प्रस्तुति-- उषा रानी , राजेन्द्र प्रसाद सिन्हा
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लगभग 13 वीं सदी के बाद से भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग में “संत मत” एक ढीले ढंग से जुड़ा गुरुओं का एक सहयोगी समूह था जिसे बहुत प्रसिद्धि मिली. धर्म ब्रह्म विज्ञान के तौर पर उनकी शिक्षाओं की विशेषता यह है कि वे अंतर्मुखी और प्रेम भक्ति के एक दैवीय सिद्धांत से जुड़े हैं और सामाजिक रूप से वे एक समतावादी गुणों वाले सिद्धांत से जुड़े हैं जो हिंदु धर्म की जाति प्रथा के विरुद्ध है और हिंदू - मुस्लिम के अंतर के भी विरुद्ध है.[1] संत परंपरा को मुख्यत: दो समूहों में बांटा जा सकता है: पंजाब, (राजस्थान और उत्तर प्रदेश) क्षेत्र के संतों का उत्तरी समूह जिसने अपनी अभिव्यक्ति मुख्यत: बोलचाल वाली हिंदी में की और दक्षिणी समूह जिसकी भाषा पुरातन मराठी है और जिसका प्रतिनिधित्व नामदेव और महाराष्ट्र के अन्य संत करते हैं.[2]
इस आंदोलन की सीमाएँ संभवत: संप्रदायवादी नहीं थीं और इसमें जाति और पूजा-पद्धति की ब्राह्मण अवधारणाएँ भी नहीं थीं. संत कवियों ने अपनी वाणी बोलचाल की भाषा में लिखे काव्य में कही जो उन्होंने हिंदी और मराठी जैसी स्थानीय भाषाओं में सामान्य जन को संबोधित की. उन्होंने ईश्वर नाम को सच्चा रक्षक कहा और धार्मिक आडंबरों को मूल्यहीन कह कर खारिज कर दिया. उन्होंने इस विचार को स्थापित किया कि धर्म, ईश्वर के प्रति समर्पण का विषय है जो कि हृदय में बसता है."[6].
उत्तर भारतीय संतों की पहली पीढ़ी जिसमें कबीर और रविदास शामिल हैं 15वीं शताब्दी के मध्य में बनारस में पैदा हुए. उनसे पूर्व 13वीं और 14वीं शताब्दी में दो मुख्य व्यक्तित्व नामदेव और रामानंद हुए. संत मत परंपरा के अनुसार रामानंद वैष्णव साधु थे जिन्होंने कबीर, रविदास और अन्य संतों को नाम दान दिया. रामानंदी भिक्षुओं की परंपरा, उसके बाद के अन्य संत और बाद के सिखों द्वारा रामानंद की कथा को अलग-अलग तरह से बताता है. इतनी जानकारी मिलती है कि रामानंद ने सभी जातियों से शिष्य स्वीकार किए, यह एक ऐसा तथ्य है जिसका रूढ़िवादी हिंदुओं ने उस समय विरोध किया था. संत मत के अनुयायी मानते हैं कि रामानंद के शिष्यों ने संतों की पहली पीढ़ी तैयार की.[7]
इन संतों ने एक संकृति का विकास किया जो समाज में हाशिए पर पड़े मनुष्यों के निकट थी जिसमें महिलाएँ, दलित, अछूत और अतिशू्द्र शामिल थे. कुछ अधिक प्रसिद्ध संतों में नामदेव (जन्म :सन् 1269), कबीर ((जन्म :सन् 1398), नानक ((जन्म :सन् 1469), सूरदास ((जन्म :सन् 1478), मीरा बाई ((जन्म :सन् 1504), तुलसीदास ((जन्म :सन् 1532) और तुकाराम ((जन्म :सन् 1606) शामिल हैं..
