Thursday, October 30, 2014

कोणार्क सूर्य मंदिर







प्रस्तुति-- स्वामी शरण गणेश प्रसाद


कोणार्क सूर्य मंदिर*
युनेस्को विश्व धरोहर स्थल

कोणार्क का रथ-चक्र
राष्ट्र पार्टी Flag of India.svg भारत
मानदंड i, iii, vi
देश {{{country}}}
क्षेत्र एशिया प्रशांत
प्रकार सांस्कृतिक
आईडी 246
शिलालेखित इतिहास
शिलालेख 1984  (आठवां सत्र)
* नाम, जो कि विश्व धरोहर सूची में अंकित है
यूनेस्को द्वारा वर्गीकृत क्षेत्र
कोणार्क का सूर्य मंदिर (जिसे अंग्रेज़ी में ब्लैक पगोडा भी कहा गया है), भारत के उड़ीसा राज्य के पुरी जिले के पुरी नामक शहर में स्थित है। इसे लाल बलुआ पत्थर एवं काले ग्रेनाइट पत्थर से १२३६– १२६४ ई.पू. में गंग वंश के राजा नृसिंहदेव द्वारा बनवाया गया था।[1] यह मंदिर, भारत की सबसे प्रसिद्ध स्थलों में से एक है। इसे युनेस्को द्वारा सन १९८४ में विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया है।[2][3]कलिंग शैली में निर्मित यह मंदिर सूर्य देव(अर्क) के रथ के रूप में निर्मित है। इस को पत्थर पर उत्कृष्ट नक्काशी करके बहुत ही सुंदर बनाया गया है। संपूर्ण मंदिर स्थल को एक बारह जोड़ी चक्रों वाले, सात घोड़ों से खींचे जाते सूर्य देव के रथ के रूप में बनाया है। मंदिर अपनी कामुक मुद्राओं वाली शिल्पाकृतियों के लिये भी प्रसिद्ध है। आज इसका काफी भाग ध्वस्त हो चुका है। इसका कारण वास्तु दोष एवं मुस्लिम आक्रमण रहे हैं। यहां सूर्य को बिरंचि-नारायण कहते थे।

सूर्य मंदिर का स्थापत्य

यह मंदिर सूर्य देव(अर्क) के रथ के रूप में निर्मित है। इस को पत्थर पर उत्कृष्ट नक्काशी करके बहुत ही सुंदर बनाया गया है। संपूर्ण मंदिर स्थल को एक बारह जोड़ी चक्रों वाले, सात घोड़ों से खींचे जाते सूर्य देव के रथ के रूप में बनाया गया है। मंदिर की संरचना, जो सूर्य के सात घोड़ों द्वारा दिव्य रथ को खींचने पर आधारित है, परिलक्षित होती है। अब इनमें से एक ही घोड़ा बचा है। इस रथ के पहिए, जो कोणार्क की पहचान बन गए हैं, बहुत से चित्रों में दिखाई देते हैं। मंदिर के आधार को सुंदरता प्रदान करते ये बारह चक्र साल के बारह महिनों को प्रतिबिंबित करते हैं जबकि प्रत्येक चक्र आठ अरों से मिल कर बना है जो कि दिन के आठ पहरों को दर्शाते हैं।[2][3]

