प्रस्तुति -कृष्ण मेहता:
"सबसे पहली बात तो यह समझ लेना जरूरी है कि न तो सम्मान तथ्य है और न असम्मान। न तो प्रशंसा तथ्य है और न निंदा। प्रशंसा तब हमें अनुभव होती है, जब हमारे अहंकार को कोई फुसलाए, सहलाए। और निंदा हमें तब मालूम होती है, जब हमारे अहंकार को कोई गिराए, चोट पहुंचाए।
सम्मान और अपमान, दोनों ही अहंकार के अनुभव हैं। और अहंकार एक असत्य है। अहंकार जीवन में सबसे बड़ा झूठ है। जो हम हैं, उसका हमें कोई भी पता नहीं है। जो हम हैं और जिसका हमें पता नहीं, उसी को हम आत्मा कहेंगे। और जो हम नहीं हैं और मानते हैं कि हम हैं, उसी का नाम अहंकार है। अहंकार एक काल्पनिक इकाई है। इसके बिना हम जी नहीं सकते, क्योंकि वास्तविक इकाई हमारे पास नहीं है। यह परिपूरक इकाई है। हमारा असली मालिक तो हमें पता नहीं, इसलिए हमने एक झूठा मालिक निर्मित कर लिया है। हमारे असली केंद्र का तो हमें कोई अनुभव नहीं है। लेकिन बिना केंद्र के जीना बहुत मुश्किल है, असंभव है। इसलिए हमने एक झूठा केंद्र निर्मित कर लिया है। और उसी के पास हम अपने को चलाए रखते हैं, जिलाए रखते हैं।
इस झूठे केंद्र का नाम अहंकार है। इस झूठे केंद्र को जिन बातों से आनंद मिलता है, उन बातों को हम प्रशंसा कहेंगे; और जिन बातों से दुख मिलता है, उन्हें हम निंदा कहेंगे। क्योंकि अहंकार स्वयं ही एक असत्य है, उससे होने वाले सभी अनुभव असत्य हैं।
जब कोई प्रशंसा करता है, तब हमें लगता है सुख मिल रहा है; और जब कोई निंदा करता है, तो लगता है कि दुख मिल रहा है। और ऐसा लगता है कि कोई दूसरा सुख दे रहा है, या कोई दूसरा दुख दे रहा है। लेकिन सुख और दुख का मूल कारण हमारे भीतर है--वह हमारा अहंकार है। जिस व्यक्ति का कोई अहंकार नहीं है, उसे न तो कोई सुख दे सकता है और न कोई दुख। और जिसे कोई भी सुख-दुख नहीं दे सकता, वही व्यक्ति आनंद में स्थापित हो जाता है।
हमें तो कोई भी सुख दे सकता है और कोई भी दुख। हम तो दूसरों के हाथों में कैद हैं। हम तो दूसरों के हाथों में बंधे हैं। हमारी लगाम सब दूसरों के हाथों में है। जरा सा इशारा, और दुख पैदा हो जाता है। और जरा सा इशारा, हम सुखी हो जाते हैं। जरा सी बात, और आंखें आंसुओं से भर जाती हैं। और जरा सी बात की बदलाहट, कि चेहरे पर मुस्कान फैल जाती है। हमारे आंसू, हमारी मुस्कान, बाहर से कोई संचालित करता है।
यह जो बाहर से संचालन हो रहा है, इसका भी गहरा कारण हमारे भीतर है। वह हमारा अहंकार है। अहंकार के कारण ही हम दूसरों से प्रभावित होते हैं। चाहे मित्र, चाहे शत्रु, चाहे प्रशंसा करने वाले और चाहे निंदा करने वाले, दूसरा हमें प्रभावित कर लेता है, क्योंकि हमारे पास अपनी कोई वास्तविक आत्मा नहीं है, एक झूठा केंद्र है, एक सूडो सेंटर है, एक मिथ्या केंद्र है। उस मिथ्या केंद्र की बनावट ही ऐसी है कि वह दूसरे के कब्जे में रहेगा।'
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सच्चे केंद्र को जान लिया जाय तो मिथ्या केंद्र विलीन हो सकता है। जबरदस्ती इसे हटाया मिटाया नहीं जा सकता।यह समझ में आ जाय तो ठीक है। ऐसी शक्ति होती नहीं इसलिए और उपाय करने पड़ते हैं।
हमारे भीतर सतह पर मिथ्या केंद्र है और गहरे में सच्चा केंद्र है। वही हमारा सच्चा परिचय है।