संतों की पंरपरा गैर-संप्रदायवादी रही यद्यपि माना जाता है कि कई संत कवियों ने अपने संप्रदाय स्थापित किए. इनमें से कइयों के नाम के साथ संत जुड़ा है लेकिन उनके शिष्यों ने आगे चल कर कबीर पंथ, दादू पंथ, दरिया पंथ, अद्वैत मत, आध्यात्मिकता का विज्ञान(www.sos.org) और राधास्वामी जैसे पंथ चलाए.[8]
धार्मिक हिंदुओं के एक अल्प समुदाय ने ही औपचारिक रूप से संत मत का अनुगमन किया है. परंतु इस परंपरा का सभी संप्रदायों और जातियों पर बहुत प्रभाव पडा़ है. मीरा बाई जैसे बीते संतों के भजन (भक्ति गीतों) को भारत और विश्व भर में हिंदु जातियों में काफी सुना जाता है. मध्यकालीन और आधुनिक भरत में केवल संत परंपरा ही है जिसने सफलतापूर्वक हिंदू और मुस्लिम सीमाओं को तोड़ा है. जूलियस जे. लिप्नर ने जोर दे कर कहा है कि संतों की धार्मिक शिक्षाओं ने कई हिंदुओं के जीवन का उत्थान किया है और उसने उसे स्वतंत्रतादायिनी कहा है.[9]
संत मत परंपरा में जिंदा गुरु को महत्व दिया जाता है जिसे सत्गुरु या 'पूर्ण गुरु' जैसे सम्मान सूचक शब्दों के साथ संबोधित किया जाता है. [10]
उत्तर भारत का राधास्वामी आंदोलन अपने आप को संतमत पंरपरा और धार्मिक प्रयास का मुख्य निधान मानता है और स्वयं को संत परंपरा के जीवित अवतार की भांति प्रस्तुत करता है. सबसे अधिक उल्लेखनीय राधास्वामी सत्संग ब्यास है, जो ब्यास नदी के किनारे पर स्थित है और जिसके वर्तमान जीवित गुरु गुरिंदर सिंह हैं. मार्क ज्यर्गंसमेयेर के अनुसार ऐसा दावा कबीर पंथी, सिख और अन्य आंदोलनों द्वारा भी किया जाता है जो आज की वैध संत मत परंपरा से अंतर्दृष्टि प्राप्त कर रही हैं.[12] डेविड सी. लेन ने बाबा फकीर चंद के दैवी रूप प्रकट होने से संबंधित फकीर के 'न जानने' के कथन को 'चंदियन प्रभाव' के रूप में निरूपित किया है। फकीर ने इसे अनुयायियों के मन का ही खेल कहा और रूप प्रकट होने को माया बताया। यह संतमत की कई धारणाओं को तोड़ता है।
गुरु महाराज जी (प्रेम रावत) और डिवाइन लाइट मिशन (एलेन विटाल) को जे. गोर्डन मेल्टन, लूसी डू पर्टीज़, और विशाल मंगलवाड़ी संत मत परंपरा का मानते हैं परंतु रॉन ग्रीव्ज़ इस लक्षण-वर्णन के विरोधी हैं .[13][14][15][16] 20वीं सदी के एकंकार Eckankar धार्मिक आंदोलन को भी डेविड सी. लेन ने संत मत परंपरा की ही शाखा माना है.[17] जेम्स आर. ल्यूइस ने इन आंदोलनों को नए संदर्भ में पुराने विश्वास की अभिव्यक्ति कहा है.[18]
वर्तमान मे सन्तमत परम्परा अपने शुद्द स्वरुप मे सन्तमत अनुयायी आश्रम वारानसी मे प्रवाहित है| [19]
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अनुक्रम
व्युत्पत्ति
'संत मत' का अर्थ है - 'संतों का मार्ग', 'सत्य का मार्ग', 'सही और आशावादी पथ' या 'संतों की राय'. 'संत' शब्द संस्कृत की धातु 'सद्' से बना है और कई प्रकार से प्रयोग हआ है (सत्य, वास्तविक, ईमानदार, सही). इसका मूल अर्थ है 'सत्य जानने वाला' या 'जिसने अंतिम सत्य अनुभव कर लिया हो.' 'संत' शब्द से अर्थ आम तौर पर एक अच्छे व्यक्ति से लिया जाता है लेकिन इसका विशेष अर्थ मध्यकालीन भारत के संत कवियों से ही लिया जाता है.[3]संत
संत मत आंदोलन एकरूप नहीं था और इसमें संतों का अपना सामाजिक-धार्मिक व्यवहार शामिल था जो कि हजार वर्ष पहले भगवद्गीता में वर्णित भक्ति पर आधारित था.[4] उनकी अपनी साझी कुछ रूढ़ियाँ आपस में और उन परंपराओं के अनुयायिओं में भी साझी थीं जिन्हें उन्होंने चुनौती दी थी. इस प्रकार संत मत विशिष्ट धार्मिक परंपरा के बजाय आध्यात्मिक व्यक्तित्वों का ऐसा विविधतापूर्ण समूह प्रतीत होता है जो एक सामान्य आध्यात्मिक मूल को स्वीकार करता है.[5]इस आंदोलन की सीमाएँ संभवत: संप्रदायवादी नहीं थीं और इसमें जाति और पूजा-पद्धति की ब्राह्मण अवधारणाएँ भी नहीं थीं. संत कवियों ने अपनी वाणी बोलचाल की भाषा में लिखे काव्य में कही जो उन्होंने हिंदी और मराठी जैसी स्थानीय भाषाओं में सामान्य जन को संबोधित की. उन्होंने ईश्वर नाम को सच्चा रक्षक कहा और धार्मिक आडंबरों को मूल्यहीन कह कर खारिज कर दिया. उन्होंने इस विचार को स्थापित किया कि धर्म, ईश्वर के प्रति समर्पण का विषय है जो कि हृदय में बसता है."[6].