मुख्य मंदिर तीन मंडपों में बना है। इनमें से दो मण्डप ढह चुके हैं।
मुख्य मंदिर तीन मंडपों में बना है। इनमें से दो मण्डप ढह चुके हैं। तीसरे मंडप में जहां मूर्ती थी अंग्रेज़ों ने भारतीय स्वतंत्रता से पूर्व ही रेत व पत्थर भरवा कर सभी द्वारों को स्थायी रूप से बंद करवा दिया था, ताकि वह मंदिर और क्षतिग्रस्त ना हो पाए।[3] इस मंदिर में सूर्य भगवान की तीन प्रतिमाएं हैं:
  • बाल्यावस्था-उदित सूर्य- ८ फीट
  • युवावस्था-मध्याह्न सूर्य- ९.५ फीट
  • प्रौढावस्था-अस्त सूर्य-३.५ फीट[3]
इसके प्रवेश पर दो सिंह हाथियों पर आक्रामक होते हुए रक्षा में तत्पर दिखाये गए हैं। यह सम्भवतः तत्कालीन ब्राह्मण रूपी सिंहों का बौद्ध रूपी हाथियों पर वर्चस्व का प्रतीक है। दोनों हाथी, एक-एक मानव के ऊपर स्थापित हैं। ये प्रतिमाएं एक ही पत्थर की बनीं हैं। ये २८ टन की ८.४फीट लंबी ४.९ फीट चौड़ी तथा ९.२ फीट ऊंची हैं। मंदिर के दक्षिणी भाग में दो सुसज्जित घोड़े बने हैं, जिन्हें उड़ीसा सरकार ने अपने राजचिह्न के रूप में अंगीकार कर लिया है।
ये १० फीट लंबे व ७ फीट चौड़े हैं। मंदिर सूर्य देव की भव्य यात्रा को दिखाता है। इसके के प्रवेश द्वार पर ही नट मंदिर है। ये वह स्थान है, जहां मंदिर की नर्तकियां, सूर्यदेव को अर्पण करने के लिये नृत्य किया करतीं थीं। पूरे मंदिर में जहां तहां फूल-बेल और ज्यामितीय नमूनों की नक्काशी की गई है। इनके साथ ही मानव, देव, गंधर्व, किन्नर आदि की अकृतियां भी एन्द्रिक मुद्राओं में दर्शित हैं। इनकी मुद्राएं कामुक हैं और कामसूत्र से लीं गईं हैं। मंदिर अब अंशिक रूप से खंडहर में परिवर्तित हो चुका है। यहां की शिल्प कलाकृतियों का एक संग्रह, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के सूर्य मंदिर संग्रहालय में सुरक्षित है। महान कवि श्री रविंद्र नाथ टैगोर इस मंदिर के बारे में लिखते हैं:
कोणार्क जहां पत्थरों की भाषा मनुष्य की भाषा से श्रेष्ठतर है।
तेरहवीं सदी का मुख्य सूर्य मंदिर, एक महान रथ रूप में बना है, जिसके बारह जोड़ी सुसज्जित पहिये हैं, एवं सात घोड़ों द्वारा खींचा जाता है।[3] यह मंदिर भारत के उत्कृष्ट स्मारक स्थलों में से एक है। यहां के स्थापत्य अनुपात दोषों से रहित एवं आयाम आश्चर्यचकित करने वाले हैं। यहां की स्थापत्यकला वैभव एवं मानवीय निष्ठा का सौहार्दपूर्ण संगम है। मंदिर की प्रत्येक इंच, अद्वितीय सुंदरता और शोभा की शिल्पाकृतियों से परिपूर्ण है। इसके विषय भी मोहक हैं, जो सहस्रों शिल्प आकृतियां भगवानों, देवताओं, गंधर्वों, मानवों, वाद्यकों, प्रेमी युगलों, दरबार की छवियों, शिकार एवं युद्ध के चित्रों से भरी हैं। इनके बीच बीच में पशु-पक्षियों (लगभग दो हज़ार हाथी, केवल मुख्य मंदिर के आधार की पट्टी पर भ्रमण करते हुए) और पौराणिक जीवों, के अलावा महीन और पेचीदा बेल बूटे तथा ज्यामितीय नमूने अलंकृत हैं। उड़िया शिल्पकला की हीरे जैसी उत्कृष्त गुणवत्ता पूरे परिसर में अलग दिखाई देती है।

