खड़े चैनलों से कैसे कर पाते हैं लोकप्रियता की उम्मीद
19में से 16 चैनल हुए बंद शीर्षक के नाम से 25 अक्तूबर को एक वेब पोर्टल पर प्रकाशित मेरे द्वारा लिख े
लेख पर पाठकों की विशेषकर मीडियाकर्मियों की प्रतिक्रिया देख कर मैं वास्तव में हैरान रह गया। इलैक्ट्राॅनिक मीडिया में मेरी हज़ारों खबरें चली व प्रिंट मीडिया में भी मैं हजारों बार छपा किंतु कभी इतनी त्वरित प्रतिक्रिया कहीं नहीं मिली। इस लेख के छपने के बाद दो दिनों में मुझे 43 लोगों ने फोन से संपर्क किया व लेख पर अपनी टिप्पणी दी तथा दर्जन भर से अधिक लोगों ने इस साईट पर ही अपनी टिप्पणी छोड़ी। परिणाम वेब मीडिया के उज्जवल भविष्य का संकेत देता है। पाठकों की टिप्पणी का सत्कार करते हुए व मार्गदर्शन के लिए आभार व्यक्त करते हुए मैं अपने सुधी पाठकों के लिए इस लेख में वह जानकारी भी जोड़ रहा हूं जो त्रुटिव्या मुझसे छूट गई। मैं उन पाठकों का धन्यवादी हूं जिन्होंने मेरा ध्यान इन त्रुटियों की ओर दिलाया। वास्तव में इस लेख में कुछ ऐसे पहलुओं का जिक्र तक नहीं हो पाया था जिनका जिक्र वास्तव में इस लेख की प्रस्तावना में होना चाहिए था। भूलों को सुधारने के उपरांत प्रस्तुत है यह आलेख। एक रोज़ एक तथाकथित चैनल मालिक जिसने अपने लाड़ले बेटे के कंधों पर एक समाचार चैनल का भार सौंपा हुआ था को मैंने पूछा कि साहब जब एक आदमी एक मामूली पान की दुकान खोलता है तो अपने बेटे को पान की दुकान पर बिठाने से पहले वह उसे कुछ दिन तो पान लगाना सिखाता ही है, सोचो यदि नव सिखिया कोई व्यक्ति पान बनाने लगे और उस पान में चूना ज्यादा लग जाए तो खाने वाले का क्या होगा? वह व्यक्ति तपाक से बोला अरे खाने वाले का तो मुंह जल जाएगा। मैंने सहजता से अपनी बात आगे बढ़ाई, तो क्या आपको लगता है कि चैनल कोई ऐसा व्यक्ति चला पाएगा जिसे इस फील्ड की कोई जानकारी ही न हो, वह व्यक्ति निरूत्तर था। वास्तव में इलैक्ट्राॅनिक मीडिया का यह बड़ा दुर्भाग्य है कि इस पाक साफ माध्यम पर समाज में काले कारनामों को अंजाम देने के लिए कुख्यात असामाजिक तत्वों की कुदृष्टि पड़ी और यह पाकसाफ पावन कर्म बदनाम हो गया। आज दर्शकों व विज्ञापनदाताओं की नब्ज टटोलने में नाकाम चैनल प्रबंधन के कारण हिमाचल, पंजाब व हरियाणा में टीवी मीडिया का उफान ठंडा पड़ा चुका है इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के 500 से अधिक पत्रकार व इतने ही अन्य मीडियाकर्मी सड़क पर आ गए हैं। दरअसल यहां का भूगोल इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के लिए उतना उर्वरा नहीं है जितना चैनलों को आरंभिक दौर में नज़र आया, परिणाम यह हुआ कि एक-एक कर यहां से चैनल गायब होते गए। किसी भी चैनल ने यहां न तो दर्शकों की मानसिकता समझने का प्रयास किया और न विज्ञापन दाताओं की नब्ज टटोली। यहां तक कि जो भी यहां आया मीडिया की धौंस दिखा कर अपना उल्लू साधने में लग गया और फिर सदा-सदा के लिए यहां से रूखसत हो गया। यहां शुरू हुए उन्नीस क्षेत्रीय चैनलों में 16 बंद हो चुके हैं और कुछ जल्द बंद होने की कगार पर हैं। गैर मीडियाधर्मी सोच के लोगों द्वारा चलाए जा रहे यह चैनल अपना धन व मीडियाकर्मियों का भविष्य दोनों बर्वाद कर रहे हैं। यह काले कारोबारी फरेब के बूते व राजनैतिक सांठ-गांठ के चलते चैनलों के लाइसेंस तो ले लेते हैं किन्तु यह लोग यह भूल जाते हैं कि फरेब की बुनियाद पर टिके यह चैनल कभी भी लोकप्रियता अर्जित नहीं कर सकेंगे।
