प्रस्तुति-- धीरज पांडेय / ज्ञानेश पांडेय
छठपूजा
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अन्य नाम | छठ पर्व |
अनुयायी | हिन्दू |
प्रारम्भ | पौराणिक काल |
तिथि | कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी |
उत्सव | सांध्य सूर्यपूजा के एक दिन पहले, श्रद्धालु शुद्धिकरण के लिए विशेषरूप से गंगा में डुबकी लगाते हैं तथा गंगा का पवित्र जल अर्पण हेतु घर साथ लाते हैं। पूरे दिन में उपवास रखा जाता है तथा श्रद्धालु देर शाम तक पूजा के बाद ही उपवास तोड़ते हैं। |
अन्य जानकारी | सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से पूर्वी भारत के बिहार, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है। |
मान्यताएँ
- इस संबंध में मान्यता है कि मगध सम्राट जरासंध के एक पूर्वज का कुष्ठ रोग दूर करने के लिए शाकलद्वीपीय मग ब्राह्मणों ने सूर्योंपासना की थी। तभी से यहाँ छठ पर सूर्योपासना का प्रचलन प्रारम्भ हुआ।
- छठ के साथ आनर्त प्रदेश के सूर्यवंशी राजा शर्याति और भार्गव ऋषि च्यवन का भी ऐतिहासिक कथानक जुड़ा है। कहते हैं कि राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या ने कार्तिक की षष्ठी को सूर्य की उपासना की तो च्यवन ऋषि के आँखों की ज्योति वापस आ गई।
- 'ब्रह्मवैवर्तपुराण' में छठ को स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत के इतिहास से जोड़ते हुए बताया गया है कि षष्ठी देवी की कृपा से प्रियव्रत का मृत शिशु जीवित हो गया। तभी से प्रकृति का छठा अंश मानी जाने वाली षष्ठी देवी बालकों के रक्षिका और संतान देने वाली देवी के रूप में पूजी जाने लगी।
- छठ के साथ स्कन्द पूजा की भी परम्परा जुड़ी है। भगवान शिव के तेज से उत्पन्न बालक स्कन्द की छह कृतिकाओं ने स्तनपान करा रक्षा की थी। इसी कारण स्कन्द के छह मुख हैं और उन्हें कार्तिकेय नाम से पुकारा जाने लगा।
- कार्तिक से सम्बन्ध होने के कारण षष्ठी देवी को स्कन्द की पत्नी 'देवसेना' नाम से भी पूजा जाने लगा।
- पुराण व उपनिषद में
- श्वेताश्वतरोपनिषद में परमात्मा की माया को 'प्रकृति' और माया के स्वामी को 'मायी कहा गया है। यह प्रकृति ब्रह्मस्वरुपा, मायामयी और सनातनी है।
- ब्रह्मवैवर्तपुराण प्रकृतिखण्ड के अनुसार परमात्मा ने सृष्टि के लिए योग का अवलम्बन कर अपने को दो भागों में बांटा। दक्षिण भाग से पुरुष व वाम भाग से प्रकृति का जन्म हुआ। 'प्रकृत' शब्द की व्याख्या कई प्रकार से की गयी।' प्र का अर्थ है प्रकृष्ट व 'कृति' का अर्थ है सृष्टि। यानी प्रकृष्ट सृष्टि। दूसरी व्याख्या के अनुसार 'प्र' का सत्वगुण, 'कृ' का रजोगुण और 'ति' का तमोगुण के रूप में अर्थ लिया गया है। इन्हीं तीनों गुणों की साम्यावस्था ही प्रकृति है।