कामुक मुद्राओं की शिल्प आकृति
यह मंदिर अपनी कामुक मुद्राओं वाली शिल्पाकृतियों के लिये भी प्रसिद्ध है।[4] इस प्रकार की आकृतियां मुख्यतः द्वारमण्डप के द्वितीय स्तर पर मिलती हैं। इस आकृतियों का विषय स्पष्ट किंतु अत्यंत कोमलता एवं लय में संजो कर दिखाया गया है। जीवन का यही दृष्टिकोण, कोणार्क के अन्य सभी शिल्प निर्माणों में भी दिखाई देता है। हजारों मानव, पशु एवं दिव्य लोग इस जीवन रूपी मेले में कार्यरत हुए दिखाई देते हैं, जिसमें आकर्षक रूप से एक यथार्थवाद का संगम किया हुआ है। यह उड़ीसा की सर्वोत्तम कृति है। इसकी उत्कृष्ट शिल्प-कला, नक्काशी, एवं पशुओं तथा मानव आकृतियों का सटीक प्रदर्शन, इसे अन्य मंदिरों से कहीं बेहतर सिद्ध करता है।
सूर्य मंदिर भारतीय मंदिरों की कलिंग शैली का है, जिसमें कोणीय अट्टालिका (मीनार रूपी) के ऊपर मण्डप की तरह छतरी ढकी होती है। आकृति में, यह मंदिर उड़ीसा के अन्य शिखर मंदिरों से खास भिन्न नहीं लगता है। २२९ फीट ऊंचा मुख्य गर्भगृह १२८ फीट ऊंची नाट्यशाला के साथ ही बना है। इसमें बाहर को निकली हुई अनेक आकृतियां हैं। मुख्य गर्भ में प्रधान देवता का वास था, किंतु वह अब ध्वस्त हो चुका है। नाट्यशाला अभी पूरी बची है। नट मंदिर एवं भोग मण्डप के कुछ ही भाग ध्वस्त हुए हैं। मंदिर का मुख्य प्रांगण ८५७ फीट X ५४० फीट का है। यह मंदिर पूर्व –पश्चिम दिशा में बना है। मंदिर प्राकृतिक हरियाली से घिरा हुआ है। इसमें कैज़ुएरिना एवं अन्य वृक्ष लगे हैं, जो कि रेतीली भूमि पर उग जाते हैं। यहां भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा बनवाया उद्यान है।[1]

कोणार्क का अर्थ

कोणार्क शब्द, 'कोण' और 'अर्क' शब्दों के मेल से बना है। अर्क का अर्थ होता है सूर्य जबकि कोण से अभिप्राय कोने या किनारे से रहा होगा। कोणार्क का सूर्य मंदिर पुरी के उत्तर पूर्वी किनारे पर समुद्र तट के क़रीब निर्मित है।

इतिहास


कोणार्क में पाषाण कला
यह कई इतिहासकारों का मत है, कि कोणार्क मंदिर के निर्माणकर्ता, राजा लांगूल नृसिंहदेव की अकाल मृत्यु के कारण, मंदिर का निर्माण कार्य खटाई में पड़ गया। इसके परिणामस्वरूप, अधूरा ढांचा ध्वस्त हो गया।[5] लेकिन इस मत को एतिहासिक आंकड़ों का समर्थन नहीं मिलता है। पुरी के मदल पंजी के आंकड़ों के अनुसार और कुछ १२७८ ई. के ताम्रपत्रों से पता चला, कि राजा लांगूल नृसिंहदेव ने १२८२ तक शासन किया। कई इतिहासकार, इस मत के भी हैं, कि कोणार्क मंदिर का निर्माण १२५३ से १२६० ई. के बीच हुआ था। अतएव मंदिर के अपूर्ण निर्माण का इसके ध्वस्त होने का कारण होना तर्कसंगत नहीं है।

