता अलग है। वे प्रकृति को मित्रा और कहीं कहीं पथ
प्रदर्शक भी समझते हैं- ’’कितनी खामोशियां सुनाते हैं पेड जब बोलने पे आते
हैं। वे हमें रास्ता बताते हैं हम जिन्हें रास्ते पर लाते हैं। इनकी
गष्जष्लों में प्रकृति और मानवीय संवेदनाओं का समन्वय भी है- ’’एक भी पत्ता
न हिलता था कि ठहरी थी हवा कैसा मौसम था कि एक-एक सब्जष् पत्ता झर गया।
मेरे भीतर थी अंधेरी रात और तूफान था दीप सा खुद को जलाकर कोई मुझमें घर
गया। आलोचना के बिना किसी बडे व्यक्ति का निर्माण नहीं हो सकता। सुरेश
कुमार आलोचना की प्रक्रिया से भी गुजरना जरूरी समझते हैं और कहते हैं-अपने
अन्दर भी एक रावण है क्या कभी उसे जलाते हो! ’’भारतीय संस्कृति की परंपरा
है जीओ और जीने दो‘‘। सुरेश कुमार ने इसे अपनी एक गजष्ल में नये संदर्भ में
ढालकर एक नया सौन्दर्य प्रदान किया है। उसको उसके ढंग से जीने दे तू क्यों
अपने मन का चैन गंवाता है। अभी हाल में ही ’डायमण्ड बुक्स‘ प्रकाशन ने
सुरेश कुमार की चुनी हुई गष्जष्लों एवं कविताओं का प्रकाशन किया है। इसमें
सुरेश कुमार की २००५ तक की रचनाएं सम्मिलित हैं। उनकी रचनाओं में विविधता
के साथ-साथ विकास भी है। जहां सुरेश कुमार के अग्रज एवं समकालीन अपने स्थान
पे केवल लेफ्ट-राइट कर रहे हैं वहां सुरेश कुमार चुफ से एक नया रास्ता
तलाश कर रहे हैं। जिस रचनाकार को महानता के व्यामोह का छूत नहीं लगता वह
बहुत आगे जाता है। रचनाकारों को अपने दंभ से लडने की बहुत जरूरत है। बदलते
हुए सामाजिक यथार्थ ने अनेक रचनाकारों को हतप्रभ भी किया है। वह बदलती हुई
जटिलताओं को नहीं समझ पा रहे हैं तथा राजनीति के कुहासे में खो से गये हैं।
संघर्ष करके ही नये रास्ते बनते हैं। साधारणजन से जुडाव संघर्ष को मजबूत
करता है किन्तु यह हमारे मध्यवर्गीय रचनाकारों के पास नहीं है। सुरेश कुमार
के यहां भी भटकाव आते हैं, वे आत्मकुंठा से पीडत रहते हैं किन्तु वे इसको
दुःस्वप्न की तरह झाडकर फिर से खडे हो जाते हैं। उनके चरित्रा की यही
विशेषता उन्हें अपने समकालीनों से अलग कर देती है तथा आश्वस्त करती है कि
सुरेश कुमार और आगे जायेंगे। जो कवि अपनी आलोचना सहन करने की सामर्थ्य नहीं
रखता है उसका कोई भविष्य नहीं है। जोड-तोड, राजनीतिक संगठन आपको कुछ समय
की लोकप्रियता दे सकता है किन्तु अच्छी कविता नहीं लिखवा सकता है। एक समय
के बडे कवि और संवेदनशील रचनाकार जिनके पास भाषा-शिल्प तथा विचार का अद्भुत
समन्वय था उनको सत्ता ने क्रय तथा व्यापार ने अपहरण कर लिया। ’कविता केवल
प्रतिभाओं को खरीदती है ’मीडियॉकरों‘ को नहीं‘....कवि नीरज के इस कथन से
हमारे प्रतिभा संपन्न कवि सबक लेंगे तथा उस रास्ते पर नहीं चलेंगे जो सत्ता
की अंधी गली में जाकर बंद हो जाता है। धन और वैभव रीतिकालीन साहित्य का
सृजन तो कर सकते है किन्तु भक्तिकालीन तथा सूफी साहित्य को पैदा करना उनके
वश में नहीं है, इसके पीछे सुख-सुविधाओं का संसार नहीं है। केवल फश्कीरी का
बाना है। हमारे उदाहरण निराला और मुक्तिबोध होने चाहिए। कवि सुरेश कुमार
से यही उम्मीद है कि वह अपनी मंजिल, जो लम्बी है, हिन्दी की जनवादी परंपरा
से जुडे रहें। कुछ नये प्रयोग जो सार्थक हैं, वे पाठकों के सामने हैं-
पतझरों को बहार करती है मेरी जिष्द इन दिनों मुझे अपने दोस्तों में शुमार
करती है। लोग होते रहे इधर से उधर मैं तो फिर भी बहुत संभल के रहा कौन सी
चीज थी ठिकाने पर आईने में उतर गया कोई खुद को मैं देख भी नहीं पाया और
मुझमें सँवर गया कोई दरख्त क्या है किसी को पता नहीं कुछ भी हमारे दौर को
किस नाम से पुकारोगे सिवाय जख्मों के जिसमें हरा नहीं कुछ भी
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