Thursday, August 10, 2023

अकेलापन और संबंधों का विज्ञान

 "

यदि संबंध को सही रुप में समझ पाएं-बिना किसी छवि के तो समस्या सुलझ जाती है।"/ कृष्ण मेहता 

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सारी समस्या संबंध की समस्या है,अकेले की क्या समस्या है!

संबंध दो तरह से है-

अस्तित्व से तथा मन से।

अस्तित्व गत संबंध में अनुभव है।

मैं हूं-आप हैं-सब हैं।

सभी के अस्तित्व का अनुभव हो रहा है और अपने आप हो रहा है।

यह ईश्वर है।

दूसरा संबंध माया का है,मन का है। इसमें विचार है, कल्पना है, कामना है।

'कुछ' चाहिए या 'कुछ' नहीं चाहिए। वही राग द्वेष।

इसमें दूसरे व्यक्ति का मन में चित्र बनता है अपने अनुकूल या प्रतिकूल।

अनुकूल है तो राग से उसका चिंतन चलता है,प्रतिकूल है तो द्वेष से चिंतन चलता है।

हमारे मन में उसकी छबि बनी हुई है(इमेज अच्छे बुरे होने की)।

इसी तरह अपने लिए भी छबि बनी होती है सदा अच्छे,सही, उचित होने की।

कभी कोई अपने को बुरा भी मान लेता है।स्वयं उसकी अपने लिए अच्छी छबि नहीं होती।वह स्वयं को निकृष्ट मान लेता है।

'आप तो महान हैं,मैं तुच्छ हूं।'

'आप बड़े हैं,मैं तो छोटा आदमी हूं।'

स्वयं को अच्छा मानना दूसरे को बुरा या दूसरे को अच्छा मानना स्वयं को बुरा-इस तरह की मान्यता से संबंधों में समस्या उत्पन्न होती है।

कोई ऐसा भी सोच सकता है सब अच्छे हैं,सबकी आत्मा शुद्ध है, सबमें भगवान है या सब भगवान है।

यह भी एक मान्यता हो सकती है। यद्यपि यह ठीक है इससे आंतरिक विवाद, मानसिक संघर्ष मिटाने में मदद मिलती है अगर आदमी दृढ रहे।

ज्यादा अच्छा या उचित है विचाराधीन हर व्यक्ति को जीवंत अनुभव करना।वह जड वस्तु नहीं है। यद्यपि वस्तु को भी जीवंत अनुभव किया जा सकता है।

लोग गुस्सा आने पर टीवी फोड देते हैं, मोबाइल तोड देते हैं।

यदि वस्तु को जीवंत अनुभव किया जाय जैसे रसोई के बर्तन तो उनकी उम्र बढ जाती है।आवेश में आकर उन्हें फेंकने से वे जल्दी टूट जाते हैं।

स्वयं अपने शरीर के साथ ऐसा है।

दुख होने पर भोजन बंद किया जा सकता है।शरीर को भोजन की जरूरत होती है।दुखी आदमी अपने दुख को अधिक महत्व देकर शरीर की आवश्यकता पूर्ति को अनावश्यक मान लेता है जबकि वह अनावश्यक नहीं है, यथायोग्य है।

स्वयं को सर्वोच्च महत्व देने के पीछे अहम्मन्यता कारण है-

"मैं कुछ हूं।"

इसके कारण दूसरे को लेकर मान्यता बनती है कि

"दूसरा कुछ है।"

या

"दूसरा कुछ नहीं है।"

अच्छा या बुरा है,सही या गलत है।

यह विवाद खूब चलता है और आदमी मन-बुद्धि में बना रहता है, अस्तित्व को अनुभव ही नहीं कर पाता।

चित्त उच्चाटित होकर मन-बुद्धि में बना रहता है।यह स्थिति विध्वंसात्मक है।

चित्त की दूसरी स्थिति रचनात्मक है, सकारात्मक है।

हर आदमी स्वयं को ही अनुभव कर रहा है मगर अंत:करण के विभाजित होने से लगता है वह 'दूसरे' को भी अनुभव कर रहा है।

वहां फिर अच्छा बुरा,सही गलत, अनुकूल प्रतिकूल का विचार आता है।

ऐसे में या तो यह जान लिया जाय कि हर हाल में मैं ही अनुभव हो रहा हूं,मेरे अलावा दूसरा कुछ भी अनुभव नहीं हो सक रहा है,

न हो सकता है

या जिसका अनुभव हो रहा है उसे अच्छा बुरा,सही गलत, अनुकूल प्रतिकूल मानना बंद करे,उसकी कोई छबि न बनाये।सीधा अनुभव करे उसे।

आप जब किसी को प्रिय, अप्रिय मानते हैं तब उसे सीधा अनुभव नहीं करते।सीधा अनुभव तभी कर सकते हैं जब बीच से प्रिय, अप्रिय का लेबल हटायें।

आपको आश्चर्य होगा फिर हर आदमी की उपस्थिति -

जीवंत उपस्थिति का अनुभव आपको रुपांतरित करने लगा है।

करेगा ही यह अस्तित्व है।यह क्या नहीं कर सकता!