ध्वस्त होने के कारण

वास्तु दोष
यह मंदिर अपने वास्तु दोषों के कारण मात्र ८०० वर्षों में ही ध्वस्त हो गया। यह इमारत वास्तु-नियमों के विरुद्ध बनी थी। इस कारण ही यह समय से पहले ही ऋगवेदकाल एवं पाषाण कला का अनुपम उदाहरण होते हुए भी समय से पूर्व धराशायी हो गया।[5] इस मंदिर के मुख्य वास्तु दोष हैं:-।[3]
  • मंदिर का निर्माण रथ आकृति होने से पूर्व, दिशा, एवं आग्नेय एवं ईशान कोण खंडित हो गए।
  • पूर्व से देखने पर पता लगता है, कि ईशान एवं आग्नेय कोणों को काटकर यह वायव्य एवं नैऋर्त्य कोणों की ओर बढ़ गया है।
  • प्रधान मंदिर के पूर्वी द्वार के सामने नृत्यशाला है, जिससे पूर्वी द्वार अवरोधित होने के कारण अनुपयोगी सिद्ध होता है।
  • नैऋर्त्य कोण में छायादेवी के मंदिर की नींव प्रधानालय से अपेक्षाकृत नीची है। उससे नैऋर्त्य भाग में मायादेवी का मंदिर और नीचा है।
  • आग्नेय क्षेत्र में विशाल कुआं स्थित है।
  • दक्षिण एवं पूर्व दिशाओं में विशाल द्वार हैं, जिस कारण मंदिर का वैभव एवं ख्याति क्षीण हो गई हैं।
चुम्बकपत्थर
कई कथाओं के अनुसार, सूर्य मंदिर के शिखर पर एक चुम्बक पत्थर लगा है। इसके प्रभाव से, कोणार्क के समुद्र से गुजरने वाले सागरपोत, इस ओर खिंचे चले आते है, जिससे उन्हें भारी क्षति हो जाती है। अन्य कथा अनुसार, इस पत्थर के कारण पोतों के चुम्बकीय दिशा निरुपण यंत्र सही दिशा नहीं बताते। इस कारण अपने पोतों को बचाने हेतु, मुस्लिम नाविक इस पत्थर को निकाल ले गये। यह पत्थर एक केन्द्रीय शिला का कार्य कर रहा था, जिससे मंदिर की दीवारों के सभी पत्थर संतुलन में थे। इसके हटने के कारण, मंदिर की दीवारों का संतुलन खो गया और परिणामतः वे गिर पड़ीं। परन्तु इस घटना का कोई एतिहासिक विवरण नहीं मिलता, ना ही ऐसे किसी चुम्बकीय केन्द्रीय पत्थर के अस्तित्व का कोई ब्यौरा उपलब्ध है।[2][5]
कालापहाड़

सूर्य देव की एक शिल्पाकृति- कोणार्क में सूर्यदेव
कोणार्क मंदिर के गिरने से संबंधी एक अति महत्वपूर्ण सिद्धांत, कालापहाड से जुड़ा है। उड़ीसा के इतिहास के अनुसार कालापहाड़ ने सन १५०८ में यहां आक्रमण किया और कोणार्क मंदिर समेत उड़ीसा के कई हिन्दू मंदिर ध्वस्त कर दिये। पुरी के जगन्नाथ मंदिर के मदन पंजी बताते हैं, कि कैसे कालापहाड़ ने उड़ीसा पर हमला किया। कोणार्क मंदिर सहित उसने अधिकांश हिन्दू मंदिरों की प्रतिमाएं भी ध्वस्त करीं। हालांकि कोणार्क मंदिर की २०-२५ फीट मोटी दीवारों को तोड़ना असम्भव था, उसने किसी प्रकार से दधिनौति (मेहराब की शिला) को हिलाने का प्रयोजन कर लिया, जो कि इस मंदिर के गिरने का कारण बना। दधिनौति के हटने के कारण ही मंदिर धीरे-धीरे गिरने लगा और मंदिर की छत से भारी पत्थर गिरने से, मूकशाला की छत भी ध्वस्त हो गयी। उसने यहां की अधिकांश मूर्तियां और कोणार्क के अन्य कई मंदिर भी ध्वस्त कर दिये।[5]