- पुराण के अनुसार सृष्टि की अधिष्ठात्री प्रकृति देवी स्वयं को पांच भागों में विभक्त करती हैं- दुर्गा, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती और सावित्री। ये पांच देवियाँ पूर्णतम प्रकृति कहलाती हैं। इन्हीं प्रकृति देवी के अंश, कला, कलांश और कलांशाश भेद से अनेक रूप हैं, जो विश्व की समस्त स्त्रियों में दिखायी देते हैं।
- मार्कण्डेयपुराण में लिखा है, स्त्रिय: समस्ता: सकल्ला जगत्सु'। प्रकृतिदेवी के एक प्रधान अंश को 'देवसेना' कहते हैं, जो सबसे श्रेष्ठ 'मातृका' मानी जाती हैं। ये समस्त लोकों के बालकों की रक्षिका देवी हैं। प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इन देवी का एक नाम 'षष्ठी' भी है। षष्ठी देवी बालकों की रक्षिका एवं आयुप्रदा हैं।
कथा
- षष्ठी देवी के पूजन का विधान पृथ्वी पर कब हुआ, इस संदर्भ में पुराण में यह कथा संदर्भित है-
- कार्तिक मास शुक्लपक्ष की षष्ठी का उल्लेख स्कन्द-षष्ठी के नाम से किया गया है। वर्षकृत्यविधि में प्रतिहार-षष्ठी के नाम से किया प्रसिद्ध सूर्यषष्ठी की चर्चा की गयी है। इस व्रत की प्राचीनता एवं प्रामाणिकता भी परिलक्षित होती है। भगवान सूर्य के इस पावन व्रत में शक्ति व ब्रह्म दोनों की उपासना का फल एक सा प्राप्त होता है।
बिहार में छ्ठ पर्व
दीपावली के एक सप्ताह पश्चात बिहार में छठ का पर्व मनाया जाता है। एक दिन व रात तक समूचा बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश गंगा के तट पर बसा प्रतीत होता है। इस दिन सूर्यदेव की उपासना व उन्हें अर्ध्य दिया जाता है। भारत के बिहार प्रदेश का सर्वाधिक प्रचलित एवं पावन पर्व है - सूर्यषष्ठी। यह पर्व मुख्यतः भगवान सूर्य का व्रत है। इस व्रत में सर्वतोभावेन सूर्य की पूजा की जाती है। वैसे तो सूर्य के साथ सप्तमी तिथि की संगति है, किन्तु बिहार के इस व्रत में सूर्य के साथ 'षष्ठी' तिथि का समन्वय विशेष महत्व का है।- षष्ठी देवी
- प्रमुख त्योहार
छठ महोत्सव और धार्मिक कर्मकाण्ड
इस त्यौहार पर न तो किसी मन्दिर में पूजा हेतु जाया जाता है, और न ही घर की कोई विशेष सफ़ाई की जाती है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह पर्व बहुत ही आसानी से या बिना किसी कर्मकाण्ड के मना लिया जाता है। लेकिन ऐसा नहीं है।व्रत विधान
- छठपूजा में कार्तिक शुक्ल चतुर्थी के दिन नियम-स्नानादि से निवृत्त होकर पवित्रापूर्वक रसोई बनाकर भोजन किया जाता है।
- पंचमी को दिन भर उपवास करके सायंकाल किसी तालाब या नदी में स्नान करके भगवान भास्कर को अर्ध्य देने के बाद अलोना भोजन किया जाता है।
- षष्ठी के दिन प्रात: काल स्नानादि के बाद से संकल्प करें-
ऊं अद्य अमुकगोत्रोअमुकनामाहं मम सर्व
पापनक्षयपूर्वकशरीरारोग्यार्थ श्री
सूर्यनारायणदेवप्रसन्नार्थ श्री सूर्यषष्ठीव्रत करिष्ये।
पापनक्षयपूर्वकशरीरारोग्यार्थ श्री
सूर्यनारायणदेवप्रसन्नार्थ श्री सूर्यषष्ठीव्रत करिष्ये।