यहां काफी लंबे अरसे तक संघर्ष करने के उपरांत पंजाब से खदेड़े गए चैनल पंजाब टुडे की हाल ही में हिमाचल से भी सदा-सदा के लिए विदाई हो गई। यह चैनल लंबे अर्से तक जैसे-तैसे समय गुजारने के उपरांत अंततः दुर्गति को प्राप्त हुआ। कुछ दिन न्यूज़ टुडे व फिर न्यूज़ टाईम के नाम से चल रहे चैनल भी अंततः इस क्षेत्र से सदा-सदा के लिए गायब हो गए। इसी भांति उत्तराखंड से संबंधित एक चैनल टीवी-100 ने भी कुछ दिन इस क्षेत्र में पांव पसारने की कोशिश की किंतु दो-तीन महीने चलने के उपरांत यह चैनल भी इन राज्यों से नदारद हो गया। फिर टाईम टीवी का दौर चला, पत्रकारों से मोटी-मोटी कमिटमेंट की गई किंतु फिर वही ढ़ाक के तीन पात वाली कहावत सच साबित हुई अब टाईम टीवी हालांकि डीटीएच प्लेटफाॅर्म पर दिख तो जाता है किंतु वह समाचार और मनोरंजन की बजाय एक धर्म विशेष का धार्मिक चैनल बन कर रह गया है। ऐसा ही कुछ एनआरआई के साथ भी हुआ इस चैलन ने पांव पसारे किंतु उसके पांव भी वहीं ठिठक गए और धीरे-धीरे चैनल सिर्फ पीसीआर यानि प्राॅडक्शन कंट्रोल रूम तक सिमट कर रह गया। ढालीवाल ग्रुप का चैनल डी टीवी भी बुरी तरह पिटने के उपरांत अंततः बिका और दिशा टीवी बन गया। पंजाब से संचालित हो रहे एक और चैनल नं.1 का भी कुछ ऐसा ही हश्र हुआ। यह चैनल भी बिका और अब पंजाब से रूखसत की तैयारी पर है। इसके अतिरिक्त एमएच-1 न्यूज़ के हालात भी कुछ अच्छे नहीं हैं। यह चैनल हिमाचल से तो अपना बोरिया-बिस्तर समेट चुका है किंतु पंजाब में कहीं-कहीं अभी भी नज़र आ रहा है किंतु लचर प्रबंधन के चलते इसका भविष्य भी अधर में नज़र आता है। इसी श्रृंखला में ऐरा टीवी कभी बंद तो कभी शुरू होता रहा है। यह चैनल तीन बार बंद हो चुका है तथा इन दिनों आॅन एयर बताए जाने के बावजूद बंद के बरा-बर है। चैनल पंजाब का भव्य कार्यालय लगभग दो साल तक मोहाली में भारी ताम-झाम के साथ चला किंतु आॅन एयर होने से पहले ही इसके प्रबंधन ने भी हाथ खींच लिए और इनके एनआरआई मालिक भी उल्टे पांव विदेश लौट गए। एक अन्य चैनल पंजाब टीवी भी कुछ दिन तक जोर-शोर से चला खूब होल्डिंग लगी, पंजाब में कई केबल माध्यमों से इसका प्रसारण भी हुआ हिमाचल में चैनल नज़र आने लगा किंतु अंततः कुछ ही महीने बाद यह चैनल भी दर्शकों के बीच से नदारद हो गया। उक्त तीन चार राज्यों में एक एस वन चैनल की भी कुछ समय तक आहट सुनाई दी किंतु यह आहट भी आहट ही रही। इसके अतिरिक्त ए टू जैड, रफ्तार, वाॅयस आॅफ नेशन व वाॅयस आॅफ इंडिया भी लुका छिपी के खेल में शामिल चैनल कहे जा सकते हैं। इन चैनलों में फोकस न्यूज़ नाम का एक चैनल भी आने की तैयारी में था जिसने मोहाली में भव्य इनडोर व आउट डोर स्टूडियो भी तैयार करवाए किंतु यह चैनल