अर्चना बंद

इसके बाद १५६८ में उड़ीसा मुस्लिम नियंत्रण में आ गया। तब भी हिन्दू मंदिरों को तोड़ने के निरंतर प्रयास होते रहे।[6] इस समय पुरी के जगन्नाथ मंदिर के पंडों ने भगवान जगन्नाथ जी की मूर्ति को श्रीमंदिर से हटाकर किसी गुप्त स्थान पर छुपा दिया। इसी प्रकार, कोणार्क के सूर्य मंदिर के पंडों ने प्रधान देवता की मूर्ति को हटा कर, वर्षों तक रेत में दबा कर छिपाये रखा। बाद में, यह मूर्ति पुरी भेज दी गयी और वहां जगन्नाथ मंदिर के प्रांगण में स्थित, इंद्र के मंदिर में रख दी गयी। अन्य लोगों के अनुसार, यहां की पूजा मूर्तियां अभी भी खोजी जानी बाकी हैं। लेकिन कई लोगों का कहना है, कि सूर्य देव की मूर्ति, जो नई दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखी है, वही कोणार्क की प्रधान पूज्य मूर्ति है।
फिर भी कोणार्क में, सूर्य वंदना मंदिर से मूर्ति के हटने के बाद से बंद हो गयी। इस कारण कोणार्क में तीर्थयात्रियों का आना जाना बंद हो गया। कोणार्क का पत्तन (बंदरगाह) भी डाकुओं के हमले के कारण, बंद हो गया। कोणार्क सूर्य वंदना के समान ही वाणिज्यिक गतिविधियों हेतु भी एक कीर्तिवान नगर था, परन्तु इन गतिविधियों के बन्द हो जाने के कारण, यह एकदम निर्वासित हो चला और वर्षों तक एक गहन जंगल से ढंक गया।
सन १६२६ में, खुर्दा के राजा, नृसिंह देव, सुपुत्र श्री पुरुषोत्तम देव, सूर्यदेव की मूर्ति को दो अन्य सूर्य और चन्द्र की मूर्तियों सहित पुरी ले गये। अब वे पुरी के मंदिर के प्रांगण में मिलती हैं। पुरी के मदल पंजी के इतिहास से ज्ञात होता है, कि सन १०२८ में, राजा नॄसिंहदेव ने कोणार्क के सभी मंदिरों के नाप-जोख का आदेश दिया था। मापन के समय, सूर्य मंदिर अपनी अमलक शिला तक अस्तित्व में था, यानि कि लगभग २०० फीट ऊंचा। कालापहाड़ ने केवल उसका कलश, बल्कि पद्म-ध्वजा, कमल-किरीट और ऊपरी भाग भी ध्वंस किये थे। पहले बताये अनुसार, मुखशाला के सामने, एक बड़ा प्रस्तर खण्ड – नवग्रह पाट, होता था। खुर्दा के तत्कालीन राजा ने वह खण्ड हटवा दिया, साथ ही कोणार्क से कई शिल्प कृत पाषाण भी ले गया। और पुरी के मंदिर के निर्माण में उनका प्रयोग किया था। मराठा काल में, पुरी के मंदिर की चहारदीवारी के निर्माण में कोणार्क के पत्थर प्रयोग किये गये थे। यह भी बताया जाता है, कि नट मंदिर के सभी भाग, सबसे लम्बे काल तक, अपनी मूल अवस्था में रहे हैं। और इन्हें मराठा काल में जान बूझ कर अनुपयोगी भाग समझ कर तोड़ा गया। सन १७७९ में एक मराठा साधू ने कोणार्क के अरुण स्तंभ को हटा कर पुरी के सिंहद्वार के सामने स्थापित करवा दिया। अठ्ठारहवीं शताब्दी के अन्त तक, कोणार्क ने अपना, सारा वैभव खो दिया और एक जंगल में बदल गया। इसके साथ ही मंदिर का क्षेत्र भी जंगल बन गया, जहां जंगली जानवर और डाकुओं के अड्डे थे। यहां स्थानीय लोग भी दिन के प्रकाश तक में जाने से डरते थे।