उत्तर भारतीय संतों की पहली पीढ़ी जिसमें कबीर और रविदास शामिल हैं 15वीं शताब्दी के मध्य में बनारस में पैदा हुए. उनसे पूर्व 13वीं और 14वीं शताब्दी में दो मुख्य व्यक्तित्व नामदेव और रामानंद हुए. संत मत परंपरा के अनुसार रामानंद वैष्णव साधु थे जिन्होंने कबीर, रविदास और अन्य संतों को नाम दान दिया. रामानंदी भिक्षुओं की परंपरा, उसके बाद के अन्य संत और बाद के सिखों द्वारा रामानंद की कथा को अलग-अलग तरह से बताता है. इतनी जानकारी मिलती है कि रामानंद ने सभी जातियों से शिष्य स्वीकार किए, यह एक ऐसा तथ्य है जिसका रूढ़िवादी हिंदुओं ने उस समय विरोध किया था. संत मत के अनुयायी मानते हैं कि रामानंद के शिष्यों ने संतों की पहली पीढ़ी तैयार की.[7]
इन संतों ने एक संकृति का विकास किया जो समाज में हाशिए पर पड़े मनुष्यों के निकट थी जिसमें महिलाएँ, दलित, अछूत और अतिशू्द्र शामिल थे. कुछ अधिक प्रसिद्ध संतों में नामदेव (जन्म :सन् 1269), कबीर ((जन्म :सन् 1398), नानक ((जन्म :सन् 1469), सूरदास ((जन्म :सन् 1478), मीरा बाई ((जन्म :सन् 1504), तुलसीदास ((जन्म :सन् 1532) और तुकाराम ((जन्म :सन् 1606) शामिल हैं..
संतों की पंरपरा गैर-संप्रदायवादी रही यद्यपि माना जाता है कि कई संत कवियों ने अपने संप्रदाय स्थापित किए. इनमें से कइयों के नाम के साथ संत जुड़ा है लेकिन उनके शिष्यों ने आगे चल कर कबीर पंथ, दादू पंथ, दरिया पंथ, अद्वैत मत, आध्यात्मिकता का विज्ञान(www.sos.org) और राधास्वामी जैसे पंथ चलाए.[8]
धार्मिक हिंदुओं के एक अल्प समुदाय ने ही औपचारिक रूप से संत मत का अनुगमन किया है. परंतु इस परंपरा का सभी संप्रदायों और जातियों पर बहुत प्रभाव पडा़ है. मीरा बाई जैसे बीते संतों के भजन (भक्ति गीतों) को भारत और विश्व भर में हिंदु जातियों में काफी सुना जाता है. मध्यकालीन और आधुनिक भरत में केवल संत परंपरा ही है जिसने सफलतापूर्वक हिंदू और मुस्लिम सीमाओं को तोड़ा है. जूलियस जे. लिप्नर ने जोर दे कर कहा है कि संतों की धार्मिक शिक्षाओं ने कई हिंदुओं के जीवन का उत्थान किया है और उसने उसे स्वतंत्रतादायिनी कहा है.[9]
संत मत परंपरा में जिंदा गुरु को महत्व दिया जाता है जिसे सत्गुरु या 'पूर्ण गुरु' जैसे सम्मान सूचक शब्दों के साथ संबोधित किया जाता है. [10]
अन्य संबंधित आंदोलन