भी शुरू होने से पहले ही बंद हो गया। जी पंजाबी ने भी इन राज्यों में समाचारों के बुलेटिन आरंभ करने का प्रयास किया किंतु वह भी मुंह की खाकर लौट गया। स्टैंण्र्ड वल्र्ड जो कि नाम बदल कर एनआरआई से स्टैंण्र्ड वल्र्ड हुआ, भी बुरी तरह हांप चुका है। टाईम टुडे नामक एक चैनल कभी मध्यप्रदेश तो कभी उत्तराखण्ड के बूते पैठ बनाने की को्िया्या कर रहा है किंतु अभी इस चैनल की राह भी यहां कम पथरीली नहीं है। हां पंजाब सरकार के बूते पीटीसी यहां निर्विवाद रूप से अब तक तो चल ही रहा है सरकार बदलने के बाद इस चैनल का क्या होता है यह तो वक्त ही बताएगा।
अब डे एण्ड नाईट की पारी: उक्त राज्यों में अब डे एण्ड नाईट चैनल ने दस्तक दी है। यद्यपि यह चैनल बड़े बजट के साथ शुरू किया गया है किंतु तीन भाषाओं में होने के कारण चैनल किसी भी भाषा के साथ न्याय करता नहीं दिखाई दे रहा है। संपादकीय टीम का प्रिंट मीडिया की पृष्ठ भूमि से होना जहां एक ओर भाषाई शुद्धता के मामले में चैनल को बेहतर बना रहा है वहीं इलैक्ट्राॅनिक मीडिया की समझ न होने के कारण चैनल टीआरपी की दौड़ में पिछड़ता प्रतीत हो रहा है। चैनल के कार्यक्रम आदर्शवादी पत्रकारिता की नुमाइंदगी तो करते हैं किंतु इन कार्यक्रमों से टीआरपी में जान डल पाएगी ऐसा कहना जल्दबाजी होगी। चैनल का भारी भारकम खर्च प्रबंधन कितने वर्षों तक उठा पाएगा यह तो वक्त ही बताएगा। किंतु आर्थिक समीकरण चाहे जिस ओर भी इशारा करें इस बात से दर्शकों को क्या लेना उनकी उम्मीद तो इस चैनल से बंधी ही है और हो भी क्यों नहीं इस रीज़न की एक सशक्त संपादकी टीम का भरोसा जो चैनल के साथ है।
साधना न्यूज़ हिमाचल, उत्तराखंड: साधना न्यूज़ ने हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड में दस्तक दी, अपनी पहचान बनाने के लिए इस चैनल ने अधिकांश समाचारों में सरकार, परियोजनाओं व अन्य लोगोें की खूब खिंचाई की ताकि प्रदेश से विज्ञापन रूपी रस को निचोड़ा जा सके किंतु यहां यह प्रयोग विफल हुआ। साधना वाले रेत को मुठ्ठी में भींच कर अब उससे पानी निकालने का नाकाम प्रयास कर रहे हैं जो कि असंभव न सही मुश्किल जरूर है। चैनल को अब केबल आॅपरेटरों को चैनल चलाने की मंथली अदा करने में भी दिक्कतें पेश आने लगी हैं साथ ही पत्रकारों को पारिश्रमिक अदा करने में भी चैनल आनाकानी करने लगा है।
पत्रकारों की समस्या को नज़रअंदाज करना पड़ रहा है मंहगा: दरअसल इन चैनलों में अधिकांश चैनल पत्रकारों की उपेक्षा कर रहे हैं जिससे इन्हें स्तरीय कंटेंट नहीं मिल पा रहा है परिणामस्वरूप चैनलों की विश्वसनीयता नहीं बन पा रही है और दर्शकों द्वारा नाकारे जाने के कारण चैनल फ्लाप हो रहे हैं। मुफ्त में नियुक्त किए गए पत्रकार अपने दैनिक खर्चे निकालने के लिए ब्लैकमेलिंग करते हैं जिससे चैनल की छवि मिट्टी में मिल जाती है। और लोग चैनल से नफरत करने लगते हैं। केबल आॅपरेटर ऐसे चैनलों से मनमाना पैसा वसूल करते हैं जिससे चैनल का वितरण बजट बढ़ जाता है और चैनल प्रबंधन का आर्थिक संतुलन गड़बड़ा जाता है परिणामस्वरूप चैनल बंद हो जाते हैं।