यह सत चित है, यही आनंद है।

आनंद में बाधा इसीलिए है क्योंकि सीधा अनुभव नहीं है,बीच में मन की छबियां बनी हुई हैं -

यह ऐसा है,वैसा है।

तात्पर्य है बिना छबि(इमेज)बनाये सीधा अनुभव किया जा सके हर आदमी को तो वह आनंद देने लगेगा।

कोई कोई होते हैं जो सबसे मिलकर आनंदित होते हैं।इसकी अभिव्यक्ति प्रेम के रूप में होती है।एक तरह से यह वह आशीष है जो हर एक पर बरस ही रही है।

इसके लिए कहा जाता है-

'अनुग्रह सदैव है'

परंतु आदमी खुद अपने को इससे वंचित करता है।

वह मायाधीन है।ईश्वर की उपेक्षा कर रहा है।

ईश्वर है अस्तित्व।

माया है भेद,छबि,मान्यता, राग-द्वेष,क्रोधक्षोभ, भयचिंता शंका आदि।

मायाधीन व्यक्ति सत्य को नहीं देख पाता।जो अस्तित्व को अर्थात ईश्वर को सीधा अनुभव करने में समर्थ है वह असत्य से-माने हुए असत्य से मुक्त हो जाता है।

इसलिए बेहतर होगा हम अपने अस्तित्व को गहराई से अनुभव करें ताकि हम हृदय में स्थित हो सकें।तब मालूम पड जाता है कि हर आदमी हृदय में गहरे में अनुभव हो रहा है फिर मैं किससे राग कर रहा हूं या द्वेष कर रहा हूं,किस पर क्रोध कर रहा हूं या क्षुब्ध हूं, किससे भयभीत,चिंतित, आशंकित हूं?

यह जो सर्वत्र अस्तित्व अनुभव हो रहा है यही तो है  ईश्वर तत्त्व।

इसे सीधा अनुभव न कर सकें तो स्वयं के अनुभव से शुरू करें।

'मैं कौन हूं?अपनी गहराई में उतरें और गहरे स्वानुभव की तरह जीएं।किसी की कोई छबि(इमेज)न बनाएं,न अपनी।तब पता चलेगा मेरा अस्तित्व बोध मेरा व्यक्तिगत नहीं है,यह तो सर्वव्यापी है,हर एक के अनुभव में आ रहा है बिना किसी प्रयास के।

फिर चाहे अपना अनुभव करें,चाहे किसी और का-कोई फर्क मालूम न होगा।अनुभव गहराई में ले आयेगा।

सागर की गहराई में असीम शांति है।सतह पर शोर है, लहरों का संघर्ष है।वह सब मन-बुद्धि का खेल है, वही माया है।

लहरों का संघर्ष संबंधों की समस्या है। जबकि हर लहर संबंधित लहर को सीधा अनुभव करे बिना उसका अच्छा,बुरा चित्र कल्पित किये तो संबंध एक समस्या की तरह नहीं रहता। संघर्ष का विराम हो जाता है।

सभी के लिए नहीं होता मगर जो समझे उसके लिए तो हो ही जाता है।वह किसीके बारे में कुछ भी नहीं सोचता,वह केवल अनुभव करता है उसे जो भी सामने आया स्वयं समेत।यह कठिन है लेकिन जरुरी भी।जैसे किसीके लिए शरीर हेतु भोजन जुटा पाना कठिन हो लेकिन अनिवार्य भी है वर्ना मर जायेगा।

गीता के शब्दों में -

'जो पुरुष संपूर्ण भूतों में सबके आत्मरुप मुझको ही व्यापक देखता है और संपूर्ण भूतों को मेरे अंतर्गत देखता है उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।'

'यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।'

यहां देखना, अनुभव करने के अर्थ में है,केवल देखना ही नहीं है।केवल देखने में तो राग-द्वेष मिले हुए हैं जो साधक की आध्यात्मिक प्रगति को अवरूद्ध कर देते हैं।

अतः इसे अभ्यास बना लेना चाहिए कि जिसे भी देखेंगे उसका जीवंत अनुभव करेंगे,उसके बारे में सोचेंगे कुछ भी नहीं।

और बातों का क्या होगा?तो पहले इस अनुभव की गहराई में आ जायें, पहले इस मुख्य समस्या को सुलझा लें बाद में और बातों को भी देख लिया जायेगा।

'Solve that great problem and you will solve all other problems.'

किसी के मानसिक चित्रों में राग-द्वेष पूर्वक उलझे रहने से ज्यादा सक्षम है मनरहित अस्तित्व अनुभव में अच्छी तरह से स्थित होना।गीता ने उसीको स्थितप्रज्ञ कहा है।वह रागभयक्रोधरहित स्वस्थ है पूर्णतया।

ऐसे महापुरुष इस धरती के लिए वरदान जैसे होते हैं। दुनिया उन्हीं से सीखती है सही तरह से जीने का ढंग।

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