- संकल्प करने के बाद दिन भर निराहार व्रत करके सायंकाल किसी नदी या तालाब पर जाकर स्नान कर भगवान भास्कर को अर्ध्य प्रदान करें।
अर्ध्य विधान
एक बांस के सूप में केला और विभिन्न प्रकार के फल, अलोना प्रसाद, ईख आदि रखकर सूप को एक पीले वस्त्र से ढक दें और धूप-दीप जलाकर सूप में रखने के बाद दोनों हाथों में लेकर-
ऊं एहि सूर्य सहस्त्रांशों तेजोराशे जगत्पते।
अनुकम्पया मां भवत्या गृहाणार्ध्य नमोअस्तुते॥
अनुकम्पया मां भवत्या गृहाणार्ध्य नमोअस्तुते॥
- इन मंत्र से तीन बार अस्ताचलगामी सूर्य को अर्ध्य प्रदान करें। रात्रि जागरण के बाद प्रात: काल उदीयमान सूर्य को इसी प्रकार अर्ध्य देकर पारण करें।
स्नान एवं उपवास
सांध्य सूर्यपूजा के एक दिन पहले, श्रद्धालु शुद्धिकरण के लिए विशेषरूप से गंगा में डुबकी लगाते हैं तथा गंगा का पवित्र जल अर्पण हेतु घर साथ लाते हैं। पूरे दिन में उपवास रखा जाता है तथा श्रद्धालु देर शाम तक पूजा के बाद ही उपवास तोड़ते हैं।प्रसाद एवं अर्पण की वस्तुएँ
चावल का हलुआ, पूड़ी तथा केला—ये ही इस दिन की विशेष भोजन सामग्री हैं। अर्पण के पश्चात इन्हीं भोज्य पदार्थों को मित्रों एवं सम्बन्धियों में बाँटा जाता है। लोग बड़ी ही श्रद्धा से इसे खाते हैं।शुभ दिन-संझा वाट
दूसरे दिन चौबीस घंटे का उपवास प्रारम्भ होता है। दिनभर प्रसाद बनाने की तैयारी होती है तथा संध्या को भक्तगण छठ मैया का गीत गाते हुए नदी तट, जलकुण्ड या तालाब पर पहुँच जाते हैं। वहाँ पर अस्त होते हुए सूर्य को उपर्युक्त प्रसाद का अर्पण किया जाता है। रात्रि के समय श्रद्धालु घर लौटते हैं, जहाँ पर एक अन्य महोत्सव प्रतीक्षारत होता है। गन्ने की टहनियों से बने एक छत्र के नीचे दीपयुक्त मिट्टी के हाथी व प्रसाद से भरे बर्तन रखे जाते हैं। श्रद्धालु उपवास के समय जल भी ग्रहण नहीं करते हैं। सूर्योदय से ठीक पहला, भक्तगण नदी तट की ओर पुनः छठ मैया के गीत गाते हुए प्रस्थान करते हैं तथा उदयमान सूर्य की उपासना अर्चना करते हैं। प्रार्थना के पश्चात प्रत्येक व्यक्ति को प्रसाद प्रदान किया जाता है। इस प्रसाद में विशेष रूप से पत्थर की सिल पर पीसे हुए आटे का प्रयोग होता है। इस आटे को देर तक तला जाता है तथा इसमें मीठा डालकर इसकी गोलकार गठ्ठियाँ बनायी जाती हैं, जिसे "ठेकुआ" कहते हैं। इसके अलावा इस विशेष प्रसाद में अंगूर, पूरा नारियल, केले व मसूर की दाल के दाने भी होते हैं। पूजा के समय ये सभी वस्तुएँ बाँस की अर्धगोलाकार टोकरियों में रखी जाती हैं। इन टोकरियों का "सूप" कहते हैं।रंग-बिरंगा उत्सव
छठपर्व अत्यन्त रंग–बिरंगा उत्सव है, जिसमें श्रद्धालुओं को नये वस्त्र धारण करना आवश्यक होता है। घर व नदी के तट पर संगीत के सुर भक्ति व लोकभाषा से महक उठते हैं। पटना में लाखों लोग गंगा के तट पर मीलों लम्बी कतारों में बैठे रहते हैं। पर्व से उत्पन्न यह आपसी मेल–जोल अनूठा ही प्रतीत होता है।नियम एवं व्रत पालन