क्या है बाजार का हाल: चैनलों के लिए विज्ञापन लेना भी कोई आसान काम नहीं है जब तक संपादकीय टीम टीआरपी की बारीकियां नहीं समझती तब तक इन चैनलों के लिए विज्ञापन जुटाना टेड़ी खीर है। अदर्शवादी पत्रकारिता को विज्ञापन बाजार अपना दुश्मन समझता है। आज सनसनी बिक रही है कल दर्शकों की मांग कुछ और होगी। इलैक्ट्राॅनिक मीडिया का दर्शक हर पल कुछ नया चाहता है कुछ दमदार चाहता है। हां यहां आकर्षक पैकिंग में झूठ भी मंहगा बिकने लगा है जो कि पत्रकारिता के लिए शुभ संकेत नहीं है किंतु समय के साथ कदम ताल आज अपना अस्तित्व बचाने के लिए पहली शर्त है। संपादकीय विभाग के हाथों विज्ञापन की कमान के प्रयोग हालांकि पथभ्रष्ट होती पत्रकारिता के संकेत हैं किंतु वजूद बचाने के लिए कुछ बड़े चैनलों द्वारा किए गए यह प्रयोग बेहद कारगर रहे हैं। अब प्रिंट मीडिया के एक बड़े तबके ने भी आदर्शों का चोला उतार पीत पत्रकारिता का यह चोला सहज धारण कर लिया है।
उत्तर भारत के इन राज्यों में विज्ञापन का बाजार सीमित है। विज्ञापनदाताओं को जिला से बाहर विज्ञापन देकर कोई लाभ नहीं हो पाता लिहाजा वे केबल पर 1000 रूपए में एक महीना विज्ञापन सहजता से चला लेते हैं। किसी भी सैटेलाईट चैनल को दर्शकों तक पहुंचने के लिए केबल का ही सहारा लेना पड़ता है, इससे एक और समस्या यह भी खड़ी हो जाती है कि जब भी कोई सैटेलाईट चैनल साम, दाम, दंड, भेद की युक्ति अपना कर कोई विज्ञापन हासिल कर भी लेता है तो केबल आपरेटर उस पर अपना हक समझता है तथा विज्ञापनदाता को अपनी ताकत दिखाने के लिए चैनल का प्रसारण ही बंद कर देता है लिहाजा विज्ञापन टीम के तमाम प्रयासों पर पानी फिर जाता है। प्रिंट के मुकाबले इलैक्ट्राॅनिक विज्ञापन की निर्माण प्रक्रिया मंहगी होने के कारण छोटे विज्ञापन दाता अपने विज्ञापन नहीं बनवा पाते जिससे इलैक्ट्राॅनिक मीडिया खुद उन्हें कामचलाऊ विज्ञापन बना कर देने की आॅफर देता है किंतु क्षेत्रीय स्तर के विज्ञापनदाता जब अपने विज्ञापनों की तूलना काॅरपोरेट के बड़े विज्ञापनों से करने लगते हैं तो उन्हें छोटे चैनलों द्वारा मुफ्त में बनाए विज्ञापन संतुष्टि नहीं दे पाते जिससे क्षेत्रीय चैनलों के संभवित विज्ञापनदाताओं का इलैक्ट्राॅनिक माध्यम से मोह भंग हो जाता है और वे विज्ञापन देने से तौबा कर लेते हैं। क्षेत्रीय चैनलों के विज्ञापनदाता अपना विज्ञापन तो नेशनल लेबल का चाहते हैं जिनकी लागत लाखों से शुरू होकर करोड़ों तक पहुंचती है किंतु इस पर खर्च एक फूटी कौड़ी नहीं करना चाहते जिससे असमंजस की स्थिती पैदा हो जाती है।
छोटे विज्ञापनदाताओं के पास अच्छी क्वालिटी के विज्ञापन साॅफ्टवियर तैयार न होने के कारण केबल स्तर के विज्ञापन चैनल पर चलने से चैनल की छवि को बट्टा लगता है जिससे चैनल का ग्राफ गिरने लगता है और चैनल बंद हो जाता है। प्रिंट एण्ड इलैक्ट्राॅनिक मीडिया टीम ने 8 सालों की कड़ी मेहनत के बाद क्षेत्रीय चैनलों की हर हाल में सफलता के लिए कुछ फर्मुले ढूंढ निकाले हैं जिनके प्रमुख अंश हम इसी लेख के अगले भाग में यानि पेन के अगले अंक में प्रस्तुत करेंगे।