माना जाता है कि मध्यकालीन सूफी कवियों यथा जलाल अल-दीन मोहम्मद रूमी और सिंधी कवियों और संत मत कवियों के बीच बहुत समानता है.[11]उत्तर भारत का राधास्वामी आंदोलन अपने आप को संतमत पंरपरा और धार्मिक प्रयास का मुख्य निधान मानता है और स्वयं को संत परंपरा के जीवित अवतार की भांति प्रस्तुत करता है. सबसे अधिक उल्लेखनीय राधास्वामी सत्संग ब्यास है, जो ब्यास नदी के किनारे पर स्थित है और जिसके वर्तमान जीवित गुरु गुरिंदर सिंह हैं. मार्क ज्यर्गंसमेयेर के अनुसार ऐसा दावा कबीर पंथी, सिख और अन्य आंदोलनों द्वारा भी किया जाता है जो आज की वैध संत मत परंपरा से अंतर्दृष्टि प्राप्त कर रही हैं.[12] डेविड सी. लेन ने बाबा फकीर चंद के दैवी रूप प्रकट होने से संबंधित फकीर के 'न जानने' के कथन को 'चंदियन प्रभाव' के रूप में निरूपित किया है। फकीर ने इसे अनुयायियों के मन का ही खेल कहा और रूप प्रकट होने को माया बताया। यह संतमत की कई धारणाओं को तोड़ता है।
गुरु महाराज जी (प्रेम रावत) और डिवाइन लाइट मिशन (एलेन विटाल) को जे. गोर्डन मेल्टन, लूसी डू पर्टीज़, और विशाल मंगलवाड़ी संत मत परंपरा का मानते हैं परंतु रॉन ग्रीव्ज़ इस लक्षण-वर्णन के विरोधी हैं .[13][14][15][16] 20वीं सदी के एकंकार Eckankar धार्मिक आंदोलन को भी डेविड सी. लेन ने संत मत परंपरा की ही शाखा माना है.[17] जेम्स आर. ल्यूइस ने इन आंदोलनों को नए संदर्भ में पुराने विश्वास की अभिव्यक्ति कहा है.[18]
वर्तमान मे सन्तमत परम्परा अपने शुद्द स्वरुप मे सन्तमत अनुयायी आश्रम वारानसी मे प्रवाहित है| [19]
यह भी देखें
References and footnotes
- वुडहेड, लिंडा और फ्लेचर, पॉल. रिलीजियन इन द मॉडर्न वर्ल्ड: ट्रेडीशंस एंड ट्रांसफॉर्मेशंस (2001) पृ.71-2. राऊटलेज (यू.के) ISBN 0-415-21784-9"
- वुडहेड, लिंडा और फ्लेचर, पॉल. रिलीजियन इन द मॉडर्न वर्ल्ड: ट्रेडीशंस एंड ट्रांसफॉर्मेशंस (2001) पृ.71-2. राऊटलेज (यू.के) ISBN 0-415-21784-9"
- शोमर, करीने, संत मत:स्टडीज़ इन ए डिवोशनल ट्रेडीशंस आफ इंडिया में द संत ट्रेडीशन इन पर्सपेक्टिव, शोमर के. और मैक ल्योड डब्ल्यू.एच. (Eds.)ISBN 0-9612208-0-5
- लिप्नर, जूलियस जे. हिंदूज़: देयर रिलीजियस बिलीफ्स एंड प्रैक्टिसिस (1994). राऊटलेज (यूनीइटिड किंग्डम), पृ. 120-1 . ISBN 0-415-05181-9
- गोल्ड, डेनियल, क्लैन एंड लाइनेज अमंग द संत्स: सीड, सब्स्टांस, सर्विस, in संत मत:स्टडीज़ इन डिवोशनल ट्रेडीशन आफ़ इंडिया in शोमर के. और मैक्ल्योड डब्ल्यू.एच. (Eds.). पृ.305, ISBN 0-9612208-0-5
- लिप्नर, जूलियस जे. हिंदूज़: देयर रिलीजियस बिलीफ्स एंड प्रैक्टिसिस (1994). राऊटलेज (यूनीइटिड किंग्डम), पृ. 120-1 . ISBN 0-415-05181-9
- हीज़, पीटर, इंडियन रिलीजियंस: अ हिस्टॉरिकल रीडर ऑफ स्पिरीचुअल एक्सप्रेशन एंड एक्सपीरिएंस, (2002) पृ.359. NYU Press, ISBN 0-8147-3650-5