कथाएं

कोणार्क सूर्य मंदिर – २००६

कोणार्क मंदिर – रात में
एक कथा के अनुसार, गंग वंश के राजा नृसिंह देव प्रथम ने अपने वंश का वर्चस्व सिद्ध करने हेतु, राजसी घोषणा से मंदिर निर्माण का आदेश दिया। बारह सौ वास्तुकारों और कारीगरों की सेना ने अपनी सृजनात्मक प्रतिभा और ऊर्जा से परिपूर्ण कला से बारह वर्षों की अथक मेहनत से इसका निर्माण किया। राजा ने पहले ही अपने राज्य के बारह वर्षों की कर-प्राप्ति के बराबर धन व्यय कर दिया था। लेकिन निर्माण की पूर्णता कहीं दिखायी नहीं दे रही थी। तब राजा ने एक निश्चित तिथि तक कार्य पूर्ण करने का कड़ा आदेश दिया। बिसु महाराणा के पर्यवेक्षण में, इस वास्तुकारों की टीम ने पहले ही अपना पूरा कौशल लगा रखा था। तब बिसु महाराणा का बारह वर्षीय पुत्र, धर्म पाद आगे आया। उसने तब तक के निर्माण का गहन निरीक्षण किया, हालांकि उसे मंदिर निर्माण का व्यवहारिक ज्ञान नहीं था, परन्तु उसने मंदिर स्थापत्य के शास्त्रों का पूर्ण अध्ययन किया हुआ था। उसने मंदिर के अंतिम केन्द्रीय शिला को लगाने की समस्या सुझाव का प्रस्ताव दिया। उसने यह करके सबको आश्चर्य में डाल दिया। लेकिन इसके तुरन्त बाद ही इस विलक्षण प्रतिभावान का शव सागर तट पर मिला। कहते हैं, कि धर्मपाद ने अपनी जाति के हितार्थ अपनी जान तक दे दी।[5]

पौराणिक महत्त्व

यह मंदिर सूर्यदेव (अर्क) को समर्पित था, जिन्हें स्थानीय लोग बिरंचि-नारायण कहते थे। यह जिस क्षेत्र में स्थित था, उसे अर्क-क्षेत्र या पद्म-क्षेत्र कहा जाता था। पुराणानुसार, श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब को उनके श्राप से कोढ़ रोग हो गया था। साम्ब ने मित्रवन में चंद्रभागा नदी के सागर संगम पर कोणार्क में, बारह वर्ष तपस्या की और सूर्य देव को प्रसन्न किया। सूर्यदेव, जो सभी रोगों के नाशक थे, ने इसका रोग भी अन्त किया। उनके सम्मान में, साम्ब ने एक मंदिर निर्माण का निश्चय किया। अपने रोग-नाश के उपरांत, चंद्रभाग नदी में स्नान करते हुए, उसे सूर्यदेव की एक मूर्ति मिली। यह मूर्ति सूर्यदेव के शरीर के ही भाग से, देवशिल्पी श्री विश्वकर्मा ने बनायी थी। साम्ब ने अपने बनवाये मित्रवन में एक मंदिर में, इस मूर्ति की स्थापना की। तब से यह स्थान पवित्र माना जाने लगा।

इन्हें भी देखें

संदर्भ

  1. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; .E0.A4.AE.E0.A5.81.E0.A4.B8.E0.A4.BE.E0.A4.AB.E0.A4.BF.E0.A4.B0 नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  2. राष्ट्री. "सूर्य मंदिर कोणार्क" (हिन्दी में). भारत का राष्ट्रीय पोस्टल.
  3. पं.दयानंद शास्त्री. "वास्तु की नजर में-कोणार्क सूर्य मंदिर" (हिन्दी में). फ्यूचर समाचार.
  4. [[फुरसतिया |फुरसतिया]]. "कोणार्क- जहां पत्थरों की भाषा मनुष्य की भाषा से श्रेष्ठतर है।" (हिन्दी में) (एचटीएम).
  5. "फॉल ऑफ कोणार्क" (ग्रेज़ी में). राष्ट्रीय सूचना केन्द्र.
  6. ग्लूम एण्ड ब्लूम- द केस ऑफ जगन्नाथ टेम्पल (अंग्रेज़ी) orissagov.nic.in

बाहरी कड़ियां

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