19में से 16 चैनल हुए बंद शीर्षक के नाम से 25 अक्तूबर को एक वेब पोर्टल पर प्रकाशित मेरे द्वारा लिख े
लेख पर पाठकों की विशेषकर मीडियाकर्मियों की प्रतिक्रिया देख कर मैं वास्तव में हैरान रह गया। इलैक्ट्राॅनिक मीडिया में मेरी हज़ारों खबरें चली व प्रिंट मीडिया में भी मैं हजारों बार छपा किंतु कभी इतनी त्वरित प्रतिक्रिया कहीं नहीं मिली। इस लेख के छपने के बाद दो दिनों में मुझे 43 लोगों ने फोन से संपर्क किया व लेख पर अपनी टिप्पणी दी तथा दर्जन भर से अधिक लोगों ने इस साईट पर ही अपनी टिप्पणी छोड़ी। परिणाम वेब मीडिया के उज्जवल भविष्य का संकेत देता है। पाठकों की टिप्पणी का सत्कार करते हुए व मार्गदर्शन के लिए आभार व्यक्त करते हुए मैं अपने सुधी पाठकों के लिए इस लेख में वह जानकारी भी जोड़ रहा हूं जो त्रुटिव्या मुझसे छूट गई। मैं उन पाठकों का धन्यवादी हूं जिन्होंने मेरा ध्यान इन त्रुटियों की ओर दिलाया। वास्तव में इस लेख में कुछ ऐसे पहलुओं का जिक्र तक नहीं हो पाया था जिनका जिक्र वास्तव में इस लेख की प्रस्तावना में होना चाहिए था। भूलों को सुधारने के उपरांत प्रस्तुत है यह आलेख। एक रोज़ एक तथाकथित चैनल मालिक जिसने अपने लाड़ले बेटे के कंधों पर एक समाचार चैनल का भार सौंपा हुआ था को मैंने पूछा कि साहब जब एक आदमी एक मामूली पान की दुकान खोलता है तो अपने बेटे को पान की दुकान पर बिठाने से पहले वह उसे कुछ दिन तो पान लगाना सिखाता ही है, सोचो यदि नव सिखिया कोई व्यक्ति पान बनाने लगे और उस पान में चूना ज्यादा लग जाए तो खाने वाले का क्या होगा? वह व्यक्ति तपाक से बोला अरे खाने वाले का तो मुंह जल जाएगा। मैंने सहजता से अपनी बात आगे बढ़ाई, तो क्या आपको लगता है कि चैनल कोई ऐसा व्यक्ति चला पाएगा जिसे इस फील्ड की कोई जानकारी ही न हो, वह व्यक्ति निरूत्तर था। वास्तव में इलैक्ट्राॅनिक मीडिया का यह बड़ा दुर्भाग्य है कि इस पाक साफ माध्यम पर समाज में काले कारनामों को अंजाम देने के लिए कुख्यात असामाजिक तत्वों की कुदृष्टि पड़ी और यह पाकसाफ पावन कर्म बदनाम हो गया। आज दर्शकों व विज्ञापनदाताओं की नब्ज टटोलने में नाकाम चैनल प्रबंधन के कारण हिमाचल, पंजाब व हरियाणा में टीवी मीडिया का उफान ठंडा पड़ा चुका है इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के 500 से अधिक पत्रकार व इतने ही अन्य मीडियाकर्मी सड़क पर आ गए हैं। दरअसल यहां का भूगोल इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के लिए उतना उर्वरा नहीं है जितना चैनलों को आरंभिक दौर में नज़र आया, परिणाम यह हुआ कि एक-एक कर यहां से चैनल गायब होते गए। किसी भी चैनल ने यहां न तो दर्शकों की मानसिकता समझने का प्रयास किया और न विज्ञापन दाताओं की नब्ज टटोली। यहां तक कि जो भी यहां आया मीडिया की धौंस दिखा कर अपना उल्लू साधने में लग गया और फिर सदा-सदा के लिए यहां से रूखसत हो गया। यहां शुरू हुए उन्नीस क्षेत्रीय चैनलों में 16 बंद हो चुके हैं और कुछ जल्द बंद होने की कगार पर हैं। गैर मीडियाधर्मी सोच के लोगों द्वारा चलाए जा रहे यह चैनल अपना धन व मीडियाकर्मियों का भविष्य दोनों बर्वाद कर रहे हैं। यह काले कारोबारी फरेब के बूते व राजनैतिक सांठ-गांठ के चलते चैनलों के लाइसेंस तो ले लेते हैं किन्तु यह लोग यह भूल जाते हैं कि फरेब की बुनियाद पर टिके यह चैनल कभी भी लोकप्रियता अर्जित नहीं कर सकेंगे।
