*राधास्वामी!
10-05-22-आज सुबह सतसंग में पढ़ा जाने वाला दूसरा शब्द पाठ:-
संत बचन हिरदे में धरना ।
उनसे मुख मोड़न नहिं करना॥१।।
जो तू घट में चालनहार।
चलने वाला सँग ले यार॥१९॥
हिन्दू चाहे मुसलमाँ होवे ।
अरबी होय तुरक चाहे होवे॥२०॥
रूप रंग उसका मत देख ।
सरधा भाव निशाना पेख॥२१॥
जिनके है मालिक का प्यार।
हिन्दू और तुरक दोउ यार॥२२॥
जो हैं माते मन के केल।
दो हिन्दू का होय न मेल॥२३॥
भान रूप मालिक सुन भाई।
नर देही में रहा छिपाई॥२४॥
फूल खिलें गुलनारी जबही।
बाग़ सुहावन लागे तवही॥२५॥
अस गुरु संग करे जो कोई।
पूरे सँग पूरा होय सोई॥२६॥
गुरु पूरे का सेवक बरतर ।
क्या जो हुकम करे राजों पर।।२७।।*
हर दम सुरत चढ़े ऊंचे को।
मालिक ताज ख़ास दिया उसको॥२८॥
गुरु की गति परखो अन्तर में।
वे परखे मत मानो मन में॥२९॥
जो गुरु परख न पावे घट में।
तो मत जाय अकेला बट में ॥ ३०॥
रस्ते में है काल का घेरा।
शब्द सुना दुख देहे घनेरा॥३१॥
अभ्यासी को कहे पुकारी।
शब्द सुनो आओ सरन हमारी।।३२।।
जो कोई काल शब्द में रचिया।
घर नहिं जाय राह में पचिया॥३३॥
धावत जाय काल के घर को।
भिड़ा शेर खा जावें उसको॥३४॥
काल शब्द की यह पहिचान।
मन चाहे धन आदर मान॥३५।।
काल शब्द में चित्त न लाओ।
तब निज घर का भेद खुलाओ॥३६॥
जिस घट परघट सत का नूर।
उसको पूजें देव और हूर।।३७॥
साध का निरखो आँख और माथा।
सत्त का नूर रहे जिस साथा॥३८॥
यह चिन्ह देख करें पहिचान|
गुरु पद का जिन हिरदे ज्ञान।।३९॥
परम पुरुष सम गुरु को जान।
बिन जिभ्या कहें बचन सुजान॥४०॥
वही हकीम और वही उस्ताद।
हिये में सुनत रहो उन नाद॥४१॥
छोड़ कुसंगी से तू प्यार।
सच्चा संगी खोजो यार॥४२।।
जिन कीना सतगुरु का संग।
सत्तपुरुष का पाया रंग।।४३।।
झूठे गुरु का जो संग लाय।
नरक पड़े और अति दुख पाय।।४४॥
गत मत भेद संत का भारी।
वही पावे जिन तन मन वारीं।।४५॥
संत न देखें बोल और चाल।
वें परखेंअंतर का हाल॥४६॥
गुरु का हाथ पुरुष का हाथ।
हाज़िर ग़ायब सब के साथ।।४७॥
उनका हाथ बहु लंबा ऊँचा।
सात मुक़ाम के ऊपर पहुँचा।।४८॥
जो तू सिर को राखा चाह।
दीन होय गुरु सरनी आय।।४९।।
गुरु तुझको सब भाँति बचावें।
काल बिघन सब दूर करावें॥५०।।
झूठे गुरु की ओट न गहना।
सतगुरु चरन सरन सुख लेना।।५१॥
जिन सतगुरु का संग न कीना।
दुख पाया हुआ काल अधीना॥५२॥
जो हुआ सतगुरु की छाँह।
सूरज लागा उसके पायँ।।५३॥
(प्रेमबानी-3-शब्द- अशरार सतगुरु महिमा- पृ.सं.381-386)**
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