- वाउडेविले, चार्लट. संत मत: संतिज़्म इज़ द यूनिवर्सल पाथ टू सैंक्टिटी in संत मत:स्टडीज़ इन डिवोशनल ट्रेडीशन ऑफ इंडिया in शोमर के. और मैक्ल्योड डब्ल्यू.एच. (Eds.) ISBN 0-9612208-0-5
- लिप्नर, जूलियस जे. हिंदूज़: देयर रिलीजियस बिलीफ्स एंड प्रैक्टिसिस (1994). राऊटलेज (यूनीइटिड किंग्डम), पृ. 120-1 . ISBN 0-415-05181-9
- ल्यूइस, जेम्स पी. (1998). सीकिंग द लाइट: अनकवरविंग द ट्रूथ अबाउट द मूवमेंट ऑफ स्पिरीचुअल इन्नर अवेयरनेस एंड इट्स फाऊँडर जॉन-रोजर. हिचइन: मंडेविले प्रेस. प॰ 62. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-914829-42-4.
- अलसानी, अली, सिंधी लिटरेरी कल्चर, in पोल्लोक, शेल्डन I (Ed.) लिटरेरी कल्चर इन हिस्टरी (2003), p.637-8, यूनीवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया प्रेस, ISBN 0-520-22821-9
- ज्यर्गंसमेयेर , मार्क. द राधास्वामी रिवाइवल पृ.329-55 in संत मत स्टडीज़ इन अ डिवोशनल ट्रेडीशन ऑफ इंडिया in शोमर के. और मैक्ल्योड डब्ल्यू.एच. (Eds.) W.H. ISBN 0-9612208-0-5
- जे. गोर्डन मेल्टन., एनसाइक्लोपीडिया ऑफ अमेरीकन रिलीजियंस
- लूसी डू पर्टीज़. "हाओ पीपल रिकॉगनाइज़ करिश्मा: राधास्वामी और डिवाइन लाइट मिशन" के मामले में दर्शन in सोशिऑलाजिकल एनालाइसिस: अ जर्नल इन द सोशियोलोजी ऑफ रिलीजियन Vol. 47 No. 2 by एसोसिएशन फॉर द सोशियोलॉजी ऑफ रिलीजियन. शिकागो, समर 1986, ISSN 0038-0210, pp. 111-124.
- मंगलवाडी, विशाल (1977), वर्ल्ड आफ गुरुज़, नई दिल्ली: विकास पब्लिशिंग हाऊस प्रा.लि., प॰ 218, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-7069-0523-7
- रोन ग्रीव्ज़. "फ्राम डिवाइन लाइट मिशन टू एलन विटाल एंड बियोंड:एन एक्सप्लोरेशन ऑफ चेंज एंड एडेप्टेशन" in नोवा रिलीजियो:द जरनल ऑफ आल्टरनेटिव एंड इमेर्जेंट रिलीजियंस वाल्यूम. 7 No. 3. मार्च 2004, पृ. 45–62. मूल रूप से अल्प मत धर्म, सामाजिक परिवर्तन और आत्मा की स्वतंत्रता पर (यूनीवर्सिटी ऑफ ऊटाह एट साल्ट लेक सिटी) में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में प्रस्तुत किया गया. At Caliber (जरनल्स ऑफ द यूनीवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया प्रैस)
- लेन, डेविड सी., "एक आध्यात्मिक आंदोलन की रचना", एल मार प्रैस; संशोधित संस्करण (दिसंबर 1, 1993), ISBN 0-9611124-6-8
- ल्यूइस, जेम्स आर. द ऑक्सफोर्ड हैंडबुक ऑफ न्यू रिलीजियस मूवमेंट्स पृ.23,ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी प्रैस (2003), ISBN 0-19-514986-6
- A BRIEF INTRODUCTION At "सन्तमत अनुयायी आश्रम"
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