लोग पूछते हैं ध्यान साधना पूजा पाठ जप तप सब किया मगर कोई लाभ नही हुआ कोई अध्यात्मिक अनुभव नही घटा।
उनको पहले यह समझना आवश्यक है कि अध्यात्म क्या है?
अध्यातम है सत्य के साथ परम योग inजिसमे योगी या भक्त अपने परमात्मा अपने प्रीतम अपने इष्ट के साथ एक हो जाता है। एक होने का अर्थ यही है कि अब कोई दूसरा ना रहा सब विलीन होगया केवल साधक रहा या केवल ईश्वर रहा। बाकी सब जो व्यर्थ का था विदा हो गया।
अब सोचने वाली बात यह है कि हम साधना करते हैं कुछ पाने के लिए भक्ति करते हैं तो कुछ फल चाहते हैं। भले ही मोक्ष या ईश्वर प्राप्ति की कामना हो मगर कोशिश होती है पाने की। और साधक जब सिद्ध होता है या भक्त जब अपने भगवान से मिलता है तो अद्वेत फलित होता है। अद्वेत् अर्थात दूसरा कोई नही। और जब दूसरा कोई नही तब खुद का होना भी गिर जाता है क्यूँकि खुद को होने के लिए दूसरे का भी होना आवश्यक है। ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं यदि एक गया तो दूसरा भी नहीं बच सकेगा। मगर हम साधना करते हैं कि हम कुछ प्राप्त कर लें। इसका अर्थ हुआ कि मैं तो बचा रहे और तू भी मिल जाए। जो कि असंभव है। क्यूँकि ईश्वर एक है और उसके साथ योग होगा तब या तो ईश्वर योगी हो जायेगा या योगी ईश्वर हो जायेगा। भक्त भगवान हो जायेगा या भगवान भक्त हो जायेगा। और जब मैं गिरेगा तो तू भी बाकी नहीं रहेगा। और जो फलित होगा वह होगा केवल होश मात्र। फिर जब योगी समाधि से वापस आता है तब पता है बहुत आनंद हुआ। मगर आनंद भी कहना गलत हो जायेगा आनंद के लिए दूसरा आवश्यक है। इसीलिए समाधि के बाद योगी या भक्त चुप हो जाता है कोई शब्द नहीं जिससे बताया जा सके कि क्या हुआ।
अब यदि साधना कुछ पाने के लिए ही की जाती रहेगी तो हमेशा दो बने रहेंगे एक साधना का लक्ष्य और दूसरा साधक स्वयं। तो अद्वेत कैसे फलित हो सकेगा? अपने परमात्मा से कैसे मिलन होगा? फिर भले जीवन भर साधना करते रहो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। फर्क तब पड़ेगा जब साधना के मार्ग को पहले ठीक से समझा जाए। साधना मिलन की है योग की है तो मार्ग भी ऐैसा हो जिसमे दो समाप्त हो सकें योगी और ईश्वर एक हो सकें।
यदि हम सब कुछ ईश्वर पर ही छोड़ दें उसके प्रति पूर्ण शरणागत हो जाए। उससे कहें बहुत हुई मेरी मनमानी। मुझे तो यह भी नहीं पता कि मैं कौन हूँ। मुझे जाना कहाँ है। मैं यहाँ क्यूँ हूँ। तो कैसे मार्ग पर एक कदम भी ठीक ठीक रख सकूँगा। नही समझ आता भजन जप कीर्तन। नहीं समझ आता संसार। अब तू ही सहारा है तू सब जनता है। अब तू ही सम्हाल मुझे। तूने दिन रात सम्हाले तूने बसंत और पतझड़ सम्हाले एक मुझे भी तू सम्हाल। पूर्ण शर्णागति का भाव जैसे जैसे प्रगाढ़ होगा वैसे वैसे अह्नकार भी विदा होता जायेगा। चेतना निर्भार होती जायेगी। और जिस दिन अह्नकार शून्य हुआ कि परमात्मा के राज्य में प्रवेश मिला। परमात्मा के राज्य में प्रवेश का द्वार बहुत संकरा है वहाँ अह्नकार के साथ प्रवेश संभव ही नही है। और जो करता भाव गिराकर परमात्मा से कहता है कि अब बहुत हुई मेरी मनमानी कोई लाभ नही हुआ। मै अज्ञानी हूँ तू सब जनता है अब तू ही सम्हाल। तब अहनकर शून्य होकर साधक या भक्त अपने परमात्मा के राज्य में प्रवेश करता है और स्वयं परमात्मा हो जाता है।
जय श्री गुरु महाराज जी की।।। 🙏🙏🙏।।।
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