यहां काफी लंबे अरसे तक संघर्ष करने के उपरांत पंजाब से खदेड़े गए चैनल पंजाब टुडे की हाल ही में हिमाचल से भी सदा-सदा के लिए विदाई हो गई। यह चैनल लंबे अर्से तक जैसे-तैसे समय गुजारने के उपरांत अंततः दुर्गति को प्राप्त हुआ। कुछ दिन न्यूज़ टुडे व फिर न्यूज़ टाईम के नाम से चल रहे चैनल भी अंततः इस क्षेत्र से सदा-सदा के लिए गायब हो गए। इसी भांति उत्तराखंड से संबंधित एक चैनल टीवी-100 ने भी कुछ दिन इस क्षेत्र में पांव पसारने की कोशिश की किंतु दो-तीन महीने चलने के उपरांत यह चैनल भी इन राज्यों से नदारद हो गया। फिर टाईम टीवी का दौर चला, पत्रकारों से मोटी-मोटी कमिटमेंट की गई किंतु फिर वही ढ़ाक के तीन पात वाली कहावत सच साबित हुई अब टाईम टीवी हालांकि डीटीएच प्लेटफाॅर्म पर दिख तो जाता है किंतु वह समाचार और मनोरंजन की बजाय एक धर्म विशेष का धार्मिक चैनल बन कर रह गया है। ऐसा ही कुछ एनआरआई के साथ भी हुआ इस चैलन ने पांव पसारे किंतु उसके पांव भी वहीं ठिठक गए और धीरे-धीरे चैनल सिर्फ पीसीआर यानि प्राॅडक्शन कंट्रोल रूम तक सिमट कर रह गया। ढालीवाल ग्रुप का चैनल डी टीवी भी बुरी तरह पिटने के उपरांत अंततः बिका और दिशा टीवी बन गया। पंजाब से संचालित हो रहे एक और चैनल नं.1 का भी कुछ ऐसा ही हश्र हुआ। यह चैनल भी बिका और अब पंजाब से रूखसत की तैयारी पर है। इसके अतिरिक्त एमएच-1 न्यूज़ के हालात भी कुछ अच्छे नहीं हैं। यह चैनल हिमाचल से तो अपना बोरिया-बिस्तर समेट चुका है किंतु पंजाब में कहीं-कहीं अभी भी नज़र आ रहा है किंतु लचर प्रबंधन के चलते इसका भविष्य भी अधर में नज़र आता है। इसी श्रृंखला में ऐरा टीवी कभी बंद तो कभी शुरू होता रहा है। यह चैनल तीन बार बंद हो चुका है तथा इन दिनों आॅन एयर बताए जाने के बावजूद बंद के बरा-बर है। चैनल पंजाब का भव्य कार्यालय लगभग दो साल तक मोहाली में भारी ताम-झाम के साथ चला किंतु आॅन एयर होने से पहले ही इसके प्रबंधन ने भी हाथ खींच लिए और इनके एनआरआई मालिक भी उल्टे पांव विदेश लौट गए। एक अन्य चैनल पंजाब टीवी भी कुछ दिन तक जोर-शोर से चला खूब होल्डिंग लगी, पंजाब में कई केबल माध्यमों से इसका प्रसारण भी हुआ हिमाचल में चैनल नज़र आने लगा किंतु अंततः कुछ ही महीने बाद यह चैनल भी दर्शकों के बीच से नदारद हो गया। उक्त तीन चार राज्यों में एक एस वन चैनल की भी कुछ समय तक आहट सुनाई दी किंतु यह आहट भी आहट ही रही। इसके अतिरिक्त ए टू जैड, रफ्तार, वाॅयस आॅफ नेशन व वाॅयस आॅफ इंडिया भी लुका छिपी के खेल में शामिल चैनल कहे जा सकते हैं। इन चैनलों में फोकस न्यूज़ नाम का एक चैनल भी आने की तैयारी में था जिसने मोहाली में भव्य इनडोर व आउट डोर स्टूडियो भी तैयार करवाए किंतु यह चैनल भी शुरू होने से पहले ही बंद हो गया। जी पंजाबी ने भी इन