दीपावली का आनन्द जैसे ही शान्त होता दिखाई पड़ता है, छठ की छटा खिल उठती है। प्रौढ़ विवाहित स्त्रियाँ ही सभी तैयारियाँ करती हैं। एक ओर आयु में कम स्त्रियाँ व बच्चे घर के अन्य कार्यों का सम्भालते हैं, दूसरी ओर प्रौढ़ स्त्रियाँ उन वस्तुओं की भली–भाँति सफ़ाई-धुलाई करती हैं, जिनका प्रयोग पूजा, प्रसाद में होता है। सभी वस्तुओं की चाहे वह रसोई का चूल्हा हो, करछुल हो, पकाने में प्रयोग आने वाली पकड़ हो या भूनने का पात्र-सबकी पूरी तरह से सफ़ाई की जाती है। नये पीसे हुए चावलों की लेई बनाई जाती है। सूखी मेवा व नारियल के टुकड़ों को स्वाद बढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाता है। इनको आटे में मिला कर लड्डू बनाए जाते हैं। पारम्परिक व्यंजन 'ठेकुआ' गेहूँ के मड़े हुए आटे को विभिन्न आकारों में काटकर बनाया जाता है। इसके लिए काष्ठ के साँचों का भी प्रयोग किया जाता है। तत्पश्चात्त इसे गाढ़े भूरे रंग का होने तक तला जाता है। तलने के बाद यह अत्यन्त कुरकुरा हो जाता है तथा बड़े ही स्वाद से खाया जाता है। पश्चिम के देशों में लोकप्रिय व्यंजन "कुकी" की भाँति ही इसमें घर का बना मक्खन, बहुत सा गुड़ तथा नारियल डाला जाता है।इस प्रसाद को बनाने के लिए गृहस्थ प्रौढ़ महिला कुछ नियमों का पालन करती है। जैसे- वह पका हुआ खाना नहीं खाती तथा सिले हुए वस्त्र नहीं पहनतीं। रसोई में जाने से पहले प्रत्येक व्यक्ति का स्नान करना आवश्यक होता है।
सांध्य पूजन का महामेला
समवेत स्वर में लोकप्रिय भक्ति संगीत गाते हुए लोगों के छोटे–छोटे समूह प्रत्येक घर से निकलते हैं और नदी तट तक पहुँचते–पहुँचते ये जुलूस एक विशाल जनसमूह का रूप ले लेते हैं। जुलूस में सम्मिलित पुरुष अपने वक्ष को नग्न रखते हैं तथा प्रसाद को बाँस की छोटी–छोटी टोकरियों में लेकर चलते हैं। इन टोकरियों को जाने–अनजाने जूठा होने से बचाने के लिए ऊँचाई पर रखा जाता है। इन टोकरियों में लड्डू, ठेकुआ तथा मौसमी फल होते हैं। नारियल, केले के गुच्छे, एक-दो सन्तरे इत्यादि को हल्दी में रंगे कपड़े से ढंका जाता है। इन पदार्थों के अतिरिक्त एक मिट्टी का दीपक भी इन टोकरियों में रखा जाता है।जैसे ही सूर्यास्त होता है, प्रार्थना-पूजा आरम्भ हो जाती है। नदी तट पर किसी का फिसलना या कोई भूल करना एक दैविक संकट का प्रतीक माना जाता है। नवशीत में पश्चिम के ओजस्वी आकाश ललाट पर श्रद्धा–भक्ति–प्रेम का वांग्मय दृश्य प्रकाशित हो उठता है- सहस्रों उठे हस्त धारण करते हैं, बाँस की थालियाँ व टोकरियाँ। मध्यम लौ में प्रकाशित ढके हुए दीपक मंत्रोच्चारित वातावरण को देदीप्यमान कर देते हैं। पल बीतता है, मुखाकृतियाँ धूमिल हो उठती हैं और अंधेरा होते ही जनसमूह नदी तट से वापस घर लौटना प्रारम्भ करता है।
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