माना मिथ्या केंद्र मिथ्या है मगर अभी वह हमारे लिए साधना की दृष्टि से सहायक हो सकता है।
मन भी कह सकते हैं।
मन ही केंद्र है,मन ही परिधि है।
अपना निरीक्षण करें तो पायेंगे हमारी गति सतत केंद्र से परिधि की ओर होती रहती है। परनिर्भरता, पराधीनता इसी से संबद्ध है।
चित्त का अनुभव भी यही है।
चित्त का निरीक्षण करें तो पायेगे हमारा चित्त परिधि के पास रहता है, दृश्य के पास तथा केंद्र से दूर रहता है-द्रष्टा से दूर।
ऐसा राग-द्वेष के कारण होता है। राग-द्वेष की वजह से हम परिधि के पास, दृश्य के पास रहते हैं।
अब इसे उलटाना है।चित्त केंद्र के पास रहे, द्रष्टा के पास रहे।
हम ही हैं।हम सुखदायक के पास रहते हैं,सुखी से दूर।अब हमें सुखी के पास रहना है, सुखदायक के पास नहीं।
इसी तरह हम दुखदायक के पास रहते हैं।इसकी जगह हमें दुखी स्वयं के पास रहना है।
कोई भी दुखी स्वयं के पास या साथ नहीं रहना चाहता,सब दूर भागते हैं। इससे मिथ्या केंद्र मिटता नहीं।जब तक मिथ्या केंद्र न मिटेगा, सच्चा केंद्र प्रकट न होगा कोई सुखचैन से नहीं बैठ सकता।
इसके लिए स्वसमीप रहना होगा।आरंभ में ऐसा लगेगा ऐसा करने से हम मिथ्या केंद्र के पास रहेंगे,
तो रहें।
दूसरे के अहंकार के पास रहने से ज्यादा अच्छा है अपने अहंकार के पास रहना।
हम दूसरे के अहंकार के पास ही रहते हैं।वह बुरा, अप्रिय लगता है।हम उसे हटाना,मिटाना चाहते हैं।हम उस पर निर्भर हैं।
अच्छा हो अगर हम उस पर निर्भर रहने के बजाय आत्मनिर्भरता के लिए अपने अहंकार पर निर्भर रहें।
स्वाभिमान इस कक्षा में आ सकता है फिर भी वह आध्यात्मिक चर्चा नहीं है।
अपने अहंकार के पास रहने से यह बडा लाभ यह है कि दूसरे का अहंकार हमारा विषय नहीं होता,न हम उस पर निर्भर रहते हैं,न उसके अधीन रहते हैं।
दूसरे के अहंकार के अधीन रहना बड़ा दुखदाई है। इसलिए तो हम दूसरे से अनुकूलता चाहते हैं, प्रतिकूलता स्वीकार नहीं होती।
इसलिए अपने भीतर मिथ्या केंद्र से सच्चे केंद्र की ओर आने के लिए पहले हमें अपने मिथ्या केंद्र के समीप रहने का अभ्यास करना होगा।
शुरू शुरू में ऐसा करना कठिन है क्योंकि मिथ्या केंद्र के रुप में हम अभ्यस्त हैं पराधीन, परनिर्भर रहने के लिए।इस आदत को मिटानी होगी। अपने पास रहना सीखना होगा।जैसे जैसे इसकी गहराई बढ़ती है मिथ्या केंद्र विलीन होने लगता है, सच्चा केंद्र अनुभव में आने लगता है। आत्मनिर्भरता बढ़ने लगती है,सुखदुख,मान अपमान का द्वंद्व समाप्त होने लगता है।
द्वंद्व की पीडा शुभ है अगर यह हमें अपने पास ले आये, नहीं तो ऐसे लोग ज्यादा मिलेंगे जो द्वंद्व की पीडा से संघर्ष करते रहेंगे और द्वंद्व को छोडेंगे भी नहीं, उसीमें बने रहेंगे।
सुखदुख, लाभ-हानि,मानापमान पर निर्भर रहने का इतना अभ्यास हो गया है कि आत्मनिर्भर रहना ही भूल गये हैं।दुख,हानि, अपमान में कातर होकर सहारा खोजते हैं। कोई संकट आ जाय तो पैर तले की जमीन खिसक जाती है। आदमी घबरा जाता है।
व्यक्ति, घटना,परिस्थिति पर निर्भर रहे तो यही होता है।
हम स्वयं पर निर्भर हो सकें, आत्मविश्वास से युक्त रह सकें तो अपने बलबूते से समाधान खोज सकते हैं।
भीतर सच्चे आधारभूत केंद्र की अनुभूति सबसे बडे सहारे की तरह होती है।वह खुद अपना सहारा होती है।
अपना अहंकार उसका उपाय है।
सामीप्य साधन है।
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