राज्यों में समाचारों के बुलेटिन आरंभ करने का प्रयास किया किंतु वह भी मुंह की खाकर लौट गया। स्टैंण्र्ड वल्र्ड जो कि नाम बदल कर एनआरआई से स्टैंण्र्ड वल्र्ड हुआ, भी बुरी तरह हांप चुका है। टाईम टुडे नामक एक चैनल कभी मध्यप्रदेश तो कभी उत्तराखण्ड के बूते पैठ बनाने की को्िया्या कर रहा है किंतु अभी इस चैनल की राह भी यहां कम पथरीली नहीं है। हां पंजाब सरकार के बूते पीटीसी यहां निर्विवाद रूप से अब तक तो चल ही रहा है सरकार बदलने के बाद इस चैनल का क्या होता है यह तो वक्त ही बताएगा।
अब डे एण्ड नाईट की पारी: उक्त राज्यों में अब डे एण्ड नाईट चैनल ने दस्तक दी है। यद्यपि यह चैनल बड़े बजट के साथ शुरू किया गया है किंतु तीन भाषाओं में होने के कारण चैनल किसी भी भाषा के साथ न्याय करता नहीं दिखाई दे रहा है। संपादकीय टीम का प्रिंट मीडिया की पृष्ठ भूमि से होना जहां एक ओर भाषाई शुद्धता के मामले में चैनल को बेहतर बना रहा है वहीं इलैक्ट्राॅनिक मीडिया की समझ न होने के कारण चैनल टीआरपी की दौड़ में पिछड़ता प्रतीत हो रहा है। चैनल के कार्यक्रम आदर्शवादी पत्रकारिता की नुमाइंदगी तो करते हैं किंतु इन कार्यक्रमों से टीआरपी में जान डल पाएगी ऐसा कहना जल्दबाजी होगी। चैनल का भारी भारकम खर्च प्रबंधन कितने वर्षों तक उठा पाएगा यह तो वक्त ही बताएगा। किंतु आर्थिक समीकरण चाहे जिस ओर भी इशारा करें इस बात से दर्शकों को क्या लेना उनकी उम्मीद तो इस चैनल से बंधी ही है और हो भी क्यों नहीं इस रीज़न की एक सशक्त संपादकी टीम का भरोसा जो चैनल के साथ है।
साधना न्यूज़ हिमाचल, उत्तराखंड: साधना न्यूज़ ने हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड में दस्तक दी, अपनी पहचान बनाने के लिए इस चैनल ने अधिकांश समाचारों में सरकार, परियोजनाओं व अन्य लोगोें की खूब खिंचाई की ताकि प्रदेश से विज्ञापन रूपी रस को निचोड़ा जा सके किंतु यहां यह प्रयोग विफल हुआ। साधना वाले रेत को मुठ्ठी में भींच कर अब उससे पानी निकालने का नाकाम प्रयास कर रहे हैं जो कि असंभव न सही मुश्किल जरूर है। चैनल को अब केबल आॅपरेटरों को चैनल चलाने की मंथली अदा करने में भी दिक्कतें पेश आने लगी हैं साथ ही पत्रकारों को पारिश्रमिक अदा करने में भी चैनल आनाकानी करने लगा है।
पत्रकारों की समस्या को नज़रअंदाज करना पड़ रहा है मंहगा: दरअसल इन चैनलों में अधिकांश चैनल पत्रकारों की उपेक्षा कर रहे हैं जिससे इन्हें स्तरीय कंटेंट नहीं मिल पा रहा है परिणामस्वरूप चैनलों की विश्वसनीयता नहीं बन पा रही है और दर्शकों द्वारा नाकारे जाने के कारण चैनल फ्लाप हो रहे हैं। मुफ्त में नियुक्त किए गए पत्रकार अपने दैनिक खर्चे निकालने के लिए ब्लैकमेलिंग करते हैं जिससे चैनल की छवि मिट्टी में मिल जाती है। और लोग चैनल से नफरत करने लगते हैं। केबल आॅपरेटर ऐसे चैनलों से मनमाना पैसा वसूल करते हैं जिससे चैनल का वितरण बजट बढ़ जाता है और चैनल प्रबंधन का आर्थिक संतुलन गड़बड़ा जाता है परिणामस्वरूप चैनल बंद हो जाते हैं।
क्या है बाजार का हाल: चैनलों के लिए विज्ञापन लेना भी कोई आसान काम नहीं है जब तक संपादकीय टीम टीआरपी की बारीकियां नहीं समझती तब तक इन चैनलों के लिए विज्ञापन जुटाना टेड़ी खीर है। अदर्शवादी पत्रकारिता को विज्ञापन बाजार अपना दुश्मन समझता है। आज सनसनी बिक रही है कल दर्शकों की मांग कुछ और होगी। इलैक्ट्राॅनिक मीडिया का दर्शक हर पल कुछ नया चाहता है कुछ दमदार चाहता है। हां यहां आकर्षक पैकिंग में झूठ भी मंहगा बिकने लगा है जो कि पत्रकारिता के लिए शुभ संकेत नहीं है किंतु समय के साथ कदम ताल आज अपना अस्तित्व बचाने के लिए पहली शर्त है। संपादकीय विभाग के हाथों विज्ञापन की कमान के प्रयोग हालांकि पथभ्रष्ट होती पत्रकारिता के संकेत हैं किंतु वजूद बचाने के लिए कुछ बड़े चैनलों द्वारा किए गए यह प्रयोग बेहद कारगर रहे हैं। अब प्रिंट मीडिया के एक बड़े तबके ने भी आदर्शों का चोला उतार पीत पत्रकारिता का यह चोला सहज धारण कर लिया है।
उत्तर भारत के इन राज्यों में विज्ञापन का बाजार सीमित है। विज्ञापनदाताओं को जिला से बाहर विज्ञापन देकर कोई लाभ नहीं हो पाता लिहाजा वे केबल पर 1000 रूपए में एक महीना विज्ञापन सहजता से चला लेते हैं। किसी भी सैटेलाईट चैनल को दर्शकों तक पहुंचने के लिए केबल का ही सहारा लेना पड़ता है, इससे एक और समस्या यह भी खड़ी हो जाती है कि जब भी कोई सैटेलाईट चैनल साम, दाम, दंड, भेद की युक्ति अपना कर कोई विज्ञापन हासिल कर भी लेता है तो केबल आपरेटर उस पर अपना हक समझता है तथा विज्ञापनदाता को अपनी ताकत दिखाने के लिए चैनल का प्रसारण ही बंद कर देता है लिहाजा विज्ञापन टीम के तमाम प्रयासों पर पानी फिर जाता है। प्रिंट के मुकाबले इलैक्ट्राॅनिक विज्ञापन की निर्माण प्रक्रिया मंहगी होने के कारण छोटे विज्ञापन दाता अपने विज्ञापन नहीं बनवा पाते जिससे इलैक्ट्राॅनिक मीडिया खुद उन्हें कामचलाऊ विज्ञापन बना कर देने की आॅफर देता है किंतु क्षेत्रीय स्तर के विज्ञापनदाता जब अपने विज्ञापनों की तूलना काॅरपोरेट के बड़े विज्ञापनों से करने लगते हैं तो उन्हें छोटे चैनलों द्वारा मुफ्त में बनाए विज्ञापन संतुष्टि नहीं दे पाते जिससे क्षेत्रीय चैनलों के संभवित विज्ञापनदाताओं का इलैक्ट्राॅनिक माध्यम से मोह भंग हो जाता है और वे विज्ञापन देने से तौबा कर लेते हैं। क्षेत्रीय चैनलों के विज्ञापनदाता अपना विज्ञापन तो नेशनल लेबल का चाहते हैं जिनकी लागत लाखों से शुरू होकर करोड़ों तक पहुंचती है किंतु इस पर खर्च एक फूटी कौड़ी नहीं करना चाहते जिससे असमंजस की स्थिती पैदा हो जाती है।
छोटे विज्ञापनदाताओं के पास अच्छी क्वालिटी के विज्ञापन साॅफ्टवियर तैयार न होने के कारण केबल स्तर के विज्ञापन चैनल पर चलने से चैनल की छवि को बट्टा लगता है जिससे चैनल का ग्राफ गिरने लगता है और चैनल बंद हो जाता है। प्रिंट एण्ड इलैक्ट्राॅनिक मीडिया टीम ने 8 सालों की कड़ी मेहनत के बाद क्षेत्रीय चैनलों की हर हाल में सफलता के लिए कुछ फर्मुले ढूंढ निकाले हैं जिनके प्रमुख अंश हम इसी लेख के अगले भाग में यानि पेन के अगले अंक में प्रस्तुत करेंगे।
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